Thursday, August 28, 2008

वोट और सत्ता के चक्रव्यूह में फँसी हिंदी

हिंदी दिवस के कार्यक्रमों के शुरु होने से पहले डा0 मान्धाता सिंह ने हिंदी को लेकर कुछ गंभीर सवाल उठाए हैं। पेशे से पत्रकार मान्धाता ने सवाल उठाया है कि आंकड़ों में हिंदी कब तक पूरी दुनिया में दूसरे नंबर की सर्वाधिक बोली जानेवाली भाषा बनी रहेगी? क्या रोजी रोटी भी दे सकेगी हिंदी? सरकारी ठेके पर कब तलक चलेगी हिंदी? देश की अनिवार्य संपर्क व शिक्षा की भाषा कब बन पाएगी हिंदी। आ रहा है चौदह सितंबर को हिंदी दिवस मनाने का दिन। आप भी हिंदी के इन ठेकेदारों से यही सवाल पूछिए। हो सकता है कि हम और आप सभी तर्कों से सहमत न हों लेकिन यह सही है कि आज जरूरत है हिंदी को लेकर सही दिशा में एक स्वस्थ परिचर्चा की। आप भी इसमें शरीक होकर अपना मत देंगे। इसी विश्वास के साथ ये आलेख पोस्ट कर रहा हूं।

अभी कुछ दिन पहले बनारस के पास अपने गांव मैं गया था। पता चला कि वहां तमाम कानवेंट स्कूल खुल गए हैं। गांव का सरकारी प्राइमरी स्कूल, जिसमें खांटी हिंदी में पढ़ाई होती, अब वीरान सा दिखता है। लोगों का तर्क है कि आगे जाकर नौकरी तो अंग्रेजी पढ़नेवालों को मिलती है तो फिर हम हिंदी में ही पढ़कर क्या करेंगे। यह चिंताजनक है और देश की शिक्षा व्यवस्था की गंभीर खामी भी है।
जब रोजगार हासिल करने की बुनियादी जरूरतों में परिवर्तन हो रहा है तो बेसिक शिक्षा प्रणाली में भी वही परिवर्तन कब लाए जाएंगे। सही यह है कि वोट के चक्रव्यूह में फंसी भारतीय राजनीति हिंदी को न तो छोड़ पा रही है नही पूरी तरह से आत्मसात ही कर पा रही है। इसी राजनीतिक पैंतरेबाजी के कारण तो हिंदी पूरी तरह से अभी भी पूरे देश की संपर्क भाषा नहीं बन पाई है। अब वैश्वीकरण की आंधी में अंग्रेजी ही शिक्षा व बोलचाल का भाषा बन गई है। हिदी जैसा संकट दूसरी हिंदी भाषाओं के सामने भी मुंह बाए खड़ा है मगर अहिंदी क्षेत्रों में अपनी भाषा के प्रति क्षेत्रीय राजनीति के कारण थोड़ी जागरूकता है। तभी तो पश्चिम बंगाल जैसे राज्य में अंग्रेजी को प्राथमिक शिक्षा में तरजीह दी जाने लगी है। दक्षिण के राज्य तो इसमें सबसे आगे हैं। कुल मिलाकर हिंदी हासिए पर जा रही है।
अब तो हिंदी की और भी शामत आने वाली है। नामवर सिंह जैसे हिंदी के नामचीन साहित्यकार तक स्थानीय बोलियों में शिक्षा की वकालत करने लगे हैं। (देखिए संलग्न JPEG फाइल- रजनी सिसोदिया का २७ जुलाई को जनसत्ता में छपा लेख -- जब माझी नाव डुबोए) अगर सचमुच ऐसा हो जाता है तो सोचिये कि जिन राज्यों में अब तक हिंदी ही प्रमुख भाषा थी वहीं से भी उसे बेदखल होना पड़ेगा। यह हिंदी का उज्ज्वल भविष्य देखने वालों के लिए चिंता का विषय होना चाहिए। अगर यही हाल रहा तो आंकड़ों में हिंदी कब तक पूरी दुनिया में दूलरे नंबर की सर्वाधिक बोली जानेवाली भाषा रह जाएगी। क्या रोजी रोटी भी दे सकेगी हिंदी ? सरकारी ठेके पर कब तलक चलेगी हिंदी ? देश की अनिवार्य संपर्क व शिक्षा की भाषा कब बनपाएगी हिंदी। आ रहा है हिंदी दिवस मनाने का दिन। आप भी हिंदी के इन ठेकेदारों से यही सवाल पूछिए।

विश्व की दस प्रमुख भाषाएं
१- चीनी लोगों की भाषा मंदरीन को बोलने वाले एक बिलियन लोग हैं। मंदरीन बहुत कठिन भाषा है। किसी शब्द का उच्चारण चार तरह से किया जाता है। शुरू में एक से दूसरे उच्चारण में विभेद करना मुश्किल होता है। मगर एक बिलियन लोग आसानी से मंदरीन का उपयोग करते हैं। मंदरीन में हलो को नि हाओ कहा जाता है। यह शब्द आसानी से लिख दिया मगर उच्चारण तो सीखना पड़ेगा।
२-अंग्रेजी बोलने वाले पूरी दुनिया में ५०८ मिलियन हैं और यह विश्व की दूसरे नंबर की भाषा है। दुनिया की सबसे लोकप्रिय भाषा भी अंग्रेजी ही है। मूलतः यह अमेरिका आस्ट्रेलिया, इग्लैंड, जिम्बाब्वे, कैरेबियन, हांगकांग, दक्षिण अफ्रीका और कनाडा में बोली जाती है। हलो अंग्रेजी का ही शब्द है।
३- भारत की राजभाषा हिंदी को बोलने वाले पूरी दुनियां में ४९७ मिलियन हैं। इनमें कई बोलियां भी हैं जो हिंदी ही हैं। ऐसा माना जा रहा है कि बढ़ती आबादी के हिसाब से भारत कभी चीन को पछाड़ सकता है। इस हालत में नंबर एक पर काबिज चीनी भाषा मंदरीन को हिंदी पीछे छोड़ देगी। फिलहाल हिंदी अभी विश्व की तीसरे नंबर की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। हिंदी में हलो को नमस्ते कहते है।
४- स्पेनी भाषा बोलने वालों की तादाद ३९२ मिलियन है। यह दक्षिणी अमेरिकी और मध्य अमेरिकी देशों के अलावा स्पेन और क्यूबा वगैरह में बोली जाती है। अंग्रेजी के तमाम शब्द मसलन टारनाडो, बोनान्जा वगैरह स्पेनी भाषा ले लिए गए हैं। स्पेनी में हलो को होला कहते हैं।
५- रूसी बोलने वाले दुनियाभर में २७७ मिलियन हैं। और यह दुनियां की पांचवें नंबर की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। संयुक्तराष्ट्र की मान्यता प्राप्त छह भाषाओं में से एक है। यह रूस के अलावा बेलारूस, कजाकस्तान वगैरह में बोली जाती है। रूसी में हलो को जेद्रावस्तूवूइते कहा जाता है।
६-दुनिया की पुरानी भाषाओं में से एक अरबी भाषा बोलने वाले २४६ मिलियन लोग हैं। सऊदू अरब, कुवैत, इराक, सीरिया, जार्डन, लेबनान, मिस्र में इसके बोलने वाले हैं। इसके अलावा मुसलमानों के धार्मिक ग्रन्थ कुरान की भाणा होने के कारण दूसरे देशों में भी अरबी बोली और समझी जाती है। १९७४ में संयुक्त राष्ट्र ने भी अरबी को मान्यता प्रदान कर दी। अरबी में हलो को अलसलामवालेकुम कहा जाता है।
७- पूरी दुनिया में २११ मिलियन लोग बांग्ला भाषा बोलते हैं। यह दुनिया की सातवें नंबर की भाषा है। इनमें से १२० मिलियन लोग तो बांग्लादेश में ही रहते है। चारो तरफ से भारत से घिरा हुआ है बांग्लादेश । बांग्ला बोलने वालों की बाकी जमात भारत के पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा व पूर्वी भारत के असम वगैरह में भी है। बांग्ला में हलो को एईजे कहा जाता है।
८- १२वीं शताब्दी बहुत कम लोगों के बीच बोली जानेवाली भाषा पुर्तगीज आज १९१ मिलियन लोगों की दुनिया का आठवें नंबर की भाषा है। स्पेन से आजाद होने के बाद पुर्तगाल ने पूरी दुनिया में अपने उपनिवेशों का विस्तार किया। वास्कोडिगामा से आप भी परिचित होंगे जिसने भारत की खोज की। फिलहाल ब्राजील, मकाउ, अंगोला, वेनेजुएला और मोजांबिक में इस भाषा के बोलने वाले ज्यादा है। पुर्तगीज में हलो को बोमदिया कहते हैं।
९- मलय-इंडोनेशियन दुनिया की नौंवें नंबर की भाषा है। दुनिया के सबसे ज्यादा आबादी के लिहाज से मलेशिया का छठां नंबर है। मलय-इंडोनेशियिन मलेशिया और इंडोनेशिया दोनों में बोली जाती है। १३००० द्वीपों में अवस्थित मलेशिया और इन्डोनेशिया की भाषा एक ही मूल भाषा से विकसित हुई है। इंडोनेशियन में हलो को सेलामतपागी कहा जाता है।
१०- फ्रेंच यानी फ्रांसीसी १२९ मिलियन लोग बोलते हैं। इस लिहाज से यह दुनियां में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषाओं में दसवें नंबर पर है। यह फ्रांस के अलावा बेल्जियम, कनाडा, रवांडा, कैमरून और हैती में बोली जाती है। फ्रेंच में हलो को बोनजूर कहते हैं।

वादा आज तक पूरा नहीं हो पाया "संविधान के अनुसार २६ जनवरी १९६५ से भारतीय संघ की राजभाषा देव नागरी लिपि में हिन्दी हो गई है और सरकारी कामकाज के लिए हिन्दी अंतरराष्टीय अंकों का प्रयोग होगा " इस देश के संविधान ने इस देश की आत्मा अर्थात "हिन्दी" से एक वादा किया था और वह आज तक पूरा नहीं हो पाया और हिन्दी अपने इस अधिकार के लिए आज तक संविधान के सामने अपने हाथ फैला ये आंसू बहा रही है
क्या वास्तव में हिन्दी इतनी बुरी है कि हम उसे अपनाना नहीं चाहते? (विजयराज चौहान (गजब) के प्रकाशित उपन्यास "भारत/INDIA" के पेज १५६-१५८ पर उपन्यास के पात्र इसी तरह से चिंता जाहिर करते हैं। मुख्य पात्र भारत द्वारा गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर स्कूल समारोह में हिंदी के संदर्भ में ये बातें कही जातीं है। आगे इस उपन्यास के पात्र यह भी कहते हैं कि- नहीं वह इतनी बुरी चीज नहीं है वह इस दुनिया कि सबसे अधिक बोलीजाने वाली तीसरे नम्बर कि भाषा है।
इसकी महत्ता को भारत के अनेक महापुरुषों ने भी स्वीकार किया है। इसकी इस महत्ता को देखकर ही एक ऐसे व्यक्ति "अमीर खुसरो" जिसकी मूल भाषा अरबी ,फारसी और उर्दू थी उसने कहा था- "मैं हिन्दुस्तान कि तूती हूँ ,यदि तुम वास्तव में मुझे जानना चाहते हो हिन्दवी(हिन्दी) में पूछो में तुम्हें अनुपम बातें बता सकता हूँ" हिन्दी का महत्व समझते हुए ही उर्दू के एक शायर मुहम्मद इकबाल ने बड़े गर्व से कहा था कि --"हिन्दी है हम वतन है हिन्दोंस्ता हमारा" हिन्दी के इसी महत्व को जान कर भारत के एक युगपुरूष महर्षि दया-नंद सरस्वती जिनकी मूल भाषा गुजराती थी, ने कहा था- "हिन्दी के द्वारा ही भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है।" लौह पुरुष सरदार वल्बभाई पटेल ने और आजादी के बाद कहा था-"हिन्दी अब सारे राष्ट्र की भाषा बन गई है इसके अध्ययन एवं इसे सर्वोतम बनाने में हमें गर्व होना चाहिए" गुरुदेव रविन्द्रनाथ ठाकुर ने जिनकी मूल भाषा बांग्ला थी उन्होंने कहा था कि- "यदि हम प्रत्येक भारतीय नैसर्गिक अधिकारों के सिद्धांत को स्वीकार करते है तो हमें राष्ट्र भाषा के रूप में उस भाषा को स्वीकार करना चाहिए जो देश में सबसे बड़े भूभाग में बोली जाती है और वों भाषा हिन्दी है" नेता जी सुभाष चंद्र बोस ने और कहा था कि- हिन्दी के विरोध का कोई भी आन्दोलन राष्ट्र की प्रगति में बाधक है

तस्वीर का दूसरा पहलू
आज हिंदी देश को जोड़ने की बजाए विरोध की भाषा बन गई है। राजनीति ने इसे उस मुकाम पर खड़ा कर दिया है जहां अहिंदी क्षेत्रों में हिंदी विरोध पर ही पूरी राजनीति टिक रई है। पूरे भारत को एक भाषा से जोड़ने की आजाद भारत की कोशिश अब राजनीतिक विरोध के कारण कहने को त्रिभाषा फार्मूले में तब्दील हो गई है मगर अप्रत्क्ष तौर पर सभी जगह हिंदी का विरोध ही दिखता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो यही है कि हिंदी राज्य स्तर पर हिंदी को सर्वमान्य का सम्मान नहीं मिल पाया है। जिस देश में प्राथमिक शिक्षा तक का भी राष्ट्रीयकरण सिर्फ हिंदी को अपनाने के विरोध के कारण नहीं हो पाया तो उस देश की एकता का सूत्र कैसे बन सकती है हिंदी।
अब वैश्वीकरण के दौर में कम से कम शिक्षा के स्तर पर अंग्रेजी ज्यादा कामयाब होती दिख रही है। कानून हिंदी को सब दर्जा हासिल है मगर व्यवहारिक स्तर पर सिर्फ उपेक्षा ही हिंदी के हाथ लगी है। क्षेत्रीय राजनीति का बोलबाला होने के बाद से तो बोलचाल व शिक्षा सभी के स्तर पर क्षेत्रीय भाषाओं को मिली तरजीह ने एक राष्ट्र-एक भाषा की योजना को धूल में मिला दिया है। अगर हिंदी को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में अपनाया नहीं गया तो निश्चित तौर पर इसकी जगह अंग्रेजी ले लेगी और तब क्षेत्रीय भाषाओँ के भी वजूद का संकट खड़ा हो जाएगा। अगर हिंदी बचती है तो क्षेत्रीय भाषाओं का भी वजूद बच पाएगा अन्यथा अंग्रेजी इन सभी को निगल जाएगी। और अंग्रेजी ने तो अब शिक्षा और रोजगार के जरिए यह करना शुरू भी कर दिया है।



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Saturday, August 23, 2008

कान्हा, चीन ते आए ओ!

कहीं कृष्ण लीला चल रहीं हैं...कहीं माखनचोर की झांकियां सजी हैं। जन्माष्टमी का मौका है। हर बार ऐसा ही होता है लेकिन इस बार कुछ खास बात है।

इस बार कृष्ण जी चाइना से आए हैं। लगता है वो दिन लद गये जब भगवान कृष्ण कुम्हार के चाक और सांचे से निकलकर सज-संवकर आया करते थे..इस बार तो लीलाधर हिमालय के उस पार चीन से आये हैं। यानी बाज़ार की क्या कहें इस बार भगवान श्रीकृष्ण पर भी परदेस की मुहर लग गई। मथुरा के लड्डू गोपाल वाया चीन आ रहे हैं। होली के चमकीले खतरनाक रंगों-पिचकारियों, दीपावली की लड़ियों-पटाखों और गणेश पूजा के गणपति के बाद चीन ने जन्माष्टमी के बाजार पर भी हल्ला बोला है। कल्लू कुम्हार से कहीं ज्यादा बेहतर फिनिशिंग के साथ बारह से बारह सौ रूपये तक के लार्ड कृष्णा अलग-अलग लीलाओं में हमारे एक्सक्लूसिव भक्तों के लिए आर्चीज से लेकर मॉल्स तक में सज गए हैं, जहां अपमार्केट या अपमार्केट दिखने वाली भीड़ अपने-अपने बांके पैक करा रही है। अगर आप इस भीड़ में घुसकर अपमार्केट ज्ञान लेना चाहेंगे, तो आपको कुछ ऐसा सुनाई देगा- "ये माखन चोर बड़े क्यूट हैं....देखो कितने शरारती लग रहे हैं...हमारे मंदिर में बहुत सुंदर लगेगें....चाइनीज हैं न....पैक कर दीजिए"
बात बहुत पुरानी नहीं है...एक समय था जब कुम्हार छह महीने पहले से जन्माष्टमी के लिये मूर्तियां गढ़ना शुरू कर देते थे। मिट्टी को गूंथकर हाथों से या सांचे में डालकर आकार देते...भट्टियों में पकाते और फिर रंग भरकर, कभी-कभी असली नकली मोरपंख लगाकर भक्ति भावना से अपने-अपने गोपालों को सजाते-संवारते थे। लेकिन वक्त का फेर देखिये पहले जहां कुम्हारों के चाल लगते थे वहां अट्टालिकायें खड़ी हो गई हैं। जबसे त्वचा से उम्र का पता ना लगने देने की जिद सामने आई है काय चिक्तिसा के लिये मिट्टी भी पैकेट में मिल रही है। अब ना मिट्टी है, ना कुम्हार हैं और न ही परंपरागत बाजार। जब हमारे कर्णधारों को सामाजिक सुरक्षा की सुध ही न रही तो हमारे कुम्हार कलाकारों की कला और बाजार कैसे बचता। आज हम ग्लोवल बिलेज में जीते हैं। हमें बेहतर क्वालिटी और क्यूट दिखने वाले गोपाल चाहिएं। लेकिन सोचिए कि हमारी सरकार अगर हमारे भगवान को आयात करने का अधिकार ही न दे तो क्या हमारे परंपरागत कलाकारों का रोजगार छिनने से नहीं बच जाएगा। क्या ऐसे क्षेत्रों में आयात की अनुमति देने और हमारे मूर्तिशिल्पियों को सल्फास की गोली खिलाने में कोई फर्क है। क्या हम केवल ग्रोथ रेट और सेंसेक्स को ही प्रगति का पैमाना मानकर ढोल पीटते रहेंगे। सामाजिक सुरक्षा के लिए क्या हम सिर्फ चुनावी कार्यक्रम चलाकर अपना उल्लू सीधा करते रहेंगे। ऐसे अनगिनत सवाल हैं जिसका जबाव हमें सामूहिक रूप से मांगना और खोजना होगा।
लेकिन घबराने की बात नहीं ये चीन वाले कान्हा को सजा तो खूब देंगे लेकिन उस मूर्ति में मिट्टी की वो सोंधी खुशबू कहां से लाएंगे जिसे दूर से ही सूंघकर दादी कहती थी बेटा, इस बार बड़ी जल्दी आ गये लड्डू गोपाल। वो खुशबू वो मुंह पर लगा माखन..गो ना मिले चीन में गो तो नंदलाला ये हीं मिलेगो जमुना किनारे गंगा किनारे। और सुनी गे प्लास्टिक के रसिया आंखन में तो उतर सकें हैं दिल में कैसे उतरेंगे। छोड़ों रसियाए या चक्कर में मत फंसाओ चीनेऊ कछु खानपीन देओ ओलिंपिक में बलाय पैसा खर्च करो है भैया।

Saturday, August 16, 2008

भोले के नाम एक पाती

शिव जी के बारे में कहा जाता है जितने गरम उतने ही नरम। सीधे इतने कि नाम के साथ ही भोले जुड़ा है। कल्याण के देवता हैं, दूसरों के हिस्से का हलाहल पीकर भी मस्त रहते हैं। दुनिया के मालिक हैं, लेकिन कुछ लोगों ने उनका नाम कुछ एकड़ ज़मीन की लड़ाई में फंसा लिया है। मेरे जैसे भक्त उनके नाम पर चल रहे तांडव को पचा नहीं पा रहे हैं। उनके कलयुगी गण तो मेरी क्या सुनेंगे, सोचता हूं सीधे भोले से ही बात कर लूं।

भगवन नीचे झांककर तो देखिये

भगवान भोले शंकर कैलाशपति
सादर चरण स्पर्श

आशा है आप कैलाश पर्वत पर या जहां भी कहीं इस वक्त होंगे मां पार्वती, श्री गणेश जी और कार्तिकेय जी के साथ आनंद से होंगे और हम जैसे भक्तों के लिये आनंदमय भविष्य का ग्राफ बना रहे होंगे। लेकिन भगवन मैं आनंद से नहीं हूं। इस बार सावन का मेह ज्येष्ठ-आषाढ से ही बरस रहा है लेकिन मेरा मन रो रहा है। मैंने क्या मेरे जैसे आपके किसी अन्य घनघोर भक्त ने भी आपका तांडव ना कभी देखा है, ना देखना चाहते हैं और ना ही कभी उसके बारे में सोचा है। कल तक तो हम घर के ड्राइंग रुम में रखी नटराज की मूर्ति की भावभंगिमा से ही तांडव का अंदाज़ लगा पाते थे, जिसमें आपके तांडव की महज़ एक अदा नज़र आती है। लेकिन पहले जम्मू और बाद में यानी दो-तीन दिन पहले देश के कई शहरों की सड़कों पर जो कुछ देखा उससे सहज़ अंदाज़ हो गया कि असली तांडव कैसा होता होगा।
भगवान ज़रा नीचे झांककर तो देखिये ज़रा सी ज़मीन के लिये आपके नाम पर आपके कलयुगी गण क्या तांडव मचा रहे हैं। आपने जिन लोगों के लिये दुनिया जहान का ज़हर पी लिया वो आपके नाम पर किस तरह से ज़हर फैला रहे हैं। आप तो कल्याण के देवता हैं लेकिन आपके कलयुगी गण तो उस दिन मरीज़ों को अस्पताल तक जाने से रोक रहे थे। भगवन, उस दिन अंबाला और कानपुर में दो लोग इसलिये यमराज के पास चले गये कि उनको समय पर अस्पताल नहीं पहुंचने दिया गया। आप तो जीवन देते हैं और आपके कलयुगी गण आपके नाम पर मौत।
भगवान आप तो समंदर से लेकर हिमालय तक सबके मालिक हैं। सौ-पचास एकड़ ज़मीन में तो आपके नादिया के चरने लायक घास भी नहीं उग पायेगी। इतनी सी जगह तो श्री गणेश जी के चूहे के बिल के लिये भी पूरी नहीं होगी। लेकिन ज़रा नीचे झांककर देखिये आपके कलयुगी गण तो उसके लिये कोहराम मचाये हुए हैं। आप वहां नंगे बदन इतनी सर्दी, गरमी, बारिश में हमारे लिये तप करते हैं और आपके कलयुगी गण आपके मंदिर तक की यात्रा को पिकनिक की तरह मौजमस्ती वाली बनाना चाहते हैं। अमरनाथ से भी आजकल जल्द ही रवाना हो जाते हैं, मुझे पता है धर्म और आस्था के नाम पर धंधे की गरमी आपसे बर्दाश्त नहीं होती। आप नाराज़ हैं क्योंकि आपके मंदिर के पास भट्टियां जलाकर छोले भटूरे तले जा रहे हैं, डोसा और चीले बन रहे हैं, पकौड़ियां छानी जा रही हैं, पित्ज़ा बन रहे हैं और दूध फेंटा जा रहा है। और अब खा-पीकर रास्ते में आराम करने के लिये भी तो जगह चाहिये। उस जगह पर बनेगा क्या, ठंडे-गरम पानी के हमाम, शौचालय? यानी दर्शन से पहले और बाद में आराम के लिये आपके नाम पर सब कुछ होगा।
भगवन, ज़रा सी ज़मीन के लिये कोहराम मचाने वाले और उस ज़मीन पर आरामतलबी करने वाले भक्त भी आपके दर पर आयेंगे तो आप उनको भगा तो नहीं देंगे लेकिन कुछ ऐसा चक्कर तो चला सकते हैं कि वो इंसानियत सीख कर लौटें। किसी को जन्म देना तो उनके बस में नहीं होगा लेकिन मौत के हरकारे तो ना बनें।
भगवन, ध्यान रखना। देश का एक हिस्सा जल रहा है। अब कान्हा की तरह लीला करना छोड़िये और अपने कलयुगी गणों की मति फेरिये। बरसों बाद अमन का मौका आया है देश में, उसे बना रहने दीजिये। अगले सोमवार को जब आपके दर्शन करने आउंगा तब आपसे पूछूंगा इस बारे में। इतने सारे लोगों के सामने आप बोलेंगे नहीं मुझे पता है लेकिन मैं तो आपके मन की और मौन की भाषा भी जानता हूं। कलयुग में पैदा हुआ हूं लेकिन कलयुगी नहीं हूं।

Thursday, August 14, 2008

हम कैसे होंगे कामयाब!

हम आज गदगद हैं। हो भी क्यों नहीं हमारा एक लाल ओलम्पिक में सोना जीत कर आया है लेकिन क्या हमने सोचा है कि एक सदी में हम एक ही अभिनव क्यों पैदा कर पाए। कमी हमारे लालों में नहीं बल्कि उस व्यवस्था में है, जो ऐसे लालों को उभरने से पहले ही निपटा देती है। अभिनव की कामयाबी के ठीक अड़तालीस घंटे बाद ऋचा जोशी रू-ब-रू हुईं एक ऐसी ही प्रतिभा की दास्तान से।
11 अगस्त 2008। भारतीय खेलों के इतिहास का एक ऐतिहासिक दिन...भारत को अभिनव कामयाबी मिली। अभिनव बिंद्रा ने एयर रायफल में गोल्ड मेडल जीता। ओलम्पिक में भारत के लिए पहला व्यक्तिगत स्वर्ण पदक जीतकर अपने नाम को सार्थक कर दिया। ओलम्पिक के एक सौ आठ साल के इतिहास में भारत के खाते में यह पहला व्यक्तिगत स्वर्ण पदक केवल जश्न मनाने का नहीं हमारी समूची नीति पर विचार करने का भी अवसर है। आखिर क्यों एक व्यक्तिगत स्वर्ण पदक हासिल करने के लिए एक सौ आठ वर्ष तक इंतजार करना पड़ा।
ओलम्पिक विश्व भर में खेलों का महाकुंभ है और उसमें स्वर्ण पदक जीतना किसी भी खिलाड़ी का सपना होता है। इस सपने को साकार करने के लिए खिलाड़ी को पूरे संयम और एकाग्रता से जुटे रहना होता है। अभिनव बिंद्रा ने खुद कहा कि मैं इतिहास की चिंता नहीं कर रहा था बल्कि सिर्फ आक्रामक प्रदर्शन करके अच्छा स्कोर बनाना चाहता था और मैने ऐसा ही किया। बिंद्रा की यह प्रतिक्रिया और भरोसा भारत में समूचे खेल परिदृश्य के लिए एक सबक होना चाहिए। अभिनव बिंद्रा के अचूक निशाने ने भारतीय खेलों में सोए पड़े उत्साह को जगाने की भरपूर कोशिश की है। पर भारत में खेल और खिलाड़ियों को लेकर जो रवैया आमतौर पर रहा है उसमें परिवर्तन की उम्मीद यकायक नजर नहीं आती। यदि ऐसा होता तो जब पूरा देश रोमांच, गर्व और खुशी का अनुभव कर रहा था तो निशानेबाजी की ही एक अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी को स्कूल से बेदखल न किया जाता। बरसों से कड़ी मेहनत कर सौ से ज्यादा मैडल हासिल कर चुकी मेरठ की इस महिला खिलाड़ी को अपने स्कूल के होम एक्जामिनेशन में कंपार्टमेंट लाने पर यह खामियाजा भुगतना पड़ा। स्कूल मैनेजमेंट का तर्क एक बार को तो सही लगा कि खेलने का मतलब यह नहीं कि पढ़ाई की तरफ ध्यान ही न दिया जाए लेकिन दूसरे ही क्षण जब मैने मेरठ के इस नामी-गिरामी कान्वेंट स्कूल के संचालक को इस महिला खिलाड़ी की उपलब्धियों की ओर ध्यान दिलाया तो वे बोले.."अजी नाम में क्या रखा है। जितनी बार बाहर खेलने जाती है, स्कूल फंड से इसका खर्चा देना पड़ता है।" स्कूल फंड से पैसा इस महिला खिलाड़ी की प्रतिभा को तराशने में न लगाना पड़े, सिर्फ इस वजह से स्कूल ने इस प्लेयर को पढ़ाई में फिसड्डी बताते हुए स्कूल से आउट कर दिया।
स्कूल का यह रवैया इस खिलाड़ी को हतोत्साहित करने वाला भी हो सकता है। हो सकता है कि वह इसे एक चैलेंज के रूप में स्वीकार करे और आने वाले ओलम्पिक तक एक वंडरगर्ल के रूप में उभर कर आए। स्कूल प्रबंधन द्वारा अपमानित किए जाने पर बच्ची के पिता की यह कसक कि अब मैं इसे खेल में ही अपनी पूरी ताकत से स्थापित करके दिखाउंगा, उस बच्ची के कैरियर का टर्निंग प्वाइंट भी हो सकती है। मैं सोच रही हूं कि यदि ऐसा हो गया तो सबसे पहले स्कूल ही अपनी कमर ठोकता हुआ नजर आएगा कि उसने एक ऐसी प्रतिभा देश को दी जिसने इतिहास रचा। और इसी स्कूल का मैनेजमेंट बढ़चढ़ कर बता रहा होगा कि सान्या (प्लेयर) वाज रियली जीनियस एंड वेरी मच फोकस्ड फार स्टडीज। जी हां, यही होता है। मलाई पर अपना हक जताने के लिए सब आगे आ जाते हैं और संघर्ष के दौर में प्रतिभाशाली खिलाड़ियों की भ्रूण हत्या कर दी जाती है।
परिवार में संसाधनों की कमी, स्कूलों और सरकारी-गैरसरकारी संगठनों का असहयोग और खेल मैदानों में रचे जाने वाले षड्यंत्रों की वजह से ही आबादी के लिहाज से दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश एक सौ आठ वर्षों में एक व्यक्तिगत गोल्ड मेडल हासिल कर पाता है। एक अरब आबादी वाले देश के लिए यह ठीक नहीं कि वह ओलम्पिक खेलों में एक-दो पदक हासिल करके संतुष्ट हो जाए। सच तो यह है कि खिलाड़ी और उनके परिजन मुकाम तक पंहुचने के लिए डेडीकेटेड न हों तो इक्का-दुक्का खिलाड़ी भी उपलब्धियों के नजदीक न पंहुच पाएं।
इस देश में प्रतिभा या क्षमता की कमी नहीं है। कमी सिर्फ उन्हें पहचानने और निखारने के लिए अनुकूल माहौल देने की है। हमारे देश का युवा वर्ग जीत में यकीन रखता है, किसी से पीछे नहीं रहना चाहता। अपने जुनून के बूते अभिनव बिंद्रा जैसे यूथ आइकन सामने आ रहे हैं। सबको मिलकर यह कोशिश करनी चाहिए कि सभी के प्रयासों से अभिनव जैसा करिश्मा करने वाले खिलाड़ियों की कतार खड़ी हो। टीवी चैनलों पर देश का नाम रोशन करने वाले प्लेयर्स के स्कूल-कालेज और देश के कर्णधार सीना चौड़ा कर कितना भी खुश हो लें पर सभी जानते हैं कि उनका किस स्तर पर कितना योगदान होता है। अगर होता तो पहले व्यक्तिगत ओलम्पिक स्वर्ण के लिए भारत को सौ साल से भी ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ता।
मैं इंडिया की यूथ जो टैलेन्टेड, कानफिडेंट और जीत में यकीन रखती है, जिसकी डिक्शनरी में इंपोसिबल शब्द है ही नहीं, को प्रणाम करती हूं।

Sunday, August 10, 2008

काहे बसे उत्तर परदेस

हमारे एक दोस्त हैं दिल्ली के एक बड़े और इलीट टीवी चैनल में बड़े पद पर हैं। जब से दिल्ली आये हैं तबसे ही वापस अपने मध्य प्रदेश लौटने की बात करते रहे हैं। लेकिन सात-आठ साल पहले बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के लिये जब दिल्ली में ही बसने का इरादा बनाया तो पता चला कि बात हाथ से निकल चुकी है और अब दिल्ली में मकान खरीदना बूते से बाहर है। थक-हारकर बाकी हिंदी पत्रकारों की तरह उनको भी दिल्ली से लगती गाज़ियाबाद की कॉलोनियों में सहारा मिला। आजकल वैशाली के एक बहुमंज़िला अपार्टमेंट में रहते हैं और हर छोटे बड़े काम के लिये दिल्ली आते-जाते रोज़ किलसते हैं। हालांकि उनके रोज़ के सफर में उत्तर प्रदेश की सड़के और आबोहवा महज़ दो किलोमीटर की होती हैं लेकिन ये दो किलोमीटर ही उन्हें खून के आंसू रुला देता है। घर लौटते समय २० किलोमीटर दिल्ली में सफऱ के बाद वैशाली यानी उत्तर प्रदेश यानी यूपी आ गया ये पता करने के उनके पास कई तरीके हैं।

समझ लो यूपी आ गया

दिल्ली से उत्तर प्रदेश सीमा में आम तौर पर दो रास्तों से घुसता हूं, एक गाज़ीपुर से सीधे दिल्ली गेट (एईज़ेड के पास) होकर और दूसरा आनंद विहार बस अड्डे से होकर मोहननगर रोड पर।
(१).दिल्ली में कदम-कदम पर रास्ता दिखाने वाले हरे बोर्ड जब नीले दिखने लगें यानी उन पर बहुजन समाज पार्टी के छुटभैये नेताओं के बड़े-बड़े पोस्टर नज़र आने लगें तो समझ लो यूपी आ गया।
(२). सड़क आधी तो टूटी हो और आधी पर ठेले खड़े हों या फटफट वाले बीचे में धुंआ उड़ाते हुए सवारियां खींच रहे हों तो समझ लो यूपी आ गया।
(३). सड़क के बीचोंबीच पुलिस चौकी बनी हो उसकी खुली खिड़की से गंदी बनियान पहने तीन-तार तोंद वाले पुलिसिये बीड़ी फूंकते दिखें तो समझ लो यूपी आ गया।
(४). बॉर्डर पर बनी पुलिस चौकी के सामने नीला झंडा लगी कोई आलीशान गाड़ी खड़ी हो और सफेद लकदक कपड़े पहने नेता चौकी में बैठा कोक पी रहा तो तो समझ लो यूपी आ गया।
(५). सीमा पर कदम-कदम पर ५-६ तरह के चेक पोस्ट बने हों और हरेक के सामने गाड़ियों की वजह से जाम लगा हो तो समझ लो यूपी आ गया।
(६). चेक पोस्ट पर तैनात लंबे-लंबे डंडे लिये बदमाश नुमा युवक हर आती-जाती गाडी के पीछे भागते दिखें तो समझ लो यूपी आ गया।
(७). लालबत्ती के सामने विज्ञापन बोर्ड लगे हों और बत्ती को देखे बिना गाड़ी आ जा रही हों और ट्रैफिक वाला पास ही ठेले पर खड़ा पराठे डकार रहा हो और आती–जाती गाड़ियों को नाटक की तरह देख रहा हो तो समझ लो यूपी आ गया।
(८). लाल बत्ती की गाड़ी देखते ही ट्रैफिक पुलिस वाला बे वजह सीटी बजाने लगे और एक्टिव नज़र आये तो समझ लो यूपी आ गया।
(९) आने वाली सड़क पर जाती गाड़ियां दिखें और जाने वाली पर आती तो समझ लो यूपी आ गया।
(१०). हमेशा ही उल्टी दिशा से बिना हेलमेट लगाये और तीन लोगों को स्कूटर-मोटरसाइकिल पर बिठाये कोई पुलिस वाला दिखे तो समझ लो यूपी आ गया।
(११). सड़क किनारे हेलमेट की दुकान तो खूब दिखें लेकिन कोई हेलमेट लगाये नज़र ना आये तो समझ लो यूपी आ गया।
(१२). दो गाड़ियां आपस में टकरा गईं हों और दोनों के मालिक सड़क पर ही भिड़ गये हों और आते-जाते लोग हॉर्न पर हॉर्न मारे जा रहे हों तो समझ लो यूपी आ गया।
(१३). कोई बुजुर्ग, महिला या बीमार मुसाफिर से रिक्शा वाला सामान्य से दो गुना किराया मांग रहा हो और सवारी गिड़गिड़ा रही हो तो समझ लो यूपी आ गया।
(१४). बीच सड़क पर ऑटो खड़ा हो उसमें बैठी दो महिलायें झुंझला रही हों और ऑटो वाला सड़क किनारे खुले आम नंबर एक में व्यस्त हो तो समझ लो यूपी आ गया।
(१५). अच्छे से अच्छे शॉक एब्ज़ार्बर वाली गाड़ी चलती हुई कम और उछलती हुई ज्यादा नज़र आये तो समझ लो यूपी आ गया।
(१६). एक तरफ जनरेटर से चमकते भीमकाय मॉल्स दिखें और दूसरी तरफ बदबू मारते कचरे के पहाड़ तो समझ लो यूपी आ गया।
(दुख-दर्द की अगली किस्त भी जल्द ही)

Saturday, August 9, 2008

पेट कैसे भरें मास्टर साहब

एक माननीय पाठक/विजीटर ने मेरे आलेख-ये कैसा इंसाफ पर बेनामी टिप्पढ़ी लिखी है। मैं सच्चाई नहीं जानता लेकिन मुझे लगता है कि ये व्यथा कथा मैने नजदीक से देखी है। आप भी इस दर्द को समझिए। टिप्पढ़ी को पोस्ट में परोस रहा हूं।
पहले मास्साब का पेट तो भरो देश में बेसिक शिक्षा का जो हाल है वो किसी से छिपा नहीं है। इसके लिये ज़िम्मेदार ठहराने की बात हो तो लोग शिक्षकों से लेकर नेताओं तक को गालियां देते नहीं थकते हैं लेकिन असली कारण की तह तक कोई नहीं जाना चाहता है। जिन शिक्षकों पर बेसिक शिक्षा का भार है उनको ६-७ माह तक वेतन नहीं मिलता है कोई जानता है इस बात को। क्या उनका परिवार नहीं है क्या उनके बीबी बच्चे नहीं हैं, क्या वो रोटी नहीं खाते हैं, क्या वो कपड़े नहीं पहनते हैं। क्या उनको मकान का किराया नहीं देना होता है. क्या उनके स्कूटर में पेट्रोल नहीं पड़ता है। ऐसी हालत में अगर उनसे पढ़ाने में कोई भूल हो जाये या कमी रह जाये तो हर तरह की मलामत। स्कूल इंस्पेक्टर से लेकर बेसिक शिक्षा अधिकारी तक बेचारे मास्टर की खाल खींचने को तैयार रहते हैं। लेकिन बेसिक शिक्षा अधिकारी के ही बगल में कुर्सी डालकर बैठने वाले उस लेखाधिकारी से कोई एक शब्द भी नहीं पूछता जो शिक्षकों के वेतन के बिल छह-छह महीने तक बिना किसी कारण के अटकाकर रखता है। देश का हाल मुझे नहीं पता लेकिन उत्तर प्रदेश और खासतौर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मेरठ, अलीगढ़, बुलंदशहर, आगरा और मथुरा जैसी जगहों पर तो उस शिक्षक का यहीं हाल है जिसे राष्ट्रनिर्माता कहा जाता है। किसी से शिकायत वो कर नहीं सकता क्योंकि फिर नौकरी खतरे में पड़ जायेगी। शिक्षा विभाग का अदना सा बाबू उस शिक्षक या हेडमास्टर को चाहे जब सफाई लेने के लिये दफ्तर बुला लेता है जिसके पढ़ाये हुए कई बच्चे ऊंचे पदों पर बैठे हैं। बुलंदशहर के कई स्कूलों का हाल मुझे पता है जहां शिक्षकों को महीनों वेतन नहीं मिलता है। कुछ स्कूलों में पिछले साल का बोनस अब तक नहीं मिला है जबकि कुछ में मिल चुका है। आखिर इसका क्या पैमाना है। बेसिक शिक्षा से जुड़े अफसरों की निरंकुशता के अलावा और क्या पैमाना हो सकता है इसका। ऐरियर का भी कोई हिसाब किताब नहीं है। शायद लेखाधिकारी महोदय के रहमोकरम पर इस देश की शिक्षा व्यवस्था चल रही है। जो बेसिक शिक्षा इस देश के निर्माताओं की नींव रखती है वो सरकार और अफसरों की प्राथमिकता सूची में सबसे नीचे हैं शायद। आखिर ऐसा कब तक चलेगा, दरमियाने अफसरों और छुठभैये बाबुओं के चंगुल से कब मुक्त होगी विध्या के उपासकों की बिरादरी। तहसीलदार

Sunday, August 3, 2008

ये कैसा इंसाफ!

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

सदियों ने खता की थी, लम्हों ने सजा पाई है। कुछ ऐसा ही होता आया है हमारे इर्द-गिर्द। ऐसा अक्सर सुनने में आता है कि गुनहगार आजाद घूम रहा है और बेगुनाह सलाखों के पीछे पंहुच गया लेकिन मेरठ में दो मासूम जिंदगियां अपने ही जन्मदाताओं के गुनाह की सजा सलाखों के पीछे रहकर नहीं बल्कि हमारे समाज में खुले आसमान के नीचे रहकर भुगतने को मजबूर हैं।
जी हां ! ये पहली बार नहीं हुआ। अक्सर हमारे समाज में होता रहता है क्योंकि कानून न किसी की भावनाएं देखता है, न किसी की लाभ-हानि और न किसी का जीवन-मरण। वह तो देखता है तो बस कानून की किताब के पन्ने, गवाह और सुबूत। इन्हीं तीन चीजों की परिधि में सिमट जाता है कानून का संसार। इसी कानून के संसार यानी मेरठ की एक अदालत के एक इंसाफनामे ने पांच साल के रूद्र, उसकी बीस दिन पहले जन्मी दुधमुंही बहिन और उसकी मां को ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है जहां से जीवन का सफर बेहद पेचीदा हो जाता है। मजबूरी ये है कि मुश्किलों भरे इस सफर में ढकेलने वाले इंसाफ के खिलाफ कोई टिप्पढ़ी भी नहीं कर सकता लेकिन हम ये तो पूछ ही सकते हैं कि इंसाफ के इन तथाकथित मंदिरों में बैठने वाले देवताओ! सामने नंगी आंखों से दिखाई देने वाले सच को न देखने के लिए कब तक आपकी आंखों पर पट्टियां बंधी रहेंगी? आईए पहले आप पूरा किस्सा सुन लीजिए....
मेरठ के विनोद और ममता का गुनाह इतना था कि वह दोनो एक दूसरे से बेपनाह मौहब्बत करते थे और करते हैं। उनका गुनाह ये था कि वह दोनों अपने सपनों का संसार बसाने के लिए छह साल पहले अपने-अपने मां बाप का घर छोड़कर चले गए थे। या कहिए कि भाग गए थे। अगर भागे भी तो इसलिए कि ये दकियानूसी समाज प्रेम विवाह को आज भी एक गुनाह मानता है। इसके बाद वही हुआ जो हर उस लड़की का मां-बाप करता है जिसकी लड़की प्रेम विवाह के लिए विद्रोह कर घर छोड़ देती है। ममता के घर वालों ने थाने में विनोद के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करा दी कि वह उनकी नाबालिग बेटी को बहला-फुसला कर ले गया है। फिर पुलिस ने वही किया जो कानून कहता है। ममता और विनोद जब एक मंदिर में शादी करने के बाद उसे रजिस्टर्ड कराने कचहरी पंहुचे तो कचहरी के दरवाजे पर ही दोनों को गिरफ्तार कर लिया। ममता चींखती रही कि विनोद न उसे जबरदस्ती लेकर गया है और न बहला-फुसला कर बल्कि दोनो एक दूसरे से शादी करना चाहते हैं लेकिन उस की आवाज किसी ने दिल से नहीं सुनी और कानून की किताबों के मुताबिक ममता को नारी निकेतन भेज दिया गया और विनोद को जेल। ममता का मेडीकल चैकअप हुआ और उसे सत्तरह साल की उम्र वाली लड़की घोषित किया गया। मेडीकल में उसके साथ शारीरिक संसर्ग होना भी स्थापित हुआ। लिहाजा विनोद पर अपहरण और बलात्कार का मुकदमा दर्ज हुआ। कुछ महीनों बाद विनोद को जमानत मिली तो नारी निकेतन से अपने मां बाप की सुपुर्दगी में आ चुकी ममता एक बार फिर विनोद के पास चली गई। उसके बाद से पुलिस और कचहरी के बीच झूलते हुए दोनों ने अपना घर वसा लिया। इस बीच ममता ने दो बच्चों को भी जन्म दिया। छह साल बीत गए और समय आया छह साल पहले दर्ज हुए मुकदमें के इंसाफ का। मेडीकल रिपोर्ट को सुबूत मानते हुए विद्वान न्यायाधीश ने विनोद को कुसूरवार माना और सुनाई पांच साल की कैद बामशक्कत।
अब सोचिए कि इंसाफ का हुक्मनामा आने में छह साल लगे। विनोद और ममता के सपनों का घर एक क्षण में ही दरकता हुआ दिखाई देने लगा। विनोद जेल चला गया और ममता दोराहे पर आकर खड़ी हो गई। अदालत को सिर्फ तकनीकी सुबूत दिखाई दिए। इंसाफ के मंदिर को ममता और विनोद के सपनों का मंदिर दिखाई नहीं दिया। उसने छह साल में ममता की आवाज को भी नहीं सुना। इसको भी दरकिनार कर दिया कि ममता और विनोद एक छत के नीचे रह रहे हैं और उनके दो बच्चे भी हैं। यह भी नहीं सोचा कि सजा विनोद को नहीं बल्कि ममता के साथ पांच साल के रूद्र और बीस दिन की दुधमुंही बच्ची को मिलेगी। क्या यही इंसाफ है? ऐसे कानून और इंसाफ से किसको फायदा है? हुक्मरानों को मोटी तन्ख्वाह मिलती है, वकील मोटी फीस खसोटते हैं और कदम-कदम पर कटती है इंसाफ मांगने वाले या चाहने वाले की जेब।
अब आप सोचिए और बताईए कि ममता व विनोद का क्या कुसूर था। अगर वह प्रेम उनका गुनाह भी है तो उन दो मासूमों की परवरिश कैसे होगी? उनका कुसूर क्या है। जब आप आंख खोलकर देखेंगे तो ऐसी कई ममताएं, कई विनोद और कई रूद्र दिखाई देंगे। चिंतन कीजिए और ऐसी ममताओं के लिए मदद को हाथ बढ़ाइए।

तकनीकी सहयोग- शैलेश भारतवासी

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