Saturday, March 28, 2009

अरे, वो 7 भी बचे या नहीं


रायपुर से एक मित्र का फोन बार-बार आ रहा है, छत्तीसगढ़ घूम जाओ यार। दिल्ली की ज़हरीली हवा पीते-पीते थक गया हूं मैं खुद भी जाना चाहता हूं। बच्चे भी उन जानवरों को देखना चाहते हैं जो पत्रिकाओं में दिखते हैं या डिस्कवरी पर आते हैं। ये सचमुच होते हैं, अहसास कराने के लिये उनको एक बार छत्तीसगढ़ ले जाना ज़रुरी है। क्योंकि इस देश में वो ही एक प्रदेश बच रहा है जहां फिलहाल (कब तक बचेंगे कह नहीं सकते) जंगल बचे हैं और जंगली जानवर भी।
लेकिन इस बहाने ये भी जान लेते हैं कि असलियत क्या है। एक पुरानी अखबारी कतरन पर नज़र पड़ी। कतरन सितंबर 2007 की है, जिसमें बताया गया है कि छत्तीसगढ़ के उदांती नेशनल पार्क में महज़ 7 वाइल्ड बफैलो बचे हैं। वाइल्ड बफैलो यानी जंगली भैंस या भैंसा। इन सात में से 6 नर और 1 मादा। इंद्रावती में एक आध और हो तो हो वरना बाकी छत्तीसगढ़ से तो इनका नामोनिशान मिट गया है। पामेद जो कभी इनका गढ़ था वो भी खाली हो चुका है। अब बात चली है तो डेढ़ साल बाद मुझे फिक्र हो रही है कि वो सात भी अब तक बचे होंगे या नहीं।
मैं तो पैदा ही छत्तीसगढ़ में हुआ हूं, बाद में गया भले ही कम होऊं, वहां की कई यादें हैं अब तक। पिता जी के किस्से अब तक याद हैं जो वहां के जंगली जानवरों के बारे में अकसर सुनाया करते थे। किस्से आम तौर पर शेर हाथियों के सुनाये जाते हैं लेकिन मेरे पिता का साबका जंगली भैंसों से पड़ा, कई बार। एक बार तो जीप के सामने आकर खड़ी हो गई तो हटी ही नहीं। जीप पीछे लेकर वापस जंगल मे दौड़ाई तब जान बची। वो ही वाइल्ड बफैलो अब खत्म हो रहे हैं। भारत में असम और छत्तीसगढ़ के अलावा ये कहीं नहीं होते। वैसे मेघालय और महाराष्ट्र में भी इनके यदा-कदा देखे जाने की बात सामने आई है।
जो आंकड़े मैं जुटा पाया हूं उनके हिसाब से अगस्त 2002 में छत्तीसगढ़ में 75 वाइल्ड बफैलो थे। 35 उदांती नेशनल पार्क में और 40 इंद्रावती नेशनल पार्क में। 2004-05 में इनकी संख्या घटकर 27 रह गई और उसके अगले साल यानी 2005-06 में महज़ 19। अब पता नहीं कोई बचा भी होगा या नहीं। और कोई प्रदेश होता तो मान सकते थे कि शायद एक-दो बचे हों लेकिन छत्तीसगढ़ का वन विभाग जितना काहिल है उससे लगता नहीं कि उन्होने इनको बचाने के लिये कुछ किया होगा।
अफ्रीका में भी ये जानवर होता है, कैप बफैलो। एक से पौने दो मीटर लंबा और 5 से दस क्विंटल तक वजनी। शेर को भी मार डाले इतनी ताकत। अफ्रीका के जंगलों में पश्चिम के कई शिकारी कैप बफैलो के शिकार हो चुके हैं। लेकिन इंडियन वाइल्ड बफैलो शर्मीले होते हैं, झाड़ियों में छुपकर रहने वाले और घास से पेट भरने वाले। लेकिन जब गुस्सा आ जाये तो बाघ भी कहीं नहीं टिकता। छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के आदिवासी कहते हैं कि बाघ तो लड़ने के हुनर ही वाइल्ड बफैलो और जंगली सूअरों जैसे जानवरों से सीखता है। बाघ वो बाघ जिसको बचाने की होड़ में पूरा देश लगा है लेकिन वाइल्ड बफैलो खत्म हो रहे हैं कोई पूछने वाला नहीं। मैं तो मन ही मन ये सोच रहा हूं कि मुझसे पहले किसी ने शायद सोचा ही ना हो इस बारे में, वाइल्ड बफैलो के बारे में।
बाघों के तो बड़े-बड़े जानकार हैं, तरह-तरह के हैट और टोपियां लगाकर अंग्रेजी बोलने वाले, टीवी पर उनकी चिंता करने वाले, अखबारों के पन्ने रंगने वाले। हरेक की कोई ना कोई सोसायटी, ट्रस्ट या फाउंडेशन है, विदेशों से चंदा आता है और किसी ना किसी टाइगर रिज़र्व के बाहर अपना रिज़ॉर्ट बनाया हुआ है। बाघों से जुड़ी हर संस्था में सेटिंग है। दिल्ली से सैलानियों को ले जाते हैं, 15 हज़ार रोज़ के टैंट में रुकवाकर बाघ भी दिखवा देते हैं। लेकिन बाघ जिन जानवरों की वजह से ज़िंदा है उनकी चिंता नहीं किसी को। हिरण जैसे छोटे जानवर जो बाघ का प्रिय भोजन हैं, मरते हैं मरते रहें। जब बाघ का भोजन ही नहीं बचेगा तो बाघ कैसे बचेगा मेरे भाई, बाघ विशेषज्ञो, वन्य जीव विशेषज्ञों मोटी सी बात है समझ लो। हिरण को बचा लो, वाइल्ड बफैलो को बचा लो, बाघ भी बच जायेगा।
(लेखक पेशे से पत्रकार-वत्रकार हैं। लेकिन वाइल्ड बफैलो की चिंता में इस लेख को लिखने के बाद अपने आपको वन्य जीव विशेषज्ञ कहलवाना चाहते हैं)

Monday, March 23, 2009

गुदड़ी के लाल ने किया कमाल

अगर कोई संस्‍था कम्‍युनिटी रेडियो स्‍थापित करना चाहती है तो उसके लाइसेंस के लिए सूचना प्रसारण मंत्रालय की बहुत सी शर्तो को पूरा करने के अलावा कम से कम दस लाख का वजट चाहिए। लेकिन एक गांव के छोरे ने महज सात हजार रुपये में ये कमाल कर दिखाया है लेकिन वह नहीं जानता कि कम्‍युनिटी रेडियो क्‍या होता है? गांव के इस छोरे को नहीं मालूम है कि तरंगों के प्रसारण पर सरकार का पहरा होता है। वह अपने आविष्‍कार पर फूले नहीं समा रहा है और पूरा गांव अभिभूत है लेकिन पूरा गांव इससे अंजान है कि ये एक गुनाह भी है। उसने न तो किसी इंजीनियरिंग कालेज से पढ़ाई की और न उसके पास कोई खजाना था। अगर उसके पास कुछ था तो वह सिर्फ सपने और उन्‍हें पूरा करने का हौंसला या सनक। इसी सनक में उसने सात साल रात-दिन मेहनत की और खोल दिया एफएम स्‍टेशन। बारहवीं पास गांव के इस युवक से मुजफ्फरनगर के हथछोया गांव वाले फूले नहीं समा रहे हैं क्‍योंकि ये स्‍टेशन गांव के मनोरंजन का साधन ही नहीं बल्कि सामाजिक सरोकारों का केंद्र भी बन गया है।

मेरा मानना है कि रेडियो रिपेयर करने वाले इस युवक पर हम सबको गौरवान्वित महसूस करना चाहिए। इस युवक का आविष्‍कार एक नई रेडियो क्रांति की शुरुआत कर सकता है। कम्‍युनिटी रेडियो के आंदोलन को पंख लगा सकता है। इस युवक का नाम है संदीप तोमर मुजफ्फरनगर के हथछोया गांव का ये युवक किसी तकनीकी संस्‍थान में पढ़ाई करने नहीं गया। न ही इसके पास इतने रूपये थे कि ये किसी आईटीआई या आईआईए के किसी कालेज में दाखिला ले पाता। अगर इसके पास कुछ था तो मेहनत, लगन और भरोसा जिसकी ताकत पर इसने इलेक्‍ट्रानिक सामानों की रिपेयर सीखी। बाजार से किताब लाता और दिन-रात सिर खफा कर सर्किट तैयार करता; रिपेयर करता। इलेक्‍ट्रानिक कंपोनेंट्स को जोड़ते-तोड़ते ये रेडियो और दूसरे इलेक्‍ट्रॉनिक सामान रिपेयर करने लगा। घर में ही रिपेयर की दुकान खोल ली लेकिन उसके दिमाग में कुछ नया कर दिखाने और नाम कमाने की हलचल होती रहती थी। इसी दौरान उसे एक एफएम माइक हाथ लगा जिसने उसकी दुनिया बदल दी। एफएम माइक के सर्किट के साथ उसने प्रयोग शुरु किए और तैयार कर दिया एक एफएम स्‍टेशन जिसका विस्‍तार पांच किमी या उससे भी अधिक किया जा सकता है।

संदीप ने एफएम माइक पर रिसर्च करते हुए ये अनुभव किया कि इन तरंगों का विस्‍तार किया जा सकता है। उसे लगा कि इन तरंगों के जरिए वह अपने गांव में ही नहीं बल्कि आसपास के गांवों में भी आवाज पंहुचा सकता है। उसने खिलौना माइक के साथ प्रयोग शुरु किए। किताबे पढ़ीं और सात साल की मेहनत के बाद करीब सात हजार रूपये खर्च कर एक एफएम स्‍टेशन खड़ा कर दिया। एक अघोषित सामुदायिक रेडियो। लकड़ी के बांस जोड़कर उसने प्रसारण के लिए टावर बनाया और उपलब्‍ध सामान की जोड़तोड़ कर प्रसारण यंत्र की जुगाड़ बनाई और फिर गांव वालों को बुलाकर बताया कि उसने आविष्‍कार कर दिया है।

आज संदीप लोक संगीत से लेकर कव्‍वालियों तक की फरमाइश पूरी करता है। पूरे गांव को सूचना देता है कि वोटर आईडी कार्ड कहां बन रहे हैं और पोलियो का टीका कब और कैसे लगवाना है। चौपाल पर बैठे ग्रामीण हों या सिलाई
करती, चूल्‍हा फूंकती महिलाएं; सभी संदीप के आविष्‍कार से खुश हैं। संदीप का रेडियो हर मुसीवत में गांव के साथ खड़ा रहता है। खेतों में आग लग जाने या कोई आपदा आने पर लोग संदीप से उदघोषणा करवाते हैं और ग्रामीण उस विपदा से जूझने के लिए इकट्ठा हो जाते हैं। कई बार संदीप के सामुदायिक रेडियों ने गांव में कमाल कर दिखाया है। एक बार गन्‍ने के खेतों में आग लग गई तब संदीप के रेडियो स्‍टेशन से घोषणा हुई और पूरा गांव इकट्ठा होकर आग बुझाने में जुट गया और एक खेत से दूसरे खेत में फैल रही आग पर काबू पा लिया गया। इसी तरह हाइवे पर एक स्‍कूली बस के दुर्घटनाग्रस्‍त हो जाने पर रेडियो से सूचना पाते ही पूरा गांव मदद के लिए पंहुच गया और आनन-फानन में घायल बच्‍चों को हॉस्‍पीटल पंहुचा दिया गया। गांव वालों की तत्‍परता से सभी बच्‍चे हॉस्‍पीटल से ठीक होकर अपने-अपने घरों को चले गए।

संदीप नहीं जानता कि सामुदायिक रेडियो क्‍या है। उसे ये भी नहीं मालूम कि एयर कंडीशंड कमरों में बैठकर ग्रामीण भारत में सामुदायिक रेडियो क्रांति का बिगुल बजाया जा रहा है। उसे ये भी नहीं मालूम कि दुनिया भर की संस्‍थाओं ने सामुदायिक रेडियो के नाम पर खजाने खोल रखे हैं। लेकिन वह सिर्फ सरकार को जानता है और चाहता है कि सरकार उसके आविष्‍कार को देखकर उसकी इतनी मदद करे कि वह आसपास के कुछ और गांवों को भी इस सेवा से जोड़ सके।

Sunday, March 22, 2009

एक तू ही धनवान!

दैनिक जागरण समूह के आई-नेक्‍स्‍ट (I-next) अखबार में एक खबर छपी है- एक तू ही धनवान। खबर मंदिरो से होने वाली आय पर है। हांलाकि ये खबर सिर्फ मेरठ से ताल्‍लुक रखती है लेकिन यदि आप अपने इर्द-गिर्द देखेंगे तो आपको लगेगा कि पूरे देश में ही भगवान ही धनवान है। उन पर मंदी का कोई असर नहीं बल्कि कारोबार और बढ़ ही गया है। खबर यूं है-

भक्ति और दौलत में क्‍या संबंध हो सकता है? लेकिन आस्‍था कई मंदिरों में दौलतमंद बना देती है। दुनिया का सबसे रईस धार्मिक स्‍थल तिरुपति बालाजी हिंदुस्‍तान में ही है। मेरठ में भी श्रद्धा के साथ मंदिरों पर पैसा बरस रहा है। मंदी के इस दौर में भक्ति रिसेशन से मुक्‍त है और आस्‍था आधारित इकॉनामी का टर्नओवर बढ़ रहा है। है न प्रभु की लीला..
वैश्विक मंदी से भले ही उद्योग-धंधे कराह रहे हों लेकिन श्रद्धा और विश्‍वास के स्‍थल उससे अछूते हैं। प्रभु के प्रति भक्ति बढ़ रही है तो डोनेशन भी। यह वृद्धि दर बीस फीसदी से उपर पंहुच चुकी है। मेरठ के प्रमुख मंदिरों की सालाना आय दो करोड़ को पार कर चुकी है। पांच साल पहले तक ये आमदनी एक करोड़ से कम ही थी।
मुश्किलों के समय में भगवान की याद कुछ ज्‍यादा ही आने लगती है। यह एग्‍जाम का समय है, सो भक्ति छात्रों के सिर चढ़कर बोल रही है। अभिवावक भी पीछे नहीं हैं। इस कारण चढ़ावे में भी खासी वृद्धि हो रही है। दान में कैश तो है ही, सोना चांदी के गहने भी डोनेट हो रहे हैं। मंदी की मार से प्रभावित उद्यमियों का एक बड़ा तबका तो नियमित रूप से मंदिरों में जाने लगा है। वैसे सबसे ज्‍यादा दान त्‍योहारों में आता है। खासकर शिवरात्रि, नवरात्र और रामनवमी पर। इसके अलावा शनिवार को शनि मंदिर, सोमवार को शिवालय, मंगलवार-शनिवार को हनुमान मंदिरों में खास दिन होता है।
साईं बाबा चमत्‍कार के किस्‍से टीवी चैनलों में में खूब आने लगे तो मेरठ में भी भक्‍तों की लाइन लंबी होती गई। कंकरखेड़ा हो या गढ़ रोड या फिर सूरजकुंड का मंदिर, हर जगह भक्‍तों की भीड़ देखी जा सकती है। यहां मनौती पूरी होने पर भक्‍त काफी दान करते हैं। साईं बाब के मंदिरों से होने वाली इनकम की बात करें तो यह सालाना पचास लाख से ज्‍यादा है। दान में आई रकम मंदिर के रख-रखाव, वेतन और गरीबों की सेवा पर खर्च की जाती है।
ऐतिहासिक काली पल्‍टन मंदिर की बाबा औघड़नाथ मंदिर के नाम से जानते हैं। ये वही मंदिर है जहां से 1857 की क्रांति शुरु हुई थी। यहां सुबह-शाम दर्शन करने वालों की संख्‍या सबसे ज्‍यादा होती है। मंदिर प्रबंधन की मानें तो श्रद्धालुओं की संख्‍या लगातार बढ़ रही है। यहां की सालाना आमदनी करीब छत्‍तीस लाख रुपये तक जा पंहुची है। इसका काफी हिस्‍सा सामाजिक कार्यों पर खर्च किया जा रहा है। भविष्‍य में स्‍कूल खोलने की भी तैयारी चल रही है।
जागृति विहार स्थित मंशा देवी मंदिर और शहर में जगह-जगह चल रहे शनि देव मंदिरों की सालाना आमदनी तकरीबन पचास लाख बैठती है। इसके अलावा भी दर्जनों मंदिर है जिनकी इनकम से धार्मिक कार्य हो रहे हैं। मंदिरों के आसपास चल रही दुकाने भी मंदिर प्रबंधन के ही देख-रेख में चल रहीं हैं। ये इनकम दान और चढ़ावे में आने वाली राशि से अलग है। सभी प्रमुख मंदिर ट्रस्‍ट के तौर पर काम कर रहे ळें। लेकिन कई मंदिर निजी तौर पर भी संचालित हो रहे हैं। चर्चित मंदिरों में जो बिना ट्रस्‍ट के चल रहे हैं, उनमें बुढ़ाना गेट का हनुमान मंदिर और मंशा देवी मंदिर प्रमुख है।

...और चलते-चलते। मंदिरों के माल का सभी को पता है। इसलिए चोरों की नजर हमेशा दान पात्र और भगवान के आभूषणों पर लगी रहती है। चोरों के लिए शायद भगवान सॉफ्ट टारगेट हैं। बीते छह महीनों में ही चोर भगवान के छह घरों से माल साफ कर चुके हैं।

Sunday, March 15, 2009

आइए डाउनलोड करें

आकांक्षा पारे आज से इर्द-गिर्द पर जुड़ रही हैं। 18 दिसंबर 1976 को जबलपुर में जन्म आकांक्षा ने इंदौर से पत्रकारिता की पढ़ाई की। दैनिक भास्कर, विश्व के प्रथम हिंदी पोर्टल वेबदुनिया से होते हुए इन दिनों समाचार-पत्रिका आउटलुक में कार्यरत हैं। कई साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में कहानी-कविताएं प्रकाशित हो चुकी हैं। पढि़ए आज उनकी एक चुटीली लेकिन विचारोत्‍तेजक रचना॰॰॰॰

डाउनलोड करने का खेल है बड़ा मजेदार। अगर कोई व्यक्ति डाउनलोड करना नहीं जानता तो वह निरा मूर्ख है। ऐसा मैं नहीं नई पीढ़ी कहती है। मोबाइल है, तो डाउनलोड करना आना ही चाहिए। एक से एक लेटेस्ट रिंग टोन, गाने, आवाजें और न जाने क्या-क्या। अब जब इतनी मेहनत होगी, तो इसका मजा अकेले उठाया जाए यह भी तो ठीक बात नहीं है न। तो फिर क्या करें। तो भैया, ये मोबाइल में जो फूलटू साउंड किसलिए दिया गया है। मोबाइल में अब बात कौन करता या सुनता है। यह या तो अब दूसरों के कान फोड़ने के काम आता है या फिर टिपिर-टिपिर मैसेज भेजने के। तुम कहां हो, मैं यहां हूं, खाने में क्या बना है, मिलना कहां है, फिल्म कौन सी देखनी है, पापा पास में खड़े है, फोन मत करो या फिर रात में मां जाग जाएगी इसलिए एसएमएस पर ही बात करो। यह सब मोबाइल पर ज्ञान का तड़का नहीं है। यह डाउनलोड यात्रा की प्रस्तावना है। हां तो खूब मेहनत कर के, पैसा खर्च कर के गाने डाउनलोड किए हैं, तो किसी को तो सुनाने पड़ेंगे न। यदि आप एअरकंडीशन कार में बैठ कर कहीं आने-जाने के आदी हैं, तो यह बात आपको वैसी ही समझ में नहीं आएगी, जैसे बेवाई न फटने पर समझ नहीं आती है। हां तो अपने वाहन में चलने वाले जरा पीछे हो जाएं। ब्लूलाइन, रोडवेज की बसोंऔर झोंगों में चलनेवालों को कृपया आगे आने दें।
इन तमाम सुविधा संपन्न साधनों में बैठते ही बस माला की शुरूआत हो जाती है। बस में बैठे नहीं कि जनता बताने लगती है कि नया गाना कौन सा है। किसी कोने में तेरा सरापा... का श्राप भी पूरा नहीं होता कि जिने मेरा दिल लुटिया की लूट शुरू हो जाती है। बस वाला मालिक है, इसलिए वह ऐसे कैसे पीछे रहेगा। उसका एफएम सरकारी है, सो ओ फिरकी वाली तू कल फिर आना की तान छेड़ता रहता है। अगर गाना समझ न आए तो आपकी बला से। उसी वक्त ठीक बगल वाला जाग जाता है। आखिर वह कैसे आपको ऐसे ही बिना संगीत के रस में डुबाए छोड़ दे। उसने भी डाउनलोड किया है और सात रुपए प्रति गाने के हिसाब से अपना कैश कार्ड फूंका है। भीड़, पसीने और कंडक्टर की चकर-चकर के बीच कुछ भी कहिए आपको अगर तुम मिल जाओ सुनना ही पड़ेगा। अगर आप नहीं मिल पाते तो कम से कम उसे यह दिलासा तो रहे कि उसने आपको अपना पसंदीदा गाना तो सुना दिया। लड़कियां बगल में हों, तो मुंह से गाना गा कर छेड़ने में खतरा रहता है, लेकिन अब अगर मोबाइल में बजेगा, तो कोई मां की लाली क्या बिगाड़ लेगी, सिवाय घूरने के। बस में कोई सिंह हो न हो किंग सभी होते हैं। और कुछ न मिले तो नए-नए रिंग टोन ट्राय करने के बहाने बेकार ही शोर मचाते रहो। मोबाइल न हुआ जी का जंजाल हो गया। अब जब अगली बार आप नए गाने डाउनलोड करें तो यह मत भूलना कि आपकी भी कहीं इस आदत पर जय हो... हो हो रही होगी।

Tuesday, March 3, 2009

दस दिन, पांच हिरन और कुत्‍ते!

बाघ एक हिंसक प्राणी हैं। मांसाहारी है। शायद मेरे कुछ शाकाहारी मित्रों को पसंद न हो। (क्षमायाचना सहित, वैसे मेरी मित्रमंडली में ऐसे लोग भी हैं जो शुद्ध शाकाहारी कौम से ताल्‍लुक रखते हैं लेकिन उनका धंधा मीट एक्‍सपोर्ट का है।) मेरे कुछ साथी मानते हैं कि अगर कोई आदमखोर हो जाए तो उसे मार देना चाहिए, चाहे वह बाघ हो या आतंकवादी। मेरे ऐसे मित्रों को मेरे कुछ वैचारिक साथियों ने अपनी प्रतिक्रिया के माध्‍यम से पिछली पोस्‍ट में जबाव दे दिया है। मेरा मानना है कि कोई भी प्राणी अपने विचारों और परिवेश से हिंसक होता है। बाघ को मारने वाले किसी हिंसक प्राणी के नहीं बल्कि शाकाहारी प्राणियों के भी शत्रु हैं। समस्‍त वन्‍य जीवों और प्रकृति के भी दुश्‍मन हैं। शायद वह नहीं जानते कि इस धरा पर हर प्राणी उतना ही महत्‍वपूर्ण हैं जितने आप। हर प्राणी का प्रकृति या प्रा‍कृतिक संतुलन में अपना महत्‍व है। चाहे या अनचाहे। इसलिए मैं आज की पो्स्‍ट भी वन्‍य प्राणियों को ही समर्पित कर रहा हूं।
जंगलों का दोहन होने से सिर्फ बाघ या तेंदुआ ही नहीं बल्कि सभी वन्‍य जीव संकट में हैं। बाघ के आदमखोर होने या आबादी वाले इलाकों में घुस जाने पर तो मीडिया में हाहाकार मच जाता है। अफसर, मंत्री, संतरी सहित सभी चैतन्‍य हो जाते हैं। ठीक उसी तरह जैसे राजधानी या महानगरों में कोई वारदात सभी को हिला देती है। लेकिन जैसे छोटे आदमी की चिंता किसी हुक्‍मरान को नहीं होती; ठीक वैसे ही दूसरे वन्‍य प्राणियों पर भी हल्‍ला नहीं मचता। हल्‍ला भले ही न हो लेकिन वन्‍य जीव लगातार भटक कर आबादी में घुस रहे हैं और अपनी जान गंवा रहे हैं। हल्‍ला हो या न हो लेकिन सच यही है कि जंगल सिकुड़ रहे हैं और वहां के निवासियों का जीवन भी घटते वनों के साथ ही सिमट रहा है। अगर ऐसा नहीं होता तो हस्तिनापुर अभ्‍यारण्‍य से भटककर पांच हिरन आबादी में न घुसते और न ही कुत्‍तों की गिरफ्त में आते।
जी हां! ये खबर किसी राष्‍ट्रीय अखबार की सुर्खिया नहीं बनी लेकिन हमारी और आपकी आंखे खोलती है। बीते दस दिन में मेरठ जिले में पांच ऐसी घटनाएं हुईं जब हिरन जंगल का रास्‍ता भटककर आबादी की तरफ आ गए और उन्‍हें कुत्‍तों ने घेर कर फफेड़ डाला। इनमें एक काला हिरन और चार चीतल हैं। वन विभाग की माने तो ये आहार के लिए जंगल से खेतों की तरफ आए और फिर आबादी की तरफ गलती से मुड़ गए। वन विभाग ये भी कहता है कि ये गन्‍ने के खेतों में छिपे थे लेकिन खेत से गन्‍ना कट जाने के कारण ये अपने को छिपा नहीं सके। लेकिन सवाल उठता है कि ऐसी नौबत ही क्‍यों आई जब ये सुरक्षित क्षेत्र हस्तिनापुर अभ्‍यारण्‍य छोड़कर खेतों में अपने आहार की तलाश में आए। वैसे मैं आपको बता दूं कि हिरन प्रजाति के वन्‍य जीव बेहद शर्मीले होते हैं और समूह में रहना पसंद करते हैं। ये मानव या किसी हिंसक जीव की आहट पाते ही कुलांचे भरते हुए ओझल हो जाते हैं। इनकी संवेदन तंत्रिकाएं इतनी तेज होती हैं कि इन्‍हें दुश्‍मनों का आभास हो जाता है। आमतौर पर बाघ या तेंदुआ भी इन्‍हें सीधे नहीं दबोच पाता बल्कि झांसा देकर अपनी चतुरता से इनका शिकार करता है। ऐसे में ये सोच सहज बनती है कि यदि हिरन प्रजाति का कोई जीव शहर की तरफ तभी आता है जब उसके प्राकृतिक आवास में उसे कोई असुविधा हो।
यदि ये एक घटना होती तो हम ये भी मान लेते कि यह महज एक दुर्घटना है। रास्‍ता भटककर आबादी में आ गया होगा लेकिन दस दिन में पांच घटनाएं महज एक संयोग नहीं हो सकता। आज ही मीत जी के ब्‍लाग किस से कहें पर कैफी आजमी की रचना पढ़ रहा था। उसका कुछ पंक्तियां पढि़ए- शोर यूं ही न परिंदों ने मचाया होगा; कोई जंगल की तरफ शहर से आया होगा। यहां भी मैं कुछ ऐसा ही मानता हूं कि जंगल में किसी आदमी ने कुछ तो ऐसा किया होगा जिससे हिरन शहर की तरफ आया होगा। यहां तो एक नहीं बल्कि पांच आए और पांचो कुत्‍तों के हत्‍थें चढ़ गए। घायल अवस्‍था में उन्‍हें आदमी ने देखा और वन विभाग को सूचना दी। वन विभाग उन्‍हें अपने अहाते में ले गया और बांध दिए। दस दिन बाद उन्‍हें एक समाजसेवी संस्‍था की दया से चिकित्‍सक मिला। लेकिन आज उनमें से एक चीतल ने दम तोड़ दिया। उसके घावों में पस पड़ चुका था। पैर की हड्डी टूट चुकी थी। बाकी हिरनों की हालत भी बहुत अच्‍छी नहीं है। शायद उन्‍हें समय पर इलाज मिला होता तो हो सकता था कि चीतल बच जाता।
हो सकता है कि वन विभाग के पास चिकित्‍सा सुविधाएं न हो। वन्‍य जीवों के इलाज के लिए बजट न हो। और इन सबसे पहले वह संवेदना या इच्‍छाशक्ति न हो। वैसे अगर वन विभाग के पास इतना सब कुछ होता तो जंगलों का दोहन भी क्‍यों होता। इसी कड़ी में मुझे बीते महीने की एक घटना याद आ रही है। सत्‍ताधारी पार्टी के एक असरदार नेता के गुर्गों ने जंगल से टीक के करीब सत्‍तर वेशकीमती पेड़ों पर कुल्‍हाड़ी चलवा दी। जब वनरक्षक और रेंजर नेता के उन गुर्गों को रोकने गए तो नेता जी के गुर्गों ने उन्‍हें खदेड़ दिया। रेंजर ईमानदार था। उसने मामला दर्ज कर लिया लेकिन वह काटे गए दरख्‍तों की लकड़ी को जब्‍त नहीं कर सका क्‍योंकि उसके आला अफसरों ने उसे नौकरी का पाठ पढ़ा कर मामला रफा-दफा कर दिया।
ऐसी व्‍यवस्‍था और सोच के साथ हम कितने दिन तक जंगल और वन्‍य प्राणियों का अस्तित्‍व बचा पाएंगे? मुझे एक बार फिर मीत जी के ब्‍लाग किस से कहें पर पढ़ा कैफी आजमी का एक शेर याद आ रहा है- पेड़ के काटने वालों को ये मालूम न था, जिस्‍म जल जाएंगे जब सर पे न साया होगा।

तकनीकी सहयोग- शैलेश भारतवासी

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