Friday, December 31, 2010

नव वर्ष - शुभकामनायें

समृद्धि , सुख, शांति के लेकर नव उपहार,
दो हज़ार ग्यारह खड़ा, मित्र आपके द्वार।

याद पुराने वर्ष की, रहे न कोई टीस
नए वर्ष के साथ हों ईश्वर के आशीष ।

नव आशा, नव कल्पना, नव चिंतन नव शोध
नया वर्ष दे आपको, नव जीवन का बोध ।

नव उमंग, संकल्प नव, मन में नव विश्वास
नया सूर्य लेकर उगे , नित्य नया उल्लास ।

सरस, सुवासित 'अनिल' का मिले सदा स्पर्श
यही हमारी कामना, शुभ हो नूतन वर्ष ।



दो गज़लें

(१)
नए वर्ष की नयी सुबह का स्वागत कर लें
नए सोच से, नई तरह का स्वागत कर लें

दिल के जिस कोने में कोई दर्द छिपा हो,
आओ मिल कर उसी जगह का स्वागत कर लें

बांधे है जो अनदेखे बंधन में हमको
स्नेह डोर की उसी गिरह का स्वागत कर लें

बिना वज़ह मिलता है कोई कहाँ किसी से
चलो आज तो किसी वज़ह का स्वागत कर लें।

(२)

आप खुशियाँ मनाएँ नए साल में
बस हँसे, मुस्कुराएँ नए साल में

गीत गाते रहें, गुनगुनाते रहें
हैं ये शुभ-कामनाएं नए साल में

रेत, मिटटी के घर में बहुत रह लिए
घर दिलों में बनायें नए साल में

अब न बातें दिलों की दिलों में रहें
कुछ सुने, कुछ सुनाएँ नए साल में

जान देते हैं जो देश के वास्ते
गीत उनके ही गायें नए साल में

भूल हमको गए हैं जो पिछले बरस
हम उन्हें याद आयें नए साल में

कुमार अनिल

Sunday, December 26, 2010

अलविदा 2010......स्‍वागत 2011....!!!

किससे गिला...किससे और कैसी उम्‍मीदें

तो सन २०१० हमसे हाथ छुड़ा कर विदाई मांग रहा है। जब आया था तो कोई बहुत बड़ी उम्मीदें नहीं बांधी थी हमने इससे। हां, मन में इच्छा जरूर थी कि काश यह साल पिछले गुजरे सालों से बेहतर साबित हो। घृणा, नफरत,हिंसा-प्रतिहिंसा, आतंकवाद, अलगाववाद से कुछ तो मुक्ति मिले हमें। वैमनस्य की काली आंधी कहीं तो जाकर रुके। तरक्की की होड़ में शामिल होकर कहीं भी, कुछ भी करने को आतुर इंसान एक क्षण रुक कर कुछ तो सुस्ताये, कुछ तो सोचे। एक-दूसरे को खूब दुआएं-शुभ कामनाएं दीं। एस.एम.एस किए, कार्ड भी भेजे लेकिन जैसी औपचारिकताएं , वैसे ही परिणाम भी मिले। कुल मिला कर किसी तरह यूं ही गुजर सा गया यह साल।
हां! थोड़ी और तरक्की कर ली हमने। भ्रष्टाचार के मामलों में नए मानदंड स्थापित किए। लूट, हत्या, बलात्कार के मामलों में भी नए नए रिकॉर्ड बनाए। निरीह औरत की हत्या कर उसकी लाश के टुकडो को तंदूर से डीप फ्रीजर तक पंहुचा दिया; और इसमें न हमारे हाथ कांपे न ही आत्मा। राजनेताओं ने घृणा की खाईयों को पाटने की जगह और चौड़ा करने का अपना दायित्व बखूबी निभाया। मंहगाई और बेरोजगारी जैसी समस्याओं पर राजनीतिक विचारहीनता और संवेदनशून्यता में और बढ़ोतरी की । अमीर और अमीर हुए; गरीब और गरीब। स्विस बैंकों में हम भारतियों का काला धन कुछ और बढ़ गया। साथ ही हर भारतीयों पर विदेशी कर्ज की मात्रा भी और बढ़ गई। दुनिया की तीसरी बड़ी महाशक्ति के रूप में उभर रहा भारत भुखमरी से लड़ने के मामले में ८४ देशों की सूची में ६७वें स्थान पर आ गया। बाल मृत्‍यु दर के मामले में हम पहले से ही सबसे ऊंची पायदान पर हैं, निरक्षता के मामले में दुनिया के ३५% हो गए। ग्लोबल पीस इंडेक्स में छह और पायदान फिसलकर १२८वे स्थान पर आ गए। यह तरक्की थोड़ी है क्या खुश होने के लिए! यूं खुश होने के लिए कुछ बातें और भी हैं। शायद इसलिए कुछ और भी ज्यादा क्योंकि ये हमारे खंडित अभिमान को सहलाने का थोडा बहुत माद्दा भी रखती है। मसलन - विश्‍वमहाशक्ति अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा। उल्लेखनीय है कि जहां पहले अमेरिका की छवि 'दाता' की रही थी वहीं ओबामा की यात्रा के समय भारत और अमेरिका के सम्बन्ध बराबरी के स्तर पर प्रगाढ़ होते दिखे। भारत के अपने स्वार्थ हैं तो अमेरिका भी अपनी अर्थव्यवस्था में आए ठहराव को तोड़ने के लिए भारतीय बाजार में अपनी पहचान बढ़ाने को लालायित है और अपने यहां भारत के निवेश की आवश्यकता अनुभव कर रहा है। इसके अतिरिक्त विश्व और एशिया की अन्य महाशक्तियों जैसे - ब्रिटेन, जर्मनी ,पोंलेंड, रूस और अभी हाल ही में चीन के राष्ट्राध्यक्षों की भारत यात्रा को इसी कड़ी में जोड़कर देखा जा सकता है।
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई एम ऍफ़) में भारत १० सदस्य देशो में सम्मिलित हो गया है। जिस भारत को अभी कुछ वर्ष पहले देश की अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए अपने सोने का रिजर्व भंडार विदेशों को गिरवी रखना पड़ा था, आज उसके पास अपना स्वयं का १८००० टन सोना है जो संपूर्ण विश्व का ११% से अधिक है। है न खुश होने की बात! भारत गरीबों का देश है मगर यहां दुनिया के सबसे बड़े और ज्यादा अमीर बसते हैं। स्विस बैंक एसोसिएशन ने खुलासा किया है कि उसके बैंकों में भारतियों के कुल ६५,२२३ अरब रूपये जमा हैं और इस मामले में हम भारतीय अव्वल हैं। स्विटजरलैंड तो केवल एक देश है, इसके अतिरिक्त भी कई देशों में भारतियों का काला धन जमा है। ये देश वे देश हैं जहां की सरकारें इस तरह की कमाई जमा करने के लिए प्रोत्साहन देती हैं। जाहिर है यह काला धन भ्रष्ट राजनीतिज्ञों, आई ए एस , आई पी एस जैसे अन्य प्रशासनिक अधिकारियों और उद्योगपतियों का ही होगा। यहां यह बताना तर्कसंगत होगा कि स्विस बैंको में जमा यह धन हमारे जी डी पी का ६ गुना है। अगर यह धन देशमें वापिस आ जाए तो देश की अर्थव्यवस्था और आम आदमी की बल्ले-बल्ले हो जाएगी। प्राप्त आंकड़ो के अनुसार भारत को अपने लोगों का पेट भरने और देश को चलाने के लिए ३ लाख करोड़ रूपये का कर्ज लेना पड़ता है। यही कारण है कि जहाँ एक ओर प्रति व्यक्ति आय बढ़ रही है वहीं प्रति भारतीय पर कर्ज की मात्रा भी बढती जा रही है । एक अरब से अधिक आबादी और ३७% गरीबी के बीच भारत के हर नागरिक पर लगभग ८५००/- रूपये का विदेशी कर्ज है। जी हां! भारत में अगर बच्चा जन्म लेता है तो वह ८५०० रूपये के विदेशी कर्ज से दबा होता है। यदि स्विस बैंको में जमा धन का ३०-३५ प्रतिशत भी देश में आ गया तो हमें आई एम एफ़ या विश्व बैंक के सामने कर्ज के लिए हाथ नहीं फ़ैलाने पड़ेंगे। यदि यह सारा धन भारत को मिल जाता है तो देश को चलाने के लिए बनाया जाने वाला बज़ट बिना टैक्स के ३० साल के लिए बनाया जा सकता है। स्विस बैंको में जमा धन का २५-३०% भी अगर देश को मिल जाए तो २० करोड़ नई नौकरियां पैदा की जा सकती हैं। यानी बहार ही बहार। पल भर में देश से गरीबी दूर।
बात तरक्की की रफ़्तार पर गर्वित होने की हो रही है तो यह भी जानते चलें कि अमेरिकी बिजनेस पत्रिका फ़ोर्ब्स के अनुसार २०० एशियाई कम्पनियों में ३९ भारतीय कंपनियों ने जगह बनाई है। इस सूची में सबसे ज्यादा ७१ कंपनियां चीन व हांगकांग की हैं। भारत दूसरे स्थान पर है। इसी क्रम में फोर्चून-५०० की सूची में भी ८ भारतीय कम्पनियों ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। भारतीय उद्योगपति धड़ाधड़ विदेशी कंपनियों को खरीद रहे हैं और दुनिया को बता रहे हैं की हम किसी से कम नहीं। अब कंपनियां और उद्योगपति कमा रहे हैं तो सरकार भी क्यों पीछे रहे। सरकार को जहाँ 3 जी स्पेक्ट्रम सेल से ६७,७१९ करोड़ की राशि मिली है तो ब्रॉड बैंड नीलामी से ३८००० करोड़ की कमाई हुई है। साथ में सरकार के मंत्रियों-संतरियों के हाथ भी तर हो गए वह अलग। और शराब से जो कमाई सरकार को होती है, उसे कौन नहीं जानता। उसको छोड़ा भी नहीं जा सकता। चाहे एक पूरी की पूरी पीढ़ी ही उसमे क्यों न डूब कर बर्बाद हो जाए।
कुछ महान व्यक्ति भी इस वर्ष में जोर-शोर से उभरे। भ्रष्टाचार में रिकार्ड तोड़ प्रदर्शन के लिए सबसे ऊपर रहे दूरसंचार मंत्री ए.राजा। २ जी स्पेक्ट्रम घोटाला (१.७६ लाख करोड़ रूपये) , सुरेश कलमाड़ी(कोमन वैल्थ गेम घोटाला) ,अशोक चौहान (मुख्य मंत्री -महाराष्ट्र, आदर्श सोसाइटी घोटाला) , एस येदुरप्पा (मुख्यमंत्री, कर्नाटक), सौमित्र सेन(पूर्व न्यायाधीश , कोलकोता हाईकोर्ट), ललित मोदी (पूर्व अध्यक्ष-आई पी एल ) शशि थरूर आदि-आदि। इन सभी महान आत्माओं को एक अरब से अधिक भारतीयों का कोटि-कोटि नमन। लेकिन कुछ ऐसे भी नाम रहे जिन्होंने विश्व मानचित्र पर अपने नाम के साथ-साथ अपने देश का नाम भी अंकित किया। इनमे प्रसिद्ध बांसुरी वादक श्री हरी प्रसाद चौरसिया (संगीत में योगदान के लिए फ़्रांस का सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'शेवेलियर डेंस ला आर्दरी देस आर्ट्स एंड देस लेटर्स') , मुकेश अंबानी 'एशिया सोसाइटी का ग्लोबल विजनअवार्ड', नंदन नीलेकनी-येल विश्वविद्यालय का सर्वोच्च सम्मान 'लीजेंड इन लीडरशिप', और नि:संदेह कॉमंवेल्थ और एशियन गेम्स में अपने बलबूते पर विजयी हुए। कुछ खिलाडी जिन्होंने हमें गर्वित होने का कुछ अवसर प्रदान किया। २०१० के जाते-जाते सचिन तेंदुलकर ने टेस्ट मैचों में अपना ५० वा शतक ठोक कर दुनिया के नक़्शे पर नए चिन्ह अंकित कर दिए। लेकिन उनका महत्व इन ५० टेस्ट शतको से अधिक इसलिए है कि उन्होंने इससे पहले करोड़ो का ऑफर ठुकरा कर शराब के विज्ञापन में काम करने से इंकार कर दिया था। और इस लिए भी कि उनको संयुक्त राष्ट्र संघ पर्यावरण कार्यक्रम का नया सदभावना राजदूत बनाया गया है। इसके अतिरिक्त डॉक्टर तथागत तुलसी जिन्होंने महज २२ साल की उम्र में ही आई आई टी मुंबई में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर बनने का सबसे कम उम्र का रिकॉर्ड बनाया। डॉक्टर तुलसी ने पिछले दिनों इंडियन इंस्‍टीटयूट ऑफ़ साइंस, बेंगलुरु से पी.एच.डी.कर भारत का सबसे युवा पी एच डी होल्डर होने का रिकॉर्ड बनाया था। साथ ही उल्लेख किया जाना चाहिए प्रसिद्ध गणितज्ञ आंनंद का जिनके द्वारा स्थापित कोचिंग संस्थान सुपर-३० को अमेरिका की प्रतिष्ठित टाइम मैग्‍जीन ने एशिया का सर्वोत्तम स्कूल माना है। बीते वर्ष यहाँ के सभी ३० विद्यार्थी आई आई टी प्रवेश परीक्षा में सफल रहे थे। कभी पैसे की कमी के कारण उच्च शिक्षा के लिए निमंत्रण के बावजूद कैम्ब्रिज विश्वविधालय नहीं जा सके आनंद ने १९८६ में रामानुजम स्कूल ऑफ़ मैथ्स की स्थापना की, जहां निर्धन मेधावी बच्चों को निशुल्क शिक्षा दी जाती है। यहीं एक और नाम जो उम्मीद की कई अजीम किरणे एक साथ जगाता है , वह है विप्रो के अध्यक्ष अजीम प्रेमजी का। कार्पोरेट जगत के इस महारथी ने एक बार फिर दो अरब डॉलर मूल्य के शेयर अपने एक धर्मार्थ ट्रस्ट को दान कर दिए। इस धन से यह ट्रस्ट शिक्षा सेवाओं का विस्तार करेगा। क्या मुकेश अंबानी, अनिल अंबानी, लक्ष्मी मित्तल, रूइया भाई , के पी सिंह और सुनील मित्तल तक यह समाचार नहीं पहुंचा होगा। ये लोग भी इस तरह का कुछ सोचेंगे या सिर्फ अपने साम्राज्‍य को अपने लिए ही बढ़ाने में लगे रहेंगे।
लौटकर एक बार फिर रुखसत होने को आतुर 2010 पर आते हैं। बढ़ते हुए लूट, हत्या , बलात्कार, हिंसा-प्रतिहिंसा, आतंकवाद और अलगाववाद की और लौटते हैं। क्या कुसूर है 2010 का! बोते क्या आ रहे है हम! फिर अच्‍छा काटने का सोचे भी किस उम्‍मीद से। स्वतंत्रता के बाद से ही निरंतर गिरने का सिलसिला जारी है। शिक्षा, स्वास्थ्य, नैतिकता, देश प्रेम ,संस्कृति , मर्यादा, संवेदना और करुणा आदि सारे मानवी मूल्य भूल गए हैं हम। हर मोर्चे पर विफल। जरा अपने बच्चों से पूछ कर देखें कि कितना जानते हैं वे महात्मा गाँधी, चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, रामप्रसाद बिस्मिल, सुभाष चंद बोस, गोपाल कृष्ण गोखले और लाला लाजपत राय के बारे में। महाराणा प्रताप, शिवाजी और रानी लक्ष्मी बाई तो इतिहास की परतों में कहीं बहुत दूर गुम हो गए हैं उनके लिए। राष्ट्रीय गीत और राष्ट्रीय गान में अंतर पता है उन्हें। अंतर नहीं पता, अर्थ ही पता है क्या। भौतिकवाद और आर्थिक समृद्धि की अंधी दौड़ में शामिल हम लोग आखिर क्या उदाहारण स्थापित कर रहें हैं नई पीढ़ी के सामने। रोल मॉडल कौन हैं उनके आज । 'आदर्श' शब्द अपना अर्थ तो खो ही चुका है, अब अपना अस्तित्व ही न खो बैठे। क्योंकि आज की पीढ़ी अपने रोल मॉडल इतिहास से नहीं वर्तमान से उठा रही है। ये वे चेहरे होते हैं जो आज तो चमकते दिखाई देते हैं लेकिन अगले ही पल उन्हें दरकते भी देर नहीं लगती। अपने बच्चों के लिए समय नहीं है आज हमारे पास। हां, सुख सुविधा के नाम पर सब कुछ देने को तैयार हैं हम उन्हें। कंप्यूटर और इंटरनेट के माध्यम से यह सब कुछ हासिल भी हो रहा है उन्हें,शायद कुछ ज्यादा ही; वह भी समय से पहले। यही कारण है कि अब न उनके पास धैर्य है, न संयम, और न ही सोचने समझने का समय। जो भी हासिल करना है, अभी हासिल करना है, एकदम, बिना समय गंवाए। और इस हासिल करने के बीच में जो भी आएगा, उसे हटा दिया जाएगा या मिटा दिया जाएगा। अंतरराष्ट्रीय स्तर से लेकर राष्ट्रीय, सामाजिक और पारिवारिक स्तर तक एक अजीब सी आपाधापी मची हुई है और हम सब शामिल हैं इसमें। बड़े राष्ट्र अपने स्वार्थों के लिए छोटे राष्ट्रों को मोहरा बना रहे हैं तो देश में राजनितिक पार्टियां एक दूसरे की टांगे खींच रही हैं। सरकार संवेदनाशून्य और दायित्वहीन है तो विपक्ष दिग्भ्रमित। जनता इनके लिए खिलौने से बढ़कर कुछ नहीं। आज हम खेल रहे हैं कल तुम खेल सको तो खेल लेना। अपना स्वार्थ पहले है देश, समाज कहीं पीछे छूट गए हैं। अपने गिरेबान में झांकने की न जरूरत हैं, न फुर्सत है किसी को। हम से बड़ा संत कोई नहीं है और तुम से बड़ा भ्रष्टाचारी कोई नहीं, यही सिद्ध करने में लगे हैं सब। दामन दागदार हैं, चेहरे कालिख पुते, पर मान कैसे लें। तुम कौन से दूध के धुले हो जो मेरे दामन के दाग दिखा रहे हो। सब कुछ सामने है, स्पष्ट है पर स्वीकार कैसे कर लें। और यही सब आगामी पीढियां देख रही हैं, समझ रही हैं, सीख रही हैं। हम खुश हैं तरक्की कर रहे हैं न। विकासशील से विकसित देश में तब्दील होते जा रहे हैं। इतना कुछ दे कर जा रहा है तू हमें २०१०। शुक्रिया ....
शुभकामनाएं २०११ के लिए भी देना चाहता हूं , पिछले वर्षों की तरह इस बार भी। कुछ नैतिक मूल्य स्थापित हों, कुछ संवेदनाएं जागें। अन्याय, अनाचार पर कुछ अंकुश लगे, महंगाई कुछ कम हो। और इन दुआओं में कुछ असर है , थोड़ा सा यकीन भी आ जाए।

ये मंजिलों का सफ़र है यकीन तो आए
हंसी ख़ुशी की डगर है यकीन तो आए
मैं आज करता हूं तेरे लिए दुआ लेकिन
मेरी दुआ में असर है यकीन तो आए

और अंत में बकौल शाहिद मीर उस ऊपर वाले से सिर्फ इतनी चाह है २०११ में आपके और अपने लिए -

ऐ खुदा रेत के सहरा को समंदर कर दे
या छलकती हुई आंखों को ही पत्थर कर दे
और कुछ तो मुझे दरकार नहीं है लेकिन
मेरी चादर मेरे पाँवों के बराबर कर दे

Thursday, December 23, 2010

बापू के इस देश में

बापू के इस देश में, छाये हिंसक लोग|
जिस जानिब भी देखिए, बढ़ा द्वेष का रोग||
बढ़ा द्वेष का रोग, अजब संयोग बनाते|
जब चाहें, दीवाली, आदमख़ोर मनाते|
अत्याचार, अनीति बने सत्ता के टापू|
जान बचाने, फिर से आ जाओ ना बापू||

नवीन सी चतुर्वेदी

Saturday, December 18, 2010

तंदूर से फ्रिजर तक : भुनती और जमती औरत

करीब पंद्रह साल पहले एक आदमी ने अपने प्‍यार को तंदूर में भून डाला था और पंद्रह साल बाद एक दूसरे आदमी ने अपने प्‍यार को बर्फ में जमा दिया। पंद्रह सालों में दुनिया बदल गई लेकिन नहीं बदला तो 'मर्द' और उसकी 'मर्दानगी'। दुनिया में हम विकासशील से विकसित की दौड़ में पंहुच गए तो मर्द भी तंदूर से डीप-फ्रिजर तक पंहुच गया। कहते हैं कि शिक्षा के साथ संपन्‍नता और सभ्‍यता में भी इजाफा होता है लेकिन लगता है कि दरिंदगी की रफ्तार इन सबसे कई गुना चलती है; तभी तो देहरादून की अनुपमा बहत्‍तर टुकड़ों में कटकर डीप फ्रिजर में पड़ी रही और उसके कथित तौर पर शिक्षित, सभ्‍य और संपन्‍न पति सत्‍तावन दिनों तक एक दिन भी आत्‍मग्‍लानि नहीं हुई। कहते हैं कि हिंदु या भार‍तीय शादियां किसी लाटरी की तरह होती हैं। शादी के बाद ही पता चलता है कि लाटरी लाख की हुई या खाक की। लेकिन सोफ्टवेयर इंजीनियर राजेश गुलाटी ने तो उड़ीसा की अनुराधा को दिल की आवाज पर अपनी संगिनी बनाया था। दोनों ने लव मैरिज की थी और अमेरिका में रहने के बाद जब वह अपने वतन लौटे तो देहरादून में आकर बस गए। अनुराधा के जुड़वा बच्‍चे हुए जो उनके साथ ही रह रहे थे और अब चार साल के हैं। तब आखिर ऐसा क्‍या हुआ जिसने आदमी को दरिंदा बना दिया या यूं कहिए कि आदमी की खोल में छिपा दरिंदा यकायक बाहर आ गया। क्‍या मर्दानगी ही आदमी की दरिंदगी है या दरिंदगी में ही मर्दानगी का वास होता है या फिर औरत इस सृष्टि में इसी तरह के किसी हश्र के लिए जन्‍मी है।
आज से करीब पंद्रह साल पहले दो जुलाई 1995 को नैना साहनी तंदूर में मुर्गे की तरह भूनी गई थी। उसके राजनेता पति ने गोली मारकर उसे तंदूर में सेंक दिया था। नैना साहनी के दबंग पति सुशील शर्मा को शक था कि उसकी पत्‍नी के किसी दूसरे मर्द के साथ संबंध हैं। सुशील ने अपनी पायलट पत्‍नी की उड़ान बंद करने के लिए पहले उसे गोली मारी और फिर उसके टुकड़े कर उसे एक होटल के तंदूर में डालकर भूनना शुरु कर दिया ताकि कोई सुबूत ही न बचे लेकिन वहां से गुजर रहे एक सिपाही की आत्‍मा तंदूर से उठती गंध ने जगा दी और वह थाने से पुलिस लेकर पंहुच गया। सुशील शर्मा तो मौके से फरार हो गया लेकिन होटल का मालिक केशव हत्‍थे चढ़ गया तो पता चला कि दिल्‍ली युवा कांग्रेस का कद्दावर नेता सुशील अपनी पत्‍नी के टुकड़ों को तंदूर में भून रहा था। ठीक कुछ इसी तरह राजेश गुलाटी ने बीती 17 अक्‍टूबर को पहले अपनी पत्‍नी का वध किया और उसके बाद बाजार से डीप फ्रिजर लाकर उसमें जमा दिया। इसके बाद उसके शातिर दिमाग ने बाजार से पत्‍थर काटने का कटर और आरी लेकर उसके 72 टुकड़े किए और धीरे-धीरे एक-एक टुकड़े को वह मंसूरी की वादियों में फेंककर ठिकाने लगाता रहा। उसके बच्‍चे मां को याद करते तो वह उन्‍हें पुचकार कर चुप करा देता कि उनकी मां दिल्‍ली गई है, जल्‍दी आ जाएगी। यदि राजेश की ससुराल से फोन आता तो वह उन्‍हें भी कोई बहाना बनाकर टरका देता। बाहर का कोई आदमी राजेश पर दरिंदा होने का शक भी नहीं कर सकता था क्‍योंकि अमेरिका में नौकरी कर लौटा सोफ्टवेयर इंजीनियर राजेश आज की सोसायटी के लिए एक आयकॉन भी था। सुशील को तो मौत की सजा सुना दी गई और हो सकता है कि दस-बीस साल में राजेश का भी वही हश्र हो लेकिन सवाल उठता है कि समाज के उस वर्ग के लोग दरिंदंगी की सीमाएं क्‍यों पार कर रहे हैं जिनको समाज एक बिंब की तरह देखता है; जिन से प्रभावित होता है और उनकी तरफ देखकर वैसा ही बनने की आकांक्षा पालता है।
ऐसा नहीं है कि नैना और अनुपमा दो ही उदाहरण हैं। ऐसी घटनाएं हमारे समाज में अलग-अलग जगहों पर आए दिन घटित होती हैं। इनमें से बहुत सी घटनाएं तो कभी अखबारों की सुर्खियां भी नहीं बनतीं। जेसिका लाल, प्रियदर्शन मट्टू या कुसुम बुद्धिराजा जैसे नाम तो मीडिया की सुर्खियों की वजह से जाने जाते हैं वरना हमारा समाज आमतौर पर मर्द को माफ करने का ही हिमायती रहता है और बहुत सी अमानवीय दुराचार की कहानियां घर की चहारदीवारी से बाहर भी नहीं आ पातीं। अगर ऐसा न होता तो मुजफ्फरनगर की इमराना के बलात्‍कारी ससुर को गांव की पंचायत सिर्फ सात जूतों की सजा सुनाकर वरी न करती। यानी एक निरीह औरत की अस्‍मत गांव की पंचायत ने सिर्फ सात जूतों में ही निपटा दी लेकिन इमराना को भी हम मीडिया के जरिए ही जानते हैं वरना न जाने कितनी इमरानाएं रोजाना इस तरह के अत्‍याचार सहती हैं। समाज और पंचायते ही नहीं अदालतों का रवैया भी इससे कहीं इतर नहीं है। 1977 में महाराट की एक आदिवासी लड़की का थाने में ही बलात्‍कार हुआ था तब भी आरोपी सिपाहियों को वरी करते हुए मथुरा नाम की उस आदिवासी लड़की को ही निचली अदालत ने बदचलन करार दिया था। इस फैंसले पर भी खूब हंगामा हुआ और बाद में हाईकोर्ट ने दोनों बलात्‍कारी सिपाहियों को आजीवन कारावास की सजा दी लेकिन एक बात साफ है कि औरत की आबरू मर्द के नजरिए में कोई अहमियत नहीं रखती। हर साल करीब पच्‍चीस हजार महिलाओं की इज्‍जत तार-तार होती है, इतनी ही अगुवा की जाती हैं तो इससे तीस गुना या और भी अधिक घर पर 'मर्दो' के हाथों रोज पिटती हैं।
सवाल उठता है कि इसके लिए दोषी समाज है, गिरते नैतिक मूल्‍य हैं या अपसंस्‍कृति इसके लिए दोषी है? क्‍या हमारी लाचार कानून-व्‍यवस्‍था इन पवृतियों को निरंकुश करने में सहायता नहीं कर रही है? सच तो यही है कि आज हमारी कानून-व्‍यवस्‍था की हालत दिल दहला देने वाली है। जेसिका लाल, प्रियदर्शिनी मट्टू, शिवानी भटनागर, मनू शर्मा, बीएमडब्‍लू कांड लगातार हमारे दिमाग में हथौड़े नहीं बजाते। नैना साहनी कांड में लाश को टुकड़ों में विभाजित कर तंदूर में भूना जाना क्‍या हमारे समाज के गर्त में जाने, उसके अधोपतन के उदाहरण नहीं है। या फिर एक पढ़े-लिखे विदेश में रहे एक सोफ्टवेयर इंजीनियर द्वारा अपनी पत्‍नी की हत्‍या कर पत्‍थर काटने की मशीन से उसके टुकड़े कर उसे डीप फ्रिज में रखना आदमी के पत्‍थर हो जाने की कहानी नहीं तो और क्‍या है? आदमी के दरिंदा होने की कहानियां हमारे समाज में लगातार क्‍यों बढ़ रहीं हैं; ये एक ऐसा यक्षप्रश्‍न है जिसका हल किसी युधीष्ठिर के पास ही हो सकता है लेकिन अफसोस कि हमारा समाज आजकल दुशासन पैदा कर रहा है और उनके हाथ भी खून से रंगे हुए हैं जिनपर युगनिर्माण की जिम्‍मेदारी है। ऐसे में कहना मुश्किल है कि कब तक नैना तंदूर में और अनुपमा बर्फ में जमती रहेंगी...ये दो तो फिलहाल एक प्रतीक हैं वरना इस वेद में तो ऋचाएं बहुत हैं।

Monday, December 6, 2010

होठों को जो देखें, कँवल, बेमौत मरते हैं

ए यार तेरे दर से हम जब भी गुजरते हैं|
कुछ बोल तो पाते नहीं, बस आह भरते हैं||

कानों की बाली चंद्रमा से होड़ करती है|
होठों को जो देखें, कँवल, बेमौत मरते हैं||

पलकें झुका कर के जभी तू मुस्कुराती है|
अल्ला कसम लगता है जैसे फूल झरते हैं||

दिल ने कभी का हालेदिल समझा दिया दिल को|
लब बोल ही पाते नहीं कि प्यार करते हैं||

नवीन सी चतुर्वेदी

चल मन उठ अब तैयारी कर - गीत

यह गीत नहीं है एक सच है । ऐसा सच, जो जिसको जब समझ में आ जाये तब ठीक। सारा जीवन आपा-धापी में गुजारने के बाद कभी न कभी यह सच ज़रूर सामने आता है कि अब तक जैसे भी जिए, जो कुछ भी किया, वह सब अंततः मिथ्या ही था। हर तरफ धन-दौलत, शौहरत, रिश्तों -नातों की अपार भीड़ में घिरे रहकर भी मन कहीं अकेला खड़ा दिखाई देता है। और तब स्वीकारना पड़ता है इस अंतिम सच को। आप सब सुधि पाठकों की प्रतिक्रियाएं अपेक्षित हैं.

गीत-

चल मन, उठ अब तैयारी कर
यह चला - चली की वेला है

कुछ कच्ची - कुछ पक्की तिथियाँ
कुछ खट्टी - मीठी स्मृतियाँ
स्पष्ट दीखते कुछ चेहरे
कुछ धुंधली होती आकृतियाँ

है भीड़ बहुत आगे - पीछे,
तू, फिर भी आज अकेला है।

मां की वो थपकी थी न्यारी
नन्ही बिटिया की किलकारी
छोटे बेटे की नादानी,
एक घर में थी दुनिया सारी

चल इन सबसे अब दूर निकल,
दुनिया यह उजड़ा मेला है।

कुछ कड़वे पल संघर्षों के
कुछ छण ऊँचे उत्कर्शों के
कुछ साल लड़कपन वाले भी
कुछ अनुभव बीते वर्षों के

अब इन सुधियों के दीप बुझा
आगे आँधी का रेला है।

जीवन सोते जगते बीता
खुद अपने को ठगते बीता
धन-दौलत, शौहरत , सपनो के
आगे पीछे भगते बीता

अब जाकर समझ में आया है
यह दुनिया मात्र झमेला है

झूठे दिन, झूठी राते हैं
झूठी दुनियावी बाते हैं
अंतिम सच केवल इतना है
झूठे सब रिश्ते- नाते हैं

भूल के सब कुछ छोड़ निकल
अब तक यहाँ जो झेला है ।

इससे पहले तन सड़ जाये
कांटा सा मन में गड़ जाये
पतझर आने से पहले ही
पत्ता डाली से झर जाये

उससे पहले अंतिम पथ पर
चल, चलना तुझे अकेला है।

कुमार अनिल -

Monday, November 29, 2010

हमने तुमको ओ साथी पुकारा बहुत

एक गीत -

हमने तुमको साथी पुकारा बहुत,
मुड़ के तुमने ही एक बार देखा नहीं
चौंधियाए रहे रूप की धूप से
और ह्रदय में बसा प्यार देखा नहीं

क्या बताऊँ कि कल रात को किस तरह
चाँद तारे मेरे साथ जगते रहे
जाने कब तुम चले आओ ये सोच कर
खिड़की दरवाजे सब राह तकते रहे

महलों- महलों मगर तुम भटकते रहे
इस कुटी का खुला द्वार देखा नहीं

कल की रजनी पपीहा भी सोया नहीं
पी कहाँ- पी कहाँ वो भी गाता रहा
एक झोंका हवा का किसी खोज में
द्वार हर एक का खटखटाता रहा

स्वप्न माला मगर गूँथते तुम रहे
फूल का सूखता हार देखा नहीं

फूल से प्यार करना है अच्छा मगर
प्यार की शूल को ही अधिक चाह है
अहमियत मंजिलों की उन्ही के लिए
जिनके बढ़ने को आगे नहीं राह है

बिन चले मंजिले तुमको मिलती रहीं
तुमने राहों का विस्तार देखा नहीं

हमने तुमको साथी पुकारा बहुत
मुड़ के तुमने ही एक बार देखा नहीं .

-कुमार अनिल

Thursday, November 25, 2010

पेड़, पर्यावरण और काग़ज़

कटते जा रहे हैं
पेङ
पीढी दर पीढी

बढता जा रहा है
धुंआ
सीढी दर सीढी

अपने अस्तित्व की
रक्षा के लिये ,
चिन्तित है -
कागजी समुदाय

हावी होता जा रहा है
कम्पयुटर,
दिन ब दिन ,
फिर भी
समाप्त नहीं हुआ -
महत्व,
कागज का अब तक

बावजूद
इन्टरनेट के ,
कागज
आज भी प्रासंगिक है -
नानी की चिठ्ठियों में ,
दद्दू की वसीयत में

कागज ही
होता है इस्तेमाल ,
हर मोङ पर
जिन्दगी के

परन्तु
थकने भी लगा है
कागज
बिना वजह
छपते छपते

कागज के अस्तितव के लिये
जितने जरूरी हैं
पेङ,
पर्यावरण,
आदि आदि ,
उतना ही जरूरी है -
उनका सदुपयोग -
सकारण
अकारण नहीं


नवीन सी चतुर्वेदी

Thursday, November 18, 2010

शेर कह कर, सुकून सा पाया

उठ के देखा, तो रास्ता पाया,
दोस्त को, राह पर खङा पाया|
मिट गयीं सब शिकायतें दिल की,
दिल से दिलदार को जो चिपटाया|१|

कल जो बोया था, बीज कोशिश का,
आज उसका ही फल, 'बढा' पाया|
दोस्त, इन्सानियत के पेङों को,
सख्त तूफाँ भी ना झुका पाया|२|

वो उजाला भी क्या उजाला है,
जो अँधेरों को ना मिटा पाया|
इस अमीरों के मुल्क को यारो,
भुखमरी से, निरा, पटा पाया|३|

बात करता है वो, सलीके से,
उसकी नीयत में, 'खोट' सा पाया|
वोट ले कर, वो हो गया गायब,
हमने खुद को, ठगा ठगा पाया|४|

कामयाबी के जश्न से पहले,
देख, क्या खोया और क्या पाया|
बन गया 'साब' कल जो था 'लेबर'
फिर भी, 'रोटी' वो ना जुटा पाया|५|

इसलिये लोग बन गये 'अहमक',
सब को रब, 'अक्ल' ना लुटा पाया|
सैंकङों से, चुरा के सुन्दरता-
चंद रुख, खूबरू बना पाया|६|

उस[*] से लङता रहा हूं अरसे से,
उस को लेकिन, न मैं हरा पाया|
हर दफा, खुद को ही किया है चुप,
उस को खामोश ना करा पाया|७|

उसने पूछा, कयूं कहते हो गजलें?
कोई कारण नहीं बता पाया!
जो भी देखा, जिया, सुना, सोचा,
खुद ब खुद शेर में ढला पाया|८|

ऐसा सुन के, वो पूछता है फिर,
शेर पढ़ कर के, तुमने क्या पाया?
कश-म-कश थी, कि छोङती ही न थी
शेर कह कर, सुकून सा पाया|९|


अहमक = मूर्ख / बुद्धू
रुख = चेहरे
खूबरू = सुन्दर / खूबसूरत
[*] इस ग़ज़ल में 'उस' का सन्दर्भ:
पूछने वाला मेरे अंदर का भौतिक व्यक्ति
जवाब देने वाला मेरे अंदर का क्रियात्मक व्यक्ति


नवीन सी चतुर्वेदी

Tuesday, November 16, 2010

एक कविता मृत्यु के नाम

मृत्यु तू आना
तेरा स्वागत करूँगा

किन्तु मत आना
कि जैसे कोई बिल्ली
एक कबूतर की तरफ
चुपचाप आती
फिर झपट्टा मरती है यकबयक ही
तोड़ गर्दन
नोच लेती पंख
पीती रक्त उसका
मृत्यु तुझको
आना ही अगर है पास मेरे
तो ऐसे आना
जैसे एक ममतामयी माँ
अपने किसी
बीमार सुत के पास आये
और अपनी गोद में
सिर रख के उसका
स्नेह से देखे उसे
कुछ मुस्कुरा कर
फिर हथेली में
जगत का प्यार भर कर
धीरे से सहलाये उसका तप्त मस्तक
थपथपा कर पीर
कर दे शांत उसकी
और मीठी नींद में
उसको सुला दे

मृत्यु !
स्वागत है तेरा
जब चाहे आना

किन्तु मत आना
कि आता चोर जैसे
और ले जाता
उमर भर क़ी कमाई
तू दबे पाँव ही आना चाहती है
तो ऐसे आना
जैसे कोई भोला बच्चा
आके पीछे से अचानक
दूसरे की
अपने कोमल हाथ से
बंद आँख कर ले
और फिर पूछे
बताओ कौन हूँ मैं ?

तू ही बता
वह क्या करे फिर
मीची गई हैं आँख जिसकी
और जिससे
प्रश्न यह पूछा गया है
है पता उसको
कि किसके हाथ हैं ये
कौन उसकी पीठ के पीछे खड़ा है
किन्तु फिर भी
अभिनय तो करता है
थोड़ी देर को वह
जैसे बिल्कुल
जानता उसको नहीं है
और जब बच्चा वह
खुश होता किलकता
सामने आता है उसके
क्या करे वह ?
खींच लेता अंक में अपने
पकड़ कर
एक चुम्बन
गाल पर जड़ देता उसके

मृत्यु
तू भी इस तरह आये अगर तो
यह वचन है
तुझको कुछ भी
यत्न न करना पड़ेगा
मै तुझे
खुद खींच लूँगा
पास अपने
और
ऊँगली थाम
तेरी चल पडूँगा
तू जहाँ
जिस राह पर भी ले चलेगी

मृत्यु !
स्वागत है तेरा
जब चाहे आना

Monday, November 8, 2010

२ गजलें

(१)

हर शख्श है लुटा- लुटा हर शय तबाह है
ये शह्र कोई शह्र है या क़त्ल-गाह है

जिसने हमारे खून से खेली हैं होलियाँ
हाकिम का फैसला है कि वो बेगुनाह है

ये हो रहा है आज जो मजहब के नाम पर
मजहब अगर यही है तो मजहब गुनाह है

हम आ गए कहाँ कि यहाँ पर तो दोस्तों
रोशन- जहन है कोई, न रोशन निगाह है

दह्शतजदा परिंदा जो बैठा है डाल पर
यह सारे हादसों का अकेला गवाह है

मेरी ग़जल ने जो भी कहा, सब वो सच कहा
ये बात दूसरी है कि सच ये सियाह है

ये शहरे सियासत है यहाँ आजकल 'अनिल'
इंसानियत की बात भी करना गुनाह है

(२)

सुरमई शाम का मंज़र होते, तो अच्छा होता
आप दिल के भी समंदर होते, तो अच्छा होता

बिन मिले तुमसे मैं लौट आया, कोई बात नहीं
फिर भी कल शाम को तुम घर होते, तो अच्छा होता

माना फनकार बहुत अच्छे हो तुम दोस्त मगर
काश इन्सान भी बेहतर होते , तो अच्छा होता

हम से बदहालों, नकाराओं, बेघरों के लिए
काश फुटपाथ ये बिस्तर होते, तो अच्छा होता

मैं जिसमे रहता भरा ठन्डे पानियों की तरह
आप माटी की वो गागर होते, तो अच्छा होता

यूं तो जीवन में कमी कोई नहीं है, फिर भी
माँ के दो हाथ जो सर पर होते, तो अच्छा होता

तवील रास्ते ये कुछ तो सफ़र के कट जाते
तुम अगर मील का पत्थर होते, तो अच्छा होता

तेरी दुनिया में हैं क्यूं अच्छे- बुरे, छोटे- बड़े
सारे इन्सान बराबर होते तो, अच्छा होता

इनमें विषफल ही अगर उगने थे हर सिम्त 'अनिल'
इससे तो खेत ये बंजर होते , तो अच्छा होता

-कुमार अनिल

Saturday, November 6, 2010

कैसे भूलूँ बचपन अपना

कैसे भूलूँ बचपन अपना , अपना बचपन कैसे भूलूँ

मन गंगाजल सा निर्मल था डर था नहीं पाने खोने का
रूठे भी कभी जो मीत से तो झगडा था एक खिलौने का
वो प्रीत मधुर कैसे भूलूँ , मधुरिम अनबन कैसे भूलूँ

माँ की गोदी में शावक सा जब थक कर मैं सो जाता था
उस आँचल के नीचे मेरा ब्रह्माण्ड सकल हो जाता था
अब जाकर कहाँ हँसूं किलकूं , गलबहियां डाल कहाँ झूलूँ

बचपन की भेंट चढ़ा कर जो पाया तो क्या पाया यौवन
स्पर्श- परस सब पाप हुए बदनाम हैं चुम्बन -आलिंगन
हर तरफ खिंची हैं सीमायें, किसकी पकड़ू किसको छू लूं


Thursday, September 23, 2010

तुम्हारे बिना अयोध्या

राम !
तुम्हारी अयोध्या मैं कभी नहीं गया
वहाँ जाकर करता भी क्या
तुमने तो ले ली
सरयू में जल समाधि.

अयोध्या तुम्हारे श्वासों में थी
बसी हुई थी तुम्हारे रग-रग में
लहू बन कर .
तुम्हारी अयोध्या जमीन का
कोई टुकड़ा भर नहीं थी
न ईंट गारे की बनी
इमारत थी वह.
अयोध्या तो तुम्हारी काया थी
अंतर्मन में धड़कता दिल हो जैसे .

तुम भी तो ऊब गए थे
इस धरती के प्रवास से
बिना सीता के जीवन
हो गया था तुम्हारा निस्सार
तुम चले गए
सरयू से गुजरते हुए
जीवन के उस पार.
तुम गए
अयोध्या भी चली गई
तुम्हारे साथ .

अब अयोध्या में है क्या
तुम्हारे नाम पर बजते
कुछ घंटे घडियाल.
राम नाम का खौफनाक उच्चारण
मंदिरों के शिखर में फहराती
कुछ रक्त रंजित ध्वजाएं.
खून मांगती लपलपाती जीभें
आग उगलती खूंखार आवाजें.
हर गली में मौत की पदचाप
भावी आशंका को भांप
रोते हुए आवारा कुत्ते .

तुम्हारे बिना अयोध्या
तुम्हारी अयोध्या नहीं है
वह तो तुम्हारी हमनाम
एक खतरनाक जगह है
जहाँ से रुक -रुक कर
सुनाई देते हैं
सामूहिक रुदन के
डरावने स्वर.

राम !
मुझे माफ करना
तुम्हारे से अलग कोई अयोध्या
कहीं है इस धरती पर तो
मुझे उसका पता मालूम नहीं .

Wednesday, August 11, 2010

फिलहाल स्त्री विमर्श बेवफाई के विराट उत्सव की तरह है: विभूतिनारायण राय

महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय के कुलपति और साहित्‍यकार विभूति नारायण के जिस साक्षात्‍कार को लेकर साहित्‍य जगत में बखेड़ा खड़ा हुआ, उस पर इर्द-गिर्द पर आपने ऋचा जोशी का नजरिया और विभूति नारायण राय का अभिमत/माफीनामा पढ़ा। नया ज्ञानोदय में प्रकाशित इस साक्षात्‍कार को अभी भी बहुत से सुधी पाठक नया ज्ञानोदय के उस अंक की अनुपलब्‍धता के कारण नहीं पढ़ पाएं हैं। इर्द-गिर्द के सुधी पाठकों के आग्रह पर हम इस चर्चित साक्षात्‍कार को नया ज्ञानोदय से साभार प्रस्‍तुत कर रहे हैं।


राय साहब, नया ज्ञानोदय प्रेम के बाद अब बेवफाई पर विशेषांक निकालने जा रहा है, क्या प्रतिक्रिया है आपकी?

- काफी महत्त्वपूर्ण संपादक हैं रवीन्द्र कालिया। प्रेम पर निकाले गए उनके सभी अंकों की आज तक चर्चा है। इस तरह के विषय केन्द्रित विशेषांकों का सबसे बड़ा लाभ है कि न सिर्फ हिन्दी में बल्कि कई भाषाओं में लिखी गई इस तरह की रचनाएं एक साथ उपलब्ध् हो जाती हैं। साथ ही किसी विषय को लेकर विभिन्न पीढ़ियों का क्या नज़रिया है यह भी सिलसिलेवार तरीके से सामने आ जाता है। साहित्य के गम्भीर पाठकों, अध्येताओं के लिए ये अंक जरूरी हो जाते हैं। अब जब उन्होंने बेवफाई पर अंक निकालने की योजना बनायी है तो वह भी निश्चित तौर पर एक महत्त्वपूर्ण प्रसंग होगा।

लेकिन आलोचना भी खूब हुई थी उन अंकों की, खासकर कुछ लोगों ने कहा कि इतने महत्त्वपूर्ण मुद्दों को छोड़कर प्रेम और बेवफाई…

- हिन्दी में विध्न सन्तोषियों की कमी नहीं है। आखिर यदि वे इतने ही महत्त्वहीन अंक थे तो इतने बड़े पैमाने पर लोकप्रिय क्यों हुए? मुझे याद नहीं कि कालिया जी के संपादन को छोड़कर किसी पत्रिका ने ऐसा चमत्कार किया हो कि उसके आठ-आठ पुनर्मुद्रण हुए हों। कुछ तो रचनात्मक कुंठा भी होती है। जैसे उन विशेषांकों के बाद मनोज रूपड़ा की एक चलताउ सी कहानी किसी अंक में आयी थी, यह एक किस्म का अतिवाद ही है आप इतने बड़े पैमाने पर लिख जा रहे विषय का अर्थहीन ढंग से मजाक उड़ाएं। फिर लोगों को किसने रोका है कि वे प्रेम या बेवफाई को छोड़कर अन्य विषयों पर कहानी लिखें या विशेषांक न निकालें।

तो बेवफाई को आप कैसे परिभाषित करेंगे?

- बेवफाई की कोई सर्वस्वीकृत परिभाषा नहीं हो सकती। इसे समझने के लिए धर्म, वर्चस्व और पितृसत्ता जैसी अवधारणाओं को भी समझना होगा। यह इस उत्कट इच्छा की अभिव्यक्ति है जिसके तहत स्त्री या पुरुष एक-दूसरे के शरीर पर अविभाजित अधिकार चाहते हैं। प्रेमी युगल यह मानते हैं कि इस अधिकार से वंचित होना या एक-दूसरे से जुदा होना दुनिया की सबसे बड़ी विपत्ति है और इससे बचने के लिए वे मृत्यु तक का वरण करने के लिए तैयार हो सकते हैं। आधुनिक धर्मों का उदय ही पितृसत्ता के मजबूत होने के दौर में हुआ है। इसीलिए सभी धर्मों का ईश्वर पुरुष है। धर्मों ने स्त्री यौनिकता को परिभाषित और नियंत्रित किया है। उन्होंने स्त्री के शरीर की एक वर्चस्ववादी व्याख्या की है। इससे बेवफाई एकतरपफा होकर रह गई है। मर्दवादी समाज मुख्य रूप से स्त्रियों को बेवफा मानता है। सारा साहित्य स्त्रियों की बेवफाई से भरा हुआ है जबकि अपने प्रिय पर एकाधिकार की चाहना स्त्री-पुरुष दोनों की हो सकती है और दोनों में ही प्रिय की नज़र बचाकर दूसरे को हासिल करने की इच्छा हो सकती है।

देखा जाए तो, बेवफाई एक नकारात्मक पद है लेकिन इसका पाठ हमेशा रोमांटिक या लुत्फ देने वाला क्यों होता है?

-वर्जित फल चखने की कल्पना ही उत्तेजना से भरी होती है। यह मनुष्य का स्वभाव है। फिर यहां लुत्फ लेने वाला कौन है मुख्य रूप से पुरुष ! व्यक्तिगत संपत्ति और आय के स्रोत उसके कब्जे में होने के कारण वह औरतों को नचाकर आनन्द ले सकता है, उन्हें रखैल बना सकता है, बेवफा के तौर पर उनकी कल्पना कर उन्हें अपने फैंटेसी में शामिल कर सकता है। पर जैसे-जैसे स्त्रियां व्यक्तिगत संपत्ति या क्रय शक्ति की मालकिन होती जा रही हैं धर्म द्वारा प्रतिपादित वर्जनाएं टूट रही हैं और लुत्फ लेने की प्रवृत्ति उनमें भी बढ़ रही है।

हिन्दी समाज से कुछ उदाहरण….

-क्यों नहीं। पिछले वर्षों में हमारे यहां जो स्त्री विमर्श हुआ है वह मुख्य रूप से शरीर केन्द्रित है। यह भी कह सकते हैं कि यह विमर्श बेवफाई के विराट उत्सव की तरह है। लेखिकाओं में होड़ लगी है यह साबित करने के लिए उनसे बड़ी छिनाल कोई नहीं है। मुझे लगता है कि इधर प्रकाशित एक बहु प्रमोटेड और ओवर रेटेड लेखिका की आत्मकथात्मक पुस्तक का शीर्षक `कितने बिस्तरों पर कितनी बार´ हो सकता था। इस तरह के उदाहरण बहुत-सी लेखिकाओं में मिल जाएंगे। दरअसल, इससे स्त्री मुक्ति के बड़े मुद्दे पीछे चले गए हैं। मुझे इसमें कुछ भी असहज नहीं लगता। आखिर पहले पुरुष चटखारे लेकर बेवफाई का आनन्द उठाता था, अब अगर स्त्रियां उठा रही हैं तो हाय तौबा क्या मचाना। बिना जजमेंटल हुए मैं यह यहां जरूर कहूंगा कि यहां औरतें वही गलतियां कर रही हैं जो पुरुषों ने की थी। देह का विमर्श करने वाली स्त्रियां भी आकर्षण, प्रेम और आस्था के खूबसूरत सम्बंध को शरीर तक केन्द्रित कर रचनात्मकता की उस संभावना को बाधित कर रही है जिसके तहत देह से परे भी बहुत कुछ ऐसा घटता है जो हमारे जीवन को अधिक सुन्दर और जीने योग्य बनाता है।

क्या बेवफाई का जेण्डर विमर्श सम्भव है एक पुरुष और एक स्त्री के बेवफा होने में क्या अन्तर है?

-मैंने ऊपर निवेदन किया है कि बेवफाई को समझने के लिए व्यक्तिगत संपत्ति, धर्म या पितृसत्ता जैसी संस्थाओं को ध्यान में रखना होगा। एंगेल्स की पुस्तक परिवार, व्यक्तिगत संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति से बार-बार उद्धृत किया जाने वाला प्रसंग जिसमें एंगेल्स इस दलील को खारिज करते हैं कि लंबे नीरस दाम्पत्य से उत्कट प्रेम पगा एक ही चुंबन बेहतर है और कहते हैं कि यह तर्क पुरुष के पक्ष में जाता है। जब तक संपत्ति और उत्पादन के स्रोतों पर स्त्री-पुरुष का समान अधिकार नहीं होगा पुरुष इस स्थिति का फायदा स्त्री के भावनात्मक शोषण के लिए करेगा। असमानता समाप्त होने तक बेवफाई का जेण्डर विमर्श न सिर्फ सम्भव है बल्कि होना ही चाहिए।

हिन्दी साहित्य में तलाशना हो तो पुरुष के बेवफाई विमर्श का सबसे खराब उदाहरण नमो अंधकारम् नामक कहानी है। लोग जानते हैं कि कहानी इलाहाबाद के एक मार्क्सवादी रचनाकार को केन्द्र में रखकर लिखी गई थी। उसमें बहुत सारे जाने-पहचाने चेहरे हैं। इस कहानी के लेखक के एक सहकर्मी महिला के साथ सालों ऐलानिया रागात्मक सम्बंध् रह हैं। उन्होंने कभी छिपाया नहीं और शील्ड की तरह लेकर उसे घूमते रहे। पर उस कहानी में वह औरत किसी निम्पफोमेनियाक कुतिया की तरह आती है। लेखक ऐसे पुरुष का प्रतिनिधि चरित्र है जिसके लिए स्त्री कमतर और शरीर से अधिक कुछ नहीं है। मैं कई बार सोचता हूं कि अगर उस औरत ने इस पुरुष लेखक की बेवफाई की कहानी लिखी होती तो क्या वह भी इतने ही निर्मम तटस्थता और खिल्ली उड़ाउ ढंग से लिख पाती?

बेवफाई कहीं न कहीं एक ताकत का भी विमर्श है। क्या महिला लेखकों द्वारा बड़ी संख्या में अपनी यौन स्वतंत्रता को स्वीकारना एक किस्म का पावर डिसकोर्स ही है ?

-सही है कि बेवफाई पावर डिसकोर्स है। आप भारतीय समाज को देंखे! अर्ध सामन्ती- अर्धऔपनिवेशिक समाज- काफी हद तक पितृसत्तात्मक है। शहरीकरण, औद्योगीकरण, शिक्षा के बढ़ते अवसर या मूल्यों के स्तर पर हो रही उथल-पुथल ने स्त्री पुरुषों को ज्यादा घुलने-मिलने के अवसर प्रदान किए हैं। पर क्या ज्यादा अवसरों ने ज्यादा लोकतांत्रिक संबंध भी विकसित किए हैं? उत्तर होगा- नहीं। पुरुष के लिए स्त्री आज भी किसी ट्राफी की तरह है। अपने मित्रों के साथ रस ले-लेकर अपनी महिला मित्रों का बखान करते पुरुष आपको अकसर मिल जाएंगे। रोज ही अखबारों में महिला मित्रों की वीडियो क्लिपिंग बना कर बांटते हुए पुरुषों की खबरें पढ़ने को मिलेंगी। अभी हाल में मेरे विश्वविद्यालय की कुछ लड़कियों ने मांग की कि उन्हें लड़कों के छात्रावासों में रुकने की इजाजत दी जाए। मेरी राय स्पष्ट थी कि अभी समाज में लड़कों को ऐसा प्रशिक्षण नहीं मिल रहा है कि वे लड़कियों को बराबरी का साथी समझें। गैरबराबरी पर आधरित कोई भी संबंध अपने साथी की निजता और भावनात्मक संप्रभुता का सम्मान करना नहीं सिखाता। हर असफल सम्बंध एक इमोशनल ट्रॉमा की तरह होता है जिसका दंश लड़की को ही झेलना पड़ता है। पितृसत्तात्मक समाज में स्वाभाविक ही है कि स्त्री पुरुष के लिए एक ट्रॉफी की तरह है…जितनी अधिक स्त्रियां उतनी अधिक ट्रॉफियां।

महिला लेखिकाओं द्वारा बड़े पैमाने पर अपनी यौन स्वतन्त्रता को स्वीकारना इसी डिसकोर्स का भाग बनने की इच्छा है। आप ध्यान से देखें- ये सभी लेखिकाएं उस उच्च मध्यवर्ग या उच्च वर्ग से आती हैं जहां उनकी पुरुषों पर आर्थिक निर्भरता अपेक्षाकृत कम है। इस पूरे प्रयास में दिक्कत सिर्फ इतनी है कि यह देह विमर्श तक सिमट गया है और स्त्री मुक्ति के दूसरे मुद्दे हाशिये पर चले गए हैं।

पूंजी, तकनीक और बाजार ने मानवीय रिश्तों को नये सिरे से परिभाषित किया है। ऐसे में यह धारणा आयी है कि लोग बेवफा रहें लेकिन पता नहीं चले। यह कौन सी स्थिति है

-सही है कि बाजार ने तमाम रिश्तों की तरह आज औरत और मर्द के रिश्तों को भी परिभाषित करना शुरू कर दिया है। यह परिभाषा धर्म द्वारा गढ़ी- परिभाषा से न सिर्फ भिन्न है बल्कि उसके द्वारा स्थापित नैतिकता का अकसर चुनौती देती नज़र आती है। आप पाएंगे कि आज एसएमएस और इंटरनेट उस तरह के सम्बंध विकसित करने में सबसे अधिक मदद करते हैं जिन्हें स्थापित अर्थों में बेवफाई कहते हैं। पर आपके प्रश्न के दूसरे भाग से मैं सहमत नहीं हूं। विवाहेतर रिश्तों को स्वीकार करने का साहस आज बढ़ा है। पहली बार भारत जैसे पारंपरिक समाज में लिव इन रिलेशनशिप का चलन बढ़ा है। लोग ब्वॉय फ्रेंड या गर्ल फ्रेंड जैसे रिश्ते स्वीकारने लगे हैं। हां, यह जरूर है कि यह स्थिति उन वर्गों में ही अधिक है जहां स्त्रियां आर्थिक रूप से निर्भर नहीं हैं।

क्या कलाकार होना बेवफा होने का लाइसेंस है?

-इसका कोई सरलीकृत उत्तर नहीं हो सकता। कलाकार अन्दर से बेचैन आत्मा होता है। धर्म या स्थापित मूल्यों से निर्धारित रिश्ते उसे बेचैन करते हैं। वह बार-बार अपनी ही बनाई दुनिया को तोड़ता-फोड़ता है और उसे नये सिरे से रचता-बसता है। ऐसे में यह स्वाभाविक ही है कि उसकी अतृप्ति उसे नये-नये भावनात्मक सम्बंध् तलाशने के लिए उकसाती है। कलाकार के पास अभिव्यक्ति के औजार भी होते हैं इसलिए वह अपनी बेवफाई, जिसमें कई बार दूसरे को धोखा देकर छलने के तत्व भी होते हैं, को बड़ी चालाकी से जस्टिफाई कर लेता है। साधारण व्यक्ति पकड़े जाने पर जहां हकलाते गले और फक पड़े चेहरे से अपनी कमजोर सफाई पेश करने की कोशिश करता है वहीं कलाकार बड़ी दुष्टता के साथ छल सकने में समर्थ तर्क गढ़ लेता है। अकसर आप पाएंगे कि दूसरों को धोखा देने वाले तर्कों को रखते-रखते वह स्वयं उनमें यकीन करने लगता है। यदि एक बार फिर हिन्दी से ही उदाहरण तलाशने हों तो राजेन्द्र यादव की आत्मकथा इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। राजेन्द्र अपनी मक्कारी को साबित करने के लिए जिस झूठ और फरेब का सहारा लेते हैं, आप पढ़ते हुए पाएंगे कि मन्नू भण्डारी को कनविन्स करते-करते वे खुद विश्वास करने लगते हैं कि अपने साथी से छल-कपट लेखक के रूप में उनका अधिकार है।

यह सही कहा आपने, दरअसल हिन्दी में बेवफाई की सुसंगत और योजनाबद्ध शुरुआत नई कहानी की कहानियों और कहानीकारों से ही दिखती है।

-हां, लेकिन उसके ठोस कारण भी हैं। कहानी, उपन्यास, की जिस वास्तविक जमीन को छोड़कर ये मध्यवर्ग की कुंठाओं, त्रासदियों और अकेलेपन को सैद्दांतिक स्वरूप देने में मसरूफ थे, उसमें तो ऐसी स्थितियां पैदा होनी ही थी। यह अकारण नहीं कि ये विख्यात महारथी अपने जीवन काल में ही अपनी कहानियों से ज्यादा अपने (कु) कृत्यों के लिए मशहूर हो चले थे। राजेन्द्र जी तो अपनी मशहूरी अभी तक ढो रहे हैं।

Monday, August 9, 2010

कहे पर शर्मिंदा : बहस की अपेक्षा

इर्द-गिर्द पर विभूति नारायण राय के विवादास्‍पद साक्षात्‍कार पर प्रतिक्रिया में मेरा आलेख आपने पढ़ा। लेकिन मैं जरूरी समझती हूं कि इस मामले में विभूति नारायण का स्‍पष्‍टीकरण या अभिमत भी सबके सामने आए। इसी नजरिए से ये पोस्‍ट आपके सामने है।

नया ज्ञानोदय के अगस्त 2010 अंक में छपे मेरे इंटरव्यू पर प्रतिक्रियाओं से एक बात स्पष्ट हो गई कि मैंने अपनी लापरवाही से एक गंभीर विमर्श का हेतु बन सकने का मौका गंवा दिया। मैंने कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जिनसे बचा जा सकता था।
मुझे जैसे ही यह अहसास हुआ कि मेरी भाषा से हिंदी की बहुत सी लेखिकाओं को कष्ट हुआ है, मैंने अपनी गलती का अहसास किया और बिना शर्त माफी मांग ली। मैं शर्मिंदा हूं कि मेरी असावधानी से बहुत से ऐसे लोग आहत हुए, जो मेरे वर्षों पुराने मित्र रहे हैं। इनमें बड़ी संख्या में लेखिकाएं भी हैं, पर मेरे मन में उनके लिए सम्मान भी बढ़ा है कि मित्रता की परवाह किये बगैर उन्होने मेरी मरम्मत की। हालांकि कुछ लोग जो इस मामले को अन्य कारणों से जिंदा रखना चाहते हैं, इंटरव्यू में उठाये गए मुद्दों पर बहस न करके अब भी उन शब्दों के वाग्जाल में उलझे हुए हैं, जिन पर मैं खुद खेद प्रकट कर माफी मांग चुका हूं। मैं मानता हूं कि इन लोगों की
उपेक्षा कर अब मैं मुद्दों पर बहस की अपेक्षा कर सकता हूं।इंटरव्यू पर शुरूआती प्रतिक्रिया उन लोगों के तरफ से आई जिन्होंने उसे पढ़ा ही नहीं था। अब, जबकि अधिकतर लोगों ने इंटरव्यू पढ़ लिया है, मुझे लगता है उसमें उठाये गए प्रश्नों पर बातचीत होनी चाहिए। संक्षेप में कहूं तो मेरे मन में मुख्य शंका यह है कि महिला लेखन में देह-केंद्रित लेखन को कितना स्थान मिलना चाहिए। एक मित्र ने आपत्ति की कि यह प्रश्न पुरूषों के लेखन पर भी उठना चाहिए। सही है, पर विमर्श सिर्फ वंचित या हाशिए पर पहुंचे हुए तबकों के लेखन से निर्मित होता है। मसलन, दलित लेखन जैसा विमर्श निर्मित करता है, वैसा विमर्श ब्राह्मण लेखन नही कर सकता। दलित लेखन जहां मानवमुक्ति की कामना करता है या उसका मुख्य संघर्ष दबे-कुचलों को उनका खोया सम्मान वापस लौटाने के लिए होगा, वहीं यदि ब्राह्मण लेखन जैसा कोई लेखन किया जाये तो स्वाभाविक है कि उसकी चिंता का केंद्र मनुष्यविरोधी वरण व्यवस्था को वैध ठहराने के लिए तर्क तलाशना होगा और मुझे नहीं लगता कि ऐसे लेखन से कोई उल्लेखनीय विमर्श निर्मित होगा। इसी प्रकार महिला लेखन के केंद्र में स्त्री-मुक्ति के प्रश्न महत्वपूर्ण होंगे।
स्त्री-मुक्ति में अपनी देह पर स्त्री का अधिकार एक महत्वपूर्ण तर्क है, पर और भी गम है जमाने में मोहब्बत के सिवा। मेरा मानना है कि स्त्री देह पर अंतिम अधिकार उसका है, पर साथ में मैं यह भी मानता हूं कि भारत के संदर्भ में स्त्री-मुक्ति से जुड़े और भी महत्वपूर्ण मुद्दे हैं। आज भी परिवारों में निर्णय लेने का अधिकार सिर्फ पुरूषों को है, स्त्रियां केवल उन्हें लागू करती हैं। तमाम बहस-मुबाहिसों के बावजूद घरेलू श्रम के लिए उसका पारिश्रमिक तय नहीं हो पा रहा है। पंचायती राज की संस्थाओं में आरक्षण के बल पर चुनी गई महिलाओं में से बहुत सी अब भी घरों में कैद हैं और उनके प्रधान पति कागजों पर उनकी मुहरें लगाते हैं। बहुत से ऐसे मुद्दे हैं जिन पर बहस होनी चाहिए।
अंत में, इन सबसे महत्वपूर्ण यह प्रश्न कि क्या स्त्री-मुक्ति आइसोलेशन में हो सकती है? क्या आदिवासियों, अल्पसंख्यकों या दलितों के प्रश्नों से जोड़े बिना इस मुद्दे पर कोई बड़ी बहस खड़ी की जा सकती है? अगर एक बार यह सहमति बन सके, तो गुजरात जैसी स्थिति से बचा जा सकता है, जिसमें महिलाओं ने भी अल्पसंख्यकों के संहार में हिस्सा लिया था। मुझे 1990 का इलाहाबाद याद आ रहा है, जहां मैं नियुक्त था और जो मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने के खिलाफ चल रहे आंदोलन का केंद्र था। मैने आंदोलनकारियों के साथ सख्ती की, तो बहुत सारे दूसरे तबकों के अतिरिक्त विश्वविद्यालय की सवर्ण लड़कियों ने मेरे खिलाफ मोर्चा निकाला और अपनी पूरी कोशिशों के बावजूद मैं उन्हें यह नहीं समझा पाया कि उन्हें पिछड़ों के साथ खड़ा होना चाहिए। एक बार फिर अपने शब्दों के लिए माफी मांगते हुए मैं अनुरोध करूंगा कि इन मुद्दों पर भी बातचीत की जाए।

Friday, August 6, 2010

जिसकी उतर गई लोई, उसका क्‍या करेगा कोई

संदर्भ : विभूति नारायण राय प्रकरण

एक प्रख्‍यात समालोचक ने एक कहानी में कुछ आपत्तिजनक शब्‍दों या यूं कहें कि भद्दी गालियों पर चल रही चर्चा में विराजमान बुद्धिजीवियों के आपत्ति करने पर कहा था कि वर्तमान परिस्थितियों में भाषा के कौमार्य को सुरक्षित नहीं रखा जा सकता। उनका सवाल था कि आखिर भाषा के कौमार्य को कब तक सुरक्षित रखोगे? और सच यही है कि आज प्रकाशित हो रहीं तमाम कहानी और साहित्‍य पत्रिकाओं में शब्‍दों पर कोई सेंसर नहीं रह गया है। शील-अश्‍लील के मायने और उसके बीच का अंतर भाषा में मिट गया है जबकि भाषाई अखबार शब्‍दों की गरिमा को पूरी शिद्दत से बचाए हुए हैं। ऐसे में साहित्यिक हलकों में या साहित्यिक गिरोहबंदी में 'छिनाल' शब्‍द ने हंगामा बरपा रखा है। हांलाकि ऐसे शब्‍दों का इस्‍तेमाल नहीं होना चाहिए लेकिन हंगामा करने वालों को पहले अपने गिरेवां में भी झांक कर देख लेना चाहिए कि उनकी भाषा, विचार और कृतियां भाषा के स्‍तर पर कितनी पाक-साफ हैं। आईए पहले संदर्भ जाने लें और एक बार फिर उस गंदी नाली में उतरें जहां से तब छींटे आए जब उसमें कंकर फेंका गया। जाहिर है कंकर जैसे पानी में फेंका जाएगा, छींटे भी वैसे ही आएंगे।
भारतीय पुलिस सेवा के पूर्व अधिकारी और महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय ने एक साहित्यिक पत्रिका को दिए गए साक्षात्‍कार में अपनी राय देते हुए कहा कि 'हिंदी लेखिकाओं का एक वर्ग अपने को छिनाल साबित करने की होड़ में लगा हुआ है और नारीवाद का विमर्श अब बेबफाई के बड़े महोत्‍सव में बदल गया है।' रवींद्र कालिया द्वारा संपादित 'नया ज्ञानोदय' पत्रिका में प्रकाशित इस साक्षात्‍कार में 'छिनाल' शब्‍द के प्रयोग से चाय की प्‍याली में उबाल आ गया है। स्‍वाभाविक तौर पर महिला जगत में ही नहीं लेखन जगत में भी विभूति के इस बयान की घोर निंदा हुई है। ये महिलाओं का ही नहीं बल्कि हमारे संविधान का भी उल्‍लंघन है जिसके लिए विभूति नारायण राय को स्‍पष्‍ट शब्‍दों में स्‍त्री जाति से माफी मांग लेनी चाहिए। हांलाकि विभूति की छवि एक तेज-तर्रार और स्‍पष्‍टवादी पुलिस अफसर की रही है। पुलिस अफसर के रुप में हजारों पीडि़ताओं से उनका वास्‍ता पड़ा होगा लेकिन उनके श्रीमुख से कभी किसी अभद्र टिप्‍पणी का मामला संज्ञान में नहीं आया।..ऐसे में क्‍या ये माना जाए कि साहित्‍य में बेतुके विवाद पैदा कर चर्चा में बने रहने के लिए उन्‍होंने ये टिप्‍पणी कर डाली? अपने सर्जनात्‍मक अवदान के जरिए सम्‍मान अर्जित करने के बजाय दूसरों को आहत करना क्‍या सा‍हसिक माना जा सकता है?
विभूतिनारायण राय खुद चर्चित कथाकार हैं। किसी स्‍त्री के चरित्र हनन के लिए 'छिनाल' शब्‍द का इस्‍तेमाल किया जाता है, इस बात से वे भली-भांति परिचित होंगे ही। एक पढ़े-लिखे आदमी की क्‍या बात, अनपढ़ या देहाती भी इस शब्‍द की ध्‍वनि को अच्‍छी तरह जानता-समझता है। कोई लाख कहे कि ये ओछा शब्‍द नहीं है या उसे गलत परिपेक्ष्‍य में लिया जा रहा है, हम तो यही कहेंगे कि शब्‍दों के जरिए खिलबाड़ नहीं होना चाहिए। वाणी में मधुरता और सौम्‍यता जरूरी है। 'ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोय, औरन को सीतल लगे आपहु सीतल होय'। लेकिन जरूरी है कि विद्वान विभूति ने ऐसे शब्‍द का प्रयोग क्‍यों और किन संदर्भों में किया। इस साक्षात्‍कार में जब एक चर्चित लेखिका और उसके साहित्‍य को केंद्र में रखकर प्रश्‍नकर्ता ने सवाल किया तो उनके श्रीमुख से औचक जो टिप्‍पणी निकली, जो भाव अंदर से अचानक बाहर आए, उसमें विभूति अपने को तथाकथित तौर पर 'सभ्‍य' रखने में नाकाम रहे। एक लेखिका जिसे कई पुरस्‍कार मिल चुके हैं और साहित्‍य के कई अलंबरदार उसे पलक-पांवड़ों पर बिठाकर सदी की महानतम साहित्‍यकार की स्‍वयंभू घोषणा करते रहते हैं का अपमानजनक संदर्भ देते हुए राय ने कह डाला--मुझे लगता है कि इधर प्रकाशित एक बहु प्रचारित-प्रसारित लेखिका की आत्‍मकथात्‍मक पुस्‍तक का शीर्षक होना चाहिए था-'कितने बिस्‍तरों में कितनी बार'। हांलाकि विभूति ने उस लेखिका का नाम नहीं लिया लेकिन नाम लिए बगैर भी उसे पूरा साहित्‍य जगत जानता-पहचानता है और ये भी जानता है कि साहित्‍य में उसकी कैसी गिरोहबंदी है। लेकिन इससे विभूति का दोष कम नहीं हो जाता क्‍योंकि प्रतिष्‍ठा के पद पर आसीन व्‍यक्ति को अपने आचरण में हर पहलू और मर्यादा का ध्‍यान रखना चाहिए लेकिन क्‍या साहित्‍य जगत में लेखनी की मर्यादाओं को अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता के नाम पर खूली छूट दी जा सकती है? क्‍या साहित्‍य में नैतिक-अनैतिक के कोई मायने नहीं हैं?
अपने को बोल्‍ड साबित करने के लिए लेखक/लेखिकाओं का एक वर्ग विकृत और कुत्सित मानसिकता का इजहार करता आ रहा है। आज के उपभोक्‍तावादी, बाजारवादी दौर में साहित्यिक हलकों में भी सनसनी पैदा करने के लिए नंगई पेश की जा रही है। आईए, आपसे साझा करूं आज के दौर की एक नामी-गिरामी लेखिका की कहानी का एक अंश--लेखिका ने अपनी कहानी छुटकारा में अपने पात्र (दलित स्‍त्री) से कुछ यूं कहलवाया---'ओ पतिव्रता की चो$$ पहले अपने चुटियाधारी खसम से पूछ कि हमने उसे रिझाया या कि हमें वह रिझाए जा रहा था। मैं कहती हूं कि क्‍यों बूढ़े की लंगोटिया खोलूं, जे जौहर उमर के लाल्‍लुक सोते हैं आज...हमारा मुंह देखकर अपनी पत्‍नी को त्‍यागे बैठा है और वहां आकर हमारे चूतर चाटता था...' इस तरह का लेखन कौन से साहस की बात हुई। लेखिका की बोल्‍डनैस स्‍त्री की समस्‍याओं और संघर्षों को लेकर होनी चाहिए।
इसी लेखिका ने अपनी आत्‍मकथा में बताया है कि उनकी मां कस्‍तूरी ग्रामसेविका थी। उनकी पोस्टिंग ग्रामीण क्षेत्र में ही होती थी। पोस्टिंग ऐसी जगह भी हो जाया करती थी जहां स्‍कूल कालेज नहीं होते थे। इसलिए उस जमाने में जब लड़कियों के लिए माध्‍यमिक और उच्‍च शिक्षा ग्रामीण परिवेश में बहुत दुश्‍कर थी। शिक्षा के प्रति जागरूक उनकी मां ने उन्‍हें एक पारिवारिक मित्र के परिवार में छोड़ दिया। विस्‍मय और इससे भी अधिक शर्म की बात है कि इस लेखिका ने बोल्‍ड लेखन के लिए उसमें भी बुराई तलाश ली। अगर मां अपनी बेटी को चिपकाए-चिपकाए घूमती तो शिक्षा में बाधा पंहुचती और वह लेखिका बनने की स्थिति में न होती। पर ये सब सदभावनाएं, दायित्‍व निर्वहन नारी विमर्श की अलंबरदार इस लेखिका के लिए कोई मायने नहीं रखता और वह अपनी आत्‍मथा में अपनी मां पर अनर्गल आरोप गढ़ने से नहीं चूकी कि अपनी निर्विघ्‍न स्‍वतंत्रता के लिए मां ने अपने से अलग कर दिया। ऐसा लेखन पढ़कर कोई यही निष्‍कर्ष निकालेगा कि सचमुच भलाई का जमाना नहीं। चर्चा में बने रहने की आदी ये लेखिका अपने लेखन में स्‍त्री स्‍वातंत्रय की पक्षधर है। स्‍त्री अस्मिता, स्‍त्रीनिजता की दुहाई देती है, पर अपनी मां के संदर्भ में इस जीवन की आलोचना करती है। जैसे मां स्‍त्री है ही नहीं। वह यह भी भूल जाती है कि मां ने पढ़ाई के कारण उन्‍हें अलग रखा था। पढ़ाई 'बहाना' नहीं 'कारण' था।
मृत्‍युशैय्या पर माता-पिता को देखकर क्रूर से क्रूर व्‍यक्ति भी दहल जाता है। शायद ही उन पर झुंझलाता हो लेकिन ये लेखिका शायद उस गुणराशि की है जो अकारण मां-बाप पर गुस्‍सा उतारने, उन्‍हें अपमानित करने, उन पर झुंझलाने को भी जुझारुपन, संघर्षशीलता और क्रांति समझती है। स्‍त्री अस्मिता, स्‍त्री स्‍वाभिमान और स्‍त्री अधिकार का दंभ भरने वाली स्‍त्री, अन्‍य स्‍त्री; वह भी मां के प्रति कितना क्रूर और संवेदनहीन हो सकी है उसके जीवंत दस्‍तावेज हैं ये प्रसंग जो उसकी आत्‍मकथा का हिस्‍सा हैं। स्‍त्री लेखन के व्‍यापक सरोकारों और स्‍त्री मुक्ति की चिंता या स्‍त्री अस्मिता के प्रति चिंतित लेखिका ने अपनी प्रकाशित आत्‍मकथा में संकेत छिपा है कि 'साप्‍ताहिक हिंदुस्‍तान' आदि प‍त्र-पत्रिकाओं में जो लेखिकाएं छपीं; वे सब संपादकों, उपसंपादकों के सामने बिछकर ही छपीं, सही तो है ही नहीं आपत्तिजनक भी है। ऐसा संकेत कर लेखिका ने 'मेरिट' पर प्रत्‍यक्ष द्वार से रचना छपवाने वाली लेखिकाओं--जिनकी बहुत बड़ी संख्‍या है-- का अपमान ही किया है।
दरअसल वर्तमान साहित्‍य विशेषतौर पर कथा लेखन आजकल कबीलाई या सामंती खेमों में बंटा नजर आता है। इन्‍हीं में से एक साहित्‍य की एक यदुवंशी पाठशाला में स्‍त्री विमर्श की एक ऐसी पौध तैयार की है जो स्‍त्री की गरिमा को ही अपने लेखन में तार-तार करने पर जुटी है। ऐसे में विभूति जैसे लोग कभी शब्‍दों की मर्यादा कायम न रख सकें तो उन्‍हें ज्ञानपीठ पुरस्‍कार समिति से हटना पड़ता है। कुलपति पद खतरे में आ जाता है। लेकिन उनका क्‍या कर लेगा कोई जिसकी उतर गई लोई।
विशेष : ये लेख अमर उजाला कांपेक्‍ट में आंशिक रूप से प्रकाशित हुआ है।

Wednesday, August 4, 2010

बाघखोर आदमी ........

जंगल सिमटते जा रहे हैं
घटती जा रही है
विडालवंशिओं की जनसंख्या
भौतिकता की निरापद मचानों पर
आसीन लोग
कर रहे हैं स्यापा
छाती पीट-पीट कर
हाय बाघ; हाय बाघ.

हे बाघ! तुम्हारे यूं मार दिए जाने पर
दुखी तो हम भी हैं
लेकिन उन वनवासिओं का क्या
जिनका कभी भूख तो कभी कुपोषण
कभी प्राकृतिक आपदा
कभी-कभी किसी आदमखोर बाघ
उनसे बचे तो
बाघखोर आदमी के हाथ
बेमौत मारा जाना तो तय ही है.

चिकने चुपड़े चेहरे वाले
जंगल विरोधी लोग
गोलबंद हैं सजधज के
बहा रहे हैं
बाघों के लिए नौ-नौ आँसू.

बस बचा रहे मासूमियत का
कोरपोरेटीय मुखौटा
बाघ बचें या मरें वनवासी
इससे क्या?


Sunday, August 1, 2010

नाम की नदी

सभी पुकारते हैं उसे
नदी के नाम से
पर बिना जल के भी
कोई नदी होती है भला.

कभी रही होगी वह
एक जीवंत नदी
आकाश की नीलिमा को
अपने आलिंगन में समेटे
कलकल करते जल से भरपूर.
तभी हुआ होगा इसका नामकरण

समय की धार के साथ
बहते-बहते वाष्पित हो गया
नदी का जल .
और बादलों ने भी
कर लिया नदी से किनारा
सभी ने भुला दिया नदी को
बस नाम चलता रहा.
अपनों की बेरुखी देख
सूख गई नदी .

अब नदी कहीं नहीं
केवल नाम भर है
जिसमे बहता है
पाखण्ड, धर्मान्धता और स्वार्थ का
हाहाकारी जल .

Thursday, February 4, 2010

आज डाकिया बाबू से मिले या नहीं?


आज यानी 4 फरवरी को एक खास दिन है Thanks a Mailperson Day पर्व अमेरिका का है, पश्चिम का है लेकिन जब हम 10 रोज़ बाद उनके वेलेनटाइन डे को इतनी धूमधाम से मनाएंगे तो आज भला अपने डाकिये को उसकी साल भर की मेहनत और सेवा के लिये क्यों धन्यवाद नहीं दे सकते। मैंने तो दे दिया, मिठाई भी खिला दी लेकिन आज मुझे याद आ रहे हैं मास्टर ताराचंद जो डाकिये तो नहीं थे लेकिन मेरे दिल में तो उनकी पहली याद डाकिये वाली ही बनी। जब-जब मैं अपनी ननिहाल गया मैंने मास्टर ताराचंद को गांव भर की चिट्ठियां लिखते-पढ़ते, डालते और लाते देखा। डाक और डाकिये को लेकर मेरी तो पहली यादें उनसे ही जुड़ी हैं इसलिये मैं तो उन्ही को दूंगा धन्यवाद।

पूरे गांव के लिये मास्टर ताराचंद थे लेकिन मेरे लिये तारा मामा। सुबह जब अनूपशहर के स्कूल में पढ़ाने के लिये गांव से निकलते तो आधा गांव सलामी देने के लिये खड़ा हो जाता। किसी बहू को अपने मायके के लिये चिट्ठी पोस्ट करवानी होती थी, किसी मां को शहर में पढ़ रहे बेटे के लिये देसी घी की बर्नी भिजवानी होती थी तो किसी बुज़ुर्ग का तंबाकू का स्टॉक खत्म हो रहा होता था। चाची को बूरा मंगवानी होती थी तो ताई को कल आने वाले दामाद के लिये ग्लूकोज़ बिस्कुट का पैकेट। हम जैसे दूध की गोली या रंगीन कंचों के लिये 10 का सिक्का थमा देते थे। मास्टर ताराचंद इसी सलामी के लिये घऱ से आधा घंटा पहले निकलते थे। नहर के पुल तक सबके ऑर्डर लेते रहते।
शाम को लौटते तो सबके ऑर्डर की डिलावरी करते हुए। साइकिल के हैंडल पर इतना सामान कि बैलेंस कैसे बना लेते थे, अब सोचता हूं। वापसी में काम दोगुना हो जाता था क्योंकि डाकघऱ जाकर गांव भर की चिट्ठियां भी ले आते थे। सबको बांटते और कई बार घर की महिला जिद करती तो पढ़कर भी सुनाते। ज़्यादातर मामलों में तो कल सुबह आकर उस खत का जवाब लिखने का वादा भी करते। घर पहुंचते-पहुंचते अंधेरा हो जाता। घर वाले कई बार कुड़कुड़ाते, लेकिन फिर चुप हो जाते। जानते थे ये कंबख्त तारा मानेगा नहीं हातिमताई बने बगैर।
एक बार खूंटा तुड़ाकर घेर से भागी भैंस ने नहर के पुल पर मास्टर ताराचंद को साइकिल से गिरा गिरा। थैले में रखे कागज के कई लिफाफे फट गये, किसी में आधा किलो चीनी थी तो किसी में कशीदाकारी के लिये मंगाये गये मोती तो किसी में चाय की पत्ती। गांव भर में हल्ला हो गया। मास्टर ताराचंद को हल्की सी खरोंच आई लेकिन उनको उससे ज़्यादा चिंता इस बात की थी कि गांव वालों का सामान नहीं ला सके। गांव मे इतनी ईमानदारी तो थी कि किसी ने सामान की चर्चा तक नहीं की। ताराचंद अगले दिन मुंह अंधरे ही निकल गये। शाम को लौटे तो सबका वो सामान लेकर जो एक दिन पहले गिरकर मिट्टी में मिल गया था। गांव ने लाख ज़ोर लगा लिया लेकिन किसी से दुबारा पैसे नहीं लिये। उन दिनों एक मास्टर को मिलते ही कितने होंगे, लेकिन उस आदमी ने जेब से पैसा लगाकर लोगों का सामान लाकर दिया।
ननिहाल गये मुद्दत हो गई, तारा मामा खूब सेहमतमंद होंगे मुझे पता है। आज यानी 4 फरवरी आपके डाकिये की साल भर की मेहनत और सेवा के लिये धन्यवाद देने का दिन है। मैं आज मास्टर ताराचंद, सॉरी तारा मामा को सलामी देना चाहता हूं। गर्मियों की छुट्टियों में, दीपावली की छुट्टियों में जब हम गांव जाते थे तो पिताजी की चिट्ठियां वही लाकर देते थे। एक बार मां ने कंचे खेलने पर धुन दिया तो मैंने पिताजी को पोस्टकार्ड लिखकर शिकायत की थी। तारा मामा ने ही वो पोस्टकार्ड लाकर दिया था। लेकिन मुझे पता है वो पोस्टकार्ड उन्होने डाला नहीं था, बुद्धू बना दिया था मुझे। फिर भी मेरी याददाश्त में मेरे पहले डाकिये तो वही थे, थैंक्यू तारा मामा।

पुरालेख

तकनीकी सहयोग- शैलेश भारतवासी

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