Thursday, February 4, 2010

आज डाकिया बाबू से मिले या नहीं?


आज यानी 4 फरवरी को एक खास दिन है Thanks a Mailperson Day पर्व अमेरिका का है, पश्चिम का है लेकिन जब हम 10 रोज़ बाद उनके वेलेनटाइन डे को इतनी धूमधाम से मनाएंगे तो आज भला अपने डाकिये को उसकी साल भर की मेहनत और सेवा के लिये क्यों धन्यवाद नहीं दे सकते। मैंने तो दे दिया, मिठाई भी खिला दी लेकिन आज मुझे याद आ रहे हैं मास्टर ताराचंद जो डाकिये तो नहीं थे लेकिन मेरे दिल में तो उनकी पहली याद डाकिये वाली ही बनी। जब-जब मैं अपनी ननिहाल गया मैंने मास्टर ताराचंद को गांव भर की चिट्ठियां लिखते-पढ़ते, डालते और लाते देखा। डाक और डाकिये को लेकर मेरी तो पहली यादें उनसे ही जुड़ी हैं इसलिये मैं तो उन्ही को दूंगा धन्यवाद।

पूरे गांव के लिये मास्टर ताराचंद थे लेकिन मेरे लिये तारा मामा। सुबह जब अनूपशहर के स्कूल में पढ़ाने के लिये गांव से निकलते तो आधा गांव सलामी देने के लिये खड़ा हो जाता। किसी बहू को अपने मायके के लिये चिट्ठी पोस्ट करवानी होती थी, किसी मां को शहर में पढ़ रहे बेटे के लिये देसी घी की बर्नी भिजवानी होती थी तो किसी बुज़ुर्ग का तंबाकू का स्टॉक खत्म हो रहा होता था। चाची को बूरा मंगवानी होती थी तो ताई को कल आने वाले दामाद के लिये ग्लूकोज़ बिस्कुट का पैकेट। हम जैसे दूध की गोली या रंगीन कंचों के लिये 10 का सिक्का थमा देते थे। मास्टर ताराचंद इसी सलामी के लिये घऱ से आधा घंटा पहले निकलते थे। नहर के पुल तक सबके ऑर्डर लेते रहते।
शाम को लौटते तो सबके ऑर्डर की डिलावरी करते हुए। साइकिल के हैंडल पर इतना सामान कि बैलेंस कैसे बना लेते थे, अब सोचता हूं। वापसी में काम दोगुना हो जाता था क्योंकि डाकघऱ जाकर गांव भर की चिट्ठियां भी ले आते थे। सबको बांटते और कई बार घर की महिला जिद करती तो पढ़कर भी सुनाते। ज़्यादातर मामलों में तो कल सुबह आकर उस खत का जवाब लिखने का वादा भी करते। घर पहुंचते-पहुंचते अंधेरा हो जाता। घर वाले कई बार कुड़कुड़ाते, लेकिन फिर चुप हो जाते। जानते थे ये कंबख्त तारा मानेगा नहीं हातिमताई बने बगैर।
एक बार खूंटा तुड़ाकर घेर से भागी भैंस ने नहर के पुल पर मास्टर ताराचंद को साइकिल से गिरा गिरा। थैले में रखे कागज के कई लिफाफे फट गये, किसी में आधा किलो चीनी थी तो किसी में कशीदाकारी के लिये मंगाये गये मोती तो किसी में चाय की पत्ती। गांव भर में हल्ला हो गया। मास्टर ताराचंद को हल्की सी खरोंच आई लेकिन उनको उससे ज़्यादा चिंता इस बात की थी कि गांव वालों का सामान नहीं ला सके। गांव मे इतनी ईमानदारी तो थी कि किसी ने सामान की चर्चा तक नहीं की। ताराचंद अगले दिन मुंह अंधरे ही निकल गये। शाम को लौटे तो सबका वो सामान लेकर जो एक दिन पहले गिरकर मिट्टी में मिल गया था। गांव ने लाख ज़ोर लगा लिया लेकिन किसी से दुबारा पैसे नहीं लिये। उन दिनों एक मास्टर को मिलते ही कितने होंगे, लेकिन उस आदमी ने जेब से पैसा लगाकर लोगों का सामान लाकर दिया।
ननिहाल गये मुद्दत हो गई, तारा मामा खूब सेहमतमंद होंगे मुझे पता है। आज यानी 4 फरवरी आपके डाकिये की साल भर की मेहनत और सेवा के लिये धन्यवाद देने का दिन है। मैं आज मास्टर ताराचंद, सॉरी तारा मामा को सलामी देना चाहता हूं। गर्मियों की छुट्टियों में, दीपावली की छुट्टियों में जब हम गांव जाते थे तो पिताजी की चिट्ठियां वही लाकर देते थे। एक बार मां ने कंचे खेलने पर धुन दिया तो मैंने पिताजी को पोस्टकार्ड लिखकर शिकायत की थी। तारा मामा ने ही वो पोस्टकार्ड लाकर दिया था। लेकिन मुझे पता है वो पोस्टकार्ड उन्होने डाला नहीं था, बुद्धू बना दिया था मुझे। फिर भी मेरी याददाश्त में मेरे पहले डाकिये तो वही थे, थैंक्यू तारा मामा।

तकनीकी सहयोग- शैलेश भारतवासी

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