Sunday, April 26, 2009

एक बाघ का डाइंग डिक्लेरेशन

(बस्ती में घुस आये एक भूखे और कमज़ोर बाघ को गांव वालों ने मिलकर मार डाला।
शेर ने मरने से पहले एसडीएम साहब को बयान कलमबद्ध कराया। आप भी पढ़िये।)

अगले जनम मोहे बाघ नी कीजो

सोलह साल पहले जब मेरा जन्म हुआ जंगल में काफी उथल पुथल हुई। पिता जी बताते थे गाड़ियों में बैठकर, शिकारियों जैसी बंदूके लेकर अफसर आये, जंगल में बने गांव वालों को हटने के लिये कहां, धमकाया, लालच दिया। नहीं माने तो जबरदस्ती धकिया दिया। पहली बार तब ऐसा हुआ कि सदियों से हम जिन गांव वालों के साथ रह रहे थे, जिनको हमसे और हमको जिनसे कोई बैर नहीं था, हमारी बिरादरी को उन्होने खूब गालियां दीं। वरना इससे पहले तो कोई शिकारी आ भी जाये जंगल में तो वो हमारे किसी चाचा-ताऊ तक पहुंचने से पहले ही गांव वालों के हत्थे चढ़ जाता था और वो उसकी वो गत बनाते थे कि बस पूछिये मत। हमारे पूर्वजों ने कभी गांव वालों का कुछ नहीं बिगाड़ा सिवाय तब के जब कोई बड़ा बुजुर्ग शिकार के लिये हिरण के पीछे लंबी दौड़ नहीं लगा पाया हो और तब हारकर उसने गांव में जाकर किसी बाड़े से बकरी उठा ली हो। बस इससे ज़्यादा कुछ नहीं। लेकिन कभी कोई बाघ गांव पहुंच गया और पकड़ में आ गया तो गांव वालों ने कनस्तर बजाकर भगा दिया, मारा नहीं। लेकिन जंगल से बाहर होते ही वो हमारी जान के दुश्मन हो गये। हमारी क्या गलती थी एसडीएम साहब। सरकार ने, नेताओं ने, अफसरों ने अपनी दुकान चलाने के लिये नेशनल पार्क बनाये, अभयारण्य बनाये। हमारी आज़ादी छिनी, एक इलाके में कैद कर दिया गया। उनको लगा कि जंगल हमे दे दिया गया है, लेकिन हमारा भी तो नहीं हुआ जंगल एसडीएम साहब।
जिस जगह से लोग भगाये गये वो हमारे पास थोड़े ही आई, वहां तो होटल खुल गये, रिजॉर्ट्स बन गये। हमे पास से देखने के लिये लोग आते हैं धुंआ उड़ाती और जंगल की शांति को खत्म करती गाड़ियों में बैठकर, और इन आलीशान होटलों में ठहरते हैं। लेकिन हम तो और अंदर जा चुके हैं जंगल के, बदनामी मिली सो अलग। पीली नदी के किनारे में पला-बढ़ा लेकिन बाद में तो पानी पीने के लिये वहां रात को आता था। शिकारी इतने मंडराते हैं कि बस पूछिये मत। मेरे पिता को भी इन्ही कंबख्तों ने मार डाला। गांव वाले होते तो किसी की मजाल थी कि मेरे पिता को हाथ लगा देते। एक बार किसी शिकारी ने हमारे एक बिरादर पर गोली चला दी थी गांव वालों ने बिना डरे उसकी इतनी सेवा की कि बस पूछिये मत। वो टीक हो गये तो जंगल में भिजवा दिया वापस। लेकिन सरकार हमारी दोस्ती देख नहीं सकी साहब, दुश्मन बना दिया।
जंगल में पेड़ कटे तो घास खत्म हुई, घास खत्म हुई तो सब हिरण-खरगोश खत्म हो गये, हम क्या खाते। गांवों पर धावा बोलने लगे। लेकिन कभी किसी इंसान को कुछ नहीं कहा, एसडीएम साहब। पेट भरने के लिये रघुपुरा से मैने बकरियां उठाई लेकिन उनको चराने वाले किसी बच्चे को कभी कुछ नहीं कहा, डराया भी नहीं। वो भी तो किसी के बच्चे हैं जैसे मेरे थे। मेरे तो दोनों बच्चे गांव वालों के मार डाले साहब। मैं तो उनको शिकार करना भी नहीं सिखा पाया, कोई जानवर मिले तब तो सिखाता। शाकाहारी हम हो नहीं सकते। क्या करते बेचारे, सियार की तरह एक मरे जानवर का मांस खा रहे थे, गांव में हल्ला हो गया, घेरकर मार डाला। मेरी पत्नी पानी ढूंढने गई थी लौटकर आई तब तक सब कुछ खत्म। उसके बाद उसकी एक झलक ही देख पाया हूं साहब। उसकी आंखों में मेरे लिये आंखों में नफरत थी कि मैं कैसा राजा हूं, ना अपने बच्चों को कुछ खिला सकता हू ना बचा सकता हूं। वो दिन है और आज का दिन है मेरी लक्ष्मी दिखी नहीं।
अकेला पड़ा तो इधर चला आया गांव की तरफ। सारा दिन गाव वालों और शिकारियों से बचने में निकल जाता। मैंने पेट भरने के लिये घास खाने की कोशिश की लेकिन नहीं खा सका। बहुत भूख लगी तो एक बकरी पर झपटा, लेकिन बकरी तो भाग गई। मैं पड़ गया गांव वालों के हत्थे। ये गांव वाले मेरे रिश्ते के भाई बब्बर शेर की पूजा करते हैं क्योंकि वो मां दुर्गा के वाहन हैं, लेकिन मेरी ज़रा भी लाज नहीं रखी। डंडा, बल्लम, तलवार जिसके पास जो था लेकर पिल पड़े। एसडीएम साहब देख लीजियेगा मैंने किसी को ना पंजा मारा ना नाखून, मैं तो अपनी जान बचाने की कोशिश करता रहा। लेकिन इनके मन में कितनी नफरत भर दी गई है हमारे लिये देखिये मुझे कितनी बुरी तरह से मारा है। एक हड्डी साबुत नहीं बची। इससे तो कोई शिकारी एक गोली सीने में उतार देता तो आसानी से मर तो जाता। लेकिन इनकी भी क्या गलती है एसडीएम साहब। इनको भी तो जीना है, डर तो लगता ही ना बाघ से। मेरे मौसी के वंशज चीते तो राजे-माहारजों ने खत्म कर दिये, बाघों को लगता है ये लोग खत्म कर देंगे। सरकार कहती है डेढ़ हज़ार बाघ बचे हैं देश में, मैं कहता हूं डेढ़ सौ भी नहीं बचे। और जो बचे हैं मेरी तरह मार दिये जायेंगे दो-चार साल में। एसडीएम मरने से पहले मैं अपने बिरादरों के लिये एक सलाह देना चाहता हूं। खाने को मिले ना मिले, जो जंगल बचा है उसी मे पड़े रहना। ज़्यादा से ज़्यादा क्या होगा शिकारी गोली मारेगा, चैन की मौत तो मरोगे। मेरी तरह एक-एक हड्डी तो नहीं टूटेगी कम से कम। साहब, मैंने गांव वालों को माफ किया, मेरी एक मंशा पूरी तक दीजिये मेरा बयान टीवी पर चलवा दीजियेगा। आजकल तो ज़्यादातर बाघ पेट भरने के चक्कर में इधर-उधर ही घूमते रहते हैं, किसी के घर टीवी चलता देखकर जान लेंगे मेरी गत। बस्तियों के राजा खत्म हुए लगता है अब जंगल के राजा भी खत्म हो जायेंगे। एसडीएम साहब अब बोला नहीं जा रहा मैं जा रहा हूं।
अलविदा इंसानों, इंसानियत बचाये रखना।
-बाघ बहादुर, मूल निवास पीली नदी का जंगल, उसके बाद खानाबदोश

Sunday, April 19, 2009

ये धंधे हैं जो मंदे हैं

बुलंदशहर के एक ग्रामीण इलाके से गुजरते हुए आवाज़ सुनाई पड़ी, सिलबट्टा ठुकवाए लो। गाड़ी रोक दी, कन्फर्म किया आवाज़ वही थी। बातचीत की तो पता चला कि गांव के लड़कों को शादी के दहेज में मिक्सी तो मिल गई हैं लेकिन बिजली आती नहीं लिहाजा फिर से लौट आये हैं सिलबट्टों के दिन। सिलबट्टा यानी पत्थर के वो दो छोटे-बड़े टुकड़े जो दाल पीसने या चटनी पीसने के लिये इस्तेमाल होते हैं। और इन्हीं के साथ लौट आये हैं दिन छैनी-हथौड़ा से सिलबट्टा ठोकने वालों के। मेरी आंखों में आंसू आ गये उस बाबा की तरह जो 30 साल पहले हर महीने डेढ़ महीने में हमारे घर आता था सिलबट्टा ठोकने। एक रुपया लेता था और दो रोटी। मांगकर लेता था एक उबला आलू, उस पर नमक और लाल मिर्च डालकर सब्जी बना लेता था। नल से पानी पीकर चला जाता था, महीने-डेढ़ महीने बाद फिर आने के लिये।
एक दिन आया तो मां ने कह दिया, बाबा अब तो हमने मिक्सी ले ली है। समझ नहीं पाया बेचारा, जब समझाया तो बोला..ऐ बामे का पथरा नाय लगत (उसमें क्या पत्थर नहीं लगता)। अपनी आंखों से मिक्सी देखी, चलवाई, चटनी पिसवाई उस चटनी के साथ दो रोटियां खाईं। बहुत देर तक सुमित की मिक्सी देखता रहा फिर बोला..का-का मशीन आ गईं। सबकी सब हमाई दुस्मन। अब हमे रोटी को देगो।“
बाबा चला गया...उसकी आंखों में भरे आंसू मुझे आज तक याद हैं। तय है कि वहां से कुछ दूर जाते ही फूट पड़े होंगे। वो नज़र नहीं आया उस दिन के बाद। मेरी मां के मन में हमेशा अपराध बोध रहा क्यों उसे हकीकत बताई। मैं भी उस अपराध बोध में शरीक रहा। बुलंदशहर में जब मुझे सिलबट्टा ठोकने वाला दिखा तो सबसे पहले उसी बाबा की याद आई। मुझे बाबा तो नहीं उसकी आत्मा दिखी उस युवक के रूप में जो सिलबट्टा ठोकने की आवाज़ लगा रहा था। उसका धंधा ज़िंदा हो गया है।
बाबा, जहां भी हो देख लेना। तुम्हारी छैनी-हथौड़ी जीत गई है।
वो मशीन हार रही है जिसने तुम्हारी रोज़ी-रोटी छीनने की कोशिश की।

Sunday, April 12, 2009

न्यू आइडियाज़ डॉट COM उर्फ खिड़की वाले महंत

गाज़ियाबाद से दिल्ली की ओर आते हुए यमुना नदी पर बने निज़ामुद्दीन पुल पर जैसे ही आप गाड़ी धीमी करेंगे एक लड़का आपकी ओर भागता हुआ आयेगा, “अंकल लाओ हम डाल दें, अंकल लाओ हम डाल दे। “ थोड़ा आगे चलें तो दूसरा आयेगा। और आगे तीसरा और त्योहार का समय हो तो चौथा भी। ये लड़के नहीं बाल महंत हैं जो पूजा का सामान यमुना नदी में विसर्जित करने में आपकी मदद करते हैं। आपने पैसे दे दिये तो बड़े महंतों की तरह दुआ और नहीं दिये तो आपकी सात पीढ़ियों को चुनिंदा गालियां, ये 8-10 साल के बच्चे हैं।
यमुना में आप पूजा का सामान ना डाल पायें इसलिये पुल पर ऊंची-ऊंची जाली लगवा दी हैं दिल्ली सरकार ने (मुझे कैमरे से नेट पर डाउनलोड करना नहीं आता वरना मैं फोटो भी डालता)। लाखों के वारे-न्यारे हो गये अब किसी को चिंता नहीं। कुछ महीनों बाद इन पर हरा रंग होता अवश्य नज़र आ जाता है। जाली का क्या हाल है यमुना को उससे कुछ फायदा भी हुआ या नहीं, कोई नहीं फिक्र करता। पूजा का सामान यमुना मैया को समर्फित कर उसे तिल-तिल मारने वाले भक्तों की सेवा के लिये आसपास रहने वाले बच्चों ने तीन-चार जगह से जाली हटा दी है। हर जाली पर तीन-चार बच्चों का कब्ज़ा है। एक सड़क पर खड़े होकर गाड़ियों में बैठे लोगों को इसारे से जाली में बना ली गई खिड़की की ओर बताता है, यहां से डालिये। दूसरा लपककर उसके हाथ से पूजा का सामान भरी पॉलिथिन लेता और तीसरा जाली के छेद पर बैठे लड़के को थमाता है। तक सामान हाथ से लेने वाला और गाड़ी रोकने वाला पैसा मांगना शुरु कर देते हैं। दे दिये तो ठीक वरना जाली की खिड़की पर बैठा लड़का गालियां बकते हुए आपकी पॉलिथिन वापस कर देगा। सड़क और जाली के बीच में एक दीवार है कम से कम तीन फुट ऊंची, हर कोई पार नहीं कर सकता। अगर सामान विसर्जित करना है तो मजबूरी में आपको उन महंतों को 20-30 रूपये देने पड़ते हैं। और अगर खुद हिम्मत की तो पहले तो जाली की खिड़की पर बैठा महंत आपको रोकने की कोशिश करेगा, यहां से मत डालो आगे से डालना..वगैरा वगैरा। और अगर आपने ज़बरदस्ती डाल भी दिया तो नया नाटक। हर छेद के नीचे यमुना में एक लड़का इस तरह से तैर रहा होता है कि आपका सामान उसके आसपास ही जाकर गिरता है। अगर आप बाल महंतों की मर्जी के बगैर सामान डालते हैं तो गालियों के आदान-प्रदान की आवाज़ से नीचे उस तक सदेश पहुंच चुका होता है। सामान गिरते ही नीचे से आवाज़ आती है मर गया। जाली पर बैठा लड़का चिल्लाता है, अंकल आपने उसके सिर पर मार दिया। खून निकल रहा है वो डूब जायेगा। दूसरे लड़के आपकी गाड़ी के सामने जाकर खड़े हो जाते हैं, मानो आपने कोई मर्डर कर दिया है और आप भाग नहीं सकते। तब तक माजरा समझकर दूसरी खिड़कियों पर बैठे महंत, सहायक महंत, उप महंत, प्रशिक्षु महंत भी भाग आते हैं। एक-दो तुरंत वहीं से पानी में कूद जाते हैं उसको बचाने का ड्रामा करने के लिये। सब कुछ 5 मिनट में। ऐसा ड्रामा खड़ा हो जाता है कि बस पूछिये मत। ज़रा-ज़रा से लड़के आपको रुला देते हैं।
20-30 रुपये की डील 1000 में पड़ती है क्योंकि उनमें से एक दो कहते हैं हम उसकी मरहम-पट्टी करवा देते हैं। आप 5000 दे दो। लेकिन ज़्यादा देर नहीं लगती, बात 1000 पर आकर खत्म हो जाती है। ज़्यादा हिम्मत बताते हुए आपने गाड़ी आगे बढ़ाने की कोशिश की तो ये अनपढ़ से लड़के 100 नंबर पर फोन करने और यमुना को गंदा करने की शिकायत करने की धमकियां देने लगते हैं। गलती तो आप कर ही चुके होते हैं, फंस जाते हैं, उन लड़कों के चक्कर में जो 8-10 साल से ज़्यादा के नहीं। ये तय है कि उनके पीछे कोई बड़ा गिरोह है, माफिया है। वरना खुलेआम इस तरह की लूट कहां संभव है। मेरी राय तो है कि यमुना को इस तरह से प्रदूषित करने से बचें, ये लड़के किसी दिन आपको बड़ी मुश्किल में डाल सकते हैं।

Saturday, April 11, 2009

जूता-जूता हो गया...

आज से इर्द-गिर्द पर हमारे साथ निर्मल गुप्‍त जुड़ रहें हैं। पश्चिम बंगाल में जन्‍में निर्मल किशोरावस्‍था में मेरठ चले आए और यहां से उन्‍होंने इतिहास में पोस्‍ट ग्रेजुएशन किया। निर्मल जी को लेखन का कीड़ा किशोरावस्‍था में ही लग गया था और इसकी शुरुआत उन्‍होंने कहानियों से की; फिर कविताएं और व्‍यग्‍ंय भी लिखे। अब तक देश की सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में उनकी सैंकड़ों रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं और एक कहानी संग्रह के अलावा एक कविता संग्रह भी प्रकाशित हुआ है। इर्द-गिर्द पर वह अपनी शुरुआत एक व्‍यंग्‍य से कर रहें हैं। आशा है आप उनका स्‍वागत करेंगे।


एक पत्रकार ने प्रेस कांफ्रेंस के दौरान गृह मंत्री को जूता फेंका। देश भर के सारे खबरिया चैनल जूता फेंकने के दृश्‍य को स्‍लो मोशन में बार-बार दिखाने लगे। मेरे कानों में तब राजकपूर पर फिल्‍माया गया यह गाना गूंजा- मेरा जूता है जापानी। हांलाकि सबसे आगे की होड़ में लगे लगभग सभी चैनल लगभग एक ही समय पर यह न्‍यूज ब्रेक कर रहे थे कि जूता अमेरिका की एक बहुराष्‍ट्रीय कंपनी का बना हुआ था। वैसे भी अब कोई जापानी जूता पहनता ही कहां है, पहनता भी होगा तो उसे पहनकर कोई इतराता नहीं। आर्थिक मंदी के इस दौर में भी जूतों से पैरों की दूरियां अभी बढ़ीं हुईं हैं। पहनने वालों को तो हर ब्रांड का जूता खुले, काले, पीले, ग्रे बाजार में आसानी से मिल ही जाता है।
मैने जूता फेंकने के इस मनोरम दृश्‍य को बार-बार देखा। पता लगा कि यह जूता किसी को मारने के लिए नहीं सिर्फ दिखाने के लिए फेंका गया था। इराकी पत्रकार ने तत्‍कालीन अमेरिकन राष्‍ट्रपति बुश पर एक प्रेस कांफ्रेंस के दौरान जूत चलाकर जूता फेंक महापर्व की एक शालीन शुरुआत की थी। इराकी पत्रकार ने तब एक नहीं दो जूते चलाए थे। निशाना भी साधा था। बुश के रिफलेक्सिस अच्‍छे थे कि वह जूता खाने से बच गए। इराकी पत्रकार ने अपने देश की बनी कंपनी का जूता विश्‍व के सबसे बड़े बाहुवली पर फेंका था। यदि वह अमेरिका का बना जूता फेंकता तो यह कहावत चरितार्थ हो जाती कि जिसका जूता उसी का सिर...लेकिन ऐसा हो न सका।
हमारा पत्रकार इस मुद्दे पर इराकी पत्रकार तीन कारणों से फिसड्डी साबित हुआ। पहले तो उसने एक ही जूता फेंका, दूसरा उसने निशाना साधने की कोई कोशिश तक नहीं की, तीसरी बात ये है कि उसने अपने मुल्‍क का जूता इस पुनीत कार्य के लिए इस्‍तेमाल नहीं किया। यही कारण है कि जूता चल भी गया, किसी को लगा भी नहीं, फिर भी दो बेचारे कांग्रसी प्रत्‍याशियों की संसद में पंहुचने की दावेदारी मुफ्त में जाती रही। गृहमंत्री ने दरियादिली दिखाई और पत्रकार को माफ कर दिया। पत्रकार ने भी कह दिया कि जो मैने किया वह सही नहीं था। इसका निहितार्थ तो यही हुआ कि जूता फेंकने की कार्रवाई तो गलत थी लेकिन उसे जिस कारण से फेंका गया, वह जायज था। यह तो वही बात हुई जैसे जायज मां की कोख से नाजायज औलाद पैदा हो।
बहरहाल, लोकतंत्र के इस बेरंग चुनावी महापर्व का वातावरण अनायास ही जीवंत हो उठा है। चारों तरफ चर्चाओं के चरखों पर कयासों की कपास काती जानी शुरु हो गई है। सत्‍ता के दरवाजे तक कौन पंहुचेगा, यह तो किसी को पता नहीं, पर सत्‍ता के गलियारों में इस जूते की पदचाप बार-बार सुनी जाएगी। फिलहाल तो सारा चुनावी माहौल ही जूता-जूता हो गया है।

Sunday, April 5, 2009

घास बची तो मैं बचूंगा, आप बचेंगे और वो भी बचेंगे

इस बार गणेश चतुर्थी पर घर में मूर्ति प्रतिष्ठा के लिये सम्मानीय मित्र डॉक्टर राजेंद्र धोड़पकर (दैनिक हिंदुस्तान में सहायक संपादक और कार्टूनिस्ट हैं) कहीं से गणपति की मूर्ति ले आये। बचपन की यादें ताजा हो गईं। देखा सूंड किस तरफ है दाईं या बाईं, शगुन बढ़िया था। पूजा की थाली सजाई गई। सब कुछ बाज़ार में मिल गया, सिवाय तीन मुंह वाली दूब (घास) के। बाहर लेने निकला तो देखा कहीं घास ही नहीं है। जहां घास होनी चाहिये थी, वहां कचरा पड़ा है या ईंटे लगी हैं या पोलिथीन की चादर बिछी हुई है।
डॉक्टर की सलाह पर दो किलोमीटर भी कभी नहीं घूमा, दूब के लिये 5-6 किलोमीटर घूम आया। कहीं नहीं मिली घास, मिट्टी वाली ज़मीन ही कहां बची है जो घास मिले। ज़मीन की मिट्टी से काट दिये गये हैं हम लोग। जहां ज़रा सी नंगी ज़मीन दिखती है नगर निगम का ठेकेदार जाकर इंजीनियर को बता देता है। इंजीनियर प्रस्ताव बनाता है, आगे बढ़ता है, कमीशन का हिसाब-किताब बनता है। टेंडर तय हो जाता है उस ज़मीन को ढकने का जो नंगी दिख रही है, जहां घास उगती है और जो शहर की खूबसूरती को नष्ट करती है। फिर मलबा भरा जाता है, ईंटे लगती है, सीमेंट लगता है और घास उगने या ज़मीन में पानी जाने के सारे रास्ते बंद। अगर यहां से पानी गया तो फिर वाटर हार्वेस्टिंग या पानी रीचार्ज करने की परियोजनायें कैसे मंज़ूर होंगी।
यही हाल गांव का है और यही जंगल का। जंगल के पेड़ चोरी-छिपे काटने के बाद जब जंगलात के अफसर और ठेकेदार सबूत मिठाने के पेड़ के ठूंठों में आग लगवाते हैं तो जलती घास ही है। छोटे जानवर घास के साथ भुन जाते हैं और जो बच जाते हैं वो घास ना मिलने से भूखे मर जाते हैं। जंगली भैंसा क्या खाये, हिरणों की बिरादरी क्या खाये, हिरण मरेगा तो बाघ कैसे बचेगा। दिल्ली से आया पैसा और विदेशी डॉलर बाघ का पेट नहीं भर पायेंगे, उसका पेट भरेगा हिरण। लेकिन हिरण का पेट तो भरे पहले। घास भूख से भी बचाती है कई बार बाघ से भी।
घास जानवरों को ही नहीं बचाती राज्य भी बचाती है, ताज भी बचाती है और राजाओं को भी बचाती है। राजस्थान का एक वीर राजा घास की रोटी खाकर अकबर से लोहा लेता रहा। ये घास का दम है, खत्म होती घास का। वैसे भई, घास का गणित बड़ा सीधा है। वो बची तो सबको बचायेगी, इस कुदरत को भी। वैसे सरकार को भी घास की चिंता है। इंस्टीट्यूट खोल रखे हैं (एक झांसी वाला तो मुझे पता है), कोर्स चला रखे हैं, लोग पीएचडी कर रहे हैं, चारे के बारे में घास के बारे में। लेकिन उनको रिसर्च के लिये कब तक मिलेगी घास?


(इस लेख की प्रेरणा आदरणीय उदय प्रकाश जी से मिली जिन्होने अपनी पिछली टिप्पणी में घास की इतनी चिंता की।)

तकनीकी सहयोग- शैलेश भारतवासी

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