Saturday, January 31, 2009

रसोई गैस पर डाका

गैस कीमतों को कम करने की बात कहकर सरकार भले ही आम आदमी को रिझाने का प्रयास कर रही हो लेकिन सच ये है कि गैस की कीमते कम कर देने भर से आम आदमी को राहत नहीं मिलेगी क्‍योंकि रसोई गैस वितरित करने वाला तंत्र ही भ्रष्‍ट हो चुका है। आम आदमी को न समय पर एलपीजी मिलती है, न ही उपभोक्‍ता काला बाजारी से बच पाता है। आम उपभोक्‍ता अधिक मूल्‍य देकर भी सिलेंडर में भरी एलपीजी की पूरी मात्रा को तरसता रहता है लेकिन उसकी कहीं सुनवाई नहीं। हांलाकि प्रशासन हमेशा यही कहता है कि कालाबाजारियों की ख्‍ौर नहीं। हद तो ये है कि गैस गोदाम पर आम आदमी को सिलेंडर लेने जाना पड़ता है और उसकी जेब से डिलीवरी का चार्ज भी निकलवा लिया जाता है।
लोहे की एक खोखली रोड से बनी एक डिबाइस आपको सप्‍लाई होने वाले गैस सिलेंडर से कुछ ही मिनटों में एलपीजी को एक दूसरे खाली सिलेंडर में पंहुचा देती है। जी हां! आपके घर पंहुचने से पहले ही गैस सिलेंडर को लूटा जा रहा है। गैस गोदाम से पूरे वजन का गैस सिलेंडर चलता है लेकिन डिलीवरीमेन रास्‍ते में ही चुपचाप उस एलपीजी सिलेंडर से दो-ढाई किलो गैस उड़ा देते हैं। इन के सधे हुए हाथ आसानी से गैस को दूसरे खाली सिलेंडर में ट्रांसफर कर देते हैं। पलक झपकते ही आपकी रसोई के लिए चले गैस सिलेंडर से दो से ढाई किलो गैस दूसरे सिलेंडर या मिनी एलपीजी सिलेंडर में भर दी जाती है। ऐसा नहीं है कि ये किसी एक शहर की कहानी हो; सच तो ये है कि हर शहर में गैस चोरी एक आम शिकायत है। इस कालाबाजारी को कोई और नहीं बल्कि एलपीजी गैस एजेंसी के कर्मचारी ही अंजाम देते हैं और अगर इन कर्मचारियों की बात सच है तो इस कालाबाजारी में एजेंसी मालिक की पूरी तरह मिलीभगत होती है। सच तो ये है कि डिलीवरी पर्सन को या तो वेतन मिलता ही नहीं और यदि कहीं मिलता भी है तो उसमें गुजारा संभव नहीं बल्कि ये शाम को हिसाब करते समय कालाबाजारी का हिस्‍सा एजेंसी म‍ालिकों को भी देते हैं।
हांलाकि उपभोक्‍ता को ये हक है कि वह एलपीजी सिलेंडर की डिलीवरी लेते समय डिलीवरी मैन को वजन चैक कराने को कहें लेकिन या तो वजन तोलने वाला वैलेंस इनके पास होता नहीं या खराब होता है और उपभोक्‍ता इसी से संतोष कर लेता है कि चलो देर से ही सही एलपीजी आ तो गई। लेकिन ये भी आंशिक सच है कि डिलीवरीमैन आप के घर सप्‍लाई लेकर पंहुच जाए। सच तो ये है कि या तो आधा-अधूरा सिलेंडर भी उपभोक्‍ता ब्‍लैक में खरीदने के लिए अभिशप्‍त हैं या फिर अक्‍सर ऐसा होता है कि डिलीवरीमैन न होने या कम होने का बहाना बनाकर ऐजेंसी संचालक ग्राहक को खुद ही गोदाम से गैस सिलेंडर ढो कर ले जाने को मजबूर करते हैं लेकिन कोई भी गैस एजेंसी ग्राहक से डिलीवरी चार्ज उस हालत में भी वसूलती है जब वह डिलीवरी देने में असमर्थ है। नियमानुसार गैस से भरे एलपीजी सिलेंडर को यदि उपभोक्‍ता सीधे गोदाम से ले तो उससे आठ रूपये डिलीवरी चार्ज नहीं वसूला जा सकता।
एलपीजी की किल्‍लत बनाकर या बताकर गैस ऐजेंसियों के संचालक जहां दोनों हाथों से अपनी जेबें गर्म कर रहे हैं वहीं प्रशासन के लोग अपनी जिम्‍मेदारी एक-दूसरे विभाग पर डालते रहते हैं। उपभोक्‍ताओं को जहां गैस समय पर नहीं मिल रही वहीं जिला प्रशासन तीन से चार दिन का बैकलॉग बताता है। मेरठ के जिला आपूर्ति अधिकारी वड़े गर्व से बताते हैं कि पिछले साल गैस की कालाबाजारी करने के चौंतीस मामलों में एफआईआर दर्ज कराई गई और सात सौ सिलेंडर जब्‍त करने के साथ ही कुछ गिरफ्तारियां भी हुईं वहीं नौ गैसे ऐजेंसी मालिकों के खिलाफ जिलाधिकारी स्‍तर से एलपीजी सप्‍लाई करने वाली कंपनियों को कार्रवाई के लिए लिखा गया लेकिन इन कंपनियों ने कोई कार्रवाई नहीं की।
अब आप खुद समझ सकते हैं कि अगर आपकी रसोई में पंहुचने से पहले ही डिलीवरी पर्सन एलपीजी का कुछ हिस्‍सा पार कर देता है तो इसके लिए कौन और किस स्‍तर तक के लोग जिम्‍मेदार है। अधिकारी कहते हैं कि अगर गैस कम निकले तो उपभोक्‍ता फोरम में शिकायत की जाए लेकिन उन्‍हें ये कहते हुए शर्म नहीं आती वरना किसी उपभोक्‍ता को कंज्‍यूमर फोरम जाने की जरूरत ही क्‍यों पड़े।

Monday, January 26, 2009

गणतंत्र : घूंघट से निकले एक चेहरे के बहाने

मुझे इस गणतंत्र दिवस पर कई चेहरे याद आ रहे हैं। मेरे मन मस्तिष्‍क में उमड़-घुमड़ रहे हैं। इनमें से कुछ चेहरे देश के हैं, कुछ विदेश के और कुछ मेरे अपने शहर के। इनमें से कुछ आकृतियां मेरी मां जैसी हैं, कुछ बहिनों जैसी, कुछ सखियों जैसी और कुछ अंजान। ये तस्‍वीरें तो अलग-अलग हैं लेकिन इन उमड़ते-घुमड़ते चेहरों को मिलाकर जो आकृति बन रही है, उससे ठिठुरन और सिहरन बढ़ जाती है। मैने गणतंत्र के उनसठ साल तो अपनी आंखों से नहीं देखे लेकिन होशो-हवाश में पच्‍चीस सालों के बीच देखे गए कई चेहरे हैं। इनमें से मैं अपने ही शहर मेरठ के एक चेहरे का जिक्र कर रही हूं जो मेरे दिमाग को सबसे ज्‍यादा झकझोरता है।
ये चेहरा उस युवती का है जिसे मैने करीब बीस साल पहले गज भर घूंघट में चूल्‍हे पर रोटियां सेकते देखा था। टोकरा भर रोटियां सेकती, मुंह में फूंकनी लगाकर चूल्‍हे को हवा देती, चूल्‍हे से निकल रहे धुंए को अपनी आंखों में समाती यह युवती आज खुली हवा में उड़ान भर रही है। उत्‍तर प्रदेशीय महिला मंच के एक कार्यक्रम के सिलसिले में मैने जब पहली बार संगीता राहुल (या कहिए कि उनके पति जगदीश, जो उस समय सभासद थे।) के घर दस्‍तक दी तब संगीता का यही रूप था। मेरे निमंत्रण पर उनके पति ने संगीता को मंच के कार्यक्रम में शामिल होने की अनुमति दी और धीरे-धीरे उसका घूंघट उठता चला गया। बाद में अपने वार्ड से संगीता सभासद चुनी गई और फिर उसने विधायक का चुनाव भी लड़ा। संगीता एक ऐसा चेहरा है जिसने हमारे साथ अपना सफर शून्‍य से शुरू किया और फिर आगे की गिनतियां गिनने का सिलसिला अनवरत जारी रखा। भले ही संगीता ने अपनी दिशा को राजनीतिक दिशा दे दी हो। महत्‍वाकांक्षाओं के पंख लग गए हों लेकिन फिर भी वह हमारे गणतंत्र का एक ऐसा चेहरा है जिसने परिस्थितियों की चाहरदीवारी लांघकर उड़ना सीखा, सपने देखे और खुली हवा में सांस ली। मैं सोचती हूं कि आज भी हमारे इर्द-गिर्द की कितनी ऐसी महिलाएं हैं जिनके पति उन्‍हें गज भर घूंघट से निकलने की इजाजत देते हैं। अगर हम मुट्ठी भर शिक्षित परिवारों को छोड़ दें तो आज भी बहुतायत में ऐसी महिलाओं की ही संख्‍या ज्‍यादा है जिन्‍होंने अपने हौंसलों और अरमानों को चाहरदीवारी में कैद कर लिया है या वे इसके लिए अभिशप्‍त हैं। आजाद भारत में आज भी अधिकांश स्त्रियां दासी हैं। सामाजिक ढांचे में उनकी जुबान बंद रहती है और देह व मस्तिष्‍क हमेशा उत्‍पीड़ने के लिए तैयार।
ऐसा नहीं कि महिलाओं के उन्‍नयन के लिए हमारे देश की संसद ने कानून न बनाए हों। कुप्रथाओं व उत्‍पीड़न रोकने के लिए कागजों और किताबों में स्‍त्री सुरक्षा का चेहरा चाक-चौबंद है; पर हकीकत में तमाम कानूनों के बावजूद स्त्रियों को अपने वजूद की लड़ाई लड़नी पड़ती है। वास्‍तविकता तो ये है कि स्‍त्री सबसे पहले अपने गर्भ में लड़की के लिए जगह ढूंढती है। सामान्‍यत: सब पहले लड़का ही चाहते हैं। अधिकांश घरों में भी तो लड़कों को ही वरीयता मिलती है। मुद्दा चाहे खानपान का हो, रहन-सहन का या शिक्षा का; परिवारों में इस तरह का भेद लड़कियों को मन ही मन छोटा कर देता है। यह विडम्‍बना ही है कि वैज्ञानिकों द्वारा यह स्‍थापित किए जाने के बाद भी लड़का या लड़की होना पुरूष के योगदान पर निर्भर करता है, बेटिया पैदा करने के लिए स्‍त्री ही प्रताडि़त होती है। किसी ने ठीक ही लिखा है कि दुनियां में अगर न्‍याय का कोई एक विश्‍वव्‍यापी संघर्ष है तो वह नारी के लिए न्‍याय का संघर्ष है। अगर किसी एक मुद्दे पर हर सभ्‍यता, हर परंपरा का दामन दागों से भरा है तो वह स्‍त्री की अस्मिता का मुद्दा है। इस न्‍यूनता का एहसास भी हर समाज के अवचेतन में मौजूद है। पुरूष विधुर हो या तलाकशुदा, कोई अंतर नहीं पड़ता। उसे दूसरी शादी करने में समस्‍या का सामना नहीं करना पड़ता जबकि स्‍त्री की परिस्थितियां विपरीत होती हैं।
यदि शास्‍त्रार्थ में न जाएं तो इतना बताना जरूरी है कि किसी भी स्‍त्री के व्‍यक्तित्‍व का अधिकार किसी भी धर्म, सभ्‍यता या समाज-व्‍यवस्‍था की कृपा का परिणाम नहीं हैं। उल्‍टे स्‍त्री के स्‍नेहमयी और ममतामयी व्‍यक्तित्‍व का हनन हर सभ्‍यता का सबसे बड़ा खोखलापन है। हर देशकाल में स्‍त्री को नए सिरे से अपने लिए जगह बनानी पड़ती है। स्‍त्री के पास निर्णय लेने की क्षमता न होने की वजह से परिवारों में सारे फैंसले पुरूष ही करते हैं।
स्‍त्री की रक्षा के लिए कानूनों का जो कवच दिया गया है वह नई चुनौतियों के आगे अपने को लाचार पा रहा है। सिर्फ कानूनों के भरोसे निश्चिंत नहीं हुआ जा सकता। वे कानून ठीक तरह से लागू हों; इसके लिए सजग रहने की जरूरत सबसे ज्‍यादा है।
मेरा यह लेख दैनिक आई नेक्‍स्‍ट में प्रकाशित हुआ है।

Monday, January 19, 2009

मीठा जहर

आज से इर्द-गिर्द पर हमारे साथ एक और साथी जुड़ रही हैं। हिमा अग्रवाल एक तेजतर्रार पत्रकार हैं और उन जगहों पर जाकर रिपोर्टिंग करती हैं जहां पुरुष भी जाने में कतराते हैं। सामाजिक सरोकारों और आम आदमी से जुड़े मुद्दों की गहरे से पड़ताल करने वाली हिमा अग्रवाल का स्‍वागत करेंगे तो अच्‍छा लगेगा। ----हरि जोशी----
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सर्दियां शबाव पर हों तो मेरठ की रेवड़ी-गजक की बहार आ जाती है। जी हां! गुड़ और गुड़ से बने व्‍यंजन सर्दियों में पूरे देश की पसंद है। लेकिन गुड़ और उससे बनी मिठाइयां खाने से पहले जरा सोच लीजिए क्‍योंकि हर्बल औषधि माने जाना वाला गुड़ आपके लिए धीमा जहर भी हो सकता है। हम आपको बताएंगे कि क्‍यों गुड़ हो सकता है धीमा जहर और कैसे परखें फायदेमंद गुड़।
मक्‍के की रोटी सरसों के साग और गुड़ के साथ खाते समय जो जायका आता है उसका मजा शायद आप भी लेते हों। अगर किसी पार्टी में आजकल मक्‍खन के साथ सरसों का साग, मक्‍के की रोटी और गुड़ न हो तो लगता है कि दावत में कुछ खास था ही नहीं। लेकिन गुड़ खाते समय गुड़ की सूरत नहीं सीरत को देखिए। जी हां। गरीबों का मेवा और सेहत के लिए फायदेमंद माने जाने वाला गुड़ आपकी सेहत के लिए नुकसानदायक ही नहीं बल्कि धीमा जहर भी साबित हो सकता है। पश्चिमी उत्‍तर प्रदेश में घुसते ही गन्‍ने और गुड़ की मिठास भरी खुशबु आपका स्‍वागत करती है। यहां हर गांव/गली में कोल्‍हू चलते हैं और भट्टियों पर रस पककर गुड़ बनता है और देश भर में यहां की मंडियों के जरिए देश भर में बिकने के लिए चला जाता है। इसी गुड़ से बनी रेवड़ी और गजक का जायका अब सात समंदर पार भी पंहुच गया है। मेरठ की रेवड़ी और गजक का नाम सुनकर मुंह में जायका घुल जाता है। लेकिन सावधान! आप बाजार से कौन सा गुड़ खरीद रहे हैं। या किस गुड़ से बनी रेवड़ी-गजक? गुड़ की सूरत खरीदकर गुड़ मत खरीदिये। गुड़ और रेवड़ी-गजक बनाने वाले इन हुनरमंद कारीगरों की बात माने तो अगर गुड़ बनाने के लिए गन्‍ने का रस साफ करने के लिए खतरनाक रसायन इस्‍तेमाल न किए जाएं तो बाजार में उस गुड़ की कीमत कम मिलती है, जबकि वनस्‍पतियों से गन्‍ने का रस साफ कर गुड़ बनाने में मेहनत अधिक लगती है और लागत भी अधिक लगती है। ग्राहक चाहता है पीला या केसरिया चमकदार गुड़ और उसे तैयार करने के लिए अकार्बनिक रसायनों और रंगों का इस्‍तेमाल करना पड़ता है। साथ ही इस गुड़ के दाम भी मंडियों में अच्‍छे मिलते हैं।
एक समय था जब सुकलाई नाम की वनस्‍पति या अरंडी के तेल से गन्‍ने के रस को साफ किया जाता था लेकिन धीरे-धीरे उसकी जगह अकार्बनिक रसायनों ने ले ली। ब्‍लीचिंग एजेंट के रूप में हाइड्रोजन सल्‍फर ऑक्‍साइड, लिक्विड अमोनिया, यूरिया और सुपर फास्‍फेट खाद जैसी अखाद्य चीजों का इस्‍तेमाल होने लगा। सस्‍ते पड़ने वाले अकार्बनिक रसायन जहां गुड़ निर्माताओं के लिए आर्थिक तौर पर फायदे का सौदा था वहीं उनकी मेहनत भी कम लगती थी और देखने में गुड़ का रंग चमकदार पीला या केसरिया मिलता था जबकि परंपरागत वनस्‍पतियों की मदद से बना गुड़ कालापन लिए हुए आकर्षणहीन होता है। आप खुद देखिए कि गुड़ बनाते समय रस साफ करने के लिए इस कोल्‍हु पर सफेद रंग का पाउडर किस तरह डाला जा रहा है। खास बात ये है कि गुड़ बनाने वाले कारीगर इन अकार्बनिक रसायनों के नाम तक भी ठीक से नहीं जानते। इन्‍हें तो यही मालूम है कि हाइड्रो और पपड़ी से गुड़ का रंग निखर जाता है। इन्‍हें सिर्फ इतना मालूम है कि बाजार में किस रंग का गुड़ बिकता है और उसकी कहां मांग है। इन्‍हें मानकों का भी पता नहीं क्‍योंकि ये तो बस अपना काम अनुभव और अनुमानों के आधार पर करते हैं। मानकों के मुताबिक गुड़ में यदि ब्‍लीचिंग एजेंट का इस्‍तेमाल किया भी जाए ता उसमें सल्‍फर की मात्रा 70 पीपीएम से अधिक नहीं होनी चाहिए। लेकिन इनको क्‍या मालूम कि पीपीएम क्‍या होता है। इसलिए आज तक यहां का कोई गुड़ प्रयोगशाला में मानको पर खरा नहीं उतरा।
गुड़ बनाने वाले और बेचने वाले दोनों जानते हैं कि अकार्बनिक रसायनों का इस्‍तेमाल कर बनाया गया गुड़ सेहत के लिए बेहद नुकसानदायक है लेकिन बाजार में लोग पीला, केसरिया और चमकदार गुड़ चा‍हते हैं। परंपरागत तरीके से बने गुड़ का रंग और सूरत उन्‍हें पसंद नहीं आती। गुजरात की पसंद अलग है तो राजस्‍थान की अलग और माल वही बिकता है जिसकी डिमांड होती है। भले ही वह धीमा जहर क्‍यों न हो। अब आप खुद ही तय कर लीजिए कि एशिया में गुड़ की सबसे बड़ी मुजफ्फरनगर मंडी या हापुड़ मंडी से आपके शहर में पंहुचा गुड़ खरीदते समय उसका रंग-रूप देखते हैं या सेहत के लिए लाभकारी मटमैला भूरा गुड़ चुनते हैं।

Saturday, January 17, 2009

एक और दामिनी

दामिनी सिर्फ मुंबईया फिल्‍म की एक पात्र ही नहीं बल्कि आज के समाज की कड़वी हकीकत है। ऐसी ही एक गैंग रेप की शिकार युवती एक बार फिर अपने ससुरालियों से छली गई। इस दामिनी के ससुरालियों ने उसकी अस्‍मत लूटने वालों से ही सत्‍तरह लाख रूपये में अस्‍मत का सौदा कर लिया। अब मेरठ की ये दामिनी दोराहे पर खड़ी है और अपनी अस्‍मत लूटने वालों को हर हालत में कानून से सजा दिलाना चा‍हती है। उसने ससुराल की दहलीज लांघ दी है और इंसाफ के लिए हुक्‍मरानों की दहलीज पर फरियाद की है। देखना है कि इस दामिनी को इंसाफ मिलता है या ये व्‍यवस्‍था के नक्‍कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह जाती है।
गैंग रेप की शिकार एक युवती की बेबसी अब आंखों से झर-झर बहने लगी है। ये वही युवती है जिसके साथ करीब दो साल पहले मेरठ के एक नामी-गिरामी नर्सिंग होम में सामुहिक दुराचार हुआ था। जिस नर्सिंग होम में वह अपनी जीवन रक्षा के लिए आईसीयू में भर्ती थी, वहीं के रक्षकों ने इस युवती की इज्‍जत को तार-तार कर दिया था। इस घटना से गुस्‍साई जनता ने नर्सिंग होम में जमकर उत्‍पात मचाया था और बाद में नर्सिंग होम सील कर दिया गया था। तब से आज तक ये युवती इंसाफ के लिए लड़ रही है लेकिन अब फिर एक बार ये छली गई है। तब रक्षकों ने इस युवती की इज्‍जत तार-तार की थी और अब इस युवती के उन अपनों ने इसकी अस्‍मत का सौदा किया है जो इसे अपनी बहु बनाकर ले गए थे। फर्क इतना है कि जीवन रक्षकों को इस युवती की अस्‍मत लूटने के लिए नशे का इंजेक्‍शन देना पड़ा था और ससुरालियों ने इसके होशोहवास में इसकी अस्‍मत की कीमत लगाई सत्‍तरह लाख रूपये। जी हां! सत्‍तरह लाख रूपये में दुराचारियों से अपनी गृहलक्ष्‍मी की अस्‍मत का सौदा करने वाले पति परमेश्‍वर और ससुरालिए इस युवती को घर से इसलिए धक्‍का दे चुके हैं क्‍योंकि ये हर हाल में दुराचारियों को सलाखों के पीछे देखना चाहती है।
नर्सिंग होम की शिकार युवती और उसके परिजनों को क्‍या मालूम था कि जो परिवार इस हादसे के बाद देवतुल्‍य होकर आएगा, वही बाद में पिशाच यौनि में तब्‍दील होकर सामने खड़ा मिलेगा। निधि की शादी हापुड़ के शैलजा बिहार के सुमित से बीती 15 फरवरी को हुई थी और शादी के वक्‍त दूल्‍हे राजा ने वचन दिया था कि कभी भी वह निधि को उस हादसे की याद नहीं दिलाएगा। कभी उसे प्रताडि़त नहीं करेगा लेकिन शादी के कुछ दिनों बाद ही उसे जलील किया जाने लगा। उस पर दबाव बनाया जाने लगा कि वह मायके से पांच लाख रूपये लेकर आए जबकि निधि के घरवालों ने शादी में अपनी हैसियत से अधिक दस लाख रूपया खर्च किया था। इसी बीच सुमित और उसके घरवालों ने निधि के दुराचारियों से सत्‍तरह लाख रूपये में उसकी अस्‍मत का सौदा कर लिया और निधि से दुराचारियों को अदालत में क्‍लीन चिट देने को कहा तो वह इसके लिए तैयार नहीं हुई। दुराचारियों के बाद अपने ही ससुरालियों के अत्‍याचारों की शिकार युवती अब दुराचारियों के साथ-साथ अत्‍याचारी पति और ससुरालियों के खिलाफ भी उठ खड़ी हुई है। उसने मेरठ के आला अफसरों के यहां गुहार लगाकर इंसाफ दिलाने की मांग की है। फिलहाल निधि के चार दुराचारियों में से दो जेल में है जबकि षड्यंत्र में शामिल दो लोगों को जमानत मिल गई है और अदालत में निधि के बयान हो चुके हैं। देखना है कि इतने दबावों के बीच निधि की जंग का क्‍या परिणाम निकलता है और आला अफसरों के सामने लगाई गई गुहार आरोपियों और ससुरालियों पर कितनी लगाम लगा पाती है।

Tuesday, January 13, 2009

उपन्‍यास अंश : धुंआ और चीखें

कथाकार-व्‍यंग्‍यकार दामोदर दत्‍त दीक्षित को उत्‍तर प्रदेश हिंदी संस्‍थान ने 'प्रेमचंद सम्‍मान' प्रदान करने की घोषणा की है। ये सम्‍मान उन्‍हें भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित उनके उपन्‍यास धुंआ और चीखें के लिए दिया जा रहा है जिसमें उन्‍हें उत्‍तर प्रदेश हिंदी संस्‍थान की तरफ से बीस हजार रूपये की पुरस्‍कार राशि दी जाएगी। इससे पूर्व उनके इसी उपन्‍यास के लिए राजस्‍थान का प्रतिष्ठित आचार्य निरंजननाथ सम्‍मान प्रदान किया जा चुका है। दामोदर दत्‍त दीक्षित इन दिनों मेरठ में उप चीनी आयुक्‍त के पद पर कार्यरत हैं। इर्द-गिर्द की तरफ से दामोदर जी को शुभकामनाएं। हम यहां उनके पुरस्‍कृत उपन्‍यास का एक अंश प्रस्‍तुत कर रहें हैं-



बन्‍नू पर नए-नए दौर तारी। पहले हिंसा-घृणा का दौर, फिर लिप्‍सा-लोभ का दौर और अब आया मुहाजिरों (शरणार्थियों) का दौर! सरहद पार हिंदुस्‍तान से थके मांदे, लुटे-पिटे, उजड़े-बिखरे मुहाजिरों के झुण्‍ड-के-झुण्‍ड आ रहे थे और नवोदित पाकिस्‍तान में यत्र-तत्र-सर्वत्र बसाए जा रहे थे। चर्चा के केंद्र में अब मुहाजि़र थे।
जुमे के रोज मीर आलम खां जुहर (दोपहर) की नमाज पढ़कर घर आ रहे थे कि ढपकती चाल में अलादाद खां दिखे। धाराप्रवाह गालियां चाल पर पुख्‍तगी से हावी।
'सलाम आले कुम' का जवाब 'वाले कुम सलाम' में पा चुकने के बाद मीर आलम खां ने हंसते हुए कहा, ''अरे म्‍यां, नमाज से फुर्सत मिलते ही किसकी मां-बहिन न्‍योतना शुरू कर दिया। अल्‍लाह के नाम पर मल्‍लाही ठीक नहीं।''
अलादाद खां रास्‍ता छेंककर खड़े हो गए।
''क्‍या बताउं मीर भाई! ये जो बहन.... मुहाजिर आए हैं, उन्‍होंने नकदम कर रखा है। ये समझो बिस्मिल्‍लाह ही गलत हो गया।''
''आलू भाई कुछ बताओगे भी या पहेली ही बुझाते रहोगे?" वह थोड़ा पिछड़कर खड़े हो गए जिससे अलादाद खां की बदबुदार सांस से निजात मिल सके।
''मेरे बगल में जगदीश फलवाला रहता था- अरे वही मोटी तोंद वाला हंसोड़ गंजा जिसका चेहरा फिल्‍मी कलाकार गोप से मिलता था। उसका पांच कमरों का घर था जिसे बने हुए पूरे तीन साल भी नहीं हुए होंगे। जगदीश के भागने के बाद मैने दोनों घरों के बीच दरवाजा फोड़ लिया और मय बीबी-बच्‍चों के उसके घर चला गया। अपने घर में कारखाना फैला लिया। पहले उसी मकान में घर, उसी में कारखाना था। जगह की बहुत तंगी हुआ करती थी।'' उसने मुंह ऐसे सिकोड़ा जैसे जगह की तंगी चेहरे पर उतर आई हो।
''.....और हुकूमत नें जगदीश का घर तुमसे खाली कराकर किसी मुहाजिर को दे दिया है। यही समस्‍या है न तुम्‍हारी?'' उसने अलादाद खां के बाएं कंधे पर दायां हाथ रखकर हौले से हिला दिया। ओठों पर मुस्‍कराहट, भवों पर तंज तैर रहा था।
कंधे पर हाथ रखने को सहानुभूतिक आयाम मानकर वह उत्‍साहित स्‍वर में बोले, '' सही फरमाया आपने। पर केवल यही दाद नहीं, खाज भी है। केले के पत्‍ते की तरह तकलीफ से तकलीफ निकल रही है। शुरू में तो जगदीश का मकान खाली करने से साफ इंकार कर दिया मैने। एक दिन सुबह दारोगा चंद सिपाहियों के साथ आ धमका। बेंत से पीटने लगा मुझे, जनानियों को भद्दी-भद्दी गालियां दीं, उनके साथ धक्‍कामुक्‍की की और हमारा सामान बाहर फिंकवाने लगा। बदन पोर-पोर दुख रहा था। हल्‍दी-चूना मलने के बावजूद कमर की सूजन आज तक नहीं गई।''
उन्‍होंने दाएं हाथ की तर्जनी कमर में चुभाई और प्रमाणस्‍वरूप कराह उठे।
''खां साहब, आपकी धुनाई भी तो कहीं इतिहास का हिस्‍सा नहीं बन गई।''
''आपको हंसी-ठट्ठा सूझ रहा है, यहां जान पर बन आई है। पहले पूरी बात तो सुनिए। हरामी मादर.... पुलिस वालों ने शरीर पर ही नहीं गांठ पर भी चोट की। दोनों घरों के बीच जो दरवाजा फोड़ा था, उस जगह को चिनवाने के नाम पर पैसे भी वसूले- इतने कि उतने में पूरी दीवार बनकर खड़ी हो जाए।'' उंची आवाज में कराहते हुए उसने अपनी नन्‍हीं आंखों को दूना विस्‍तार दिया।
''बड़े पाजी निकले पुलिसवाले। टूटी कमर पर और बोझ डाल दिया। चच्‍च....च्‍चच्‍च....''
''उधर जो मुहाजिर पड़ोसी मिले, वे बड़े ही शातिर और जालिम निकले।''
''क्‍या उनसे भी टण्‍टा हुआ?"
"उनका लौंडा है- गबरू जवान। पचीस के आस-पास होगा। एक दिन छत से झांक रहा था। मना किया कि मत झांका करो, जनानियां रहती हैं मेरे घर में। उसने आव देखा न ताव, मुक्‍का तानकर धमकाने लगा, ''ए मियां, ज्‍यादा टिपिर-टिपिर मत कर। जान हथेली पर लेकर यहां तक आया हूं। मुझे अपनी जान की रोएं भर भी परवाह नहीं। ज्‍यादा टोका-टाकी की तो तरबूज की तरह पेट चीर दूंगा। छह खून के तोहफे हिंदुस्‍तान को दिए तो एक पाकिस्‍तान को भी। मैं लल्‍लू-पंजू मुहाजिर नहीं कि धौंस बर्दाश्‍त करूं। समझे? नहीं समझे? उसकी फारसी सुनकर मुझे तो गश आ गया।''
''तौबा-तौबा....।''
''मुझे टिकाकर कमरे में ले जाया गया। मुंह पर छींटे मारे गए, तब कहीं जाकर होश आया। तब से सारा परिवार सहमा हुआ है। दिन-रात यही चिंता कि शैतान इब्‍लीस जाने कब छत से कूद पड़े और चाकू पेल दे।''
धंधा भले ही असलहों का हो, पर कंधा अलादाद खां का कमजोर था। हां, दूसरे के कंधे पर बंदूक रखकर चलाने का उन्‍हें अच्‍छा अभ्‍यास था। वह थे भी वजीर कबीले के जिसके लिए कहा जाता है कि वह सामने से नहीं, पीछे से वार करता है।
मीर आलम खां को पुराने दिन याद आ गए, ''खां साहब, आप दुहाई देते फिरते थे कि खतरा काफिर हिंदुओं की ओर से है, यह मुसलमान से खतरा किस रास्‍ते से आ टपका? मेरे भाई, सच तो यह है कि खुदा सब कुछ देखता है। सब कुछ सुनता भी है। वह करनी का फल भी देता है- भले ही देर हो जाए। आपको अपने पापों का फल मिल रहा है- अपने नामाराशी की तरह।''
''नामाराशी? मेरा नामाराशी? कौन मेरा नामाराशी?''
''वही मशहूर डिप्‍टी कमिश्‍नर निकल्‍सन के समय का अलादाद खां। उसका किस्‍सा पता नहीं?"
"नहीं पता मुझे।"
''क्‍यों पता हो? इतिहास तुम्‍हारे लिए बादशाहों, महाराजों और नवाबों की लड़ाइयों और रंगरेलियों तक ही सीमित है। पर अपने नामाराशी का किस्‍सा सुन लो। उस अलादाद खां ने अपने भतीजे की भूमि हड़प ली थी। भतीजे ने डिप्‍टी कमिश्‍नर मेजर जॉन निकल्‍सन की अदालत में मुकदमा दायर कर दिया। एक सुबह लोग क्‍या देखते हैं कि निकल्‍सन साहब एक पेड़ से बधे हैं। लोग दौड़ पड़े। अलादाद खां भी। निकल्‍सन साहब ने तुर्शी से सवाल किया, ''ये जमीन किसकी है?" अलादाद खां ने यह सोचते हुए कि जिसकी जमीन है, उसे द‍ंडित किया जाएगा, कहा, '' हुजूर-ए-आला यह जमीन मेरी नहीं है। मेरे भतीजे की है।'' निकल्‍सन साहब को बांछित साक्ष्‍य मिल गया था। अगली सुनवाई की तिथि में उन्‍होंने भतीजे के पक्ष में निर्णय दे दिया और लोभी अलादाद खां को दंडित किया। उस लोभी की तरह तुम्‍हें भी सबक मिल रहा है।''
जॉन निकल्‍सन सत्रह साल की उम्र में ईस्‍ट इंडिया कंपनी की बंगाल नैटिव इन्‍फैंट्री में कैडेट के रूप में भरती हुए थे, पर अपने परिश्रम के बल पर फौज के उच्‍च पद तक पहुंचे। सख्‍त प्रशासक के रूप में ख्‍याति थी उनकी। यहां तक कि माएं अपने बच्‍चों को यह कहकर डराती थीं, ''चुप हो जा वरना 'निक्‍कल सेन साहब' पकड़ कर ले जाएंगे।''
एक बार उन्‍हें पता चला कि फौजी अफसरों के भोजन में रसोइयों ने जहर मिला दिया है। उन्‍होंने तब तक भोजन नहीं किया जब तक कि रसोइयों को फांसी नहीं दे दी गई। 1857 की क्रांति के दौरान वह पंजाब से फौज लेकर दिल्‍ली पहुंचे। युद्ध में घायल होने के फलस्‍वरूप सितंबर, 1857 में दिल्‍ली में आर्मी कैंप में ही उनकी मृत्‍यु हुई।
अलादाद ने चिंतित स्‍वर में कहा, ''निक्‍कल सेन साहब अठारह सौ सत्‍तावन की गदर में मर-खप गए, पर मैं तो जिंदा हूं। सलाह दो कि क्‍या करूं। चुगद मुहाजिर मेरी ऐसी-तैसी करने में लगा हुआ है। बीबी की आबरू, बच्‍चों की जान खतरे में है। जगदीश को छत पर आना होता तो खांस-खंखार कर आने का संकेत दे देता। जनानियां परदे में हो जाया करतीं। आदमी हीरा था--हीरा!"
"...जो आप जैसे कच्‍चे कोयले की संगत में पड़ गया।''
''क्‍या बताएं, भाई!"
"बताओ नहीं, भुगतो। भूल गए वे दिन जब गुण्‍डों की सलवार में घुसकर कहते थे कि सारे हिंदुओं का सफाया हो रहा है, पर मेरे जगदीश को कोई क्‍यों हाथ नहीं लगाता? अब उस पर प्‍यार उमड़ रहा है। ये कहो मैं न निकालता तो तुम उसे इस दीन-जहान से उठा चुके होते। सच तो यह है कि तुम निहायत खुदगर्ज, तंगदिल और टुच्‍चे हो-- इंसानियत के नाम पर स्‍याह धब्‍बा। मुहाजिर तुम्‍हारे साथ जैसा सुलूक कर रहे हैं, तु उसी के लायक हो?"
मीर आलम खां ने अलादाद खां को तीखी नजरों से घूरा और चल दिए। पीछे-पीछे जावेद भी।
अलादाद खां कुछ क्षणों तक ठगे से उन्‍हें जाते देखते रहे, फिर निगाह उपर उठाई। मस्जिद की मीनारों पर धूप अब भी चमक रही थी।
बात अलादाद खां की ही नहीं थी। इकराम, मुहम्‍मद ईसा, मुहम्‍मद अमीन, जियाउद्दीन जैसे बहुत से लोग थे जिन्‍हें हथियाये गए मकानों से बेदखल होना पड़ा था और 'लौट के बुद्धु घर को आए' जैसी स्थिति हो गई थी। पर बहुत से प्रभावशाली व्‍यक्तियों ने यहां भी नियम-कानून को धता बता दिया था और हुक्‍काम की हथेली गरम कर हड़पी संपत्ति बचा ले गए थे।

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शाम होते ही शहर अंगड़ाइयों लेकर जमुहाई लेने लगा। जैसे वायु निर्वात की ओर बगटुट भागती है, वैसे ही सर्दी शरीर को रोम-रोम वेधने की फिराक में थी। घिरते अंधेरे ने सर्दी में भयावहता घोल दी थी। सड़क के किनारे गठरी दिखाई दी जिसे कुत्‍ता सूंघ रहा था। करीब आने पर पता चला कि यह गठरी न होकर सिमटा-सिकुड़ा आदमी है। कुत्‍ते को उसके कपड़ों में रोटी की तलाश थी या वह उसकी दुर्दशा पर सहानुभूति प्रकट कर रहा था, कहना कठिन था।
धुंधली आकृति उभरी-- आधा गंजा सिर, बढ़ी हुई दाढ़ी, छोटी-छोटी आंखें गड्डे में धंसी हुईं। नीचे का शरीर फटे कंबल से ढका हुआ। अरे, यह तो अब्‍दुल गनी हैं--शेरू के पिता।
मीर आलम खां ने आवाज दी, ''गनी भाई!"
कोई उत्‍तर नहीं। अपना कान उनके मुंह तक ले गयाफ श्‍वसनक्रिया चालू, पर घरघराहट के साथ। जैसे गले में कुछ फंस रहा हो। मिरगी का दौरा है या किसी अन्‍य व्‍याधि के साथ आई अचेतावस्‍‍था।
इकलौता बेटा शेरू जीवित था, तो अब्‍दुल गनी को किसी चीज की कमी न थी। वह गुण्‍डागर्दी से काफी कमा लेता था। अगर जेल चला जाता, तो भी पिता अर्जित संपत्ति को धीरे-धीर कुतरते रहते। पर शेरू की हत्‍या के बाद स्थिति दयनीय होती चली गई। जीविका का एकमात्र साधन घर के अगले हिस्‍से में स्थित दुकान थी जिसके देर-सबेर मिलने वाले आधे-धोधे किराए से बमुश्किल गुजर-बसर होती थी। आंखों की कमजोर रोशनी के कारण वह कोई काम करने की स्थिति में न थे।
मुहाजिरों की चीटिंयों जैसी अटूट पांत बन्‍नू आई। एक मुहाजिर परिवार अब्‍दुल गनी के बगल वाले घर में बसाया गया। मुहाजिर ने कुछ समय बाद अपने भाई को अब्‍दुल गनी के घर में बसा दिया। अब्‍दुल गनी घर के बाहरी बरामदे में सिमटकर रह गए। बन्‍नू के जेहाद के हीरो शेरू के अब्‍बा हुजूर के साथ एक हममजहब द्वारा की गई ज्‍या‍दती के खिलाफ किसी हममजहब ने आवाज नहीं उठाई।
जेहाद का मतलब किसी के लिए कुछ भी रहा हो, अब्‍दुल गनी के लिए यह था कि इकलौते बेटे को एकमात्र सहारा भी जाता रहा था और स्‍वयं घर से बेघर होकर भिखमंगे की परिधि में आ गए थे। इन जुड़वां सौगातों को अपनी नीमअंधी आंखों के साथ अकेला ही ढोना था। न तो नवाब साहब आगे आए, न ही जियाउद्दीन और अलादाद खां जैसे जेहादी जिन्‍होंने शेरू को भड़काया था और भरपूर इस्‍तेमाल किया था। अब्‍दुल गनी शेरू की शहादत का हवाला देकर फरियाद करते, पर लोगों के पास उनका दुखड़ा सुनने का, सहायता करने का अथवा सहानुभूति के दो शब्‍द उचारने का भी वक्‍त न था।
मीर आलम खां का शेरू के प्रति घृणाभाव रहा था, पर उसके कुकृत्‍यों का दंड बाप को देना एक दूसरा कुकृत्‍य लगा। दो दोस्‍तों और जावेद की सहायता से अब्‍दुल नी को चारपाई पर लिटाकर अपने घर ले आए। आग जलाकर उनके शरीर में हरारत और जुम्बिश पैदा की। चम्‍मच से चाय पिलाते समय वह ऐसे लग रहे थे जैसे अबोध, निश्‍छल शिशु।
अगली सुबह डाक्‍टर को दिखाया गया। डाक्‍टर ने दवा दी। नीमबेहोशी दूर हुई, बलगम में कमी आई, बुखार भी कम हुआ। पर तीसरे दिन तबियत बिगड़ गई। डाक्‍टर की दवा और मीर आलम खां की दुआ के बावजूद वह बच नहीं सके।
दफनाने के समय भी शेरू का इस्‍तेमाल करने वाले नहीं पंहुचे।

Wednesday, January 7, 2009

......ये रंगभेद से कम तो नहीं

''छि:! अंग्रेजी भी नहीं आती'' शीर्षक से लिखी गई पोस्‍ट पर पक्ष/विपक्ष में प्रतिक्रिया देने वाले अपने सभी साथियों/आगंतुकों का मैं सबसे पहले आभार व्‍यक्‍त करना चाहती हूं। इर्द-गिर्द पर मैने अंग्रेजी में सवाल पूछकर भाषा के नाम पर शर्मसार कर देनी वाले विश्‍वविद्यालय अनुदान आयोग के उस दल की मानसिकता को उजागर करने का प्रयास किया जो आजाद भारत में भी हिंदी को हिकारत की नजर से देखती है। अगर आप किसी को राष्‍ट्रभाषा/राजभाषा/मातृभाषा के नाम पर दुतकारते हो तो मेरी नजर में ये भी रंगभेद जैसा ही अपराध है। ऐसा अपराध तब और भी गंभीर हो जाता है जब आप हुकूमत के नशे में जानबूझकर कर रहे हों। विश्‍वविद्यालय की टीम मेरठ के चौधरी चरण सिंह विश्‍वविद्यालय में इसलिए समीक्षा करने आई थी क्‍योंकि ग्‍यारहवीं योजना में चौधरी चरणसिंह विश्‍वविद्यालय ने अपने शैक्षणिक कार्यक्रमों को विस्‍तार देने के लिए आयोग से अनुदान मांगा है। इसी प्रक्रिया में आयोग ने अपने विशेष निरीक्षण दल को मेरठ विश्‍वविद्यालय भेजा था जिसकी अगुवाई गौर बांगा विश्‍विद्यालय कोलकाता की कुल‍पति प्रोफेसर सुरभि बनर्जी कर रही थीं। इसी निरीक्षण के पहले दिन चौधरी चरण सिंह विश्‍वविद्यालय के राजनीतिशास्‍त्र विभाग यानी पोलिटिकल साइंस डिपार्टमेंट की क्‍लास में छात्र/छात्राओं से सवाल पूछे लेकिन अंग्रेजी में पूछे गए सवालों को छात्र समझ ही नहीं सके तो जबाव क्‍या देते। इस पर प्रोफेसर बनर्जी विफर पड़ीं-"पूरा डिपार्टमेंट ही हिंदी में बोलता है। ये एमए पोलटिकल साइंस की क्‍लास है और पूरी क्‍लास में एक भी बच्‍चा एक भी सवाल का अंग्रेजी में जबाव नहीं दे सकता? क्‍या पढ़ाते हैं आप इन्‍हें?" कुछ ऐसे ही शर्मसार करने के अंदाज में ये जुमले बोले गए।''
इस पोस्‍ट पर मुझे कई टिप्‍पणियां मिलीं। इनमें से एक टिप्‍पणी गुवाहटी से थी- श्री विनोद रिंगानिया की। माननीय विनोद रिंगानिया जी ने लिखा- ''प्रो. बनर्जी की तो मैं नहीं जानता लेकिन यह गुजारिश जरूर करूंगी कि हिंदी प्रदेश अब अंग्रेजी को नजरंदाज करना बंद करें। अंग्रेजी का राजनीतिक विरोध कर हिंदी प्रदेशों ने काफी नुकसान उठाया है। इसमें बंगालियों से शिक्षा ली जा सकती है। उन्होंने अपनी भाषा की उन्नति के लिए जितना काम किया है शायद ही अन्य भाषाभाषियों ने। लेकिन अंग्रेजी की अवहेलना उन्होंने नहीं की। अंग्रेजी भारत में रहने वाली है। इसे सीखिए, अपनी भाषा सीखते हुए। राजनीतिक नारेबाजी से कोई लाभ नहीं होने वाला।'' इसमें मेरी कोई असहमति है तो सिर्फ इतनी कि मैने भाषाई राजनीति या राजनीतिक नारेवाजी करने के लिए पोस्‍ट नहीं लिखी थी। मैं फिर कहती हूं कि हर भारतीय को विकास में सहभागिता रखने और अपनी खुद की तरक्‍की के लिए अंग्रेजी जरूर सीखनी चाहिए। लेकिन मेरा व्‍यक्तिगत मानना है कि राष्‍ट्र को एक सूत्र में बांधने के लिए अपनी मातृभाषा के साथ एक अन्‍य भारतीय भाषा भी जरूर सीखनी चाहिए। उसके बाद अंग्रेजी और फिर जर्मन, फ्रेंच, अरबी या हिब्रु जो इच्‍छा हो सीखिए। ....क्‍योंकि मेरा मानना है कि भाषा एक पुल है तुम तक पंहुचने के लिए.....और जिस भाषा से आप सामने वाले को कुछ समझा ही न सकें या कोई आपकी बात समझ ही न सके तो वह भाषा उस जगह बेकार है। दूसरी बात आप यदि भाषा के नाम पर किसी को अपमानित करते हैं तो ये सिर्फ और सिर्फ बेहुदापन है। आशा है विनोद रिंगानियां जी मेरी बात से सहमत होंगे।
एक और टिप्‍पणीं का जिक्र मैं पहले करना चाहती हं। गरुण या गरुणा जी की टिप्‍पणीं है। क्षमा कीजिएगा क्‍योंकि उनका नाम अंग्रेजी में लिखा है इसलिए मैं ठीक से लिंगभेद नहीं कर पा रहीं हूं। ण और णा के बीच ये तय कर पाना मेरे लिए मुश्किल है कि क्‍या लिखूं। उन्‍होंने लिखा है- ''आपको इससे बकवास विषय साझा करने के लिए नहीं मिला क्या भाई। आप जैसे लोग क्यों दूसरों का वक्त बरबाद करते हैं। हालांकि आप अच्छी तरह जानते हैं कि अंग्रेजी आना कितना जरूरी है। पढ़ रहे हैं राजनीति शास्त्र और चाह रहे हैं कि यूरोप और मध्यएशिया की राजनीति आपको कोई हिंदी में पिला दे। तब तो आप चाहेंगे कि आपकी बोली में राजनीति शास्त्र पढ़ाया जाए। अपना और दूसरों का वक्त बरबाद करना और दिग्भ्रमित करना बंदे करें महोदय। हिंदी पर आपका यह सबसे बड़ा उपकार होगा।'' अब आप लोग ही तय कीजिए कि उनकी टिप्‍पणी पर क्‍या कहा जाए? आप ही बताईए कि क्‍या ये बकवास विषय साझा करने लायक था या नहीं? जब जर्मनी, फ्रेंच, स्‍पेनिश, रशियन, चाईनीज या जापानी भाषा में विज्ञान की पढ़ाई हो सकती है तो क्‍या हिंदी में राजनीतिशास्‍त्र नहीं समझा जा सकता?
अब मैं आभार प्रकट करना चाहूंगी प्रख्‍यात लेखक और विचारक राज किशोर जी का जिन्‍होंने अपनी सारगर्भित प्रतिक्रिया देकर मेरा उत्‍साह बढ़ाया। मैं हरि भूमि के संपादक ओमकार चौधरी, टिप्पणीकार, ताउ रामपुरिया, मसिजीवी, पत्रकार कपिल शर्मा, हिंदी सेवी शैलेश भारतवासी, पराए देश में रहकर भी संस्‍कारवान बने रहने वाले राज भाटिया, उम्‍मेद, विनय, सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी, प्रमोद, अरविंद मिश्रा, नवीन कुमार 'रणवीर' और बहिन संध्‍या गुप्‍ता की आभारी हूं जिन्‍होंने मुद्दे पर गंभीरता से अपनी प्रतिक्रिया देकर मेरा हौंसला बढ़ाया।
अब अंत में मैं दैनिक हिंदुस्‍तान में प्रकाशित हुई एक रिपोर्ट जस की तस स्‍केन कर आपके सामने रख रहीं हूं। इसे बड़ा कर पढ़ने के लिए इमेज पर क्लिक कीजिए।

Sunday, January 4, 2009

छि: ! अंग्रेजी भी नहीं आती

"पूरा डिपार्टमेंट ही हिंदी में बोलता है। ये एमए पोलटिकल साइंस की क्‍लास है और पूरी क्‍लास में एक भी बच्‍चा एक भी सवाल का अंग्रेजी में जबाव नहीं दे सकता? क्‍या पढ़ाते हैं आप इन्‍हें?" कुछ ऐसे ही शर्मसार करने के अंदाज में ये जुमले बोले गए मेरठ के चौधरी चरणसिंह विश्‍वविद्यालय के राजनीतिशास्‍त्र विभाग में। ये जुमले फेंककर शर्मिंदा करने का नेतृत्‍व कर रहीं थीं गौर बांगा विश्‍विद्यालय कोलकाता की कुल‍पति प्रोफेसर सुरभि बनर्जी जो एक तरह से महारानी की भूमिका में थीं। जी हां! प्रोफेसर बनर्जी विश्‍वविद्यालय अनुदान आयोग यानी यूजीसी के उस दल की अगुवाई कर रहीं थीं जो खैरात के लिए चौधरी चरण सिंह विश्‍वविद्यालय के निरीक्षण को आया था। अब आप ही बताइए कि जिस दल की रिपोर्ट पर करोड़ों रूपयों का खेल हो तो उसकी अगुवाई करने वाली विदुषी महारानी विक्‍टोरिया जैसा व्‍यवहार क्‍यों न करे।
आईए पहले आपको ये बता दें कि विश्‍वविद्यालय की टीम चौधरी चरण सिंह यूनीवर्सिटी क्‍यों पंहुची। ग्‍यारहवीं पंचवर्षीय योजना के तहत विश्‍वविद्यालय अनुदान आयोग की टीम तीन दिवसीय निरीक्षण के लिए आई। चौधरी चरण सिंह विश्‍विविद्यालयय प्रशासन ने इस योजना में विश्‍वविद्यालय का कायाकल्‍प करने के लिए करीब पौने तीन सौ करोड़ की योजना यूजीसी के पास स्‍वीकृति के लिए भेजी थी। प्रस्‍ताव के मुताबिक चौधरी चरण सिंह विश्‍वविद्यालय में चार नई शोध पीठ स्‍थापित करने, ई-गवर्नेंस, शिक्षकों की संख्‍या में कमी, वैज्ञानिक शिक्षा और अकादमिक स्‍टाफ की नियुक्ति जैसी योजनाओं के लिए धन की आवश्‍यकता बताई गई थी। इन्‍हीं प्रस्‍तावों और यूनीवर्सिटी की वर्तमान प्रगति आंकने के लिए यूजीसी की टीम तीन दिन के लिए पंहुची और उसने पहले ही दिन विश्‍वविद्यालय के अठारह विभागों का दौरा किया। वैसे दो दिनों में नौ सदस्‍यीय दल को केवल सात घंटे खर्च कर विश्‍वविद्यालय का हालचाल जानना था। आप समझ सकते हैं कि एक विश्‍‍वविद्यालय का सात घंटे में क्‍या और कैसे आंकलन हो सकता है।
परम्‍परा के मुताबिक चौधरी चरण सिंह विश्‍वविद्यालय के कुलपति और उनके सहयोगी पंद्रह दिन तक यूजीसी के आकाओं के स्‍वागत की तैयारी में जुटे रहे। एक-एक विभाग को चमकाया गया। अधिकाधिक उपस्थिति के लिए गुहार की गई। सारी व्‍यवस्‍थाएं चाक-चौबंद की गईं। लंच-डिनर और नाश्‍ते के लिए लजीज पकवानों की सूची तैयार की गई। ऐसे स्‍वागत-सत्‍कार की तैयारी कि आने वाले राजाओं की टोली खुश होकर आशीर्वाद दे दे और विश्‍वविद्यालय को अनुदान मिलने का रास्‍ता साफ हो जाए। हांलाकि ये सब शिक्षा की दशा-दिशा सुधारने के लिए किए जा रहे प्रयत्‍नों का हिस्‍सा है और ये योजनाएं अगर साकार होती है तो इससे उच्‍च शिक्षा को ही लाभ होना है लेकिन विश्‍वविद्यालय के कुलपति के लिए तो ये बिल्‍कुल वैसा ही समझिए कि मानों कोई पिता अपनी पुत्री के विवाह के लिए वर पक्ष के लोगों के आगमन पर किसी भी स्‍तर पर कोई कमी नहीं छोड़ना चाहता।
इतनी सारी व्‍यवस्‍थाएं चाक-चौबंद करने वाला विश्‍वविद्यालय प्रशासन क्‍या करता। उसे क्‍या मालूम था कि आजाद भारत की हिंदी वेल्‍ट में आजादी के इकसठ सालों बाद भी फिरंगियों की भाषा उन्‍हें इस कदर अपमानित कराएगी! वह कर भी क्‍या सकते थे? पंद्रह दिन में पश्चिमी उत्‍तर प्रदेश के छात्रों को अंगेजी की घुट्टी घोलकर उन्‍हें देसी अंग्रेजों के काबिल बनाना मुमकिन भी न था। अब प्रोफेसर बनर्जी को कौन समझाए कि चौधरी चरण सिंह विश्‍वविद्यालय में जिस जमीन से छात्र आते हैं वहां गन्‍ने और गुड़ की खुशबु से राजनीति उपजती है। पश्चिमी उत्‍तर प्रदेश में अधिकांश छात्र पोलिटिकल साइंस नहीं बल्कि राजनीति शास्‍त्र पढ़ते हैं। यहां के सरकारी स्‍कूलों में प्राइमरी तक अंग्रेजी की एबीसीडी भी नहीं पढ़ाई जाती। जहां बच्‍चा पढ़ाई के साथ-साथ खेतों में हल या ट्रैक्‍टर चलाना भी सीखता है। अगर ग्रामीण पृष्‍ठभूमि के ऐसे बच्‍चे अपनी लगन पर उच्‍च शिक्षा के लिए विश्‍वविद्यालय की शक्‍ल भी देख लेते हैं तो ये उनकी जीवटता है और चौधरी चरणसिंह विश्‍वविद्यालय के ज्‍यादातर छात्र ग्रामीण पृष्‍ठभूमि से ही निकल कर वहां तक पंहुचे हैं। ऐसे में उनसे ऐसी भाषा में सवाल पूछना जिसे वह समझते ही नहीं, कहां तक न्‍यायसंगत है? क्‍या ये देश का संविधान कहता है कि एमए पोलिटिकल साइंस को राजनीतिशास्‍त्र कहना गुनाह है? क्‍या राजनीतिशास्‍त्र हिंदी में नहीं पढ़ा-समझा जा सकता? क्‍या हिंदी अभी भी गुलामों की भाषा है? क्‍या राष्‍ट्रभाषा हमारे आधुनिक राजाओं से इसी तरह अपमानित होती रहेगी? क्‍या राजनीति का ककहरा भी अब एबीसीडी में सीखना होगा? क्‍या हम इसी तरह से मा‍नसिक गुलामियत में जीवन जीने को अभिशप्‍त रहेंगे? आशा है कि अंतर्जाल पर हिंदी का चिट्ठाजगत ही इन गुलाम मानसिकता वाले आधुनिक राजाओं को जबाव देगा।

तकनीकी सहयोग- शैलेश भारतवासी

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