Monday, November 29, 2010

हमने तुमको ओ साथी पुकारा बहुत

एक गीत -

हमने तुमको साथी पुकारा बहुत,
मुड़ के तुमने ही एक बार देखा नहीं
चौंधियाए रहे रूप की धूप से
और ह्रदय में बसा प्यार देखा नहीं

क्या बताऊँ कि कल रात को किस तरह
चाँद तारे मेरे साथ जगते रहे
जाने कब तुम चले आओ ये सोच कर
खिड़की दरवाजे सब राह तकते रहे

महलों- महलों मगर तुम भटकते रहे
इस कुटी का खुला द्वार देखा नहीं

कल की रजनी पपीहा भी सोया नहीं
पी कहाँ- पी कहाँ वो भी गाता रहा
एक झोंका हवा का किसी खोज में
द्वार हर एक का खटखटाता रहा

स्वप्न माला मगर गूँथते तुम रहे
फूल का सूखता हार देखा नहीं

फूल से प्यार करना है अच्छा मगर
प्यार की शूल को ही अधिक चाह है
अहमियत मंजिलों की उन्ही के लिए
जिनके बढ़ने को आगे नहीं राह है

बिन चले मंजिले तुमको मिलती रहीं
तुमने राहों का विस्तार देखा नहीं

हमने तुमको साथी पुकारा बहुत
मुड़ के तुमने ही एक बार देखा नहीं .

-कुमार अनिल

Thursday, November 25, 2010

पेड़, पर्यावरण और काग़ज़

कटते जा रहे हैं
पेङ
पीढी दर पीढी

बढता जा रहा है
धुंआ
सीढी दर सीढी

अपने अस्तित्व की
रक्षा के लिये ,
चिन्तित है -
कागजी समुदाय

हावी होता जा रहा है
कम्पयुटर,
दिन ब दिन ,
फिर भी
समाप्त नहीं हुआ -
महत्व,
कागज का अब तक

बावजूद
इन्टरनेट के ,
कागज
आज भी प्रासंगिक है -
नानी की चिठ्ठियों में ,
दद्दू की वसीयत में

कागज ही
होता है इस्तेमाल ,
हर मोङ पर
जिन्दगी के

परन्तु
थकने भी लगा है
कागज
बिना वजह
छपते छपते

कागज के अस्तितव के लिये
जितने जरूरी हैं
पेङ,
पर्यावरण,
आदि आदि ,
उतना ही जरूरी है -
उनका सदुपयोग -
सकारण
अकारण नहीं


नवीन सी चतुर्वेदी

Thursday, November 18, 2010

शेर कह कर, सुकून सा पाया

उठ के देखा, तो रास्ता पाया,
दोस्त को, राह पर खङा पाया|
मिट गयीं सब शिकायतें दिल की,
दिल से दिलदार को जो चिपटाया|१|

कल जो बोया था, बीज कोशिश का,
आज उसका ही फल, 'बढा' पाया|
दोस्त, इन्सानियत के पेङों को,
सख्त तूफाँ भी ना झुका पाया|२|

वो उजाला भी क्या उजाला है,
जो अँधेरों को ना मिटा पाया|
इस अमीरों के मुल्क को यारो,
भुखमरी से, निरा, पटा पाया|३|

बात करता है वो, सलीके से,
उसकी नीयत में, 'खोट' सा पाया|
वोट ले कर, वो हो गया गायब,
हमने खुद को, ठगा ठगा पाया|४|

कामयाबी के जश्न से पहले,
देख, क्या खोया और क्या पाया|
बन गया 'साब' कल जो था 'लेबर'
फिर भी, 'रोटी' वो ना जुटा पाया|५|

इसलिये लोग बन गये 'अहमक',
सब को रब, 'अक्ल' ना लुटा पाया|
सैंकङों से, चुरा के सुन्दरता-
चंद रुख, खूबरू बना पाया|६|

उस[*] से लङता रहा हूं अरसे से,
उस को लेकिन, न मैं हरा पाया|
हर दफा, खुद को ही किया है चुप,
उस को खामोश ना करा पाया|७|

उसने पूछा, कयूं कहते हो गजलें?
कोई कारण नहीं बता पाया!
जो भी देखा, जिया, सुना, सोचा,
खुद ब खुद शेर में ढला पाया|८|

ऐसा सुन के, वो पूछता है फिर,
शेर पढ़ कर के, तुमने क्या पाया?
कश-म-कश थी, कि छोङती ही न थी
शेर कह कर, सुकून सा पाया|९|


अहमक = मूर्ख / बुद्धू
रुख = चेहरे
खूबरू = सुन्दर / खूबसूरत
[*] इस ग़ज़ल में 'उस' का सन्दर्भ:
पूछने वाला मेरे अंदर का भौतिक व्यक्ति
जवाब देने वाला मेरे अंदर का क्रियात्मक व्यक्ति


नवीन सी चतुर्वेदी

Tuesday, November 16, 2010

एक कविता मृत्यु के नाम

मृत्यु तू आना
तेरा स्वागत करूँगा

किन्तु मत आना
कि जैसे कोई बिल्ली
एक कबूतर की तरफ
चुपचाप आती
फिर झपट्टा मरती है यकबयक ही
तोड़ गर्दन
नोच लेती पंख
पीती रक्त उसका
मृत्यु तुझको
आना ही अगर है पास मेरे
तो ऐसे आना
जैसे एक ममतामयी माँ
अपने किसी
बीमार सुत के पास आये
और अपनी गोद में
सिर रख के उसका
स्नेह से देखे उसे
कुछ मुस्कुरा कर
फिर हथेली में
जगत का प्यार भर कर
धीरे से सहलाये उसका तप्त मस्तक
थपथपा कर पीर
कर दे शांत उसकी
और मीठी नींद में
उसको सुला दे

मृत्यु !
स्वागत है तेरा
जब चाहे आना

किन्तु मत आना
कि आता चोर जैसे
और ले जाता
उमर भर क़ी कमाई
तू दबे पाँव ही आना चाहती है
तो ऐसे आना
जैसे कोई भोला बच्चा
आके पीछे से अचानक
दूसरे की
अपने कोमल हाथ से
बंद आँख कर ले
और फिर पूछे
बताओ कौन हूँ मैं ?

तू ही बता
वह क्या करे फिर
मीची गई हैं आँख जिसकी
और जिससे
प्रश्न यह पूछा गया है
है पता उसको
कि किसके हाथ हैं ये
कौन उसकी पीठ के पीछे खड़ा है
किन्तु फिर भी
अभिनय तो करता है
थोड़ी देर को वह
जैसे बिल्कुल
जानता उसको नहीं है
और जब बच्चा वह
खुश होता किलकता
सामने आता है उसके
क्या करे वह ?
खींच लेता अंक में अपने
पकड़ कर
एक चुम्बन
गाल पर जड़ देता उसके

मृत्यु
तू भी इस तरह आये अगर तो
यह वचन है
तुझको कुछ भी
यत्न न करना पड़ेगा
मै तुझे
खुद खींच लूँगा
पास अपने
और
ऊँगली थाम
तेरी चल पडूँगा
तू जहाँ
जिस राह पर भी ले चलेगी

मृत्यु !
स्वागत है तेरा
जब चाहे आना

Monday, November 8, 2010

२ गजलें

(१)

हर शख्श है लुटा- लुटा हर शय तबाह है
ये शह्र कोई शह्र है या क़त्ल-गाह है

जिसने हमारे खून से खेली हैं होलियाँ
हाकिम का फैसला है कि वो बेगुनाह है

ये हो रहा है आज जो मजहब के नाम पर
मजहब अगर यही है तो मजहब गुनाह है

हम आ गए कहाँ कि यहाँ पर तो दोस्तों
रोशन- जहन है कोई, न रोशन निगाह है

दह्शतजदा परिंदा जो बैठा है डाल पर
यह सारे हादसों का अकेला गवाह है

मेरी ग़जल ने जो भी कहा, सब वो सच कहा
ये बात दूसरी है कि सच ये सियाह है

ये शहरे सियासत है यहाँ आजकल 'अनिल'
इंसानियत की बात भी करना गुनाह है

(२)

सुरमई शाम का मंज़र होते, तो अच्छा होता
आप दिल के भी समंदर होते, तो अच्छा होता

बिन मिले तुमसे मैं लौट आया, कोई बात नहीं
फिर भी कल शाम को तुम घर होते, तो अच्छा होता

माना फनकार बहुत अच्छे हो तुम दोस्त मगर
काश इन्सान भी बेहतर होते , तो अच्छा होता

हम से बदहालों, नकाराओं, बेघरों के लिए
काश फुटपाथ ये बिस्तर होते, तो अच्छा होता

मैं जिसमे रहता भरा ठन्डे पानियों की तरह
आप माटी की वो गागर होते, तो अच्छा होता

यूं तो जीवन में कमी कोई नहीं है, फिर भी
माँ के दो हाथ जो सर पर होते, तो अच्छा होता

तवील रास्ते ये कुछ तो सफ़र के कट जाते
तुम अगर मील का पत्थर होते, तो अच्छा होता

तेरी दुनिया में हैं क्यूं अच्छे- बुरे, छोटे- बड़े
सारे इन्सान बराबर होते तो, अच्छा होता

इनमें विषफल ही अगर उगने थे हर सिम्त 'अनिल'
इससे तो खेत ये बंजर होते , तो अच्छा होता

-कुमार अनिल

Saturday, November 6, 2010

कैसे भूलूँ बचपन अपना

कैसे भूलूँ बचपन अपना , अपना बचपन कैसे भूलूँ

मन गंगाजल सा निर्मल था डर था नहीं पाने खोने का
रूठे भी कभी जो मीत से तो झगडा था एक खिलौने का
वो प्रीत मधुर कैसे भूलूँ , मधुरिम अनबन कैसे भूलूँ

माँ की गोदी में शावक सा जब थक कर मैं सो जाता था
उस आँचल के नीचे मेरा ब्रह्माण्ड सकल हो जाता था
अब जाकर कहाँ हँसूं किलकूं , गलबहियां डाल कहाँ झूलूँ

बचपन की भेंट चढ़ा कर जो पाया तो क्या पाया यौवन
स्पर्श- परस सब पाप हुए बदनाम हैं चुम्बन -आलिंगन
हर तरफ खिंची हैं सीमायें, किसकी पकड़ू किसको छू लूं


तकनीकी सहयोग- शैलेश भारतवासी

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