Saturday, July 30, 2011

दो गजलें

दो ग़ज़लें

एक
:

सावन ने फिर दी है दस्तक, खोलो खिड़की दरवाजे
बंद रहोगे घर में कब तक, खोलो खिड़की दरवाजे

तरस रहे तुम से मिलने को, झोंके सर्द हवाओं के
तुम रूठे बैठे हो अब तक, खोलो खिड़की दरवाजे

मैं प्यासा हूँ तुम अमृत हो, फिर भी बाहर रहूँगा मैं
नहीं बुलाओगे तुम जब तक, खोलो खिड़की दरवाजे

जब तक ये आकाश जलेगा, जब तक धरती सुलगेगी
यह बारिश भी होगी तब तक, खोलो खिड़की दरवाजे

कुछ गीली मिट्टी की खुशबू, कुछ रिमझिम है सावन की
लेकर खड़ा रहूँ मैं कब तक, खोलो खिड़की दरवाजे

पानी में बच्चों की छप-छप, वो कागज की नाव 'अनिल'
जीवित हैं वो मंजर अब तक, खोलो खिड़की दरवाजे

दो :

बड़ी कंटीली राहों से हम गुजरे हैं अब तक
छाले हैं पांवों में फिर भी चलते हैं अब तक

तन पर तो हर जगह उम्र ने हस्ताक्षर कर डाले
लेकिन मन से सच पूछो तो बच्चे हैं अब तक

हवा चली तो सारे बादल हो गए तितर- बितर
इस सावन में धरती पर सब प्यासे हैं अब तक

सदा जोड़ने की कोशिश में होते खर्च रहे
इन कच्चे धागों में फिर भी उलझे हैं अब तक

कभी मिले फुर्सत तो उनके बारे में सोचो
प्रश्न कई जो सदियों से अनसुलझे हैं अब तक






Monday, June 27, 2011

हौंसलों और मजबूत इरादों ने दी पहचान





सामाजिक सरोकारों से जुड़े पत्रकार रवीश कुमार और विषमताओं में बुलंदियों पर पंहुचने वाली सात विदूषियां सम्‍मानित

उत्‍तर प्रदेशीय महिला मंच के संस्‍थापक और कलम के योद्धा रहे स्‍व0 वेद अग्रवाल की स्‍मृति में दिए जाने वाला साहित्‍य-पत्रकारिता-2011 पुरस्‍कार मेरठ के चैंबर हॉल में सामाजिक सरोकारों से जुड़े जुझारू पत्रकार रवीश कुमार को दिया गया तो उपस्थित लोगों ने करतल ध्‍वनि से उसका स्‍वागत किया। वरिष्‍ठ पत्रकार और भास्‍कर समूह के संपादक श्रवण गर्ग और अप्रतिम कथाकार चित्रा मुदगल के हाथों सम्‍मान लेते रवीश के साथ-साथ ऑडीटोरियम में बैठा जनसमूह अपने को भी गौरवान्वित महसूस कर रहा था। इस अवसर पर साहित्‍य-पत्रकारिता के साथ अपनी माटी से जुड़ी, हौंसलों और मजबूत इरादों से लबालब ऐसी स्त्रियां भी सम्‍मानित हुईं जिन्‍होंने विषम परिस्थितियों में न केवल एक मुकाम बनाया बल्कि असंभव को संभव कर दिखाया। सजगता व आत्‍मविश्‍वास के बूते जिन्‍होंने अबला से सबला तक का सफर तय किया और अपने सशक्तिकरण के लिए उन्‍होंने न उम्र को आड़े आने दिया और न सामाजिक विषमताओं या परिस्थितियों को बाधा बनने दिया। इस अवसर पर उत्‍तर प्रदेशीय महिला मंच की अध्‍यक्ष डा0 अर्चना जैन, महामंत्री ऋचा जोशी, 'आमीन' के रचयिता आलोक श्रीवास्‍तव और शिक्षाविद डा0 राधा दीक्षित मौजूद थीं।
'मंच' के 26 वर्ष पूरे होने के अवसर पर जिन सात महिलाओं को 'हिंद प्रभा' सम्‍मान से अलंकृत किया गया उनमें सत्‍तर साल की युवा शूटर प्रकाशो देवी, मंदबुद्धि बच्‍चों के विकास में लगीं प्रमिला बालासुंदरम, सौ से ज्‍यादा महिलाओं को ट्रैक्‍टर चलाना सिखा चुकीं शालिनी, उत्‍तराखंड की संस्‍कृति और कला के उन्‍नयन में जुटीं लोकगायिका बसंती बिष्‍ट, महिला होकर पुरुषों का बोझ उठाने वाली रेलवे कुली मुंदरा देवी, तीन हजार रूपये से अपना उद्यम शुरु कर बीस देशों तक अपने उत्‍पाद पंहुचाने वाली प्रेरणा और शोषण के खिलाफ संघर्ष करने वाली प्रशासनिक अधिकारी डा0 अमृता सिंह हैं। देश के अलग-अलग हिस्‍सों से आईं इन सात देवियों का जब परिचय पढ़ा गया तो उनकी पृष्‍ठभूमि, संघर्ष, जिजीविषा और उपलब्धियों को सुनकर ऑडीटोरियम में बैठे लोगों ने खड़े होकर करतल ध्‍वनि से उनका अभिवादन किया।
इस मौके पर बोलते हुए भास्‍कर समूह के समूह संपादक श्रवण गर्ग ने कहा कि गर्व होता है जब रवीश जैसे सामाजिक सरोकारों से जुड़े किसी बेवाक पत्रकार को देखते हैं। उससे भी ज्‍यादा गर्व तब होता है जब प्रकाशो, बालासुंदरम, शालिनी, मुंद्रा या प्रेरणा जैसी महिलाओं का सम्‍मान होता है क्‍योंकि अखबारों और इलेक्‍ट्रानिक मीडिया में चारों ओर से उनके जलाने, लूटने या इज्‍जत से खिलबाड़ की खबरें आ रही हैं और इन सब के बीच ऐसी महिलाएं एक ताकत बनकर उभरती हैं और हमें बताती है कि अभी सब कुछ खत्‍म नहीं हुआ है और होने भी नहीं दिया जाएगा। उन्‍होंने कहा कि अखबारों में ये खबर तो छपती है कि 'एक किसान मर गया लेकिन ये खबर नहीं छपती वह किसान अपने पीछे एक औरत को भी मरने के लिए छोड़ गया क्‍योंकि औरत तो हर जगह मरती है, चाहे वह युद्ध का मैदान हो या सांप्रदायिक दंगे या फिर बिगड़ते पर्यावरण के चलते सूखते कुंए या झरने। यदि एक कुंआ सूखता है तो गांव में एक महिला के लिए पीने के पानी की दूरी और बढ़ जाती है। पानी के झरने लगातार सूख रहे हैं लेकिन महिलाओं के आंसू लगातार बढ़ते जा रहे हैं और उनकी पीठ लगातार कमजोर हो रही है या टूट रही है। उन्‍होंने कहा कि कन्‍या भ्रूण हत्‍या को लेकर जो आंकड़े प्रकाशित हुए हैं, उनसे सिर शर्म से झुक जाता है। दुनिया भर की संस्‍था हमें बता रही हैं कि हिंदुस्‍तान में महिलाओं की संख्‍या भले ही पुरुषों के आसपास हो लेकिन उच्‍च पदों पर उन्‍नति प्राप्‍त करने वाली महिलाओं का प्रतिशत दस से बारह के आसपास ही है। उन्‍होंने कहा कि ये सारी परिस्थितियां बताती हैं कि हम जिस तरक्‍की या आर्थिक विकास दर की बात करते हैं वह उन महिलाओं तक नहीं पंहुचा है जो बीस रूपये में अपना घर चला रही है, अपने बच्‍चों को पढ़ा रही है और अंधेरे में अपनी आंखे फोड़ रही है। वरिष्‍ठ पत्रकार श्रवण गर्ग ने कहा कि अल्‍प संसाधनों में अपने बूते काम कर रही उत्‍तर प्रदेशीय महिला मंच समाज के शोषितों, दलितों और पीडि़तों के लिए जिस तरह से काम कर रही है और जमीन से जुड़ी महिलाओं की हौंसलाअफजाई कर रही है वह एक उम्‍मीद पैदा करता है।
लब्‍धप्रतिष्‍ठ कथाशिल्‍पी चित्रा मुदगल ने अपने संबोधन में कहा कि ये महिलाओं की मेहनत का ही नतीजा है कि वह आज अपनी पहचान अपने ही बलबूते पर बनाने में सफल हो रही हैं। उन्‍होंने 'मंच' द्वारा प्रदत्‍त 'हिंद प्रभा' सम्‍मान से अलंकृत महिलाओं के कार्यों और सफलताओं से अभिभूत होते हुए कहा कि ऐसा नहीं हो सकता कि उनकी यात्रा में मुश्किलें या रुकावटें न आईं हों लेकिन उन्‍होंने हिम्‍मत नहीं हारी। वह मुश्किलों से जूझी होंगी, टूटी होंगी, हालात पर झल्‍लाई होंगी लेकिन उन्‍होंने हिम्‍मत नहीं हारी और न ही हालात के साथ समझौता किया। इसलिए उन्‍हें सफलता का स्‍वाद चखने को मिला। उन्‍होंने सत्‍तर की उम्र पार कर चुकी प्रकाशो देवी के हौंसले और मेहनत का जिक्र किया जिसने साठ साल की उम्र में चूल्‍हे पर रोटियां सेकने और गोबर पाथने के साथ-साथ हाथों में बंदूक थाम कर निशानेबाजी सीखी और एक ही साल में स्‍टेट के नौ मेडल जीतकर सबको एक बार फिर बताया कि सीखने की कोई उम्र नहीं होती। आज प्रकाशो की बदौलत न केवल उसके घर की बहु-बेटियां बल्कि बागपत का जौहड़ी गांव अचूक निशानेवाजी के लिए पूरी दुनिया में जाना जाता है। कथा शिल्‍पी चित्रा मुदगल ने कहा कि आगरा कैंट रेलवे स्‍टेशन की पहली महिला कुली मुंद्रा हो या महिलाओं को ट्रैक्‍टर की स्‍टेयरिंग थमाने वाली शालिनी; इन सभी के भीतर कई कालजयी रचनाएं छिपी हैं और यही हमारे असल आयकॉन होने चाहिएं लेकिन दुर्भाग्‍य से अभी ऐसा नहीं है, पर मन में विश्‍वास है कि एक दिन ऐसा होगा।
सम्‍मान ग्रहण करने के बाद रवीश कुमार ने अपने संबोधन में कहा कि आप सबको ये समझ लेना चाहिए कि 'न्‍यूज' आपके लिए नहीं हैं क्‍योंकि आप दो पैसे भी नहीं देते। टेलीविजन का सारा खेल टीआरपी का है और विज्ञापनदाताओं के लिए है। हम इस तरह से उनके प्रति सम्‍मुख, उन्‍मुख और जिम्‍मेदार बना दिए गए हैं क्‍योंकि चार टीआरपी मीटर वाले बक्‍से जो तय करेंगे वही हम होंगे। इसलिए आप जो हमसे अपेक्षा रखते हैं, कुछ दिन बाद हम वह नहीं रह जाएंगे और कुछ दिन बाद अगर यही हालत रही तो आप लोगों को पत्रकारों को बुलाकर सम्‍मानित करने की जहमत नहीं उठानी पड़ेगी बल्कि चौराहों पर घेरकर पीटने की या फिर गाली देने की नौबत आ जाएगी। उन्‍होंने कहा कि ऐसा नहीं है कि इसके लिए पत्रकारों को ही संघर्ष करना होगा बल्कि इस संस्‍था या इस पेशे को बचाने के लिए जब आप संघर्ष करेंगे तभी ये बच सकेगी क्‍योंकि वोट की जगह इस समस्‍या के निदान का रिमोट भी आपके ही हाथ में है। उन्‍होंने लोगों से कहा कि वह बहुत दिन तक दर्शक की भूमिका में नहीं रह सकते क्‍योंकि सारा काम या कुकर्म उन्‍हीं के नाम पर यानी दर्शकों की पसंद और नापसंद के नाम पर ये सब किया जा रहा है। अगर दर्शकों ने सक्रियता नहीं दिखाई तो कुछ कॉरपोरेट हाउस इस देश को ऐसा बना देंगे जैसा वह दिखता नहीं है और जैसा वह दिखना नहीं चाहिए।
मीडिया में महिलाओं की उपस्थिति सिर्फ इतनी भर है कि साथ काम करने वाली कोई स्त्री जैसी लगती है। लड़की जैसी लगती है। उसके मुद्दे, उसके अहसास, उसके अधिकार, ये सब नज़र नहीं आते। न्यूज़ चैनलों में आप लड़कियों की संख्या से खुश होना चाहते हैं या उनके दखल से। प्लास्टिक की गुड़ियाओं की मांग आने वाले दिनों में टीवी में बढ़ेगी। बल्कि अभी भी प्लास्टिक नुमा लड़कियां ही ख़बरें पढ़ रही हैं। फर्क इतना आएगा कि जो पूरी तरह प्लास्टिक और झुर्रियों से मुक्त होगी वही एंकर होगी। मीडिया में स्त्रियों की मौजूदगी स्क्रीन पर है। स्क्रीन के बाहर कुछ अपवादों, कुछ प्रसंगों को छोड़ दें तो कुछ नहीं है। हिन्दी में तो बिल्कुल नहीं है। इंग्लिश में कुछ महिला पत्रकारों ने वाकई कई धारणाओं,सीमाओं और कई चीजों को तोड़ते हुए जगह बनाई। लेकिन ये जगह बनाने वाली सभी महिलाएं एक खास वर्ग विशेष तबके से आती हैं। किसी बड़े अफसर की बेटी हों, या किसी बड़े संपादक की पत्नी या किसी बड़े कालेज की स्नातक। कहने का मतलब है कि इसकी वजह से उन्हें मौके मिले और इनमें से कई ने उन मौकों का इस्तमाल प्लास्टिक की गुड़िया बनने में नहीं किया बल्कि जगह बनाने में किया। यह बदलाव और ही अच्छा लगता जब इंग्लिश मीडिया में कोई छोटे कस्बे की अंग्रेज़ी बोलने वाली उतने ही प्रयास, उतने ही समय में वैसी जगह बना लेती जो एक खास तबके के महिलाओं ने बनाई। हिन्दी मीडिया में तो इतना भी नहीं हुआ। एक तो पुरुषवादी ढांचे की मज़बूती। दूसरा जूझ कर, टूट कर और फिर उठ कर जगह बनाने की होड़ या भूख कम लोगों में नज़र आई। पेशेवर होने के पैमाने पर भी साबित करने की भूख बढ़ती या कर पातीं, उससे पहले उन्हें स्त्री से भी ज्यादा स्त्री बना कर मेकअप लगाकर स्टुडियो में भेज दिया गया। जहां कठपुतली होना ही नियति है। फिर भी कुछ लड़कियां अच्छा काम कर रही हैं। कुछ यूं ही काम किए जा रही हैं जैसे कुछ लड़के किये जा रहे हैं। यह मेरा नज़रिया नहीं है जो देख रहा हूं अपने पेशे में उसकी लाइव कमेंट्री है। आप चाहें तो आराम से असहमत हो सकते हैं।
समारोह में अनेक विभूतियां मौजूद रहीं। संस्‍था के संपादक स्‍व0 वेद अग्रवाल का परिचय युवा लेखिका/पत्रकार आकांक्षा पारे ने पढ़ा। इस अवसर पर 'वरदा-2011' का विमोचन और वितरण भी हुआ।

सम्‍मानित होने वाली विभूतियां
रवीश कुमार : जो लोग टीवी देखते हैं या ब्लॉग पढ़ते हैं या सामाजिक सरोकारों से सरोकार रखते हैं उनके लिये रवीश कुमार को जानना अनिवार्य मजबूरी है। एनडीटीवी देश के सबसे ब्रान्ड्स में से एक है लेकिन रवीश कुमार ने इस ब्रांड की छाया में ही एक ब्रांड अपना भी बना लिया...रवीश की रिपोर्ट। कुछ लोग इसे मेहनत कह सकते हैं और कुछ सयानापन लेकिन हकीकत ये है कि रवीश की रिपोर्ट..अगर वो बंद नहीं हुई है तो..खूब देखी जाती है और उस पर खूब चर्चा होती है। दिल्ली के पास बसे धारावीनुमा खोड़ा पर प्रोग्राम देखने के बाद उत्तर प्रदेश जैसी सरकार 300 करोड़ का पैकेज दे देती है, खोड़ा के लोग लाइन लगाकर रवीश कुमार का सम्मान करते हैं, पहाड़गंज का प्रोगाम महेश भट्ट मुंबई में मंगवाकर देखते हैं, एक रुपया रोज़ में काम करने वालों की कहानी मोंटेक सिंह आहलुवालिया के दफ्तर में देखी जाती है, और सबके लिये यूनिक आई कार्ड बनाने वाली अथार्टी के मुखिया नंदन निलेकणी किसी से कहलवाते हैं...यार एक प्रोग्राम हमारे लिये आधार पर बना दो। टीआरपी की दौड़ में बने रहते हुए वो देश की, समाज की, लोगों की चिंता कर लेते हैं। जब टीवी चैनल टीआरपी मीटर वाले एपीएल (एबोव पॉवर्टी लाइन) दर्शकों की चिंता करते हैं तब रवीश कुमार बीपीएल पर प्रोग्राम बना देते हैं। मॉल कल्चर वाले दर्शकों को वो निपट देहाती गढ़ मेले के बारे में बताते हैं। जब लोग मेट्रो के गुण गाते हैं तो रवीश कुमार बताते हैं कि डीटीसी कितने कमाल की है। ये किसी पॉज़ीटिव चीज़ को निगेटिव नज़रिये से देखने की कोशिश नहीं, बल्कि निगेटिव में पॉज़टिव ढूंढने की हिमाकत है। सूचना का अधिकार अधिनियम जैसे जिन विषयों को टीवी में कोई छूने में भी डरता है रवीश कुमार पूरा अभियान चला डालते हैं। रवीश कुमार नई पीढ़ी के पत्रकार हैं, लेकिन पुरानी पीढ़ी सा अनुभव उनकी कलम और चित्रों में दिखता है। दलितों और मुसलिम बिरादरी का हाल रवीश कुमार का प्रिय विषय रहा है, लेकिन आजकल राज तो नौ बजे प्राइम टाइम में वो मिडिल क्लास की मकान की ईएमआई की भी चिंता करते हैं।
टीवी इंडस्ट्री में बहुत बड़े-बड़े किस्सा गो हैं लेकिन रवीश कुमार ने टीवी में किस्सागोई का एक नया अंदाज़ बनाया है। हो सकता है कि बिहार से निकले रवीश कुमार ने दिल्ली स्टेशन पर उतरते ही बिहार की बहुत सी बातों को भुला दिया होगा लेकिन उनके प्रोग्राम देखकर, उनको पढ़कर और उनसे बातें करते पता चलता है कि उनको अब भी कितना याद है, अपनी भाषा और मिट्टी के बारे में। रवीश कुमार सबसे अलग हैं, अनोखे हैं इसीलिये उत्तर प्रदेश महिला मंच ने उनको अपने संस्‍थापक की स्‍मृति में दिए जाने वाले सम्‍मान के लिए चुना है।

प्रकाशो तोमर : सीखने या पढ़ने की कोई उम्र नहीं होती। यह कहावत बागपत के जौहड़ी गांव की प्रकाशो दादी पर एकदम सटीक उतरती है। साठ साल की उम्र में बंदूकबाजी सीखकर प्रकाशो तोमर ने स्‍टेट लेबल पर जब नौ पदक जीते तब पूरे देश में प्रकाशो का नाम पूरे देश के खेल प्रेमियों की जुबान पर आ गया। उनके गांव में तो एक क्रांति ही आ गई और घर की बेटियों और बहुओं ने भी हाथों में बंदूके थाम लीं। आज प्रकाशो की बेटी सीमा तोमर ही नहीं बल्कि घर में उनके पोते-पोतियां भी राष्‍ट्रीय-अंतरराष्‍ट्रीय स्‍तर पर धूम मचा रहे हैं और सत्‍तर पार कर चुकी प्रकाशो दादी अब पूरे देश में घूम-घूमकर बेटियों को निशानेबाजी के गुर सिखा रहीं हैं। प्रकाशो को निशानेबाजी का कोई शौक भी नहीं था और न वह इस खेल के बारे में कोई विशेष जानकारी रखती थीं। घर में रोटियां सेकने, गोबर पाथने और खेतों में काम करने वाली प्रकाशो को निशानेबाजी का शौक तब परवान चढ़ा जब जौहड़ी में अंतरराष्‍ट्रीय स्‍तर के निशानेबाज रहे राजपाल सिंह ने घास-फूस की रेंज बनाकर गांव के बच्‍चों को निशानेबाजी सिखाना शुरु किया तो साठ साल की प्रकाशो भी घर से चोरी-छिपे उस रेंज में जाकर निशानेबाजी में अपने हाथ आजमाने लगी। घर वालों को जब पता चला तो उन्‍होंने विरोध भी किया लेकिन प्रकाशो अपनी धुन की पक्‍की थीं। धीरे-धीरे प्रकाशो के बेटे-बेटियां और पोते-पोतियां भी उनका अनुसरण करने लगे।

प्रमिला बालासुंदरम : कर्नाटक की मूल निवासी प्रमिला बालासुंदरम पिछले 32 वर्षों से समाधान नाम की संस्था के माध्यम से मंदबुद्घि बच्चों के विकास के लिए संकल्पबद्घ हैं। अपनी भतीजी की शारीरिक अक्षमता को देखकर वह काफी परेशान रहती थीं और वही उनके सेवा कार्यों की प्रेरणा श्रोत भी बनी और शादी के बाद जब प्रमिला दिल्ली आईं तो उन्होंने देखा कि कोई भी सरकारी या गैर सरकारी कार्यक्रमों की पंहुच समाज के अंतिम छोर तक नहीं जा पाती। वह शारीरिक तौर पर अक्षम बच्चों को बुद्घि की कसौटी पर बेहतर पातीं लेकिन उनकी शिक्षा या पुनर्वास के कार्यक्रमों की शिथिलता से परेशान रहतीं। यही सब देखते और महसूस करते हुए प्रमिला को लगा कि इस दिशा में ठोस प्रयासों की जरुरत है और उन्होंने समाधान का गठन कर इसका रास्ता तैयार किया। तब से आज तक प्रमिला असहायों को संबल देने और उन्हें दक्ष बनाने में जुटी हैं। 1981 में उनके द्वारा रौंपा गया पौधा आज वटवृक्ष बन चुका है।
राष्ट्रीय और अंतरराष्‍ट्रीय स्तर पर आज उनकी पहचान है। वर्तमान में वह एशियन फेडरेशन फॉर इंटलेक्चुअली डिसेबिल्ड की उपाध्यक्ष होने का गौरव प्राप्त ·रने वाली वह पहली महिला हैं। उन्हें अब तक कई राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पुरस्‍कारों से नवाजा जा चुका है।

शालिनी माथुर : उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ की रहने वाली शालिनी माथुर को लोग ट्रैक्टर चलाने वाली मैडम के नाम से भी जानते हैं। कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढाने का संकल्प लेकर शालिनी ने 1991 में पुरुषों का एकाधिकार माने जाने वाले ट्रैक्टर की स्टेयरिंग पर जब महिलाओं को बिठाना शुरु किया तो लिंग आधारित इस प्रभुत्व को पहली बार देश ने टूटते देखा।
53 साल की शालिनी जिस काम में जुट जाती हैं, उसे अंजाम तक पंहुचाकर ही दम लेती हैं। प्रबंधन में मास्टर डिग्री करने के बाद शालिनी सामाजिक विषमताओं को दूर करने में जुट गईं और 1980 तक विभिन्न स्वयंसेवी संगठनों के साथ-साथ उन्होने स्वतंत्र रुप से सामाजिक विषमताओं और कुरीतियों के खिलाफ मोरचा खोले रखा। 1987 में शालिनी सुरक्षा नाम के संगठन से जुड़ीं। महिला अधिकारों के मुद्दों पर जमीनी स्तर से लेकर नीति निर्धारण तक के मंचों पर शालिनी समान रुप से जूझती हुईं दिखाई देती हैं।

मुंदरा देवी : लोग अपना बोझ नहीं उठा सकते लेकिन मुंदरा महिला होकर पुरुषों का बोझ उठाती हैं। उन्हें देखकर अक्सर लोग अचरज करने लगते हैं लेकिन जब उन्होंने कुलीगिरी करने का फैंसला लिया तो यह आसान नहीं था। मुंदरा देवी आगरा कैंट रेलवे स्टेशन पर पहली महिला कुली हैं। पुरुषों के एकाधिकार वाले इस क्षेत्र में मुंदरा जब पहली बार लाल वर्दी पहनकर रेलवे स्टेशन पर पंहुची तो लोगों ने उन्हें उपहास की दृष्टि से देखा लेकिन आज उन्होंने अपनी मेहनत और ईमानदारी से तमाम पुरुषों को पीछे छोड़ रखा है। अक्सर उनके साथ ऐसा होता है कि महिला कुली से सामान ढुलवाने में कुछ मुसाफिर चुप्पी साध जाते हैं लेकिन इनकी हिम्मत, ताकत और फुर्ती का कमाल असमानता की हर खाई को पाट देता है। यूं तो मुंदरा का भरा-पूरा परिवार है लेकिन पति की कमाई इतनी नहीं थी कि वह अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा कर योग्य बना पाती और शिक्षा के अभाव में उन्हें अपने लिए कुलीगिरी सबसे उचित लगी और उन्होंने एक दिन कुली का बिल्ला हासिल कर लिया। मुंदरा भले ही लिंग भेद मिटाने के लिए कोई प्रोजेक्ट न चला रही हों या किसी एनजीओ का हिस्सा न हों लेकिन वह खुद में एक ऐसी मिसाल बन गई हैं जिन्हें देखकर कोई भी महिला अपने को सबला समझ सकती है।

बसंती विष्ट : उत्तराखंड की विलुप्त होती संस्कृति को लोक गायिका बसंती विष्ट ने अपने शब्दों में पिरोकर न केवल जिंदा रखा है। बल्कि लोकगायिकी की इस विधा में पुरुषों के एकाधिकार को भी तोड़ा है। गढ़वाल की लोकगायन शैली जागर को बसंती विष्ट ने न केवल नई ऊंचाईया दीं बल्कि सीमांत गांवो तक सिमट कर रह गई इस विधा को जन-जन तक पंहुचाया। गढ़वाल और कुमाऊं की मिलीजुली थाती को संवारने वाली बसंती देवी के सुरों में इतनी मिठास है कि अपने छोटे से क्षेत्र की बोली को अपने गीतों के माध्यम से पूरे राज्य में पहचान दिलाई है। आज देश के संगीत समीक्षक उन्हें उत्तराचंल की तीजन वाई कहते हैं।
बसंती देवी ने अब तक अनेक गीत लिखे हैं और खास बात यह है कि वह स्वरचित गीतों को ही अपना स्वर देती हैं। जागर के अलावा वह मांगल, पाण्डवाणी, लोक गाथाएं एवं गढ़वाली तथा कुमाऊंनी लोकगीतों की भी गायिका हैं। उत्तराखंड आंदोलन के दौरान उनके द्वारा रचित एक गीत 'वीर नारी आगे बढ़, धीर नारी आगे बढ़' उत्तराखंड की आंदोलनकारी महिलाओं के कंठ से हमेशा गूंजता रहता था। कारगिल युद्घ से लेकर सामाजिक विषमताओं तक पर लोकगीत रच कर उन्हें स्वर देने वाली बसंती विष्ट उत्तराखंड की संस्कृति को सहेजने और परंपराओं को आगे बढ़ाने में जुटी हुई हैं।

प्रेरणा वर्मा : धुन की धनी प्रेरणा वर्मा ने बचपन से ही उद्यमी होने का सपना संजोया था। लेकिन परिस्थितियां उनके अनुकूल नहीं थीं। उन्हें न तो विरासत में कोई उद्यम मिला था और न इतनी पूंजी कि उससे कोई कारोबार खड़ा हो सके। कानपुर की रहने वाली प्रेरणा मध्यमवर्गीय परिवार से हैं और उनके पिता की मृत्यु बचपन में ही हो गई थी। पिता की मृत्यु के बाद घर का खर्च भी मुश्किल से चलता था। यही कारण था कि इंटरमीडिएट की परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने एक प्राइवेट फर्म में नौकरी कर ली और यहीं से उनके मन में अपना उद्यम लगाने का विचार आया। परास्नातक की पढ़ाई पूरी की और कंप्यूटर का प्रशिक्षण लिया और 2004 में मात्र तीन हजार रूपये की पूंजी से अपना कारोबार शुरु किया। यहां से शुरु हुआ प्रेरणा के संघर्ष का सिलसिला। प्रेरणा बाजार में ठगी भी गई और उसे अपना उद्यम एक बार बंद भी करना पड़ा लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी और इरादों को हमेशा बुलंद रखा। गुणवत्ता और नेकनीयती को अपना हथियार बनाया और फिर ·भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। धीरे-धीरे अपनी मंजिल की तरफ बढ़ीं और घरेलू बाजार में पैर जमाने के बाद विदेशी बाजार में अपने पैर जमाने की दिशा में अपने कदम बढ़ाए। आज प्रेरणा वर्मा की औद्योगिक इकाई क्रिएटिव इंडिया बीस देशों में अपने लेदर एवं कॉटन से बने कलात्मक उत्पादों का निर्यात करती है और उनकी सालाना ग्रोथ अस्सी फीसदी तक पंहुच गई है, जो अपने आप में सफलता की कहानी बयां करने के लिए काफी है। उन्हें राज्य सरकार की तरफ से विशिष्ठ उत्पादकता पुरस्कार भी मिला है और आज वह अपनी लगन से नए उचाईयों की तलाश में जुटी हुई हैं।

डा0 अमृता सिंह : यूपी कैडर की पीसीएस अधिकारी डा0 अमृता सिंह ने उच्च शिक्षा अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी से हासिल की। 2001 में पीसीएस में चयन होने के बाद पहली पोस्टिंग में ही एक नहीं तीन जिलों का काम उन्हें सौंपा गया। एक अधिकारी होने के बावजूद इन्हें खुद को अपने शोषण से बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ा। एक बार तो इन्होंने एक उच्चाधिकारी की गलत हरकतों से परेशान होकर नौकरी छोडऩे का मन बना लिया था लेकिन दूसरे ही क्षण अंतरआत्मा की आवाज पर आरोपी बॉस को सबक सिखाने के लिए जी-जान से जुट गईं। अनेकानेक दवाबों के बाद भी झुकी नहीं। अमृता का मानना है कि महिलाएं यदि पुरुषों के वर्चस्व वाले क्षेत्र में कदम रखती हैं तो उन्हें उसी तरह रहना सीखना पड़ता है जैसे बत्तीस दांतो के बीच में जीभ रहती है लेकिन यदि स्त्रियां दृढ़ता और मजबूत इरादों का कवच पहन लें तो संसार का कोई भी पुरुष उनसे मनमर्जी नहीं कर सकता।

Saturday, June 18, 2011

बारिशों की फुहार लगती हो|

बारिशों की फुहार लगती हो|
गुलशनों की बहार लगती हो|
इस जमाने की सख़्त गर्मी में|
तुम महकती बयार लगती हो||

सोज़ हो, साज़ हो, तुम्हीं सरगम|
ताल हो, थाप हो, तुम्हीं छमछम|
हाथ में थामे हुस्न का परचम|
तुम ही दिल का करार लगती हो||

शान तुम से हरेक महफ़िल की|
तुमसे वाबस्ता  धड़कनें दिल की|
तुमसे मिल के ये ज़िंदगी किलकी|
तुम दवा--बीमार लगती हो||

तुम शिकारी, शिकार भी हो तुम|
तुम अनाड़ी, हुशार भी हो तुम|
तुम नशा हो, खुमार भी हो तुम|
एक हो, पर हज़ार लगती हो||

किलकी = किलक / खिलखिला उठी
दवा--बीमार = बीमारी का इलाज़ करने वाली दवा
हुशार = होशियार [तद्भव रूप में]

Thursday, May 26, 2011

दो ग़ज़लें

एक-

खुद से बाहर कभी निकल
हाथ पकड़कर मेरा चल

जरा संभल कर रहना सीख
यह दुनिया अब है जंगल

यूं गिरना भी बुरा नहीं
फिर भी पहले जरा संभल

अब काजू बादाम उड़ा
नहीं यहाँ गेहूं चावल

इसकी बातें ध्यान से सुन
क्या कहता है ये पागल

मै बस आने वाला हूँ
बंद नहीं करना सांकल

इस तिनके की इज्जत कर
शायद कभी बने संबल

इसके आगे बस्ती है
देख भाल कर जरा निकल

रात देख कर छत सूखी
बरस गया कोई बादल

आगे है ढालान बड़ा
मुमकिन है तू जाये फिसल

मैंने नदी को रोका तो
करती चली गयी कल-कल

आज, आज की सोचो बस
कल की बात करेंगे कल

खुदा से बढ़कर नहीं है तू
खुद को इतना भी मत छल

तू खुद को तो बदल के देख
दुनिया भी जाएगी बदल

यूं ही पथ कट जाएगा
ग़ज़ल 'अनिल' की गाता चल

दो-

जंगल से उठ आये जंगल
शहरों में उग आये जंगल

बस्ती में आ गए दरिन्दे
उनको हुए पराये जंगल

शहरों के हालात देखकर
खुद से ही शर्माए जंगल

अन्दर का इन्सान मारकर
हमने वहां बसाये जंगल

ड्राइंग रूम की दीवारों पर
शीशों में जड्वाए जंगल

आँगन में कैक्टस सींचकर
हमने खूब सजाये जंगल

कुदरत शायद खुश हो जाए
आये कोई बचाए जंगल

हरे भरे सब काटे हमने
कंक्रीट के लाये जंगल

पहली बारिश की आमद से
मुस्काए, हर्षाये जंगल

Monday, May 16, 2011

किसानों के 'महात्‍मा' टिकैत का जाना

कैसे करुं आत्‍मा की शांति के लिए प्रार्थना

हांलाकि नियति का सभी को पूर्वाभास था लेकिन फिर भी जब आज सुबह किसान नेता चौधरी महेन्‍द्र सिंह टिकैत के निधन का समाचार आया तो झटका लगा। मन ने कहा कि काल को अभी कुछ और रुक जाना चाहिए था। बीते चौबीस सालों में चौधरी टिकैत से हुईं मुलाकातें, किसान आंदोलन की तस्‍वीरें, उनका जुझारुपन, अक्‍खड़ता और ठेठ गंवई अंदाज की तस्‍वीरें दिमाग में दस्‍तक देने लगीं। मैने अपने पचास साल के जीवन में ऐसा स्‍वाभिमानी आदमी नहीं देखा। अक्‍खड़ दिखाई देने वाले इस व्‍यक्ति में मिलनसारिता कूट-कूट कर भरी हुई थी। व्‍यवहारिक इतनी कि यदि आप एक बार बिना परिचय के भी मिलने चले जाएं तो उसके मुरीद हो जाएं। टिकैत को नेतृत्‍व के गुण तो विरासत में मिले थे लेकिन अद्भुत संघर्ष की क्षमता ने उन्‍हें उस मुकाम पर पंहुचा दिया, जहां किसान उन्‍हें 'बाबा' और 'भगवान' का दर्जा दिया करते थे। अपने आखिरी समय में भी उनका स्‍वास्‍थ्‍य जब कैंसर की वजह से लगातार बिगड़ रहा था, अपने बेटे के घर की बैठक के एक कोने में पड़ा पलंग उनका स्‍थाई डेरा हो गया था, तब भी वह न केवल देश-दुनिया की खबरों से बाखबर रहते थे बल्कि बिस्‍तर पर पड़े कसमसाते रहते थे।
बीती 20 अप्रैल को जब मैं उनसे मिलने मुजफ्फरनगर गया तो पलंग पर लेटे हुए भी किसानों पर हो रहे अत्‍याचारों और शोषण के खिलाफ गुर्रा रहे थे। मुझे देखते ही बोले, 'इल्‍जाम भी उनके, हाकिम भी वह और ठंडे बंद कमरे में सुनाया गया फैंसला भी उनका.....लेकिन एक बार परमात्‍मा मुझे बिस्‍तर से उठा दे तो मैं इन्‍हें सबक सिखा दूंगा कि किसान के स्‍वाभिमान से खिलबाड़ का क्‍या मतलब होता है.....' दरअसल उसी दिन सुप्रीम कोर्ट ने एक फैंसले में खापों को अवैद्य बताते हुए उनसे कड़ाई से निपटने के आदेश दिए थे। सुप्रीम कोर्ट की एक बैंच ने कहा था कि विभिन्न जाति व धर्मो के विवाहित या विवाह की इच्छा रखने वाले युवक-युवतियों के खिलाफ ऑनर किलिंग या अन्य ज्यादतियों को बढ़ावादेने वाली खाप पंचायत लोगों की निजी जिंदगी में दखल देती है। यह पूरी तरह अवैध है। इसे तत्काल बंद कराया जाना चाहिए। टिकैत कराहते हुए गरज रहे थे कि कोई एक उदाहरण बता दो जहां किसी खाप पंचायत ने इस तरह का कोई फैसला दिया हो। उनका कहना था कि किसी गांव के कुछ लफंगे या आहत लोगों के एक समूह ने ऐसा किया भी हो तो उसे 'खाप' का फैसला कैसे माना जा सकता है। हांलाकि वह सगोत्रीय विवाह के पूरी तरह खिलाफ थे और ऐसे लोगों का सामाजिक बाहिष्‍कार के पक्षधर। इसके लिए उनके तर्क थे। दहाड़ते हुए बोले कि सुप्रीम कोर्ट का सम्‍मान सभी करते हैं ल‍ेकिन सुप्रीम कोर्ट हमें ये थोड़े ही बताएगा कि किस से बोलो और किस से व्‍यवहार रखो। टिकैत उसके बाद टप्‍पल में किसानों पर चली गोलियों और उनके उत्‍पीड़न पर दहाड़ने लगे। किसानों पर हो रहे जुल्‍मों के खिलाफ उनके सीने में ज्‍वाला धधक रही थी। गुस्‍से में उनका चेहरा लाल था। उसके बाद जब भटटा पारसौल में गोलीकांड हुआ तो भी मृत्‍युशैय्या पर पड़ा किसानों का ये योद्धा यही कह रहा था कि मुझे एक बार भट्टा ले चलो तो मैं जालिमों का 'भट्टा' बना दूंगा। ये टिकैत की जिजीविषा थी।
चौधरी महेन्‍द्र सिंह टिकैत को एक जुझारु किसान नेता के तौर पर पूरी दुनिया जानती है लेकिन यह व्‍यक्ति एक दिन में या किसी की कृपा से 'किसानों का मसीहा' नहीं बन गया बल्कि सच तो यह है कि कभी इस शख्‍सीयत ने धूप-छांव, भूख-प्‍यास, लाठी-जेल की परवाह नहीं की। अगर अपने कदमों को किसान संघर्ष के लिए बाहर निकाल दिया तो फिर कभी पीठ नहीं दिखाई लेकिन यदि लगा कि इससे किसानों या साथियों का नुकसान हो जाएगा तो कभी मूछ का सवाल भी नहीं बनाया। 1935 में जन्‍में चौधरी महेन्‍्द्र सिंह टिकैत को आठ साल की उम्र में तब बालियान खाप का मुखिया बनाया गया था जब वह महज आठ साल के थे। ये गद्दी उन्‍हें अपने पिता के निधन के बाद विरासत में मिली थी क्‍योंकि तेरहवीं शताब्‍दी से इस खाप की चौधराहट टिकैत खानदान के पास ही चलती चली आ रही थी। टिकैत जाटों के रघुवंशी गौत्र से ताल्‍लुक रखते थे लेकिन बालियान खाप में सभी बिरादरियां शामिल थीं। टिकैत ने बचपन से ही खाप व्‍यवस्‍था को समझा और 'जाति' से ऊपर 'किसान' को स्‍थापित करने में जुट गए। उनकी प्रशासकीय और न्‍यायिक सूझ गजब की थी। वह हमेशा दूसरी खापों से गूढ़ संबंध रखते और एक दिन 17 अक्‍टूबर 1986 को किसानों के हितों की रक्षा के लिए एक गैर राजनीतिक संगठन 'भारतीय किसान यूनियन' की स्‍थापना कर ली। यह वह समय था जब चौधरी चरण सिंह की मृत्‍यु के बाद किसान राजनीति में एक शून्‍य पैदा हो गया था। किसानों की हालत यह थी कि डरा-सहमा किसान जब खाद, पानी, बिजली की समस्‍याओं को लेकर जब सरकारी दफ्तरों में जाता था तब उसे दुत्‍कार कर भगा दिया जाता था। अजित सिंह चौधरी चरणसिंह के बारिस तो थे लेकिन आम किसान उन्‍हें चौधरी साहब की वजह से ही अपना मानता था क्‍योंकि एलीट क्‍लास के अजित किसानों से उनके अपने जैसा व्‍यवहार नहीं कर पाते थे। हांलाकि बीकेयू उन दिनों लोकल संगठन था लेकिन सूबे के किसानों की समस्‍याएं एक जैसी थीं। टिकैत ने जब देखा कि गांवों में बिजली न मिलने से किसान परेशान है, उसकी फसलें सूख रहीं हैं, चीनी मिलें उनके गन्‍ने को औने-पौने दामों में खरीदती हैं तो उन्‍होंने किसानों की समस्‍याओं को लेकर 27 जनवरी 1987 को मुजफ्फरनगर के शामली कस्‍बे में स्थित करमूखेड़ी बिजलीघर को घेर लिया और हजारों किसानों के साथ समस्‍या निदान के लिए वहीं धरने पर बैठ गए। पुलिस-प्रशासन ने तीन दिन तक कोशिश की कि किसान किसी तरह वहां से उठ जाएं लेकिन जब किसान टिकैत के नेतृत्‍व में वहां डटे रहे तो पुलिस ने उन पर सीधी गोलियां चला दीं। इस गोलबारी में दो किसान जयपाल और अकबर अली ने मौके पर ही दम तोड़ दिया। टिकैत के नेतृत्‍व में किसानों ने गोलीबारी में मारे गए दोनों युवकों के शव पुलिस को घटनास्‍थल से नहीं उठाने दिए। इतना ही नहीं टिकैत आंदोलन में शहीद हुए किसानों के अस्थिकलश गंगा में प्रवाहित करने खुद शुक्रताल के लिए रवाना हुए तो उनके पीछे इतना बड़ा किसानों का कारवां था कि उनके रास्‍ते में एक भी खाकी वर्दी वाला दिखाई नहीं दिया। अस्थि कलश यात्रा में टिकैत के पीछे चलती भीड़ की संख्‍या का अंदाजा लगाना तो मुश्किल था लेकिन जितना मैने देखा उसके मुताबिक यात्रा का एक सिरा शुक्रताल पंहुच चुका था लेकिन दूसरा सिरा मुजफ्फरनगर में था। इसके बाद टिकैत का जुझारुपन किसानों को इतना भाया कि इस आंदोलन के बाद से उनके मुंह से निकले शब्‍द किसानों के लिए ब्रह्मवाक्‍य बन गए। टिकैत ने पश्चिमी उत्‍तर प्रदेश के सभी किसानों को एकजुट कर दिया और सभी खापें एक मंच पर आ गईं। टिकैत के शब्‍द भले ही ब्रह्मवाक्‍य बन चुके थे लेकिन उन्‍होंने हमेशा किसी भी आंदोलन को शुरु करने या खत्‍म करने के लिए मंच पर सभी खापों और सभी बिरादरियों के पंचों को बिठाया और उनकी रायशुमारी पर आगे का फैंसला लिया। ये उनके नेतृत्‍व का गुण था कि वह 'शक्तिशाली' होने के बाद भी लोकतांत्रिक परंपराओं का हमेशा निर्वहन करते थे।
दो किसानों की मौत के बाद टिकैत ने आंदोलन बंद नहीं किया बल्कि 1 अप्रैल 1987 को उन्‍होंने वहां किसानों की सर्वखाप महापंचायत बुलाई और उसमें फैंसला लिया कि शामली तहसील या जिले में उनकी मांगों पर कोई विचार नहीं हो रहा इसलिए कमिश्‍नरी घेरी जाए। लाखों किसानों की इस महापंचायत में फैसला लेने के बाद 27 जनवरी को मेरठ कमिश्‍नरी पर डेरा डाल दिया। लाखों किसानों ने मेरठ कमिश्‍नरी घेर ली और वहीं पर किसानों ने खाने के लिए भट्टियां सुलगा दीं। नित्‍य कर्मों के लिए कमिश्‍नरी का मैदान सुनिश्चित कर लिया। 35 सूत्रीय मांगों को लेकर यह आंदोलन शांतिपूर्ण तरीके से चौबीस दिन चला। आंदोलन में भाग लेने आए कई किसान ठंड लगने से मर गए लेकिन टिकैत के नेतृत्‍व में किसान टस से मस नहीं हुए। पुलिस-प्रशासन ने उन्‍हें उकसाने की बहुत कोशिश की लेकिन उन्‍होंने अहिंसा का रास्‍ता नहीं छोड़ा। चौधरी महेन्‍द्र सिंह टिकैत अब महात्‍मा टिकैत के नाम से पुकारे जाने लगे थे। शासन-प्रशासन हतप्रभ था कि इतने दिन तक इतने किसान भयंकर सर्दी के मौसम में खुले आसमान के नीचे कैसे डटे हुए हैं। चौबीस दिन बाद टिकैत ने सरकार को गूंगी-बहरी कहते हुए यह आंदोलन खुद यह कह कर खत्‍म कर दिया कि कमिश्‍नरी में उनकी सुनवाई संभव नहीं तो वह लखनऊ और दिल्‍ली में दस्‍तक देंगे। इसके बाद रेल रोको-रास्‍ता रोको आंदोलन में पुलिस ने गोलियां चला दीं तो टिकैत दल-बल सहित 6 मार्च 1988 को रजबपुरा पंहुच गए और एक सौ दस दिन तक किसानों के साथ तब तक धरने पर बैठे रहे जब तक गूंगी-बहरी सरकार के कानों में जूं नहीं रेंगी। रजबपुरा के बाद टिकैत ने देश भर के किसान नेताओं और किसानों के अराजनीतिक संगठनों से संपर्क किया और उनके साथ एक बैठक में फैंसला लेने के बाद 25 अक्‍टूबर को वोट क्‍लब पंहुच गए। लाखों किसानों ने वोट क्‍लब को घेर लिया। उन्‍हें हटाने के लिए पुलिस ने काफी यत्‍न किए। पानी की बौछारों और लाठियों के सहारे उन्‍हें उत्‍तेजित करने की भी कोशिश की गई लेकिन टिकैत और उनके नेतृत्‍व में किसान यह जान चुके थे कि उनका हथियार अहिंसा है। सात दिन चले धरने में केंद्र सरकार के प्रतिनिधियों के आग्रह और आश्‍वासन के बाद टिकैत ने वोट क्‍लब से किसानों का धरना उठा लिया।
मेरठ कमिश्‍नरी, रजबपुरा और वोट क्‍लब की रैलियों में टिकैत की मुट्ठी में लाखों किसानों को देख राजनीतिक दिग्गज उनसे नजदीकियां बनाने का जतन करने लगे। नब्बे के दशक में यूपी और हरियाणा से उन्हें राज्यसभा में पद ग्रहण करने का न्यौता भी मिला लेकिन बाबा ने स्वीकार नहीं किया। पूर्व प्रधानमंत्री देवगौड़ा से टिकैत की नजदीकियां किसी से छिपी नहीं रही। कभी उपप्रधानमंत्री रहे स्वर्गीय देवीलाल ने भी टिकैत को किसान हित के लिए राजनीति में कूदने की सलाह दी थी। टिकैत ने राजनेताओं से नजदीकियां तो रखीं लेकिन कभी प्रत्‍यक्ष रूप से कोई लाभ नहीं लिया और न संघर्ष का रास्‍ता छोड़ा। हांलाकि उनके बेटे राकेश टिकैत ने भारतीय किसान यूनियन की राजनीतिक बिंग बनाकर चुनाव भी लड़े लेकिन पुत्रमोह में टिकैत ने बस इतना किया कि वह अपने पुत्र की राजनीतिक हसरतों पर खामोश रहे। सापेक्ष रूप से कभी राजनीतिक गतिविधियों का साथ नहीं दिया। संघर्ष की राह को हमेशा कायम रखा। वोट क्‍लब के बाद भी उन्‍होंने दर्जनों बड़े आंदोलन किए और कई बार उन्‍हें जेल भी जाना पड़ा लेकिन वह न कभी याचक बने और न स्‍वाभिमान से समझौता किया। उनकी खुद्दारी को इसी से समझा जा सकता है कि जब बीती 8 मार्च को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उन्‍हें सरकारी खर्चे पर दिल्‍ली में बेहतर इलाज की पेशकश की तो वह गंभीर अवस्‍था में भी ठहाके लगा कर हंस दिए। उन्‍होंने प्रधानमंत्री से सिर्फ इतना कहा कि उनकी हालत गंभीर है; पता नहीं कब क्‍या हो जाए, ऐसे में यदि उनके जीते जी केंद्र सरकार किसानों की भलाई में कुछ ऐसा ठोस कर दे जिससे वह आखिरी वक्‍त में कुछ राहत महसूस कर सकें और उन्‍हें दिल से धन्‍यवाद दे सकें............आज ये किसान नेता हमारे बीच नहीं है और समस्‍याएं भी वही हैं.........काश! वह अपने जीवन में किसानों को खुशहाल देख पाता। काश! उसे अपने अंतिम दिनों में टप्‍पल और भट्टा पारसौल जैसी लोमहर्षक घटनाएं न देखने को मिलतीं.................ऐसे में समझ में नहीं आ रहा कि उस महान दिवंगत आत्‍मा की शांति के लिए प्रार्थना कैसे करूं।
(यह लेख प्रभात खबर में प्रकाशित हुआ है)

Sunday, April 24, 2011

२ ग़ज़लें

एक -


बस्ती गाँव नगर में हैं
घर के दुश्मन घर में हैं

जिनसे माँग रहा हूँ घर
वो बसते पत्थर में हैं

मौत हमारी मंजिल है
हम दिन रात सफ़र में हैं

जितने सुख हैं दुनिया के
फकत ढाई आखर में हैं

ढूँढा उनको कहाँ कहाँ
जो मेरे अन्तर में हैं

इक आँसू की बूँद से वो
मेरी चश्मे तर में हैं

सूरज ढूँढ रहा उनको
वो लेकिन बिस्तर में हैं

मेरी खुशियाँ रिश्तों में
उनके सुख जेवर में हैं

भूखे सोये फिर बच्चे
माँ पापा दफ्तर में हैं

पार जो करते थे सबको
वो खुद आज भवंर में हैं

मेरे साथ तुम्हारे भी
चर्चे अब घर घर में हैं

पहले केवल दिल में थे
अब वो हर मंज़र में हैं


दो-

उसने मुझसे बोला झूठ
अपना पहला पहला झूठ

ताकतवर था खूब मगर
फिर भी सच से हारा झूठ

अब मैं तुझको भूल गया
आधा सच है आधा झूठ

सच से आगे निकल गया
गूंगा, बहरा, अंधा झूठ

कुछ तो सच के साथ रहे
ज्यादातर को भाया झूठ

जग में खोटे सिक्के सा
चलता खुल्लम खुल्ला झूठ

शक्ल हमेशा सच की एक
पल पल रूप बदलता झूठ

इस दुनिया की मंडी में
सच से महंगा बिकता झूठ

सच से बढ़ कर लगा मुझे
उसका प्यारा प्यारा झूठ

माँ से बढ़कर पापा हैं
कितना भोला भाला झूठ

सच ने क्या कम घर तोड़े
बदनाम हुआ बेचारा झूठ

Thursday, April 7, 2011

ऐसे चलते हैं हिंदी के संस्‍थान

केंद्रीय हिंदी संस्थन, आगरा जो इस वर्ष अपनी स्थापना के 50 वर्ष मना रहा है, पिछले दो वर्ष से बिना निदेशक के है और अब भी इस पद पर नियुक्ति हो पाने के आसार नहीं हैं, क्यों? हिंदी की सरकारी संस्थाएं किस तरह से काम करती हैं और किस हद तक चमचों, दरबारियों और छुटभइयों का अभयारण्य बन गई हैं इसका उदाहरण केंद्रीय हिंदी संस्थान है, जो इस वर्ष अपनी स्थापना के 50 वर्ष मना रहा है।

संस्थान में पिछले दो वर्ष से कोई स्थायी निदेशक नहीं है। इस बीच तीन बार निदेशक के पद के लिए विज्ञापन निकाला गया। पहली बार बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के सुधाकर सिंह का चुनाव भी हो चुका था पर बीच में ही मानव संसाधन विकास मंत्री के बदल जाने से सुधाकर सिंह की नियुक्ति इस तर्क पर नहीं हुई या होने दी गई कि वह अर्जुन सिंह के आदमी थे।

दूसरे व तीसरे विज्ञापन पर आये आवेदनों में चयन समिति को कोई ऐसा आदमी ही नहीं मिला जो इस पद के लायक हो। इसलिए केंन्द्रीय हिंदी संस्थान के वरिष्ठतम प्रोफेसर रामवीर सिंह को अस्थायी निदेशक बना दिया गया। ईमानदार रामवीर सिंह के लिए नये अध्यक्ष अशोक चक्रधर के चलते काम करना आसान नहीं हुआ (उदाहरण के लिए उनके फाइव स्टार होटलों के बिलों पर आपत्ति करना)। इसके अलावा यह भी कहा जाता है कि मंत्रालय के एक संयुक्त सचिव की भी यह कोशिश रही कि संस्थान में कोई निदेशक आए ही नहीं और वह सीधे-सीधे मंत्रालय से नियंत्रित होता रहे। जो भी हो, अंततः कपिल सिब्बल के छायानुवाद्रक (?) और कांग्रेस के लिए चुनाव प्रचार सामग्री तैयार करने वाले अशोक चक्रधर में मंत्री से अपनी नददीकी के चलते रामवीर सिंह को हटवा दिया और उनकी जगह तात्कालिक कार्यभार के. बिजय कुमार को सौंप दिया।

बिजय कुमार की हालत यह है कि वह पहले ही दो संस्थानों को संभाले हुए हैं। वैज्ञानिक तथा तकनीकी आयोग के अध्यक्ष के अलावा वह केंद्रीय हिंदी निदेशालय, दिल्ली के निदेशक का अतिरिक्त भार भी संभाले हुए हैं। मजे की बात यह है कि वह हिंदी के आदमी ही नहीं है और पहले ही अपने काम से बेजार और रिटायरमेंट के कगार पर हैं। सवाल यह है कि जब नये निदेशक का चुनाव होने ही वाला था तो फिर रामवीर सिंह को क्यों हटाया गया? (क्या इसलिए भी कि वह अनुसूचित जनजाति के हैं ?) साफ है कि उपाध्यक्ष महोदय किसी ऐसे ही आदमी की तलाश में थे जिसकी और जो हो, हिंदी में कोई रूचि न हो। बिजय कुमार से बेहतर ऐसा आदमी कौन हो सकता था जो उपाध्यक्ष के मनोनुकूल निदेशक की नियुक्ति तक इस पद की पहरेदारी कर सके।

इससे यह बात फिर से साफ हो जाती है कि सरकार हिंदी और हिंदी की संस्थाओं के लिए कितना चिंतित है। एक आदमी जिसे एक संस्था का चलाना ही कठिन हो रहा हो, उस पर तीन संस्थाओं को थोपना सरकार की मंशा को स्पष्ट कर देता है। स्पष्ट है कि वृहत्तर हिंदी समाज की बात तो छोड़िये, हिंदी के बुद्वि जीवियों को भी इससे कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए यह अचानक नहीं है कि हिंदी की संस्थाओं पर मीडियाकरों का पूरी तरह कब्जा हो चुका है। इस संस्थाओं में हो क्या रहा है, इनकी क्या उपयोगिता है, यह सवाल शायद ही कभी पूछे जाते हों। जहां तक बुढा़पे में कवि बने कपिल सिब्बल का सवाल है उनकी रूचि हिंदी व उसकी संस्थाओं में तब हो जब उन्हें 2 जी स्पेक्ट्रम और अपने हमपेशेवर वकील अरूण जेटली से वाक्युद्ध करने से फुर्सत मिले। वैसे 2 जी स्पैक्ट्रम है तो दुधारी गाय पर फिलहाल इसकी हड्डी सरकार के गले में फंसी हुई है।

पर असली किस्सा है संस्थान के नये निदेशक की नियुक्ति को लेकर। गत जनवरी में इस पद के लिए पहला विज्ञापन निकाला गया था। 15 जून, 2010 को तीन सदस्यों की सर्च कमेटी, जिसमें श्याम सिंह शशि (प्रकाशन विभाग प्रसिद्धि के), नासिरा शर्मा और रहमतुल्ला थे, मीटिंग हुई। पर किसी उम्मीदवार को उपयुक्त नही पाया गया। अक्टूबर के अंतिम सप्ताह में दोबारा से इस पद के लिए संशोधित विज्ञापन निकाला। इस में पीएचडी आदि के अलावा, जो अनिवार्य योग्यताएं मांगी गई थी उनमें : - प्रसिद्ध पत्रिकाओं में प्रकाशित कार्य और पुस्तकों के लेखन में प्रमाण के रूप में प्रकाशित कार्य -

प्रशासनिक अनुभव के तौर पर : संकायाध्यक्ष/स्नातकोत्तर कॉलेज के प्रिंसिपल/ विश्वविद्यालय का रेक्टर/पीवीसी/कुलपति/विश्वविद्यालय विभाग के अध्यक्ष के रूप में पांच वर्ष का प्रशासनिक अनुभव।

आवेदन आए। उसी पुरानी सर्च कमेटी की मीटिंग 21 फरवरी को रखी गई। कहा जाता है कि उपाध्यक्ष महोदय की रूचि अपने एक निकट के व्यक्ति/संबंधी की नियुक्त करने में थी। पर जिस व्यक्ति को अंततः चुना गया, वह थे दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के पद पर काम कर रहे मोहन (शर्मा) नाम के सज्जन, जो छह वर्ष पूर्व अचानक बर्धवान से सीधे दिल्ली में प्रकट हुए थे। मंत्रालय को भेजे गए एक गुमनाम पत्र में आरोप है कि इन्होंने दिल्ली में नौकरी पाने के लिए सीपीएम के दरवाजे खटखटाए थे। इस बार बतलाया जा रहा है कि इनकी सिफारिश ठोस कांग्रेस खेमे से सीधे हैदराबाद से होती हुई राज्य मंत्री की ओर से थी। जो भी हो फिलहाल जिन मोहन जी का चुनाव किया गया था वह चूंकि उपाध्यक्ष और दिल्ली विश्वविद्यालय के आचार्यो की विख्यात टोली के निकट थे और उनका लचीलापन अब तक जग जाहिर है, इसलिए उपाध्यक्ष को उन्हें स्वीकार करने में कोई दिक्कत नहीं हुई। मंत्रालय को भेजे गए इस गुमनाम पत्र लेखक ने मोहन जी की विशेषता कुछ इस प्रकार बतलाई है कि यह ‘‘प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लेखन के कारण या किसी प्रतिष्ठित लेखक के रूप में भी नहीं जाने जाते हैं।‘‘ बल्कि ‘‘इनको दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के पूर्व अध्यक्ष (यानी सुधीश पचौरी) के क्लर्क के रूप में जाना जाता है।‘‘ साफ है कि जो आदमी जुगाड़ का ही माहिर हो और दिल्ली -कोलकाता-हैदराबाद को चुटकियों में साध सकता हो, उस बेचारे के पास लिखने-पढ़ने की फुर्सत ही कहां होगी। फिर पढ़ने से हिंदी में होने वाला भी क्या है, यहां तो जो होता है वह जुगाड़ से ही तो होता है। वह स्वयं इसके साक्षात उदाहरण हैं ही।

पर इस आदमी को चुनने के लिए जो तरीके अपनाए गए वे अपने आप में खासे आपत्तिजनक थे। उदाहरण के लिए सबसे पहले तो सर्च कमेटी की सदस्य नासिरा शर्मा को, जो अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व व निर्णयों के लिए जानी जाती हैं, कमेटी की मीटिंग की जानकारी ही नहीं दी गई। जब उन्हें यह बात पता चली तो इस वर्ष 22 फरवरी को उन्होंने एक पत्र मंत्रालय में संबंधित संयुक्त सचिव को यह जानने के लिए लिखा कि क्या जिस सर्च कमेटी में मेरा नाम है उसकी मीटिंग 15 फरवरी को हो चुकी हैं? इसके बाद 27 फरवरी को नासिरा जी ने दूसरा पत्र मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल को अपना विरोध प्रकट करते हुए पत्र लिख दिया।

इस पर संस्थान ने तर्क दिया कि हमने तो नासिरा जी को पत्र लिखा था अगर उन्हें नहीं मिला तो हम क्या कर सकते हैं। यह गैरजिम्मेदाराना हरकत की इंतहा है। इस पर संबंधित अधिकारी को निलंबित किया जा सकता है। सरकार का इस संबंध में नियम यह है कि तब तक किसी भी सर्च कमेटी की बैठक नहीं की जा सकती जब तक कि उसके सभी सदस्यों को यथा समय सूचित कर उनकी सहमति नहीं ले ली जाती। अगर कोई सदस्य नहीं आना चाहता, यह भी उससे लिखित में लेने के बाद ही, उसके बगैर कमेटी की मीटिंग हो सकती है। नासिरा जी दिल्ली में ही रहती हैं। आखिर ऐसा क्या था कि उन्हें हाथों-हाथ मीटिंग के बारे में सूचित न किया जा सकता हो? साफ है कि विभाग की मंशा ही कुछ और थी और यह जानबूझ कर किया गया था।

जहां तक उपाध्यक्ष का सवाल है वह सारे मामले को स्वर्ण जयंती का बहाना बना कर अपनी ओर से आनन-फानन में निपटा, फरवरी में ही हिंदी का प्रचार करने अपनी टोली के साथ इंग्लैण्ड चले गए थे। फाइल मंत्री महोदय के पास पहुंच भी गई। पर तब तक नासिरा शर्मा का पत्र मंत्री महोदय को मिलने के अलावा विभिन्न अखबारों में भी छप गया। इस पर मंत्री ने उस फाइल को कैबिनेट कमेटी के पास स्वीकृति लेने के लिए नहीं भेजा। पर इस बीच मधु भारद्वाज नाम की एक उम्मीदवार ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर दी। इसमें आरोप है कि संस्थान ने अपने विज्ञापन में हिंदी की एक संस्था के निदेशक के पद के लिए हिंदी एमए की शैक्षणिक योग्यता ही नहीं मांगी। इसके कारण कई लोग आवेदन ही नहीं कर पाए। उनका कहना है कि यह जानबूझ कर भ्रम फैलाने के किया गया, क्योंकि मंत्रालय ने किसे लेना है इस बाबत पहले से ही मन बना लिया था। कोर्ट ने मंत्रालय से चार सप्ताह के अंदर जवाब मांगा है।

इसी का नतीजा है कि केंद्रीय हिंदी संस्थान के स्वर्ण जयंती कार्यक्रम के निमंत्रण पत्र में, निदेशक के तौर पर के. बिजय कुमार का नाम छपा था। यानी मंत्री उस फाइल को आगे नहीं बढ़ा पाए हैं। देखना होगा कि क्या इस बार भी निदेशक की नियुक्ति हो पाएगी?

फिलहाल हिंदी संस्थान आगरा को लेकर दो समाचार हैं। पहला, इसके स्वर्ण जयंती कार्यक्रमों की शुरुआत 28 मार्च से, आगरा में नहीं, दिल्ली में हो गई है। पर जैसा कि निमंत्रण पत्र में लिखा था यह सिब्बल के करकमलों से नहीं हो पाया है। संस्थान ने मंत्री महोदय के लिए सुबह साढ़े दस के समय को दस भी किया पर मंत्री महोदय ने न आना था न आए। यह दूसरी बार है जबकि मानव संसाधन विकास मंत्री ने संस्थान को ऐन वक्त पर गच्चा दिया था। नृत्यांगना राज्य मंत्री डी पुरंदेश्वरी ने भी हिन्दी को इस लायक नहीं समझा की दर्शन देतीं। इन लोगों की नजरों में हिंदी संस्थानों का महत्व अपने नाकारा लगुवे को चिपका सकने की जगहों से ज्यादा कुछ है भी नहीं।

दूसरा समाचार, जो जरा पुराना है, अशोक चक्रधर को मंत्री की सेवा करने के कारण उचित पुरस्कार मिल गया है। वह अगले तीन वर्ष के लिए उपध्यक्ष बना दिए गए हैं। पिछला एक वर्ष वह था जो रामशरण जोशी ने नये मंत्री के आ जाने के कारण नैतिक आधार पर छोड़ दिया था। कौन पूछने वाला है कि चक्रधर ने पिछले एक साल में केंद्रीय हिंदी संस्थान में पांच सितारा होटलों में ठहरने के अलावा क्या किया ? महत्वपूर्ण यह है कि उन्होंने सिब्बल को साधा और छायानुवाद की ‘जय हो‘ विधा को फिर से पुनर्जीवित किया।

यह आलेख ''समयांतर'' में प्रकाशित हो चुका है. वहीं से साभार लेकर इसे प्रकाशित किया गया है.


Tuesday, April 5, 2011

दो ग़ज़लें

एक

बस्ती गाँव नगर में हैं
घर के दुश्मन घर में हैं

जिनसे माँग रहा हूँ घर
वो बसते पत्थर में हैं

मौत हमारी मंजिल है
हम दिन रात सफ़र में हैं

जितने सुख हैं दुनिया के
फकत ढाई आखर में हैं

ढूँढा उनको कहाँ कहाँ
जो मेरे अन्तर में हैं

इक आँसू की बूँद से वो
मेरी चश्मे तर में हैं

सूरज ढूँढ रहा उनको
वो लेकिन बिस्तर में हैं

मेरी खुशियाँ रिश्तों में
उनके सुख जेवर में हैं

भूखे सोये फिर बच्चे
माँ पापा दफ्तर में हैं

पार जो करते थे सबको
वो खुद आज भवंर में हैं

मेरे साथ तुम्हारे भी
चर्चे अब घर घर में हैं

पहले केवल दिल में थे
अब वो हर मंज़र में हैं


दो

उसने मुझसे बोला झूठ
अपना पहला पहला झूठ

ताकतवर था खूब मगर
फिर भी सच से हारा झूठ

अब मैं तुझको भूल गया
आधा सच है आधा झूठ

सच से आगे निकल गया
गूंगा, बहरा, अंधा झूठ

कुछ तो सच के साथ रहे
ज्यादातर को भाया झूठ

जग में खोटे सिक्के सा
चलता खुल्लम खुल्ला झूठ

शक्ल हमेश सच की एक
पल पल रूप बदलता झूठ

सच से बढ़ कर लगा मुझे
उसका प्यारा प्यारा झूठ

माँ से बढ़कर पापा हैं
कितना भोला भाला झूठ

सच ने क्या कम घर तोड़े
बदनाम हुआ बेचारा झूठ

Thursday, February 17, 2011

अपना घर सारी दुनिया से हट कर है

अपना घर सारी दुनिया से हट कर है|
हर वो दिल, जो तंग नहीं, अपना घर है|१|

माँ-बेटे इक संग नज़ारे देख रहे|
हर घर की बैठक में इक जलसाघर है|२|

जिसने हमको बारीकी से पहचाना|
अकबर उस का नाम नहीं, वो बाबर है|३|

बिन रोये माँ भी कब दूध पिलाती है|
सब को वो दिखला, जो तेरे अन्दर है|४|

उस से पूछो महफ़िल की रंगत को तुम|
महफ़िल में, जो बंद - आया पी कर है|५|

'स्वाती' - 'सीप' नहीं मिलते सबको, वर्ना|
पानी का तो कतरा-कतरा गौहर है|६|

सदियों से जो दबा रहा, दमनीय रहा|
दुनिया में अब वो ही सब से ऊपर है|७|

मेरी बातें सुन सब मुझे से कहते हैं|
क्या तू भी पगला-दीवाना-शायर है|८|

पहले घर, घर होते थे, दफ्तर, दफ्तर|
अब दफ्तर-दफ्तर घर, घर-घर दफ्तर है|९|

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नवीन सी चतुर्वेदी

Sunday, January 30, 2011

कोई लेखक किसी भी क़ौम का चेहरा नहीं होता

हमें इक दूसरे से गर गिला शिकवा नहीं होता|
तो फिर गैरों ने हम को इस तरह बाँटा नहीं होता|१|

नयों को हौसला भी दो, फकत ग़लती ही ना ढूँढो|
बड़े शाइर का भी हर इक शिअर आला नहीं होता|२|

हज़ारों साल पहले सीसीटीवी आ गई होती|
युधिष्ठिर जो शकुनि के सँग जुआ खेला नहीं होता|३|

अदब से पेश आना चाहिए साहित्य में सबको|
कोई लेखक किसी भी क़ौम का चेहरा नहीं होता|४|

ज़रा समझो कि अब तो कॉरपोरेट भी मानता है ये|
गृहस्थी से जुड़ा इन्सान लापरवा[ह] नहीं होता|५|

नवीन सी चतुर्वेदी

Wednesday, January 26, 2011

गणतंत्र दिवस- आइये कुछ सोचें

आज हम गणतंत्र दिवस की ६२ वीं वर्षगांठ मना रहे हैं। दुःख का विषय है की सियासतदानो ने इस पुनीत अवसर को भी राजनीति का अखाड़ा बना दिया है। एक तरफ वो फिरकापरस्त लोग हैं जो कश्मीर की पावन भूमि पर पाकिस्तान का झंडा लहराकर गर्व अनुभव करते हैं और ऐतिहासिक लाल चौक पर भारत का तिरंगा लहराने में अपनी तौहीन समझते हैं। वहीँ दूसरी और कुछ अन्य लोग भी हैं जो इस अवसर का लाभ उठा कर राजनीति की शतरंज पर अपने मुहरे सिद्ध करना चाहते है। खेद का विषय यह है कि परिणाम से दोनों ही नावाकिफ है। अभी बहुत दिन नहीं बीते जब 'वन्दे मातरम' जैसे पावन गीत पर भी दोनों पक्षों द्वारा इसी तरह की राजनीति की गई थी। आज भी यह मुद्दा कभी भी गर्म हो उठता है।जहाँ देश के कर्णधारों को राष्ट्रगान भी पूरी तरह याद नहीं है , वे राष्ट्रगीत या राष्ट्र गान का अर्थ क्या समझ पाएंगे। इन गीतों को रटने मात्र से ही हमारे कर्तव्यों की इतिश्री नहीं हो जाती। क्या आज तक हम महज राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत गाने की औपचारिकता ही पूरी करते नहीं आ रहे हैं. उनके अर्थ का हमें पता ही नहीं है. कोई भी गीत या गान व्यक्ति के मानस में तभी घर बना सकता है जब वह पूर्णत: व्याख्यायित हो तथा उसका अर्थ पूर्णत: स्पष्ट हो. बिना अर्थ समझे किसी चीज का विरोध करना नाजायज ही नहीं दुखद भी है। वन्दे मातरम गीत संस्कृतनिष्ठ अधिक होने के कारण सभी के लिए समझना कठिन हैं, परन्तु दुःख की बात यह है की स्वतंत्रता के ६२-६३ साल के बाद भी इसको समझने -समझाने की कोशिश ही नहीं की गई. सम्पूर्ण गीत का अर्थ यदि ठीक प्रकार से समझा जाये तो मैं नहीं समझता की किसी हिन्दू-मुश्लिम या किसी और कौम को इस पर ऐतराज हो सकता है बशर्ते वह अपने को सच्चा हिन्दुस्तानी समझता है। वन्दे मातरम का सरल हिंदी में गीतात्मक अनुवाद करने की मैंने कोशिश की है और गणतंत्र दिवस के इस पावन अवसर पर यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ । शायद कुछ लोग समझ पायें और अपने विचारों में परिवर्तन कर ला पायें , इसी विश्वास के साथ गीत प्रस्तुत है :-

हे मातृभूमि वंदन, हे जन्म भूमि वंदन॥
हम कोटि- कोटि जन की , हे कर्म भूमि वंदन।

नदियों में तेरी बहता, अमृत सा मीठा पानी
ताजे पके फलों के बागों पे है जवानी।
पर्वत मलय से आकार , शीतल सुखद हवाएँ
पावन धरा पे तेरी , चादर हरी बिछाएं
सुख समृद्दी से भरी तू, सोने सी है खरी तू
हे मातृभूमि वंदन, हे जन्म भूमि वंदन॥

शुचि श्वेत चांदनी में रातें तेरी नहाये
फूलों फलों से लदकर , सब पेड़ लहलहायें
अधरों पे तेरे खेले मुस्कान मीठी मीठी
वाणी में बांसुरी की है तान मीठी मीठी
सुखदान देने वाली, वरदान देने वाली
हे मातृभूमि वंदन, हे जन्म भूमि वंदन॥

तेरे करोड़ो बेटे , एक साथ जब गरजते
बासठ करोड़ बाजू , शास्त्रों को ले फड़कते
अबला न समझे कोई , इतनी तू शक्तिशाली
अदभुद है तेज तेरा , महिमा तेरी निराली
जन जन को अपने तारे, दुश्मन दलों को मारे
हे मातृभूमि वंदन, हे जन्मभूमि वंदन.

Thursday, January 6, 2011

मेरी पसंद : राजेन्‍द्र चौधरी की रचनाएं

राजेन्‍द्र चौधरी श्रेष्ठ कवि, लेखक, अनुवादक और उससे भी बड़े चिन्तक हैं। इनकी रचनाएं अन्तंर्मन के अन्दर तक गहरे उतरती हैं और सोचने पर विवश करती हैं। विशेष बात यह भी है कि इनकी रचनाएं देश काल की सीमाओं में कभी नहीं बांधी जा सकतीं। इतिहास से वर्तमान तक और परंपराओं से आधुनिक परिवेश तक, इनकी रचनाओं में समाया हर एक शब्द अपना अलग अर्थ रखता है। संस्कारों की मिठास और दुनियावी तल्खियों के अनुभवों को अपने चिंतन में पिरो कर प्रस्तुत करने में इनका कोई सानी नहीं है।इर्द-गिर्द के पाठकों के लिए इनकी कुछ रचनाएं यहां प्रस्तुत हैं।


आधार

जब भी कोई ऊँची इमारत मेरी नज़र से गुज़रती है
तो उसकी भव्यता निगाहों से दिल में उतरती है

नज़र को इमारत के बुलंद कंगूरों से वास्ता है
लेकिन मेरा मन ठिठकता है, कुछ और तलाशता है
वो जो दीख नहीं पाता लेकिन इस ऊँचाई का आधार है
मेरे मन को कंगूरों से नहीं, नींव के पत्थरों से प्यार है

वो पत्थर जो धरती में भी दस हाथ जाके धंसता है
और खुशी-खुशी गुमनाम अंधेरी गुफ़ा में फंसता है
ताकि इस इमारत को सौ हाथ ऊंची बुलंदी मिले
और इसके कंगूरों को नया रूप, नयी रोशनी मिले

वो पत्थर जिसने इमारत से अपने जीवन का मूल्य नहीं मांगा
और वर्तमान के कांधे पर कभी अतीत का नाम नहीं टांगा
वो पत्थर हर मंदिर के कलश, हर मस्जिद की गुंबद से ऊंचा है
क्योंकि उसने इस इमारत को अपने प्राण उत्सर्ग से सींचा है

मैं और तुम भी वर्तमान के लिए रीतते किसी अतीत के वंश हैं
निस्वार्थ गहराई तक आकर जुड़ो तो, हम किसी नींव के अंश हैं
लेकिन आज हर तरफ़ हर किसी को परकोटों का चाव है
आज मेरे दोस्त, नींव के पत्थरों का अभाव है
लेकिन रख सको तो याद रखना
ऊंचाई सापेक्ष है, मिटती रहती है, जीवन आधार का होता है
भवन उद़घाटित होते हैं, पूजन आधार का होता है
पूजन आधार का होता है।।


कुछ मुक्तक


एक
हम रिसाले तरक्की के पढते रहे,
वर्क गीता का लेकिन फटा ही रहा।
झूठ खंजर चलाता रहा सत्य पर,
हमको मंत्र अहिंसा रटा ही रहा।
सारी वसुधा को परिवार कहते रहे,
घर का आंगन हमारा बंटा ही रहा।
दूर निर्धनता अभिलेख में हो गयी,
द्वार का टाट लेकिन फटा ही रहा।।

दो
दोस्ती के गुलाबों में लिपटी हुई,
दुश्मनी की मिली हमको सौगात थी।
अर्घ्य देना पडा केक्टस को यहां,
सभ्यता की यह शहरी शुरुआत थी।
चांद रोटी सा हमको चिढाता रहा,
आप कहते हैं पूनम की यह रात थी।
सिर्फ सांपों को विषधर समझते थे हम,
आदमी से न जब तक मुलाकात थी।।

तीन
मैं इस दौर में तहजीब का ढहता मजार हूं
शीशे के मकानों से पुकारा न कीजिये।
अपनों से पाये ज़ख्म जो ताजा हैं वो अभी
फिर अपनेपन की बात दुबारा न कीजिये।
सच्चाइयों के शव को भी मिलता नहीं कफन
ईसा को सलीबों से उतारा न कीजिये।
मेरी तरह हर भीड में तन्हा ही रहोगे
इन्सान बन के उम्र गुजारा न कीजिये।

चार
जिनके चेहरे के खिलते कंवल हैं यहां
उनके पांव तले दलदलें हैं बहुत।
कौन माझी पे अपने भरोसा करे
आज साहिल पे भी जलजले हैं बहुत।
राजनीति की चौसर पे आदर्श हैं
माँ के सीने मे यूँ हलचलें हैं बहुत।
दिल की दहलीज पर पेट की आग से
संस्कारों के शव कल जले हैं बहुत।

पुरालेख

तकनीकी सहयोग- शैलेश भारतवासी

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