भाषा पुल है
तुम तक पंहुचने के लिए
आने के लिए मुझ तक
ये कविता लिखते समय मैने कभी नहीं सोचा था कि संप्रेषण के इस पुल को ढहाने के लिए वोटों के आतंकवादी सारी मर्यादाएं तोड़ देंगे। जया भादुड़ी बच्चन ने एक सभा में कह दिया कि हम तो यूपी के हैं इसलिए हिंदी में ही बोलेंगे। बस! फिर क्या था। बखेड़ा खड़ा हो गया। भाषा और क्षेत्रवाद के नाम पर वोटो की फसल उगाने के जीतोड़ कोशिश में लगे राज ठाकरे को लगा कि इससे बेहतर मौका और क्या हो सकता है। एक नया विवाद खड़ा कर दिया गया। जमकर गुंडई हुई। जया को उनके पति को माफी मांगनी पड़ी क्योंकि वो एक शांत स्वभाव के महिला-पुरुष हैं जो न तो उतनी नंगई पर उतर सकते हैं और न गुंडई कर सकते हैं। इसके अलावा मुंवई ने उनको नाम दिया है। शोहरत दी है। समृद्धि दी है। ऐसे में व्यवसायिक हित प्रभावित होते देखकर कोई भी भलामानुष वही करेगा जो बच्चन परिवार ने किया।
यहां एक सवाल उठता है कि क्या अंग्रेजी बोलने पर भी राज या बड़े ठाकरे इसी तरह बखेड़ा खड़ा करते। जया यदि हिंदी की जगह मराठी में बोलती तो मुझे बेहद प्रसन्नता होती क्योंकि मेरा मानना है कि क्षेत्रीय भाषाओं का सम्मान, प्रचार-प्रसार हिंदी के साथ समानांतर गति से होना चाहिए। यदि हिंदी भाषी राज्यों में स्कूली शिक्षा के साथ एक क्षेत्रीय भाषा का अध्ययन जरूरी होता तो राज जैसे लोगों को अलगाववाद के बीज बोने का मौका ही नहीं मिलता। लेकिन हमारे हुक्मरानों ने न कभी हिंदी के बारे में गंभीरता से सोचा, न कभी क्षेत्रीय भाषाओं के विकास के बारे में। सत्ता हमेशा अंग्रेजी दां लोगों के शिकंजे में रही इसलिए संवैधानिक रूप से भारत की प्रथम राजभाषा भले ही हिंदी हो लेकिन दबदबा उन्हीं लोगों का रहा जो अंग्रेजी गटकते और उगलते रहे। हिंदी राजभाषा होते हुए भी दासी जैसी हालत में आ गई। हम भले ही हिंदी का ध्वज उठाकर हिंदी जिंदावाद करें लेकिन सच ये है कि आज हर व्यक्ति अपनी संतान को अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाना चाहता है क्योंकि हिंदी को हमारे हुक्मरानों ने कभी रोजगार की भाषा नहीं बनने दिया। छब्बीस जनवरी उन्नीस सौ पैंसठ को भले ही हिंदी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दे दिया गया हो लेकिन हिंदी को कभी वह गौरव नहीं मिल पाया क्योंकि कभी दक्षिण में शुरू हुआ हिंदी विरांध अब मुंबई तक पंहुच गया है। उस मुंबई तक जो हिंदी सिनेमा का मक्का है। जिस मुंबई के बहुतायत लोगों को रोटी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हिंदी से ही मिलती है। इसका एकमात्र कारण है हमारी वह नीतियां जिनमें कभी हिंदी या भारतीय भाषाओं के विकास के लिए कभी कोई ठोस प्रयास ही नहीं हुआ। यदि भारत की अन्य भाषाओं को हिंदी भाषी क्षेत्रों में स्कूली शिक्षा के साथ जोड़ दिया गया होता तो भाषा के नाम पर वोटों की फसल उगाने वाले राज ठाकरे जैसे लोग कभी अपनी राजनीतिक रोटियां नहीं सेंक पाते।
एक बात और हिंदी का जितना हित हुक्मरानों ने किया है उतना हिंदी की दुकान चलाने वाले कथित मनीषियों ने भी। उन्होंने कभी हिंदी को हिंदुस्तानी नहीं होने दिया। हम सभी को ये कभी नहीं भूलना चाहिए कि जिस भाषा या संस्कृति में नया जोड़ने की परंपरा समाप्त हो जाती है उसके विकास की गति ठहर जाती है। अगर हिंदी में कुछ चर्चित शब्द दूसरी भाषाओं से भी आ जाते हैं तो नाक मुंह मत सिकोड़िए बल्कि आत्मसात कीजिए। यही विकास की परंपरा है।
हिंदी अगर बड़ी है तो भी बड़े को बड़प्पन दिखाना चाहिए जिसके प्रयास कभी नहीं हुए। न ही कभी हमारे हुक्मरानों ने ऐसा संदेश देने की कभी कोई कोशिश ही की। कारण साफ है कि हुक्मरानों की भाषा तो हमेशा अंग्रेजी ही रही। वह तो खुद आजादी मिलने के बाद फिरंगी हो गए। वैसा ही आचरण किया और उन्हीं फिरंगियों की नकल करने में अपना गौरव समझा जिनकी गुलामी से भारत मुक्त हुआ था। हमें कभी नहीं एहसास कराया गया कि हिंदी दुनिया में दूसरी सबसे ज्यादा बोली और समझी जाने वाली भाषा है। चीन की भाषा मंदरीन है। चीनी लोगों की भाषा मंदरीन को बोलने वाले एक बिलियन लोग हैं। मंदरीन बहुत कठिन भाषा है। किसी शब्द का उच्चारण चार तरह से किया जाता है। शुरू में एक से दूसरे उच्चारण में विभेद करना मुश्किल होता है। मगर एक बिलियन लोग आसानी से मंदरीन का उपयोग करते हैं। लेकिन मंदरीन के बाद साठ करोड़ से अधिक लोगों द्वारा बोली, लिखी और पढ़ी जाने वाली भाषा को हम राष्ट्रभाषा नहीं बना पाए। अगर हम आंकड़ों पर गौर करें तो हिंदी सिर्फ पैंतालीस करोड़ लोगों की मातृभाषा है लेकिन हकीकत ये है कि हिंदी जानने वाले और हिंदी का प्रयोग करने वाले लोगों की संख्या इससे दोगुनी से भी अधिक है।
अब एक बात डंके की चोट पर। हिंदी को कोई राज ठाकरे बढ़ने से नहीं रोक सकता क्योंकि अब ये कारपोरेट की मजबूरी बन गई है। स्टार न्यूज जैसे विदेशी मीडिया ग्रुप ने पहले हिंदी का चैनल शुरू किया और फिर बांग्ला और मराठी में लेकिन अंग्रेजी में नहीं। इसी तरह हिंदी कई बड़े मीडिया घरानों और कारपोरेट की मजबूरी बन गई क्योंकि इस देश में बहुसंख्यक हिंदी भाषी हैं। कभी कहा जाता था कि हिंदी में तकनीकी काम नहीं हो सकते लेकिन आज सभी आईटी कंपनियां हिंदी में अपने उत्पाद ला रहीं हैं। इसलिए आज आपसे निवेदन है कि हिंदी दिवस के मौके पर हिंदी की ताकत को पहचानिए और शुरूआत कीजिए हिंदी में हस्ताक्षर करने से। कसम खाईए कि आप हस्ताक्षर यानी अपनी पहचान हिंदी में ही छोड़ेंगे।
ऋचा जोशी
तुम तक पंहुचने के लिए
आने के लिए मुझ तक
ये कविता लिखते समय मैने कभी नहीं सोचा था कि संप्रेषण के इस पुल को ढहाने के लिए वोटों के आतंकवादी सारी मर्यादाएं तोड़ देंगे। जया भादुड़ी बच्चन ने एक सभा में कह दिया कि हम तो यूपी के हैं इसलिए हिंदी में ही बोलेंगे। बस! फिर क्या था। बखेड़ा खड़ा हो गया। भाषा और क्षेत्रवाद के नाम पर वोटो की फसल उगाने के जीतोड़ कोशिश में लगे राज ठाकरे को लगा कि इससे बेहतर मौका और क्या हो सकता है। एक नया विवाद खड़ा कर दिया गया। जमकर गुंडई हुई। जया को उनके पति को माफी मांगनी पड़ी क्योंकि वो एक शांत स्वभाव के महिला-पुरुष हैं जो न तो उतनी नंगई पर उतर सकते हैं और न गुंडई कर सकते हैं। इसके अलावा मुंवई ने उनको नाम दिया है। शोहरत दी है। समृद्धि दी है। ऐसे में व्यवसायिक हित प्रभावित होते देखकर कोई भी भलामानुष वही करेगा जो बच्चन परिवार ने किया।
यहां एक सवाल उठता है कि क्या अंग्रेजी बोलने पर भी राज या बड़े ठाकरे इसी तरह बखेड़ा खड़ा करते। जया यदि हिंदी की जगह मराठी में बोलती तो मुझे बेहद प्रसन्नता होती क्योंकि मेरा मानना है कि क्षेत्रीय भाषाओं का सम्मान, प्रचार-प्रसार हिंदी के साथ समानांतर गति से होना चाहिए। यदि हिंदी भाषी राज्यों में स्कूली शिक्षा के साथ एक क्षेत्रीय भाषा का अध्ययन जरूरी होता तो राज जैसे लोगों को अलगाववाद के बीज बोने का मौका ही नहीं मिलता। लेकिन हमारे हुक्मरानों ने न कभी हिंदी के बारे में गंभीरता से सोचा, न कभी क्षेत्रीय भाषाओं के विकास के बारे में। सत्ता हमेशा अंग्रेजी दां लोगों के शिकंजे में रही इसलिए संवैधानिक रूप से भारत की प्रथम राजभाषा भले ही हिंदी हो लेकिन दबदबा उन्हीं लोगों का रहा जो अंग्रेजी गटकते और उगलते रहे। हिंदी राजभाषा होते हुए भी दासी जैसी हालत में आ गई। हम भले ही हिंदी का ध्वज उठाकर हिंदी जिंदावाद करें लेकिन सच ये है कि आज हर व्यक्ति अपनी संतान को अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाना चाहता है क्योंकि हिंदी को हमारे हुक्मरानों ने कभी रोजगार की भाषा नहीं बनने दिया। छब्बीस जनवरी उन्नीस सौ पैंसठ को भले ही हिंदी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दे दिया गया हो लेकिन हिंदी को कभी वह गौरव नहीं मिल पाया क्योंकि कभी दक्षिण में शुरू हुआ हिंदी विरांध अब मुंबई तक पंहुच गया है। उस मुंबई तक जो हिंदी सिनेमा का मक्का है। जिस मुंबई के बहुतायत लोगों को रोटी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हिंदी से ही मिलती है। इसका एकमात्र कारण है हमारी वह नीतियां जिनमें कभी हिंदी या भारतीय भाषाओं के विकास के लिए कभी कोई ठोस प्रयास ही नहीं हुआ। यदि भारत की अन्य भाषाओं को हिंदी भाषी क्षेत्रों में स्कूली शिक्षा के साथ जोड़ दिया गया होता तो भाषा के नाम पर वोटों की फसल उगाने वाले राज ठाकरे जैसे लोग कभी अपनी राजनीतिक रोटियां नहीं सेंक पाते।
एक बात और हिंदी का जितना हित हुक्मरानों ने किया है उतना हिंदी की दुकान चलाने वाले कथित मनीषियों ने भी। उन्होंने कभी हिंदी को हिंदुस्तानी नहीं होने दिया। हम सभी को ये कभी नहीं भूलना चाहिए कि जिस भाषा या संस्कृति में नया जोड़ने की परंपरा समाप्त हो जाती है उसके विकास की गति ठहर जाती है। अगर हिंदी में कुछ चर्चित शब्द दूसरी भाषाओं से भी आ जाते हैं तो नाक मुंह मत सिकोड़िए बल्कि आत्मसात कीजिए। यही विकास की परंपरा है।
हिंदी अगर बड़ी है तो भी बड़े को बड़प्पन दिखाना चाहिए जिसके प्रयास कभी नहीं हुए। न ही कभी हमारे हुक्मरानों ने ऐसा संदेश देने की कभी कोई कोशिश ही की। कारण साफ है कि हुक्मरानों की भाषा तो हमेशा अंग्रेजी ही रही। वह तो खुद आजादी मिलने के बाद फिरंगी हो गए। वैसा ही आचरण किया और उन्हीं फिरंगियों की नकल करने में अपना गौरव समझा जिनकी गुलामी से भारत मुक्त हुआ था। हमें कभी नहीं एहसास कराया गया कि हिंदी दुनिया में दूसरी सबसे ज्यादा बोली और समझी जाने वाली भाषा है। चीन की भाषा मंदरीन है। चीनी लोगों की भाषा मंदरीन को बोलने वाले एक बिलियन लोग हैं। मंदरीन बहुत कठिन भाषा है। किसी शब्द का उच्चारण चार तरह से किया जाता है। शुरू में एक से दूसरे उच्चारण में विभेद करना मुश्किल होता है। मगर एक बिलियन लोग आसानी से मंदरीन का उपयोग करते हैं। लेकिन मंदरीन के बाद साठ करोड़ से अधिक लोगों द्वारा बोली, लिखी और पढ़ी जाने वाली भाषा को हम राष्ट्रभाषा नहीं बना पाए। अगर हम आंकड़ों पर गौर करें तो हिंदी सिर्फ पैंतालीस करोड़ लोगों की मातृभाषा है लेकिन हकीकत ये है कि हिंदी जानने वाले और हिंदी का प्रयोग करने वाले लोगों की संख्या इससे दोगुनी से भी अधिक है।
अब एक बात डंके की चोट पर। हिंदी को कोई राज ठाकरे बढ़ने से नहीं रोक सकता क्योंकि अब ये कारपोरेट की मजबूरी बन गई है। स्टार न्यूज जैसे विदेशी मीडिया ग्रुप ने पहले हिंदी का चैनल शुरू किया और फिर बांग्ला और मराठी में लेकिन अंग्रेजी में नहीं। इसी तरह हिंदी कई बड़े मीडिया घरानों और कारपोरेट की मजबूरी बन गई क्योंकि इस देश में बहुसंख्यक हिंदी भाषी हैं। कभी कहा जाता था कि हिंदी में तकनीकी काम नहीं हो सकते लेकिन आज सभी आईटी कंपनियां हिंदी में अपने उत्पाद ला रहीं हैं। इसलिए आज आपसे निवेदन है कि हिंदी दिवस के मौके पर हिंदी की ताकत को पहचानिए और शुरूआत कीजिए हिंदी में हस्ताक्षर करने से। कसम खाईए कि आप हस्ताक्षर यानी अपनी पहचान हिंदी में ही छोड़ेंगे।
ऋचा जोशी
20 comments:
हिन्दी को हिन्दुस्तानी बनाइये - इसका अर्थ ये होना चाहिये कि हिन्दी को देश की अन्य भाषाओं (बांग्ला, ओड़िया, मराठी, कन्नड, मलयालम आदि) के समीप आना चाहिये। उनके जो शब्द बहुत प्रचलित हैं उन्हे हिन्दी में तुरन्त ले लेना चाहिये। इससे हिन्दी की स्वीकार्यता बढ़ेगी; भारत की एकता के सूत्र सशक्त होंगे।
हिन्दी का हिन्दुस्तानी होने का मतलब यह कतई नहीं लगाना चाहिये कि वह अरबी, फ़ारसी, अंग्रेजी के शब्द अंधाधुंध लेकर कचड़ा हो जाय। हिन्दी को अनावश्यक रूप से अंग्रेजी का 'डस्टबिन' बनाने के प्रयासों का विरोध भी होना चाहिये।
(१४ सितम्बर किसी भी तरह से हिन्दी का जन्म दिन नहीं है।)
माननीय अनुनाद जी,
जन्मदिन की गलती सुधार दी है। मार्गदर्शन के लिए आभार। आपकी बात सही है लेकिन उर्दु हिंदुस्तानी जुबान ही है। एेसा मेरा मानना है।
हिंदी के लिये रोना-किलसना कुछ ज़्यादा ही हो गया है, 14 सितंबर आते-आते ये विलाप में बदल जाता है। लेकिन हकीकत ये है कि हिंदी की हालत इतनी बुरी है नहीं। अब इसे हिंदी अखबारों का दम कह लीजिये या टीवी चैनलों की महिमा पिछले पांच-छह साल में हिंदी की स्वीकार्यता बढ़ी है। हिंदी से परहेज करने वाले नेता-अभिनेता, क्रिकेटर और बड़े अफसर अब टीवी पर हिंदी में बोलते नज़र आते हैं। एनडीटीवी पर पिछले दिनों पूर्व राष्ट्रपति कलाम हिंदी बोलते नज़र आये। कलाम हिंदी-गैर हिंदी के झगड़े से दूर हैं लेकिन उनका हिंदी बोलने की कोशिश करना ये तो साबित करता ही है कि हिंदी सबको प्यारी है। उसकी हालत भले ही घर की मुर्गी दाल बराबर वाली हो गई हो उसे किसी तरह का कोई खतरा नहीं है। हिंदी अमर है, उसे किसी तरह की महाप्रलय भी खत्म नहीं कर सकती। हिंदी को रुदालियों की ज़रुरत नहीं है, जीत के गीत गाने वालों की ज़रुरत है। तो इसी बात पर हिंदी के लिये आज हो जाये..चीयर्स।
मेरा नेक सुझाव है कि हिंदी दिवस 14 सितंबर की बजाय 14 फरवरी को मनाया जाना चाहिये, तब इसे याद रखने या याद दिलाने की भी ज़रुरत नहीं पड़ेगी। जिस तरह 2 अक्टूबर को महात्मा गांधी के साथ ही लाल बहादुर शास्त्री को भी याद कर लिया जाता है उसी तरह 14 फरवरी को वेलेंटाइन डे की याद की वजह से हिंदी दिवस भी मना लिया जाया करेगा। 14 सितंबर से तो ज्यादा ही रौनक रहेगी उस दिन।
सवाल हिन्दी के लिए रोने-गाने का नहीं है. बहाना 14 सितम्बर का हो या किसी और तारीख का, एन मसलों पर चर्चा होते रहना चाहिए. ऋचा जी ने आपने बिल्कुल सही लिखा है कि जिन लोगों कि जिम्मेदारी बनती है, वे आदतन अंगरेजी दा हैं. वैसे सच कहूँ तो हिन्दी इन लोगों कि वजह से न तो कभी पिछड़ सकती है, न ही ये आगे बढ़ा सकते हैं. हमारे संचार के माध्यमो ने हिन्दी को विश्व फलक पर ले जाने में बड़ी ही अहम् भूमिका निभाही है. वो चाहे फ़िल्म हो, टी वी चैनल हों, अखबार-मैगजीन हों या फ़िर हिन्दी के पोर्टल और अब ब्लोग्स.
देहाती जी कि इस बात से मै इत्तेफाक रखता हूँ कि हिन्दी को कोई खतरा नहीं है. अब इसका कारवां बढ़ चला है और वो भी द्रुत गति से. ये ही वजह है कि अंग्रेजी दा भी हिन्दी चैनल ला रहे हैं.
ऋचा जी अच्छे आलेख के लिए बधाई
मेरी टिप्पणी से सहमति जताने के लिये भाई ओमकार चौधरी का बहुत-बहुत धन्यवाद। मैं उन लोगों में से हूं जिनका मानना है कि चाहे जो हो जाये,
हिंदी अजर-अमर है इसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता, हमको निश्चिंत रहना चाहिये। पहले भारत के जिन क्षेत्रों मसलन नौकरशाही, फिल्म, विज्ञापन, जनसंपर्क आदि में अंग्रेजी का दबदबा था अब वो सब हिंदी के आगे-पीछे हैं। अब हिंदी के विज्ञापन अंग्रेजी से अनुवाद होकर नहीं बनते हैं, बल्ति प्रसून जोशी और पीयूष पांडे जैसे लोग उनको हिंदी में लिखते हैं और वो अंग्रेजी में अनुवाद होते हैं। तमाम अंग्रेजी चैनल हिंदी में लिये गये इंटरव्यू अनुवाद करके चलाते हैं। ये पुल बनने और कारवां के आगे बढ़ने का सबूत है। चीयर्स फॉर हिंदी।
Martin देहाती, 5 th Avenue
हिंदी पर लेख पढ़ा, टिप्पणी तुरंत करना चाहता था लेकिन ज़रुरी काम से डाकखाने जाना पड़ गया। साहिबाबाद औद्योगिक क्षेत्र में भारत नगर के पोस्ट ऑफिस जाते हुए रास्ते में लिक रोड थाना पड़ता है। देखा वहां थाने के सामने तीन-चार मज़दूर लगे हुए हैं भरी धूप में साफ-सफाई करने में। शायद किसी सिपाही को तेज़ बुखार हो गया होगा इसलिये सफाई की याद आ गई। पास जाकर देखा तो कोने में तीन-चार रिक्शे खड़े हुए थे। समझने में देर नहीं लगी कि इन लोगों से बेगार करवाई जा रही है। हांफते खांसते लोगो को सफाई में जुटा छोड़कर आगे बढ़ गया। डाकघर में हमेशा की तरह ज़रा से काम के लिये दो घंटे लगे। वापसी में थाने के पास आकर जब टांगे जवाब दे गईं तो रिक्शा करना चाहा पेड़ के नीचे सुसताते रिक्शे वाले से चलने के लिये कहा तो उसने मना कर दिया। गुस्सा आया, लेकिन जब उसकी मुरझाई शक्ल देखी तो दया आई। वो उन्ही रिक्शे वालों में से एक था जो थाने के सामने बेगार कर रहे थे। बाकी तो उस समय भी थाने को चमकाने में लगे हुए थे लेकिन इसकी हालत देखकर सिपाही राजा ने दया कर दी थी। लेकिन कई घंटों तक बेगार करने के बाद वो इस काबिल नहीं रह गया था कि रिक्शा खींच सके। उसकी शक्ल सब कुछ बोल चुकी थी। बात हिंदी कहानी की तरह बनावटी नही है सच है, थाने की सेवा में थक जाने की वजह से आज ना उसके रिक्शे का किराया निकला होगा और ना ही आज घर में चूल्हा जलेगा। बाकी का हाल भी ऐसा ही होगा। ये किस्सा में इसलिये सुना रहा हूं कि हिंदी की हालत भी आजकल ऐसी ही है। वो विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों,टीवी चैनलों की बोली और विज्ञापनों की अधकचरी भाषा के थानों में अंग्रेज सिपाहियों की चाकरी कर रही है। थक जाती है इसलिये चुप रहती है। अपने हालात पर रो भी नहीं सकती है। 14 सितंबर आता है उसे पुचकार देते हैं, वो खड़ी हो जाती है बाकी 364 दिन अपमान झेलने के लिये।
पप्पू पढ़ाकू, पांचवी पास
भाषा केवल पुल नहीं है. वेह हमारी अस्मिता और हमारी पहचान भी है. उसी से दूर होने के कारन हम अपनी पहचान खो बैठे हैं. एक विचारात्मक लेख के लिए आभार.
हम ने पहला देश देखा दुनिया वालो जहां उस देश की भाषा बोले जाने पर लोग उसे तुछ ओर अनपध करार देते हे, वो हे हमारा देश जहां विदेशी भाषा को सर आंखो पर विठाया जाता हे,जिन्हो ने हमे कुत्तो के समान सम्झा हम उन्ही की भाषा वोल हर साहिब बनते हे, पढे लिखे.
ओर मे करता हू इन अंग्रेजी बोलने वालो को हमेशा नजर आंदाज, मेरे साथ जब भी कोई अग्रेजी मे बात करता हे तो मे उसे गुलामो की नजर से देखत हु, ओर साफ़ कहता हु मे एक आजाद हू, मेरी मात्र भाषा हिन्दी ओर जर्मन हे अगर मेरे साथ आप ने बात करनी हे तो इन दो भाषाओ मे करे.
ओर सामने वाला कितना शर्मिंदा होता हे एक बार आप भी यह कह कर देखे, किसी को कह कर देखे तो आप कॊ भी महसुस होगा,एक गुलाम को आईना दिखाना....
भाषाये सीखाना गलत नही, लेकिन हमारी तरह से ...... यह गलत हे,
धन्यवाद आप का लेख बहुत ही अच्छा लगा
ऋचा जी,
आपका मानना सही है। हिन्दी-ऊर्दू के जन्म पर ढेरों शोध हुए हैं। शुरू में उर्दू जुबान को हिन्दवी ही कहा जाता था। अमीर खुसरो ने सम्मिलित बोलियों को हिन्दवी नाम दिया। मिर्ज़ा गालिब ने हिन्दुस्तान के ग़ज़ल प्रेमियों के लिए जो पुस्तक लिखी उसमें भी 'हिन्दी' शब्द तो शीर्षक में ही आया था (नाम ठीक से याद नहीं)।
भारत में सभी भाषाएँ मिल-जुलकर ही आगे बढ़ सकती हैं। दुनिया की कोई भी भाषा दूसरे से झगड़कर, दूसरे को कुचलकर आगे नहीं बढ़ सकती हैं और बढ़ना भी नहीं चाहिए इस तरह।
अपने देश के अन्दर हिन्दी इतनी भी कमजोर नहीं हैं जितना कि लगता है....अब देख ही रहे हैं सारे खिलाडी, स्टार, मीडिया हिंदी को स्वीकारने लगे हैं. अरे हिंदी में तो गुरुत्वाकर्षण है आपको बस थोडा सा धक्का लगाने की जरूरत है. मेरे कोलेज में भी हिंदी की प्रतियोगिताएं कम होती थी मगर हमलोगों ने शुरु किया तो अब काफी प्रतियोगिता होने लगी है और सब काफी मनोरंजन करते हैं. इसीलिए भाषा कमजोर नहीं होती है प्रयास कमजोर होता है.
ये लेख बहुत ही सुन्दर और स्पष्ट था और बहुत ही उत्साहवर्द्धक भी.
-आलोक कुमार-
richa ji badhaie etne achche lekh he liye. Lekh ke bahane aapki puraskrat kavita padne ko mili. phir se kuch kavitayen likhiye.
Vanya
बाकी फिर कभी, अभी:
हिन्दी में नियमित लिखें और हिन्दी को समृद्ध बनायें.
हिन्दी दिवस की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं.
-समीर लाल
http://udantashtari.blogspot.com/
hindi ko ek din jaad karne se kuch nahi haoga....is per chrcha hoti rahni chahiye....
darasal hindi hamara beech pul nahi,,,,hamara garw hai....pahchaan hai
राज ठाकरे का न हिन्दी से कोई मतलब है न मराठी से। उनका उद्देश्य मराठी 'लुंपेन एलीमेण्ट्स' को अपनी तरफ़ करके अपनी ग़ुंडागर्दी चलाते रहना भर है। आश्चर्य तो यह है कि एक पुलिस अधिकारी जैसे उन्हें लताड़ सकता है वैसा साहस न तो राज्य सरकार ने दिखाया न ही केन्द्र सरकार ने।
विचारोत्तेजक विश्लेषण.
=================
बधाई
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
अच्छा लिखा है आपने।
आजादी के ६१ वर्षों में हिन्दी को इतना सम्मान भी नहीं मिल सका कि इसे कोई भी राज्य या संगठन प्रतिबंधित या अपमानित नहीं कर सके। बापू और लाल बहादुर शास्त्री ने जोर देकर कहा था कि हिंदी ही राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोकर रख सकती है। लेकिन आजादी के बाद सत्ता का सुख भोगने वालों ने राष्ट्रभाषा की चिंता कभी नहीं की। किसी ने यदि की भी, तो प्रयास ठोस साबित नहीं हुए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है।
यह और बात है कि इस दौरान हिंदी का लगातार विस्तार हुआ है, लेकिन इसके लिए सरकारी प्रयास नहीं बाजार की नीतियां बधाई के पात्र हैं।
Bahut acha likha. Hindi prdesh (up) m hindi ka parchm lehrane wale akhbar hindi ka jitna bedagark jitna kr rahe h utna aur koi nahi. In pr bhi kuch likhne ki avshykta h. pta hi nahi chlta ki hindi ka akhbar padh rahe h ki angreji ka. Ane wali peri k liye yeh nuksandeh h.
बेहद रोचक.
राज ठाकरे की समस्या अलग है. वह अपनी लकीर तो बडी नहीं कर सका, तो जैसा कि हर नेता करता है, उसनें दूसरों की लकीर छोटी करना चाही, या मिटा ही देना चाही.
राज ठाकरे पर मेरा पोस्ट पढें -
गुड्डी, महानायक और मराठी माणूस-
www.amoghkawathekar.blogspot.com
भाषा पुल बने एक गम्भीर एवं विचारणीय लेख है ।
रामेश्वर काम्बोज हिमांशु
Post a Comment