प्रसिद्ध कथाकारा जयंती रंगनाथन के उपन्यास 'औरतें रोती नहीं' की दूसरी कड़ी
प्रथम कड़ी में आपने पढ़ा-
मन्नू श्याम के भाई ज्ञान की पत्नी है। ज्ञान की मौत के बाद श्याम ने उसे सहारा दिया और मन्नू को मिला आसरा, हर तरह का। श्याम ने शादी की रूना से, लेकिन जल्द ही अनुमान हो गया कि रूना के सपने और ख्वाहिशें अलग है। एमरजेंसी के दौरान श्याम की बदली एक ऐसे कस्बे में होती है, जहां उनकी मुलाकात कमल नयन से होती है। कमल नयन एक वेश्या शोभा से शादी कर श्याम के घर ले आते हैं। आगे की कहानी-
शोभा शांत थी। चाय बनाया, नाश्ता बनाया। श्याम का मन ही नहीं किया कि दफ्तर जाएं।
वे यूं ही निकल गए पैदल-पैदल, मंदिर और आगे जंगल। पगडंडियों से होते हुए। चलते रहे बस चलते रहे। जंगल के बीचोबीच एक झरने के किनारे पुराना सा मंदिर था। अहाते में कमर तक पीली धोती चढ़ाए एक बाल ब्रहृमचारी चंदन घोंट रहा था। श्याम को देख उसने हाथ रोक लिया।
श्याम हांफ से गए थे। इतना चलने की आदत नहीं रही। ना जाने क्या सोच कर बालक एक लोटे में पानी ले आया। वे गटागट पी गए। छलक कर पतलून में आ गिरा। श्याम ने कुछ रुक कर पूछा,'क्यों छोरे, कुछ खाने का इंतजाम हो जाएगा? रूखा-सूखा कुछ भी चलेगा।'
बालक लोटा नीचे छोड़ दौड़ता हुआ मंदिर के अंदर घुस गया। पांच मिनट बाद निकला तो एक बड़ी उम्र केलंबी दाढ़ी वाले साधू के साथ। नंगे पैर, ऊंची रंग उड़ी भगवा धोती, नग्न बदन। पूरे बदन पर भभूत का लेप। सिर के बाल जटा जूट से। आंखें भक्ख लाल। श्याम क्षण को डर गए। कौन है ये? कपाल साधक? सुन रखा था कि इस जंगल में नर बलि देनेवाले आदिवासी भी हैं।
श्याम उठ खड़े हुए। साधू ने बैठने का इशारा किया। वे खुद श्याम के बिलकुल सामने आलतीपालती मार कर बैठ गए।
आंखें बंद। खोलीं, तो मुलायम आवाज में पूछा,'बच्चा, कैसे आना हुआ?'
श्याम हड़बड़ा गए,'महाराज, बस ऐसे ही घर से निकला, रास्ता भटक गया, तो इधर चला आया।'
साधू जोर से हंसने लगे,'ऐसा कहो कि महादेव ने तुम्हें बुलाया है। बच्चा, तुम सही वक्त पर आए। आज शाम ही हमारा डेरा उठने वाला है यहां से। चले जाएंगे वहां, जहां स्वामी आवाज देंगे... बम बम भोले...' साधू ने आंख बंद कर लंबी डकार ली और जोर से कहा,'अरे ओ लुच्चे की औलाद, ए नित्यानंद... क्या बनाया है रे आज खाने को?'
बालक दौड़ता हुआ आया और उनके चरणों को छू कर बोला,'बाबा, आटा गूंध लिया हूं। दूध रक्खा है...'
'ऐ मूरख... देखता नहीं अतिथि आए हैं। दूध-रोटी खिलाएगा? चल, जल्दी से आलू उबाल। आज तेरे हाथ के आलू के परांठे जीमेंगे महाराज। घी पड़ा है कि भकोस लिया तेने?'
'जी। घी डाल कर परांठे बना लूंगा। दस मिनट लगेंगे महाराज।'
बालक कूदता हुआ चला गया। साधू फैल कर बैठ गए। कमर सीधी कर चिलम सुलगा ली और श्याम की आंखों में सीधे देखते हुए बोले,'हमें ऐसा-वैसा ना समझ बच्चा। हम पिछले पचास साल से गुरूदेव की साधना कर रहे हैं। याद नहीं कहां जन्म हुआ... हां पता है बच्चे, मरना यहीं है गुरूदेव केचरणों में... अलख निरंजन...' साधू ने इतनी ऊंची गुहार लगाई कि पास के पेड़ पर बैठे पंछी चहचहा कर उड़ गए।
श्याम ने घड़ी देखी। तीन बजने को आए। सुबह के निकले हैं। लौटने में जल्दी नहीं करेंगे, तो राह ही भटक जाएंगे। दिन में जंगल का यह तिलिस्मी रूप है तो रात में क्या होगा?
साधू ने जैसे उनके मन की बात समझ ली, 'जाने की सोच रहे हो बच्चे? चिंता ना करो। हम तुम्हें रास्ता बता देंगे। दिखाओ तो अपना मस्तक... चिंता की रेखाएं हैं। अच्छा चलो हाथ की लकीरें पढ़ते हैं।'
श्याम का कतई विश्वास नहीं था हाथ बंचवाने में। रूमा ने कितनी बार कहा अपनी कुंडली बनवा लो, दिल्ली में एक अच्छे पंडित है, बंचवा लेंगे। उन्होंने मना कर दिया। लेकिन साधू ने जब उनका दाहिना हाथ खींच हथेली अपनी गोद में धर लिया, तो वे कुछ कह नहीं पाए।
अचानक उनकी हथेली अपनी पकड़ से निकल जाने दी साधू ने और गंभीर आवाज में बोले,'अपनी जनानी से परेशान हो बच्चा। लेकिन मुक्ति नहीं मिलेगी। वो ही बनेगी तुम्हारे स्वर्गवास का कारण। बच्चों से सुख नहीं है तुम्हें। लडक़ा है, ठीक निकलेगा। लड़कियां... बड़ी की जिंदगी तुम्हारे जैसी होगी। अधेड़ उम्र के बाद मिलेगा साथी। संभल के रहना बच्चा, एक औरत आ रही है तुम्हारी जिंदगी में। बहुत मुश्किलें साथ लाएगी। उम्र में छोटी। तबीयत सही नहीं रहेगी। बाबा का नाम लो सुबह-शाम।
श्याम तुरंत हाथ बांध कर खड़े हो गए। माथे पर पसीना। तलब हो आई एक सिगरेट पीने की। मन हुआ साधू के हाथ से चिलम ले कर एकाध काश मार ही लें।
कहां फंस गए? पता नहीं बालक खाना बना कर खिला रहा भी है या नहीं?
पांचेक मिनट बाद बालक दो बड़ी-बड़ी कांसे की थाल में गरम रोटी रख गया। रोटियां मोटी थी, पर घी से तर। साथ में कटा हुआ प्याज, आम की चटनी और लोटे में पानी। श्याम खाने पर ऐसे टूटे, जैसे बरसों बाद नसीब हुआ हो। साधू हंसने लगा। उसने अपने पुष्ट हाथों में रोटी रख उसका चूरा सा बनाया और मुंह में पान की तरह दाब लिया।
एक के बाद पांच रोटियां खा गए श्याम। आलू के पिठ्ठे से भरी रोटी। कच्ची मिर्च की सोंधी खुशबू और घी की मदमाती गंध। इतना स्वाद तो खाने में पहले कभी आया ही नहीं। ऊपर से झरने का निर्मल मीठा पानी। तो इसे कहते हैं वैकुंठ भोजन।
साधू खा पी कर वहीं लेट गया। डकार पर डकार। उसने हुंकारा भर कर कहा,'बच्चे, आज तो तुमने गुरूदेव का प्रसाद चख ही लिया। बड़े विरलों को ही मिलता है उनका प्रसाद। अब घर जाओ बच्चा। सब अच्छा होगा...'
क्षण भर बाद ही आंखें बंद कर साधू खर्राटे लेने लगे। बालक प्लेट उठाने आया। साधू ने प्लेट में खाना खा उसी में हाथ धो कर थूक दिया था। लडक़े ने बुरा सा मुंह बनाया और श्याम के सामने साधू को जोर की लात मारी।
श्याम हतप्रभ रह गए। साधू की आंख नहीं खुली। लडक़ा हंसते हुए बोला,'बिलकुल बेहोश हैं साब। अब शाम को आंख खुलेगी। इस बीच गरदन भी काट डालूं, तो ये उठेगा नहीं साब।'
वाकई साधू परमनिद्रा में लीन थे। खर्राटों की उठती-गिरती लय के साथ उनका भारी बदन हाथी के शरीर की तरह झूम रहा था। बालक झूठन उठा कर जाने लगा, तो श्याम ने पूछ लिया,'यहां से बाहर जाने का रास्ता बताओगे? महाराज कह रहे थे कि यहां से सीधा रास्ता है।'
'इनको क्या पता साब। ये इधर थोड़े ही रहते हैं। अफीम की पिनक में कुछ भी बोल जाते हैं। आप ऐसा करो, ये सामने जो पगडंडी है, उससे हो कर निकल जाओ। इससे ज्यादा तो मैं भी नहीं जानता। यहां कोई नहीं आता साब। बस हम दोनों रहते हैं। हम चले जाएंगे, तो मंदिर सूना पड़ा रहेगा।'
श्याम झटपट खड़े हो गए। शाम ढलने लगी थी। बस जरा सी देर में अंधेरा हो जाएगा, तो पांव को पांव नहीं सूझेगा। झरने के पार पहुंचने के बाद श्याम असमंजस में खड़े हो गए, अब आगे कैसे जाएंगे? बहुत दूर उन्हें रोशनी सी नजर आ रही थी। टिमटिमाता हुआ दिया। वे उसी दिशा में चल पड़े। पास गए, तो देखा आठ-दस युवक थे। हाथ में लाठी-भाला लिए। कइयों की दाढ़ी बढ़ी हुई। श्याम डर गए। कौन हो सकते हैं? डाकू-लुटेरे? इनसे जा कर कैसे पूछें कि रास्ता बताओ।
श्याम को पास आता देख वे युवक खुद ही चुप हो गए। एकदम नजदीक जाने के बाद श्याम ने देखा कि उनमें से एक युवक जमीन पर चित्त पड़ा था। पैर में घाव। खून केथक्कों के बीच लेटा बेजान युवक। श्याम सकते में आ गए। कुछ हकलाते हुए पूछा,'मैं रास्ता भटक गया हूं। बता सकते हैं क्या?'
उन युवकों के चेहरे पर गुस्सा था। तमतमाया हुआ चेहरा। एक ने कुछ चिढ़ कर कहा,'नहीं पता। यहां मरने क्यों चले आए?'
उसे शांत किया एक लंबे कद के शालीन युवक ने,'इन पर गुस्सा हो कर क्या मिलेगा तुम्हें? अरे भाई, रास्ता तो जरा टेढ़ा है। सामने टीले तक सीधे जाओ, फिर ढलान से उतर जाओ। बायीं तरफ से हो कर सीधे निकल जाना...'
श्याम ने सिर हिला दिया, पर समझ कुछ नहीं आया। वे अचानक पूछ बैठे,'ये... इन्हें क्या हुआ? घायल कैसे हो गए?'
किसी ने तुरंत कोई जवाब नहीं दिया। श्याम नीचे बैठ कर घायल युवक का नब्ज टटोलने लगे। सांस बाकि थी। स्कूली दिनों में डॉक्टर बनने की उत्कठ इच्छा थी। दूर के चाचा थे भी डॉक्टर। उनके साथ कई बार श्याम हो लेते थे मरीज को देखने। यहां तक कि छोटे-मोटे ऑपरेशन करने भी।
नीचे बैठते ही साथ वे भांप गए कि युवक को गोली लगी है। पांव में। पता नहीं क्या हुआ उन्हें। झटपट उन्होंने उसका पैंट खींच कर उतारा और उसे कस कर जांघों में बांध दिया। घुटने की नीचे लोथड़ा सा निकल आया था। अगर कहीं से गरम पानी और चाकू मिल जाता तो कुछ कर लेते। अचानक उन्हें मंदिर का ख्याल आया। बालक नित्यानंद वहीं होगा। उन्होंने कुछ रौबीले आवाज में कहा,'इसे उठा कर मेरे साथ मंदिर तक आओ। वरना ये बचेगा नहीं।'
पता नहीं क्या बात थी उनकी आवाज में कि उनके हुक्म की तुरंत तामील हुई। उस युवक को कंधे पर लाद जैसे ही श्याम मंदिर के अहाते में पहुंचे, नित्यानंद भागता हुआ आ गया,'क्या हो गया? आप काहे फिर आ गए? गुरू जी को तो होश ही नहीं आया अभी तलक।'
श्याम ने कुछ जोर से कहा,'चल बकवास छोड़। एक बड़े बरतन में पानी गरम कर ला। सुन... बच्चे, सब्जी काटने वाला चाकू है ना उसे आग में तपा कर ले आ। कुछ कपड़े पड़े हों तो लेते आना।'
अगले एक घंटे में श्याम ने एक व्यक्ति की जिंदगी की डूबती नब्जों को नए सिरे से प्राण फूंक लौटा दिया। थक कर पस्त हुए, तो किसी ने उनकेहाथ चाय की प्याली पकड़ा दी। तब जा कर उन्होंने पाया कि रात घिर आई है। हवा चलने लगी है। नित्यानंद ने मंदिर में दिए जला दिए। हलकी रोशनी।
सभी युवक पस्त से हो चले थे। उनमें से एक श्याम के पास आ बैठा। वही लंबे कद का शालीन युवक प्रवीर। अपने हाथ की जली सिगरेट श्याम को थमाता हुआ बोला,'यू आर लाइक गॉड सेंड। हम सोच भी नहीं सकते थे कि विनोद को बचा पाएंगे।'
श्याम ने सिगरेट की कश ली। अच्छे ब्रांड की सिगरेट थी। तंबाखू की सुगंध से उनके नथुने फडक़ने लगे। इस वक्त जैसे उन्हें किसी की चिंता नहीं थी। ना घर लौटने की, ना शोभा की ना अंधेरे की। अच्छा लग रहा था इस तरह अनजाने युवकों के साथ एक अनजानी सी जिंदगी जीना।
वे युवक नक्सली थे। महाराष्ट्र से भाग कर यहां पहुंचे थे, छिपते-छिपाते। बीस साल के युवक। देश की तसवीर को बदल देने का जज्बा रखने वाले गरम खून से लबालब।
'यू ऑर सो इग्नोरेंट।' प्रवीर ने कुछ जज्बाती हो कर कहा,'आपको पता है देश लहूलुहान हो चुका है? हर तरफ न्याय की गुहार लगानेवालों का गला घोंटा जा रहा है। हम अपनी मरजी से बगावती नहीं बने। किसने बनाया हमें? बोलिए... आपको पता भी है इमेरजेंसी के पीछे का सच क्या है? कत्ल, दहशत और तानाशाही। पिछले तीन महीने से हम भाग रहे हैं। हमें पता है कि इसी तरह भागते-भागते हम दम तोड़ देंगे एक दिन।'
श्याम सोचने लगे... वाकई वे देश-दुनिया से कट गए हैं। कमलनयन कभी कभार चरचा कर लिया करता था जय प्रकाश नारायण और उनके आंदोलन की। पर श्याम ने कभी रुचि नहीं ली। उनके लिए आपातकाल का मतलब था समय से ट्रेन का आना, दफ्तर में समय पर जाना और समय पर राशन मिलना। अपनी छोटी सी दुनिया के छोटे से बाशिंदे। बीवी, घर-परिवार इससे ज्यादा क्या सोचे? पांच साल में दो बच्चे हो गए हैं। खरचे बढ़ गए। नौकरी ऐसी कि एक जगह टिकने की सोच नहीं पा रहे। जबसे इस कस्बे में आए हैं खानेपीने केही लाले पड़ गए हैं। ऐसे में देश की सोचे भी तो क्या? एक वक्त था जब वे खुद आइएएस बन कर मुख्य धारा में बहना चाहते थे। अब लगता है नसों में खून में उबाल ही नहीं रह गया। खून है कि पानी। शायद वो भी नहीं। होगा कोई गंदला, गंधहीन और नशीला द्रव।
उस रात उन्हें लगा कि जिंदगी वो नहीं जो वे जी रहे हैं। जिंदगी तो जी रहे हैं प्रवीर, विनोद, कश्यप, लखन और वेणु। जोश से लबालब। आग लगा दो इस दुनिया को ये दुनिया बेमानी है-- आग अंतर में लिए पागल जवानी... आग...आग...आग।
संसार को बदलना है। अन्याय से लडऩा है। कानून किसी की बपौती नहीं। हम भी जिएंगे खुल कर अपनी तरह से।
साधू महाराज उसी तरह बेहोश पड़े थे। लडक़ों ने बहला फुसला कर नित्यानंद से परांठे बनवा लिए थे और अब चिलम का घूंट लगाए बेसुध हो रहे थे।
आधा चांद, मंदिर के पास बूढ़े बरगद के ऊपर टंगा हुआ चांद। श्याम ने उस रात जी भर चांद को देखा, मधुमालती की सुगंध को अंतस में भर प्रण किया कि वे बेकार सी जिंदगी नहीं जिएंगे। कुछ तो अर्थ हो, मकसद हो सांस लेने का।
मंदिर के अहाते में पूरी रात बीत गई। हलका सा उजास हुआ, तो श्याम उठ खड़े हुए। प्रवीर ने ही पूछा,'हम साथ चलें? दो चार दिन। कोई दिक्कत तो नहीं होगी?'
बिना सोचे समझे श्याम ने हां कह दिया। रास्ता ढूंढना उतना मुश्किल ना था। घर की राह आते ही श्याम आशंका में पड़ गए। कमलनयन ने आज लौटने की कही थी। शोभा ने पता नहीं रात क्या किया होगा? घर के सामने ही शोभा दीख गई। बरामदे में गीले बाल सुखाती हुई। श्याम को इतने सारे युवकों के साथ देख कर थोड़ा अचकचा गई। श्याम ने अटपटा कर कहा,'चाय पिलाएंगी?'
प्रवीर ने टहोका, तो श्याम हड़बड़ा कर बोले,'मेरे दोस्त की बीवी है। यहीं रहते हैं दोनों।'
शोभा चुपचाप सबके लिए चाय और मठरियां ले आई। नहा-धो कर श्याम दफ्तर के लिए निकल गए। शोभा को यह भी बता कर नहीं गए कि खाना पकाओ, नहीं पकाओ। लडक़े यहीं रहेंगे या चले जाएंगे।
दिनभर इंतजार करते रहे कि कमलनयन लौट आएगा तो आगे की भूमिका वह संभाल लेगा। शाम तक वह नहीं आया। श्याम बैंक से लौटे। सारे लडक़े उनके तीन दीवारों वाले घर में जमे थे। विनोद की तबीयत ठीक लग रही थी। पूरे कमरे में सिगरेट का धुआं। कागज इधर-उधर बिखरे हुए। शोभा रसोई में थी। साग चुन रही थी। श्याम को देखा तो चेहरे पर बेबसी के से भाव आए। श्याम को दया आ गई। साथ बैठ गए और धीरे से बोले,'देखो, कमलनयन के लौटते ही तुम दोनों अलग कमरा ले कर चले जाना। तुम्हें आराम मिलेगा। इस तरह मेहमान की तरह कब तक रहोगी?'
शोभा ने पलकें उठा कर श्याम की तरफ देखा। चेहरे पर अजीब से भाव। उसके होंठ फडक़े। वह धीरे से बोली,'वे नहीं आएंगे अब।'
'क्या? क्यों? तुमसे कुछ कह कर गए क्या? बोलो तो?' श्याम सिटपिटा से गए। आवाज शायद थोड़ी ऊंची हो गई।
शोभा शांत थी। उसी तरह साग चुनने में लगी रही। रुक कर बोली,'समझ में तो आ ही जाता है ना श्याम जी। उनका इस तरह से जाना... पल्ला झाड़ कर ही तो गए हैं। हमें क्या पता नहीं? आप बताओ, आपको तो बता कर गए होंगे कि ... हमारा क्या करना है?'
श्याम को गुस्सा आ गया। सब पर। पहले कमल नयन पर, फिर अपने आप पर भी। अगर शोभा सच कह रही है तो क्या करेंगे उसका? वापस जाए वहीं जहां से आई थी?
'मुझे कुछ नहीं पता। ... पता करने की जरूरत भी नहीं है।' वे भन्ना कर उठ गए वहां से।
सीधे ढाबा जा कर सबके लिए रोटी और दाल मखानी बनवा लाए। लडक़े खा-पी कर सो गए। उसी एक तीन दीवारों वाले कमरे में पांच लडक़े, एक अधेड़ आदमी और शोभा-- इतनी जगह भी नहीं थी। गनीमत थी कि गरमियों के दिन थे। वरना उनकेपास इतने आदमियों के लिए बिस्तर और रजाइयां कहां थी?
शोभा रसोई के बाहर फैल गई। श्याम को लग रहा था इतने मर्दों के रहते उसे रसोई में सोना चाहिए। एक आदमी के लिए वहां जगह कम नहीं।
क्रमशः......................
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
7 comments:
आभार इस प्रस्तुति के लिए.
धन्यवाद एक सुन्दर कहानी के लिये
kahani padhne ka sabr muzme kum hee hai par pata nahi kya bat thee jo ise poora padh liya. Dhanyawad .
बहुत बिढ़या शब्दिचत्र। बधाई।
www.gustakhimaaph.blogspot.com
बंधू आप बहुत परिश्रम कर रहे हैं ,पाठकों को सुविधा उपलव्ध करवा रहे है ,किसी प्रसिद्द उपन्यास को टाईप कर पाठकों को उपलव्ध कराना साधारण काम नहीं है ,इसके बाद भी दूसरों को पढने का वक्त निकल लेते हैं -मैं आपसे बहुत प्रभावित हुआ
ati sundar, bahot badhiya chitran, dhnyabad
sir apke lekh ko padhkar kafi acha lga aur ek seekh bhi milti h. hume bhi apki trh bane.asa app ashirvad dijay
Post a Comment