Friday, September 26, 2008

'औरतें रोती नहीं' की आखिरी किश्त

प्रसिद्ध कथाकारा जयंती रंगनाथन के उपन्यास 'औरतें रोती नहीं' की अंतिम कड़ी


पिछली कड़ी में आपने पढ़ा-
गांव से रिश्तेदार के आते ही कमल नयन शोभा को श्याम के पास छोड़ चला जाता है। शोभा को अहसास हो जाता है कमल नयन अब वापस नहीं आएंगे। बेखुदी में श्याम चल देते हैं जंगल की तरफ, वहां उनकी मुलाकात होती है नक्सली युवाओं से, जो एमरजेंसी में जान बचा कर इस तरह भाग आए हैं। श्याम उन्हें अपने संग ले आते हैं। युवकों का रवैया शोभा के साथ ठीक नहीं। जब श्याम को पता चलता है कि शोभा खुद उनके सामने अपना जिस्म परोस रही है, वे वहां से भाग जाते हैं। आगे की कहानी:


शोभा से इसके बाद उनकी कोई बात नहीं हुई। अगले दिन भी वे इसी तरह बस चाय भर पी कर दफ्तर चले गए। ऊब और अशांत दिन। शाम तक वे झल्ला पड़े खुद पर कि क्या मुसीबत मोल लिया?
घर लौटना ही था। ऊपर से सब शांत लगा। पांच लडक़ों में से दो ही घर पर थे प्रवीर और विनोद। शोभा भी गायब थी। देर से लौटी चौकड़ी। एकदम बदले हुए हालात। शोभा हंस रही थी सबके साथ। ठिठोली हो रही थी। हंसी-ठठ्ठा। अचानक मजाक-मजाक में एक ने शोभा का आंचल ही पकड़ लिया। पल्लू खुल कर जमीं पर गिर गया। अपनी देह ढकने के बजाय शोभा जमीन पर बैठ कर हंसने लगी। श्याम से रहा ना गया। दिन दिन में यह क्या हो गया? इतनी बेहयाई? उनकी आंखों के सामने? अचानक वे फट पड़े,'क्या हो रहा है? क्या समझ के रखा है तुम लोगों ने? क्या है ये चकला खाना?'
शोभा एकदम से चुप हो कर अंदर चली गई। सन्नाटा। प्रवीर ने उनके पास आ कर कंधे पर हाथ रख कर कहा,'बड़े दिनों बाद लडक़ों का मूड सही हुआ है। रहने दीजिए।'
श्याम को एकदम से गुस्सा आ गया,'क्यों रहने दूं भई? क्या लगती है वो तुम्हारी, किस हक से छेड़ रहे हो उसे?'
प्रवीर की आवाज पत्थर की तरह कठोर हो गई,'यूं तो सर, वह किसी की कुछ नहीं लगती। और लगने को सबकी लगती है। आप क्यों इतना परेशान हो रहे हैं? उनसे बियाह आपकेमित्र ने किया है, आपने तो नहीं। फिर एक बात बता देते हैं, वे छिड़वाना चाहती हैं, तभी ना... '
एकदम से श्याम चक्कर खा गए। तो क्या सबको पता चल गया कि शोभा की असलीयत क्या है?
वे दनदनाते हुए रसोई में गए। शोभा जमीन पर बैठी स्टोव जलाने की कोशिश कर रही थी। श्याम को देखते ही उसने अपने अस्तव्यस्त कपड़े ठीक करने की कोशिश की। श्याम को ना जाने क्या हुआ, उसका स्टोव जलाने को उठा हाथ पकड़ कर मरोड़ दिया। शोभा कराह उठी। श्याम उग्र हो गए,'दिखा दी ना अपनी जात? एक दिन भी सब्र नहीं हुआ? धंधा करना है तो यहां क्यों बैठी है? लौट कर चली क्यों नहीं जाती?'
शोभा की आंखों में दर्द से आंसू छलक आए थे। पर अपनी आवाज को धीमी रख कर बोली,'क्यों...आप करवाना चाहते हो क्या? सबने करवा लिया, अब आप भी करवा लो श्याम जी। अपनी मरदानगी हमारा हाथ मोड़ कर ही दिखाना चाहते हो क्या?'
श्याम हक्केबक्के रह गए। शोभा ने उसी तरह धीमी आवाज में कहा,'आप हमारे बारे में जानते ही क्या हो? यही ना कि हम शरीर बेचते हैं। आज इन लडक़ों से जरा हंसी क्या कर ली, सोचा इन्हीं को बेच रही हूं अपना शरीर। है ना? सच बताएं साहब... हमको आप जैसे लोगों की तरह दो बातें करनी नहीं आती। एक ही चेहरा है हमारा। हमें बताने की जरूरत ही नहीं पड़ी। इन लडक़ों को आप ही पता था कि हम क्या हैं? वे तो आपको भी दल्ला ही समझ रहे हैं। पूछ भी रहे थे कि रेट आप तय करेंगे कि हम खुद ही...हमें बताओ हमारा क्या होगा अब? शादी करके भी कौन सा सुख देख लिया? अपने खाने-पीने के एवज में रोज ही तो शरीर देते थे उन्हें। बस उससे ज्यादा क्या रिश्ता था हमारा साहिब जी से?'
कहते-कहते हांफने लगी शोभा। फिर खुद ही चुप हो गई। श्याम सिर झुकाए बैठे रहे, जमीन पर। चेहरा पसीने से तरबतर। शोभा ने अपना हाथ उनकेहाथ पर रखा,'हमारी वजह से शर्मिंदा मत होओ। हम आपके घर के बहू-बेटियों की तरह नहीं है। हम बचपन से मरदों के बीच जीते आए। डर नहीं लगता हमें। हमसे क्या छीन लेंगे? हमें बंध कर जीना नहीं आता साहिबजी। बंधे तो लगा सांस ही रुक गई है। अब जीने के लिए कुछ तो करना पड़ेगा ना... हमने इन छोकरों से दो सौ रुपए लिए हैं। आप कहें तो आधे आपको दे दिए देते हैं। घर तो आपही का है ना...'
श्याम के अंदर उबाल सा आ गया। लगा शाम का खाया-पिया उलट देंगे। किसी तरह अपने को समेट कर उठे और बाहर चले आए। तीन दीवारों वाले कमरे का एक हिस्सा भी उनका जाना पहचाना नहीं लग रहा था। अनजाने से पांच युवक। अपनी धुन में खोए। वे घर से बाहर निकल आए। सीधे कदम स्टेशन की तरफ बढ़े। वहीं प्लेटफॉर्म पर बैठ कर उन्होंने खूब उलटी की और पस्त हो कर सीमेंट की बेंच में लेट गए।

घंटे भर बाद होश आया, तो जेब टटोल कर देखा। पर्स था। अठन्नी निकाल कर स्टेशन की चाय पी और दो खारी खाई। इस स्टेशन से हो कर तीन ट्रेन गुजरती थीं। सुबह छह बजे की एक्सप्रेस दिल्ली जाती थी। दस बजे पेसेंजर दिल्ली होते हुए जम्मू तक जाती थी और रात ग्यारह बजे की ट्रेन झांसी। बीच-बीच में मालगाडिय़ां आती-जाती रहती थीं।
दस बजे तक श्याम प्लेट फॉर्म पर ही बैठे रहे। ट्रेन वक्त पर आई। देखते-देखते उनके आसपास शोरगुल सा भर गया। एक अजीब सी चिरपरिचित गंध। खाने-पीने, पसीने, शौच और कोयले की गंध। श्याम उठे और बड़े आत्मविश्वास के साथ पग रखते हुए ट्रेन के अंदर बैठ गए। छुट्टियों के दिन अभी शुरू नहीं हुए थे। ट्रेन में काफी जगह थी। खिडक़ी के पास खाली जगह देख, वे वहीं बैठ गए। रास्ते में टिकट चैकर को पैसे दे कर टिकट बनवा लिया और अगले दिन आनन-फानन दिल्ली लौट आए।

श्याम लौट आए दिल्ली। दिमाग में तमाम प्रश्न लिए। शोभा ने क्या किया होगा? एक तरह से वे भाग ही तो आए? किसी को कुछ बताया भी नहीं। बैंक में लिख भेजा कि उन्हें पीलिया हो गया है। संयोग ऐसा हुआ कि दिल्ली पहुंचते ही उन्हें पता चला कि उनका ट्रांसफर दिल्ली से सटे गाजियाबाद के एक ब्रांच में हो गया है। श्याम ने राहत की सांस ली।
बहुत कुछ था जो छूट गया। कपड़े, किताबें, घर का दूसरा सामान। किराया उन्होंने तीन महीने का एडवांस में दे रखा था। दो महीने का किराया पानी में गया, सो गया। दफ्तर में छूटी उनकी व्यक्तिगत चीजें तो पार्सल से आ ही गईं।
श्याम बहुत बेचैन हो गए। मन करता ही नहीं कि दफ्तर जाएं। घर में भी बहुत अच्छा माहौल नहीं था। रूमा के साथ रहने की आदत छूटी तो वापस निबाहने में दिक्कतें आने लगीं। बच्चे जिद्दी हो गए थे। अनिरुद्घ की शैतानियां उनसे बर्दाश्त ही नहीं होती थी। हमेशा उज्जवला उसका शिकार बनती। अपनी छोटी बहन को मारने-पीटने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ता अनिरुद्घ। ऊपर से इस बार रूमा ने एक नया तमाशा शुरू किया-- उज्जवला को ले कर। बेटी का रंग सांवला था। छोटा कद और घुंघराले बाल। रूमा बाप-बेटी को एक साथ लपेट कर ताने कसती कि बेटी का रंग दादी पर गया है। इस रंग के तो उनकी तरफ के कौए भी नहीं होते। श्याम देख रहे थे कि उज्जवला के अंदर हीन भावना घर करती जा रही है। दुखी, त्रस्त बच्ची। जो अब बोलते में हकलाने लगी थी।
श्याम को लगने लगा, जिंदगी व्यर्थ जा रही है। उस आग का क्या करें, जो कुछ दिनों पहले चलते-फिरते युवकों ने उनके सीने में लगा दिया? यह भी लगता कि वे एक बेसहारा स्त्री को बीच राह छोड़ आए हैं। उनमें इतनी हिम्मत क्यों नहीं थी कि शोभा को एक राह दिखला कर जाते? क्या किया होगा शोभा ने? लगता शोभा केसाथ उन्होंने गलत किया। उस महिला को अपनी कसौटियों पर मापना उनकी भूल थी। जितना सोचते, उतना ही तनाव में आ जाते। क्या वापस लौट जाएं? फिर? कोई रास्ता नजर नहीं आता। फिर खीझ उठते कि वे एक बेमानी विषय पर इतना क्यों वक्त बरबाद कर रहे हैं? उनसे मिलने से पहले भी शोभा जिंदा थी अब भी रहेगी। वह ऐसी स्त्री नहीं, जो पगपग पर पुरुष का सहारा ढूंढ़ती है।
वे जिस माहौल में रहते थे, वहां सीने में आग लगे या तूफान, कोई फर्कनहीं पड़ता था। बस हर समय दाल-रोटी की चिंता में घुलते लोग। स्कूटर, गैस के बाद अब फ्रिज लेने की चिंता। देश दुनिया से बेखबर। आपातकाल है तो है, तुम्हें क्या दिक्कत हो रही है? समय पर बैंक जाओ, ड्यूटी बजाओ। वे कोई और लोग होते हैं जो क्रांति की बात करते हैं। क्रांति करने से पहले अपना पेट भरो, अपने घरवालों की सेहत का ख्याल करो, फिर आगे की सोचना...
श्याम को उन्हीं दिनों गांव जाना पड़ा। रूमा नहीं आई। श्याम के आते ही दो-चार बार के संसर्ग के बाद ही एक बार फिर से वह मां बनने की राह चल पड़ी। इस बार अनिच्छा से। यह कहते हुए कि अच्छा होता जो मैं कल्लो उज्जवला के जनम के बाद ऑपरेशन करवा छोड़ती। एक बेटा हो तो गया है, अब काहे के और बच्चे? परेशान कर डाला है। कौन संभालेगा बच्चों को? मेरे बस का नहीं। श्याम को मजबूरी में एक पूरे वक्त का नौकर रखना पड़ा।

गांव में उनके छोटे चाचा के बेटे ज्ञान की शादी थी। पापा का खास आग्रह था कि श्याम आएं।
श्याम कई दिनों बाद अपने घर जा रहे थे। अजीब सा अहसास था। पापा से उनकी कम पटती थी। हमेशा तनाव सा बना रहता। श्याम ने घर जाना कम कर दिया, तो सबसे ज्यादा नुकसान मां और छोटी बहन सरला को हुआ। मां उनसे भावनात्मक स्तर पर जुड़ी थीं। बल्कि मां केलिए श्याम ने कई लड़ाइयां लड़ी थीं। दादी के आतंक से कई बार मां को बचाया। उनकी फटी पुरानी धोतियों की पोटली बना पापा केसामने रख आते और कहते कि मेरी मां इन कपड़ों में दिखती है, मुझे शर्म आती है, पता नहीं आपको क्यों नहीं आती। जब सरला होनेवाली थी, श्याम अपनी मां को ले कर बहुत भावुक हो जाया करते थे। अपने किशोर बेटे के सामने पेट छिपा कर घूमती मां। श्याम सबसे छिपा कर मां के लिए कभी दोनेवाली चाट ले आते, तो कभी परांठे के ऊपर खूब मलाई और पिसा गुड डाल कर रोल सा बना उनके मुंह में ठूंस देते। श्याम को मां पर नहीं, पिता पर गुस्सा आता। इस उम्र में मां के साथ ये ज्यादती? नसबंदी क्यों नहीं करवा लिया?
मां को दवाखाने वही ले जाते, अपनी साइकिल पर। मां लंबा घूंघट करके निकलती। घर के सामने साइकिल पर बैठते हिचकिचाती। सास देख लेंगी, तो ना जाने क्या कहेंगी? वैसे भी जवान लडक़े के साथ साइकिल पर जाती वे अच्छी थोड़े ही ना लगती हैं? श्याम जिद करते। धूप में मां पैदल जाए? फिर घर का इतना काम कि सुबह से शाम तक सिर उठाने की फुरसत नहीं।
सरला केपैदा होने के बाद मां की तबीयत भी गिरी गिरी रहने लगी। श्याम की कोशिश होती कि घर में कामों में वे उनकी मदद कर दें। लेकिन दादी को बिलकुल पसंद नहीं था कि श्याम भैंस दुहें, चूल्हा फंूकें या बहन को संभालें। श्याम ने कभी परवाह नहीं की। दादी को भी सुना देते कि वे बैठे-बैठे रोग पाल लेंगी, इससे अच्छा है कि अपनी बहू के साथ काम में लग जाएं। दादी पिताजी से शिकायत करती। पिताजी कर्कश आवाज में मां-बेटे को गाली देते। कभी कभार श्याम को इतना तेज गुस्सा आ जाता कि वे पलट कर पिता को सुना दिया करते।
गांव में स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद वे बनारस गए बीए करने। वहीं से कलेक्टर बनने का भूत सवार हुआ तो दिल्ली आ गए कोचिंग लेने। इसी बीच पिताजी और दादी ने शादी का इतना जोर डाला कि श्याम तो करनी ही पड़ी।

इस बार गांव और घर का आलम ही अलग था। घर का हाल बुरा था। मां बूढ़ी लगने लगी थीं। पिताजी के सिर पर सफेद बाल नजर आने लगे थे। श्याम चुपचाप जा कर कामकाज में लग गए। उनके बचपन के सखा और भाई ज्ञान की शादी थी। ज्ञान का मन पढऩे-लिखने में नहीं लगा। सो चाचा ने गांव में ही एक दुकान खुलवा दिया। गाहे बगाहे दुकान पर बैठ लिया करता था। मां के मुंह से ही सुना कि ज्ञानुवा को बहुत सुंदर दुल्हिनया मिली है।
शादी के चार दिन पहले ज्ञान ने श्याम को मन्नू से मिलवाया। बिलकुल साफ रंग की बेहद खूबसूरत छोटी सी खरगोश की तरह लगी मन्नू। उन आंखों में ना जाने क्या था कि श्याम ने आंखें ही चुरा ली।
वह अपनी सहेली के साथ चूडिय़ां खरीदने निकली थी। पहले से तय था कि वह ज्ञान की दुकान पर आएगी। पीले रंग की छींटदार साड़ी में मन्नू आई। श्याम को दया सी आ गई उस पर। जानतेबूझते इसके माबांप ज्ञान के पल्ले क्यों बांध रहे हैं? ज्ञान खिलंदड़ प्रवृत्ति का है। पीना पिलाना, औरतबाजी सारे शौक रखता है। चाची का मानना है कि शादी के बाद ज्ञान सुधर जाएगा।
श्याम को कम उम्मीद थी इस बात की। शादी से एक दिन पहले घटना घट गई। शुरुआत शायद दादी की तरफ से हुई-वे देखना चाहती थीं कि शादी में मन्नू को जो गहने दिए जा रहे हैं वे असली हैं या नकली। ना जाने किस बहाने से वे गहने वहां से निकाल सुनार को दिखा आईं, पर आते ही शोर मचा दिया कि गहनों में पीतल ज्यादा है, सोना कम।
खूब हल्ला हुआ। शादी रोकने तक की नौबत आ गई।
श्याम के पिता घर में सबसे बड़े थे। सुबह-सुबह मन्नू के घर के मर्दों ने आ कर अपनी पगडिय़ां पिताजी केकदमों पर उतार दिए। बेटी का मामला, इज्जत की दुहाई। दादी थीं की टस से मस नहीं हो रही थीं। आखिर तय हुआ कि ऊपर से दस हजार रुपए दिए जाएंगे।
श्याम को बहुत बुरा लग रहा था सबकुछ। वे कुछ कह नहीं पाए। फेरे के वक्त क्षण भर के लिए मन्नू के चेहरे से घूंघट हटा, तो श्याम को उसका आंसुओं से भीगा चेहरा दीख गया। उनके कान में बात पड़ी थी कि कल की घटना के बाद मन्नू शादी के लिए मना कर रही है। पर उसकी सुनता कौन?
श्याम शादी के तीन दिन बाद दिल्ली लौट आए। जाने से एक दिन पहले पिताजी से जम कर झगड़ा हुआ। पिताजी को शिकायत थी कि वे शादी के बाद अपने मां बाप को भूल गए हैं। पढ़ी-लिखी लडक़ी से तो गांव की लडक़ी अच्छी, जो ससुराल की तो हो कर रहे। श्याम तर्क देने के मूड में नहीं थे। पिताजी ने तो यहां तक कह दिया कि वे उन्हें अपना बेटा ही नहीं मानते।
बहुत कुछ हो रहा था उनकी जिंदगी में जो उनकेबस में नहीं था। जी चाहता था कि नौकरी-वौकरी छोड़ कुछ ढंग का काम करें। अपने लिए नहीं, समाज के लिए देश के लिए। लौटे तो दूसरे ही दिन खबर आई कि मन्नू के पिता ने आत्महत्या कर ली है। कर्ज के बोझ तले वे समझ नहीं पाए कि जिंदगी की गाड़ी आगे कैसे बढ़ाना है। गांव की जमीन गिरवी थी, उसे बेच पैसे दिए थे शादी में। मन्नू की मां तो पहले ही गुजर चुकी थीं। शादी के बाद मायका ही नहीं रहा।
साल भर बाद ज्ञान मन्नू को ले कर दिल्ली आया, तो काफी कुछ बदल चुका था। इमर्जेंसी हट चुकी थी। श्याम की दूसरी बेटी अंतरा का जन्म हो चुका था। श्याम ने क्रांति का इरादा मुल्तवी कर दिया था। जिंदगी ढर्रे पर चलने लगी। ऊबाऊ और नीरस सी जिंदगी। एक से सुर। एक से लोग।
ज्ञान के सपत्नीक आने की खबर से रूमा खुश नहीं हुई। कहां ठहराएंगे? देखभाल कौन करेगा? खर्चा कितना होगा जैसे तमाम सवाल। श्याम निरुत्तर थे। लेकिन ज्ञान को कह दिया था कि वो आ जाए।
मन्नू को देखते ही श्याम ने भांप लिया कि वह खुश नहीं है ज्ञान के साथ। सफेद चेहरे पर पीलापन। पहले से दुबला शरीर। आने के बाद ही श्याम को पता चला कि ज्ञान बीमार है। दो महीने से जीभ पर बहुत बड़ा सा छाला हो गया है, जो ठीक होने के बजाय फैलता ही जा रहा है। श्याम उसे ले कर एम्स गए, तो उनसे सीधे कह दिया गया कि जीभ की बायप्सी होनी है। श्याम को आशंका थी, कहीं ये कैंसर तो नहीं?
तो क्या ज्ञान को ले कर मुंबई जाया जाए? टाटा कैंसर अस्पताल से बढिय़ा और कौन सा होगा? दिल्ली में कैंसर के लिए अलग अस्पताल नहीं। बायप्सी का परिणाम आने तक सब तनाव में रहे। श्याम बेहद ज्यादा। क्योंकि रूमा से उन्हें किसी किस्म का सहयोग नहीं मिल रहा था। वह अकसर अपने कमरे में बंद रहती। तर्क देती कि अभी बच्चा हुआ है। वह बीमार आदमी के संग नहीं रहेगी।
श्याम ने बहुत समझाने की कोशिश की। रूमा का व्यवहार कठोर होता जा रहा था। ऑपरेशन की तारीख तय हो गई।
दो दिन पहले रूमा ने जिद की कि वे सप्ताह भर का राशन-पानी-सब्जी वगैरह ला कर रखे। फिर तो उन्हें फुर्सत नहीं मिलेगी। श्याम चलने को हुए, तो उनके साथ मन्नू और बच्चे भी तैयार हो गए। अनिरुद्घ और उज्जवला को स्कूटर पर आगे खड़ा कर और सहमती सी मन्नू को पीछे बिठा कर वे पहले ओखला सब्जी मंडी गए और वहां से आइएनए मार्केट आए। कोने की पर चाट की दुकान लगती थी। मन्नू के आने केबाद पहली बार उन्होंने उसे बाहर ले जा कर चाट खिलाया। अपने जेठ से बचते-बचाते और आंचल संवारते मन्नू ने जैसे ही गोलगप्पा मुंह में रखा, पचाक से पानी छलक कर उसकी साड़ी पर आ गिरा। श्याम की नजर पड़ी, तो जेब से अपना रूमाल निकाल कर दे दिया।
मन्नू के चेहरे पर दिनों बाद उन्होंने हंसी देखी। ढलका आंचल, खिला चेहरा और चेहरे पर लाज और ठिठोली की कशिश। श्याम ने देखा, तो देखते रह गए। कौन है ये शापित कन्या? इतनी आकर्षक, इतनी वांछनीय? मन काबू में नहीं। भावनाएं उछाल भर रही हैं। पल भर को मन्नू से उनकी नजरें मिलीं और श्याम को अपने तमाम प्रश्नों का उत्तर मिल गया।
बच्चे खापी कर खुश थे। श्याम ने उस शाम मन्नू को इंडिया गेट दिखलाया। इंडिया गेट की लॉन पर पांव सिकोड़ कर बैठी मन्नू के करीब बैठ गए श्याम। बदन की खुशबू और सामीप्यता को पूरी तरह अपने अंदर भर लेना चाहते थे। पता नहीं ऐसा फिर कभी कर पाएं भी या नहीं?

उस वक्त अगर जमीं धंस जाती, धडक़नें रुक जाती, आसमां टूट पड़ता तो भी अफसोस ना होता। एक पल में भी तो जीने का आनंद लिया जा सकता है। उसके लिए देह का मिलना क्या जरूरी है?
लेकिन वे पल कुछ समय बाद वहीं बिखरे से रह गए। लौटे तो एक हादसा हो चुका था।

ज्ञान का इस तरह से मरना बहुत समय तक श्याम को मंजूर ना हुआ। समय से पहले। कुछ तो वक्त था हाथ में।
बहुत टुकड़ों में उन्होंने बात समझने की कोशिश की। घर में रूमा थी अपनी बच्ची के साथ अपने कमरे में बंद। अचानक ज्ञान के सिर में दर्द उठा, लगा दिल की धडक़न ही रुक जाएगी। हथेलियों में पसीना। घबरा कर ज्ञान रूमा के कमरे का दरवाजा खटखटाने लगा। अंदर रूमा ने तेज गाना चलाया हुआ था, ऊपर से कूलर की खरखर की आवाज। ज्ञान ने तीन चार बार कोशिश की, फिर शक्ति चुक गई, तो जमीन पर गिर पड़ा।
जिस समय श्याम बच्चों के साथ लौटे, देर तक घंटी बजाने के बाद ही दरवाजा खुला। रूमा दरवाजे पर अवाक खड़ी थी,'पता नहीं ज्ञान भाई साब को क्या हो गया है? दरवाजे पर गिरे हुए हैं।'
श्याम लपक कर अंदर गए। ज्ञान का शरीर टटोला, गरम था, लेकिन सांस रुक चुकी थी।
उस रात उन्होंने रूमा को खूब लताड़ा। इतना कि खुद पछाड़ खा कर रोने लगे। रूमा को भी अहसास था कि उसकी गैरजिम्मेदारी की ही वजह से ज्ञान की मौत हुई है।

जब श्याम और मन्नू का संबंध बना, रूमा ने एक बार श्याम से कहा भी,'मेरे अंदर एक बोझ सा है। मैं कभी तुमसे इस बारे में कोई सवाल नहीं करूंगी कि मन्नू से तुम्हारा क्या संबंध है और उसे तुम क्या दे रहे हो? हां, कभी मेरी और बच्चों की कीमत पर तुम उसे कुछ देने की हिम्मत मत करना। अपनी सीमा नहीं लांघोगे, तो मैं भी यह बात दिल में रखूंगी।'
एक बार मन्नू से शारीरिक संबंध होने के बाद श्याम रूमा से शरीर के स्तर पर कभी नहीं जुड़ पाए। उसने शिकायत भी नहीं की। बस अपने इर्दगिर्द पंजा कसती चली गई।

सरला कब एक बच्ची से युवती हो गई, पता ही नहीं चला। बीच के दस साल श्याम ने यूं ही गुजार दिए। मन्नू के साथ, उसका घर बनाने में, उसका साथ निबाहने में। जिस मन्नू को देख उनका दिल पिघला था, वह उनके नजदीक आते ही और भी मोहिनी बन गई। वह कहती श्याम राम हैं और वो अहिल्या। श्याम ने जो छुआ, तो वह जीवित हो उठी।
मन्नू की जिंदगी श्याम से ही शुरू होती थी और उन्हीं पर खतम। मायका ना के बराबर। ससुराल से तो कब का नाता टूट गया। श्याम का साथ एक सम्मानजनक ओट था जीने के लिए।
बहुत बाद में अहसास हुआ था मन्नू को कि जिंदगी यूं ही निकल गई श्याम के नाम। हाथ कुछ ना आया। यह अहसास भी हुआ कि कहीं छली तो नहीं गई वह श्याम के हाथों?


सरला की शादी। मन्नू को लगने लगा था कि कहीं कुछ दरकने लगा है उसके और श्याम के बीच। वो पहले सी मोहब्बत ना रही। सरला की शादी को ले कर श्याम तनाव में थे--पिताजी ने मुझसे कुछ मांगा नहीं। जिससे सरला की शादी कर रहे हैं, उम्र में उससे बारह साल बड़ा है, दो बच्चे हैं। पहली पत्नी को मरे अभी साल नहीं हुआ। कैसे निबाएगी सरला? पिताजी को ना जाने क्या सूझी, कम पैसे वाला ही सही, कुंआरा लडक़ा खोजा होता...
श्याम रो पड़े। फफक फफक कर।
'मैं अपनी बहन के लिए कुछ नहीं कर पाया। मैं किसी काम का नहीं... देखो क्या हो गया...'
मन्नू ने उन्हें प्रलाप करने दिया। श्याम की तबीयत ठीक नहीं थी। सडक़ पर चक्कर खा कर गिरने के बाद डॉक्टर को दिखाया। ब्लड प्रेशर देखते-देखते चक्करघिन्नी सा ऊपर नीचे होने लगता। डॉक्टर की हिदायत थी कि वे ज्यादा तनाव ना पालें। सुबह-शाम सैर करें।
क्या करे मन्नू? कैसे कहे कि बहन के लिए इस तरह रोने की जरूरत नहीं। शादी में कुंआरा और विधुर क्या है? शादी शादी है और मर्द मर्द। अगर उसकी संवेदनाएं सही स्थान पर हैं तो औरत की इज्जत करेगा। श्याम रोते रहे। अगले दिन उन्हें शादी के लिए निकलना था।
मन्नू ने उनको उसी तरह विलाप करने दिया। घर में एक अलमारी थी। कभी श्याम ने ही दिलवाई थी। उसी अलमारी के एक खाने में एक पुराने दुपट्टे में बांध कर गहने रखा करती थी। करीब बीसेक तौला सोना। कुछ शादी के समय मायके से आया हुआ, बाकि श्याम का दिलाया। हर साल श्याम दीवाली पर उसे कुछ दिलाते थे।
गहनों की पोटली खोल मन्नू ने एक नौलखा नेकलेस निकाल कर अलग रखा। मां की निशानी। हालांकि चमक पुरानी पड़ गई है, लेकिन गहने का गढऩ लाखों में एक। सोने की अमिया नुमा झालरों पर जड़ाऊ नग। बाकि गहनों को बिना देखे पुटलिया सी बना दी।
कमरे में लौटी तो श्याम उसी तरह कुरसी पर सिर टिकाए लेटे थे। मन्नू ने उन्हें टहोक कर कहा,'ये ... अपनी बहन को दे देना। मन में यह शिकायत मत रखो कि बहन के लिए कुछ किया नहीं।'
ऐसा नहीं था कि उस दिन के बाद श्याम मन्नू से मिलने नहीं आए, संबंध बनाए नहीं रखा। उस दिन जो हुआ मन्नू के साथ ही हुआ। मन के कांच में तिरक लग गया। श्याम को जो अलकोंपलकों पर बिठा रखा था, जो जिंदगी की धुरी मान रखी थी, उसे दिल ने नीचे धकेल दिया। श्याम पहले की ही तरह आते मन्नू के पास। लेकिन मन्नू बदल गई। पहले वह घर से बाहर निकलती ही नहीं थी। श्याम ने जो राशन-पानी ला दिया, उसीसे गुजारा चलाती। अब उसने अपनी बंद दुनिया की किवाड़ें खोलनी शुरू कर दी। श्याम आते तो पाते कि बिस्तर पर पड़ोस का चार साल का बेटा सो रहा है।
कभी मन्नू बरामदे में बैठ कर दो तीन औरतों केसाथ अचार या बडिय़ा डाल रही है।
मन्नू हंसने लगी थी, श्याम के बिना भी। रोती नहीं थी श्याम के जाने पर।
दुबली पतली बाइस इंची कमर की मन्नू ने अपने को भी खुला छोड़ दिया। मोटापे ने घेरा, तो श्याम ने कह ही दिया,'क्या हाल बना लिया है तुमने अपना? एकदम भैंसी होती जा रही हो। मैं यहां किसलिए आता हूं? दो घड़ी चैन मिलता था तुमसे, अब वो भी नहीं...'
मन्नू रोई नहीं। उस दिन अपने रूखे बालों में ढेर सा तेल लगा रखा था उसने, वो भी सरसों का। श्याम ने आते ही साथ कहा था कि बाल धो ले।
ढीलेढाले सलवार कमीज में ऊपर से ही उसके अंग-प्रत्यंग टटोल कर श्याम ने इशारा कर दिया था कि आज वे समागम के मूड में हैं। पता नहीं कैसे मन्नू ने पहली बार उनके आग्रह को ठुकरा दिया। ना बाल धोए, ना कपड़े बदले। ढीठ सी बैठी रही टीवी के सामने। बेकार सी फिल्म चल रही थी। नायिका का दो बार बलात्कार हो चुका था। नायक उससे कहने आया था कि बावजूद इसके वह उससे शादी करना चाहता है। मन्नू ने तुरंत प्रतिक्रिया की,'बकवास। औरत में हिम्मत हो, तो उसे नहीं करनी चाहिए शादी। एक के चंगुल से निकली, दूसरे में फंसने चली। क्या होगा इस आदमी के साथ रह के? कौन सी जिंदगी सुधर जाएगी? हरामी, वो भी वही सब करेगा... उसने जबरदस्ती की, ये शादी के नाम पर करेगा।'
श्याम हतप्रभ रह गए। मन्नू ऐसा सोचती है पुरुषों के बारे में? क्या वह उन्हें भी इसी श्रेणी में आंकती है? मन्नू की आंखों में अब भी क्षोभ था। अपने तेल से सने बालों में उंगलियां घुमाते हुए बड़ी अजीब निगाहों से टीवी पर नजरें गड़ाए थी। श्याम की मन्नू नहीं थी वह। वह एक ऐसी मन्नू थी, जिसने अपने ढंग से अपने विचारों के साथ जीना सीख लिया था।

उस दिन के बाद श्याम मन्नू से मिलने कभी नहीं आए। बल्कि मरनेेसे कुछ समय पहले उन्होंने मन्नू को एक लंबा पत्र लिखा, यह कहते हुए कि वे उसके लिए कुछ कर नहीं पाए। तमाम दुख। मन्नू के गहने लेने का दुख। रूमा की बेरुखी का गम।
श्याम लिखते समय शायद जल्दी में थे। मन्नू ने सुना था कि उनको दिल के तीन दौरे पड़ चुके हैं। इन दिनों नौकरी पर भी नहीं जा पा रहे। घर पर ही रहते हैं। मन्नू ने कभी जा कर उनसे मिलने की कोशिश भी नहीं की।
श्याम ने पत्र में यही लिखा था--तुम बहुत छोटी और नासमझ थी, जब मेरे एक बार कहने पर मेरे साथ चली आई। अब सोचता हूं, तो मसोस उठती है कि तुम्हारी मैंने दोबारा शादी क्यों ना की? ना मैं तुम्हें नाम दे पाया ना बाल-बच्चे। मुझे इस बात का हमेशा अफसोस रहेगा।
मन्नू्...एक बात बड़े दिनों से साल रही है, मन करता है तुमसे बांटने को। जब मैं तुमसे मिला और ज्ञान की मृत्यु हुई, मन में एक ललक थी किसीके लिए कुछ करने की। सोचा तुम्हें एक जिंदगी दे कर अपनी यह इच्छा पूरी करूंगा।
वह पांच लडक़े जो चौदह साल पहले मेरे अंदर एक आग सी जला गए, उसकी आंच मैंने रोक ली मन्नू। मैं आज भी गुनहगार महसूस करता हूं अपने को, शोभा के लिए और तुम्हारे लिए। देश की तो छोड़ दो, मैं तो अपने आसरे जो आया, उसके लिए भी कुछ कर ना पाया।
अब मेरे शरीर में ताकत ना रही। तन-मन से खोखला हो चला हूं। बस, एक ही काम कर पाया, वो घर तुम्हारे नाम कर दिया है, रूमा को बता कर ही। तुम हो सकेतो अपना घर बसा लो। सरला का ही देख लो, एक बच्चा हो गया। ठीक चल रही है उसकी गृहस्थी। तुमने अपना क्या कर डाला है? ऐसे जिंदगी से उम्मीद मत छोड़ो। कभी न कभी कुछ होगा तुम्हारा भी।
मैं अगले इतवार को ऑपरेशन करवा रहा हूं। तुम मत आना। घर से सब आ रहे हैं। पिताजी भी। बच गया तो कभी आ कर तुमसे मिलूंगा।
मेरी तरफ से अपना मन दुखी ना करना।
पत्र पढ़ कर दो-चार दिन मन्नू विचलित रही। पर श्याम को अनुमान ना था कि वे उसकी जिंदगी से बहुत दूर चले गए हैं। श्याम को कहने की जरूरत ही नहीं कि वो उनसे मिलने ना आए। वो खुद अब श्याम से अपने को जुड़ा हुआ नहीं पाती।
बस, एक बात कहना चाह रही थी श्याम से-- यह कहने में देर कर दी कि शादी कर लो, बच्चे पैदा कर लो। दो महीने पहले उसे भयंकर रूप से रक्त स्त्राव हुआ। इतनी पीड़ा... पड़ोसिन डॉक्टर के पास ले गई। सारे टेस्ट हुए। डॉक्टर ने कहा कि उसे समय से पहले मेनोपॉज हो रहा है। यह उसीके लक्षण हैं। अब वह हर महीने की परेशानी से मुक्त है। मन्नू ने अंदर बहुत खालीपन महसूस किया। उन पीड़ा के क्षणों में आंसुओं से कई बार चेहरा धुंधलाया। लेकिन कहीं ना कहीं इस अहसास ने उसे राहत दी कि अब वह मातृत्व के लिए कामना नहीं करेगी। अब उसकी जिंदगी उसकी अपनी है। कोई श्याम आ कर यह दलील नहीं देगा कि तुमको मैंने मां बनने का सुख नहीं दिया।
काहे का सुख, काहे का मातृत्व? कहां से अपूर्ण हूं मैं? पहली बार अपने को यह कहते सुना मन्नू ने। पर श्याम यह सुनने के लिए बचे नहीं।

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8 comments:

Unknown said...

भाई जोशी जी,
जयंती के उपन्‍यास के अंश आपने पढ़वाए। आपका प्रयास तो अच्‍छा था लेकिन इसका ताना-बाना कृत्रिम है।

sanjeev said...

अच्‍छा लगा पढ़कर। एक बार पढ़ना शुरू किया तो आखिर में आकर लगा कि अभी आगे और छापना चाहिए आपको। पूरा उपन्‍यास ही।

डॉ .अनुराग said...

कही कही लय टूटी ..पर आपने काफी मेहनत की होगी इसे लिखने में ...ओर फ़िर पोस्ट करने में ...लेखक से परिचय करवाने का शुक्रिया.....

राज भाटिय़ा said...

बहुत अच्छी लगी यह कहानी.
धन्यवाद

Dr. Ashok Kumar Mishra said...

joshiji,
bahut achchi sahityik samagri aapney pathkon key liye uplabdh karai. badhai.

BrijmohanShrivastava said...

महोदय ,जय श्रीकृष्ण =मेरे लेख ""ज्यों की त्यों धर दीनी ""की आलोचना ,क्रटीसाइज्, उसके तथ्यों की काट करके तर्क सहित अपनी बिद्वाता पूर्ण राय ,तर्क सहित प्रदान करने की कृपा करें

सचिन मिश्रा said...

Bahut acchi ligi.

Balveer Singh Bhatnagar said...

बहुत ही रोचक. नारी अपनी व्यथा नहीं पाती है. नया कथानक है. पुरुष प्रधान समाज में स्त्री के पहचान को स्थापित करने की संघर्षपूर्ण कहानी अत्यन्त सरल और बेबाक लहजा. रचनाकार को बधाई.

पुरालेख

तकनीकी सहयोग- शैलेश भारतवासी

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