Saturday, September 6, 2008

जब प्यार किया तो डरना होगा

क्योंकि वह एक गैर जातीय युवक से प्रेम करती थी। कुछ दिन पहले उसे खेत में गोली मारी गई। जब गोली से उसके प्राण नहीं निकले तो उसे भीड़ के सामने अस्पताल में दाखिल करा दिया गया, लेकिन बाद में मामला कुछ ठंडा होते ही उसकी अस्पताल से छुट्टी कराकर घर ले जाते समय हत्या कर दी गई। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाति बिरादरी में अपनी झूठी शान बनाये रखने के नाम पर इस तरह की बेशर्म हत्याएं यानी 'ऑनर किलिंग' अब आम हैं। उत्तर भारत के कई राज्यों में अक्सर ऐसी घटनाएं हो जाती हैं जिनमें बाकायदा गांव की पंचायतें प्रेमी-प्रेमिका के लिये मौत का फरमान सुना देती हैं। प्रेमी युगलों को पंचायत के सामने पेड़ पर लटकाकर फांसी दे दी जाती है। ऐसा भी नहीं कि प्रेम संबंधों में केवल प्रेमी मारे जाते हों बल्कि प्रेम के नशे में ऐसे बुजुर्गों की भी बलि चढ़ जाती है जो प्रेमियों को प्रेम में बाधक नजर आते हैं।

दक्षिण की मुझे जानकारी नहीं, इसलिए वहां के विषय में कुछ कहना बेमानी है। लेकिन ये सच है कि हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश इस मामले में खासे बदनाम है। इस बदनामी और कबीलाई संस्कृति पर अंकुश लगाने के लिए उत्तर प्रदेश की पुलिस ने कबायद शुरू की है। हांलाकि सोशल पुलिसिंग की ये कबायद अभी कागजों पर है लेकिन पुलिस को कोसने का यदि हमें हक है तो उसकी अच्छी पहल या सिर्फ 'सोच' की भी तारीफ की जानी चाहिए। अब पुलिस अपने मुखबिर तंत्र के माध्यम से गली, मोहल्ले और गांवों में बढ़ती प्रेम की पींगों पर नजर रखेगी। यानी हर थाने में प्रेमी युगलों का डाटा बैंक तैयार होगा। ग्राम चौंकीदार, बीट कांस्टेबल और मुखबिरों के माध्यम से पुलिस को जैसे ही पनपते प्रेम की कोई कहानी पता चलेगी तो वह प्रेमी-प्रेमिका के घर वालों को सूचित करेगी। अगर प्रेम संबंध इतने पर भी जारी रहे, युवक-युवती नहीं माने और संबंध प्रगाढ़ हो गए तो दोनों के अभिवावकों को बिठाकर सम्मानजनक तरीके से हल कराने की दिशा में प्रयास करेगी। मतलब साफ है कि प्रेम विवाह में पुलिस बिचौलिए की भूमिका निभाने से भी नहीं हिचकेगी। अब आप सोच सकते हैं कि आपरेशन मजनू चलाने वाली या डंडे की भाषा समझने-समझाने वाली पुलिस दिल और दिल्लगी के मामलों में कैसे पड़ गई। खाकी वर्दी के भीतर से यकायक प्रेमरस कैसे टपकने लगा। दरअसल प्रेम जहां नई तरह से जिंदगी जीने की कला सिखाता है वहीं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ये अक्सर कानून व्यवस्था के लिए एक बड़ी चुनौती बन जाता है। प्रेम संबंधों में हत्याएं ही नहीं दंगे तक हो जाते हैं, शायद यही वजह है कि उत्तर प्रदेश के पुलिस मुखिया ने सभी जिलों के थानों में टास्क आर्डर भेज कर पुलिस महकमे को एक नया काम दिया है। पुलिस विभाग का मानना है कि अक्सर युवा अपनी प्रेमिका को लुभाने के लिए अनाप-शनाप खर्च करते हैं जिसके लिए उन्हें हमेशा पैसे की दरकार रहती है। ऐसे में युवा लूट, चैन स्नेचिंग जैसे अपराधों की तरफ भी बढ़ जाते हैं। इसलिए पुलिस महकमें को आगाह किया गया है कि जैसे ही किसी युवा के प्रेम संबंधों का पता चले वैसे ही उन पर निगरानी बढ़ा दी जाए। उसकी आय, धन की आमद के सभी श्रोत और रंग-ढंग पर पैनी नजर रखी जाए। साथ ही प्रेमी-प्रेमिका के घर वालों को आगाह कर सामाजिक मान्यता दिलाने की पहल की जाए।

हांलाकि डंडा चलाने वाली पुलिस के लिए ये काम आसान नहीं है लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सामाजिक ढांचे में प्रेम संबंधों के चलते होने वाले हीनियस क्राइम को रोकने के लिए शायद सोशल पुलिसिंग के अलावा कोई और चारा भी नहीं है। तो आप समझ लीजिए कि यदि आप उत्तर प्रदेश में रहते हैं, युवा हैं, आपका दिल किसी के लिए धड़कता है, आप प्रेम की पींगे बढ़ा रहें हैं तो सावधान रहें क्योंकि हो सकता है कि कुछ आंखे हमेशा आपकी टोह में पीछे लगी रहें।

हमारा मानना है कि मौजूदा समय में सोशल पुलिसिंग की बेहद जरूरत है लेकिन इसमें मतभेद हो सकते हैं कि सोशल पुलिसिंग का स्ट्रक्चर और चेहरा कैसा हो। हम चाहते हैं कि हमारे सुधी पाठक, चिंतक और समाज के अलंबरदार इस मुद्दे पर गंभीरता से सोचें। कैसी हो सोशल पुलिसिंग? कैसा हो उसका स्वरूप? सीमाएं क्या हों? ऐसे तमाम मुद्दों पर आपकी विस्तृत राय की अपेक्षा है।

13 comments:

Anonymous said...

शानदार।
भोपाल से गोपाल

राज भाटिय़ा said...

अब हम क्या कहे, धन्यवाद

Udan Tashtari said...

कह तो हम भी कुछ नहीं पा रहे हैं भाटिया जी के साथ.


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निवेदन

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-समीर लाल
-उड़न तश्तरी

Smart Indian said...

हरी भाई,
बहुत धन्यवाद इतना महत्त्वपूर्ण मुद्दे उठाने के लिए. ख़बर तो दुखद है मगर इसी बहाने अगर पुलिस एक अच्छी शुरुआत करने वाले है तो अपने आप में यह एक अच्छा कदम है.

ओमकार चौधरी said...

दरअसल, लोग एस तरह के प्रेम संबंधों को नाक और सामाजिक प्रतिष्ठा का सवाल बना लेते हैं. आप हम जानते हैं की इस इलाके में खासकर गाँव देहात में प्रेम करने का मतलब है मौत को निमंत्रण देना. परन्तु क्या एस भय से प्रेम करना बंद कर दिया गया ? सामाजिक जागरूकता के साथ साथ पुलिस प्रशासन के भी संवेदनशील होने की जरुरत है. प्रेमी युगलों के साथ जो हो रहा है, मध्ययुगीन बर्बर मानसिकता का द्योतक है. खासकर पढ़े लिखे लोगों को ऐसे युगलों के साथ खुलकर खड़ा होना होगा. पुरातन विचारधारा और संस्कृति में रचे बसे लोगों को भी समझाने की कोशिश करनी होगी. हालाँकि ये आसान काम नहीं है. तो भी प्रयास जरूर होना चाहिए. एक ज्वलंत मुद्दा अपने उठाया, बधाई की पात्र हैं.

अनूप शुक्ल said...

समाज की मानसिकता बदले बिना कुछ होगा नहीं। शायद सामाजिक पुलिस इस दिशा में कुछ कर सके।

siddheshwar singh said...

हां पहली बार आया, आपका ब्लाग अच्छा लगा !

betuki@bloger.com said...

पुलिस के लिये अच्छा प्रयास हो सकता है। वैसे आपको धन्यवाद आपके इस मुद्दे पर बेतुकी अच्छी लिखी जा सकती है। प्रयास करूंगा।

Smart Indian said...

ऋचा जी,
क्षमा कीजिये, मैं हरी भाई की प्रोफाइल से इस समाचार पर आया था इसलिए नीचे समाचार-लेखिका के रूप में आका नाम नहीं देख सका. कृपया अब मेरी बधाई स्वीकारें. धन्यवाद.

डॉ .अनुराग said...

sach to ye hai ki aazadi ke itne saalo ke bad bhi hamare yahan police ka trianing ka vahi purana ghisa pita system hai,kahi koi psycologist nahi,kahi manviyta naam ka koi path nahi....savendeensheelta ko parakhne ke koi kaayde ....koi kitaab nahi...

Unknown said...

बहुत नाज़ुक मसला है, ये अपने आत्म सम्मान के नाम पर दूसरों की भावनाओं को कुचलने का। इससे पार पाने के लिए दूर तक तैरना होगा, और पानी कोसी के प्रवाह से भी ज़्यादा खतरों से भरा है।
अच्छा लिखा है।

Anonymous said...

इस लेख से यह पता चलता है कि हिन्दी प्रदेशों में जो कबीलाई और सामन्ती मानसिकता से ग्रसित है एक सामाजिक जागरण आन्दोलन की जरूरत है आप इस दिशा में कुछ कर सकते है? ंडार भगीरथ

Anonymous said...

भाई साहब, प्यार करना हमेशा मुश्किल रहा है.. आगे भी रहेगा। लेकिन दिक्कत ये है कि हम और आप खुद को पत्रकार कहते और समझते हैं.. लेकिन हमारे बुद्धिजीवी संपादकों और मूर्धन्य चैनलों को न तो किसी बेचारी की जान जाती दिखती है.. औऱ न ही इसमें टीआरपी दिखती है। एक तरफ आइटम गर्ल्स लटके झटके दिखाकर नाच रही होती हैं, उसी वक्त किसी लड़की को प्यार करने की सजा के तौर पर उसकी जान ली जा रही होती है। लेकिन हमें तो टीआरपी चाहिए। ऐसे किसी मकसद को लेकर अगर कोई चैनल(या अखबार भी) थोड़ी कोशिश करे, तो पंगु और अंधे बहरे प्रशासन को जगाकर कुछ कार्रवाई करने के लिए तो मजबूर किया ही जा सकता है, और शायद इससे आगे किसी की जान लेते समय कोई थोड़ा डरे। लेकिन देश गर्त में जा रहा है और हम कुछ चुटकुलेबाजों औऱ नचनियों को दिखाकर अपना कर्तव्य निभा रहे हैं। मन करता है कि ऐसे तमाम मुद्दों को उठाया जाए(जोकि शायद मीडिया का मकसद भी था) लेकिन तमाम चैनलों और अखबारों की भीड़ में ऐसा होता दिखता नहीं। प्रशासन को कोसना हमारे बस में है तो छोटी सी खबर में इसकी रस्म अदायगी चलती रहती है। लेकिन ये संकेत बहुत खराब दिखाई पड़ते हैं।

पुरालेख

तकनीकी सहयोग- शैलेश भारतवासी

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