हमारे एक मित्र हैं। आला अफसर। उल्टा पुल्टा......न न बाबा, ऐसा नहीं कहते। इसलिए आप चाहें तो उत्तम प्रदेश कह सकते हैं।....मैं तो फिलहाल यूपी कहकर ही काम चला लेता हूं। आप कुछ भी ! ...क्षमा कीजिएगा, मैं अपने मित्र की चर्चा करते हुए भटक गया था। मेरे मित्र यूपी से ही हैं। कथाकार-व्यंग्यकार हैं। सीधी-सपाट बात करते हैं और धारदार लिखते हैं लेकिन शायद इन दिनों थोड़े सहमे हैं। इसलिए, पहली बार वह अपनी पहचान छिपा रहे हैं लेकिन ये उनकी कलम से उनकी अपुन कहिन है।
आई, चली गई। आजकल सरकारें आती ही जाने के लिए हैं। सरकार बहादुर ने सिर्फ दो काम किए थे। वसूली-लक्ष्य पूरा किया था.....कर वसूली का नहीं, सुविधा-शुल्क वसूली का। दूसरा कार्य था राजधानी में विभिन्न स्थानों में बुत खड़े करने का। इसके अलावा सरकार ने कुछ नहीं किया। विकास कार्य एकदम ठहर गए, समस्याएं सुरसा हो गईं, गरीब ज्यादा गरीब हो गए।
अगली सरकार आई। उसके संकल्प .....पिछली सरकार से दोगुनी कमाई करना और दोगुने बुत बनबाना। प्रतियोगिता प्रदेश के विकास को लेकर नहीं, घूस और बुत को लेकर। सरकार ने चौराहों पर, पार्को में, फुटपाथों पर, ओनों-कोनो में, सार्वजनिक भवनों के सामने और भीतर भी इतने बुत बनवा डाले कि महापुरुषों की किल्लत पड़ गई। तब उसने मृत छुटभईयों के बुत खड़े करने शुरू कर दिए। बुत टन-दो टन हैसियत वालों के नहीं किलो-दो किलो हैसियत वाले अनजाने, अनचीन्हे, अबूझ, अनाम भूतों ......!
तीसरी सरकार आई। उसका संकल्प पिछली सरकार से तिगुनी कमाई करना और तिगुने बुत बनवाना था। सरकार जितनी ऊपरी कमाई करती थी उसी अनुपात से बुत बनवाती थी यानी बुत की गणना कर ऊपरी कमाई का अंदाज लगाया जा सकता था या यूं कहें कि ऊपरी कमाई की जानकारी होने पर बुतों का अंदाजा लगाया जा सकता था। अंकगणित बहुत !
सरकार का चाल-चरित्र-चिंतन ऐसा कि लोगों में भय व्याप्त हो गया। जाने कब गोली मारकर कह दिया जाए कि 'अमुक जी' ने देश-समाज के लिए शहादत दी है और जीता-जागता व्यक्ति किसी चौराहे, पार्क, ओने-कोने या सार्वजनिक भवन में बुत में तब्दील हो जाए। लोग अंधेरे-उजेले निकलने में घबराने लगे। बुत देखकर कांप जाते...........कल मेरा भी यही हश्र न हो।
कुछ बात तो है मोमिन जो छा गई खामोशी,
किसी बुत को दे दिया दिल जो बुत बन गए।
सरकार जीवित व्यक्तियों के लिए कुछ न करती, पर मृत व्यक्तियों की प्रतीक-पूजा के लिए सदैव तत्पर रहती। वह लोगों से कहती, ''बुतों को देखो, इनसे प्रेरणा ग्रहण करो।''
लोग कहते, ''हमें बुत के भूत नहीं, रोटी चाहिए। हमारी खुद की जिंदगी बुत शरीकी हो गई है।''
सरकार कहती, ''रोटी? यह तो बहुत सामान्य चीज है। उससे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण मरे लोगों के बुत हैं जिनमें भावना का मौन दर्शन होता है। इन्हें नमन करो, चरण वंदन करो, फूलमाला अर्पित करो। इनसे प्रेरणा ग्रहण करो, प्रेरणा से चेतना जाग्रत होगी, चेतना से सामाजिक न्याय मिलेगा, सामाजिक न्याय से.......!''
सरकारें आती रहीं, जाती रहीं। लोग भूख से, गरीबी से त्रस्त होते रहे। सरकार लोगों को हुतात्मा बनाते हुए बुत खड़ी करती रही ........'' एक बुत बनाउंगा और तेरी पूजा करूंगा।'' सारा शहर बुतों से पट गया। सड़क हो या फुटपाथ, चलना मुश्किल। पार्कों में चहलकदमी भी कठिन। कौन-सी जगह जहां जलवा-ए-माशूक नहीं।
लोग दहशत के कारण शहर छोड़कर भागने लगे। शहर में सिर्फ बुत बचे या सरकारी भूत। बुत-लक्ष्य पूरा नहीं हो रहा था। सरकार ने तय किया कि वह अन्य बस्तियों के लोगों को शहीद कर बुत खड़े होने का लक्ष्य पूरा करेगी। ऐसे में आपको सतर्क करना मेरा परम पुनीत कर्तव्य है। सरकार के बुत- अभियान में कहीं आपका सिर न आ जाए ........! एवमस्तु न !
आई, चली गई। आजकल सरकारें आती ही जाने के लिए हैं। सरकार बहादुर ने सिर्फ दो काम किए थे। वसूली-लक्ष्य पूरा किया था.....कर वसूली का नहीं, सुविधा-शुल्क वसूली का। दूसरा कार्य था राजधानी में विभिन्न स्थानों में बुत खड़े करने का। इसके अलावा सरकार ने कुछ नहीं किया। विकास कार्य एकदम ठहर गए, समस्याएं सुरसा हो गईं, गरीब ज्यादा गरीब हो गए।
अगली सरकार आई। उसके संकल्प .....पिछली सरकार से दोगुनी कमाई करना और दोगुने बुत बनबाना। प्रतियोगिता प्रदेश के विकास को लेकर नहीं, घूस और बुत को लेकर। सरकार ने चौराहों पर, पार्को में, फुटपाथों पर, ओनों-कोनो में, सार्वजनिक भवनों के सामने और भीतर भी इतने बुत बनवा डाले कि महापुरुषों की किल्लत पड़ गई। तब उसने मृत छुटभईयों के बुत खड़े करने शुरू कर दिए। बुत टन-दो टन हैसियत वालों के नहीं किलो-दो किलो हैसियत वाले अनजाने, अनचीन्हे, अबूझ, अनाम भूतों ......!
तीसरी सरकार आई। उसका संकल्प पिछली सरकार से तिगुनी कमाई करना और तिगुने बुत बनवाना था। सरकार जितनी ऊपरी कमाई करती थी उसी अनुपात से बुत बनवाती थी यानी बुत की गणना कर ऊपरी कमाई का अंदाज लगाया जा सकता था या यूं कहें कि ऊपरी कमाई की जानकारी होने पर बुतों का अंदाजा लगाया जा सकता था। अंकगणित बहुत !
सरकार का चाल-चरित्र-चिंतन ऐसा कि लोगों में भय व्याप्त हो गया। जाने कब गोली मारकर कह दिया जाए कि 'अमुक जी' ने देश-समाज के लिए शहादत दी है और जीता-जागता व्यक्ति किसी चौराहे, पार्क, ओने-कोने या सार्वजनिक भवन में बुत में तब्दील हो जाए। लोग अंधेरे-उजेले निकलने में घबराने लगे। बुत देखकर कांप जाते...........कल मेरा भी यही हश्र न हो।
कुछ बात तो है मोमिन जो छा गई खामोशी,
किसी बुत को दे दिया दिल जो बुत बन गए।
सरकार जीवित व्यक्तियों के लिए कुछ न करती, पर मृत व्यक्तियों की प्रतीक-पूजा के लिए सदैव तत्पर रहती। वह लोगों से कहती, ''बुतों को देखो, इनसे प्रेरणा ग्रहण करो।''
लोग कहते, ''हमें बुत के भूत नहीं, रोटी चाहिए। हमारी खुद की जिंदगी बुत शरीकी हो गई है।''
सरकार कहती, ''रोटी? यह तो बहुत सामान्य चीज है। उससे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण मरे लोगों के बुत हैं जिनमें भावना का मौन दर्शन होता है। इन्हें नमन करो, चरण वंदन करो, फूलमाला अर्पित करो। इनसे प्रेरणा ग्रहण करो, प्रेरणा से चेतना जाग्रत होगी, चेतना से सामाजिक न्याय मिलेगा, सामाजिक न्याय से.......!''
सरकारें आती रहीं, जाती रहीं। लोग भूख से, गरीबी से त्रस्त होते रहे। सरकार लोगों को हुतात्मा बनाते हुए बुत खड़ी करती रही ........'' एक बुत बनाउंगा और तेरी पूजा करूंगा।'' सारा शहर बुतों से पट गया। सड़क हो या फुटपाथ, चलना मुश्किल। पार्कों में चहलकदमी भी कठिन। कौन-सी जगह जहां जलवा-ए-माशूक नहीं।
लोग दहशत के कारण शहर छोड़कर भागने लगे। शहर में सिर्फ बुत बचे या सरकारी भूत। बुत-लक्ष्य पूरा नहीं हो रहा था। सरकार ने तय किया कि वह अन्य बस्तियों के लोगों को शहीद कर बुत खड़े होने का लक्ष्य पूरा करेगी। ऐसे में आपको सतर्क करना मेरा परम पुनीत कर्तव्य है। सरकार के बुत- अभियान में कहीं आपका सिर न आ जाए ........! एवमस्तु न !
14 comments:
सरकारें आती रहीं, जाती रहीं। लोग भूख से, गरीबी से त्रस्त होते रहे। सरकार लोगों को हुतात्मा बनाते हुए बुत खड़ी करती रही ...'' एक बुत बनाउंगा और तेरी पूजा करूंगा।'' सारा शहर बुतों से पट गया।. ..... .बड़ी भयानक तसवीर है। सावधान करने के िलए शुिक्रया।
सतर्क करके आपने तो पुनीत कर्तव्य का निर्वहण कर लिया. अब बाकी लोग क्या करें...?अच्छा आलेख.
अंग्रेजी जिन्दाबाद।
निरक्षरता जिन्दाबाद।
चिन्ता की कोई बात नहीं, भूत-बूतों के माल्यार्पण में जनता भूख-प्यास सब भूल जाएगी।
सरकार कहती, ''रोटी? यह तो बहुत सामान्य चीज है। उससे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण मरे लोगों के बुत हैं जिनमें भावना का मौन दर्शन होता है। इन्हें नमन करो, चरण वंदन करो, फूलमाला अर्पित करो। इनसे प्रेरणा ग्रहण करो, प्रेरणा से चेतना जाग्रत होगी, चेतना से सामाजिक न्याय मिलेगा, सामाजिक न्याय से.......!''
अच्छा व्यंग्य वाही है, जो बहुत कुछ सोचने पर बाध्य कर दे. आज के हालातों पर इस से श्रेष्ठ और क्या हो सकता है. हकीकत यही है मेरे भाई. साधुवाद अच्छा आलेख लिखने के लिए. आप नाम भले ही डिस्क्लोज न करना चाहें, उत्तम काम कर दिया है. बधाई
बहुत अछा आलेख है...पढ़कर अच्छा लगा...
अपने मित्र से कहिये .बेधड़क लिखे.......
अच्छा आलेख
बुत बनाइए और बेवकूफ बनाइए। यही धंधा है इन लोगों का। रोटी की चिंता इन्हें क्यों होगी।
Bahut accha aalekh.
sir acha likha h
hume bhi ase lekh padhkar seekhne ko milta h
बुत बनाने का लाभ भी सरकार को हे, सब से पहले यह बुत रोटी नही मांगते, फ़िर जिस समाज, तबके , या जाति के व्याक्त्ति का बुत बन गया उस की वोटे पक्की, फ़िर इन बुतो को कोई नही पुछता, अगर कभी किसी ने इन्हे कक्ष्ति पहुचाई तो फ़िर से इन की राज नीति शुरु.
ओर गरीब तो रोटी ही मांगे गा, क्यो कि उस ने जीना हे, ओर इन नेताओ के लिये शायद रोटी मामुली चीज हो, लेकिन हमारे लिये तो रोटी ही सब कुछ हे, ओर अब बुत बना कर सारी जनता को बेबकुफ़ बना रहे हे, जब कि जिन्दा को गोलिया मारते हे.
आप ने बहुत ही सटीक लेख लिखा हे
धन्यवाद
क्या बात है। बुत प्रदेश की पोल खुल रही है यहां। आफिसर साहिब हम आपके शुक्रगुज़ार हैं। नाम में क्या रखा है। आपके दिल की आवाज़ हमारे दिल तक पहुंच रही है।
Hamko malum hai, buet aur usko bananey waley ka naam. magar hum kuch nahi bolega. hum bolega to kahogey k bolta hai. aalekh accha hi nahi, bahut accha h.
janab yeh dunia ek butkhana hai.
aadmi dekhey jamana beet gaya.
suryakant
हमारे यहां मध्य प्रदेश , में हम भाग्यवान हैं. यहां बुतों की तो भरमार है ही, मगर यहां पोस्टरों का बोलबाला है. इसमें भी प्रजातन्त्र !!
बुत लगवाने के लिये भूत बनना ज़रूरी है, मरना ज़रूरी है.(यहां के कुछ अपवाद छोडकर). कोई भी अवसर हो, बड़े नेता के छुटभैये चमचों के राहु जैसी मुंडियों से भरे ये पोस्टर्स आपको हर जगह मिल जायेंगे.नेताजी का जन्म दिन, उनका शहर में आना,किसी शहीद का शहीद दिवस या फ़िर धार्मिक आयोजन,इतने कारण काफ़ी हैं!( इसी शहर के नेता तो गांव से पिछले स्टेशन से ट्रेन में बैठ कर यहां पहुंचते हैं और रेल्वे स्टेशन से शोभा यात्रा निकालते हैं )
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