सचिन की क्रिकेट को प्रभाष जी ने करीब से देखा। स्कूल जाने वाले किशोर सचिन प्रभाष जी के लिए हमेशा दुलारे और आकर्षण का केंद्र रहे लेकिन जिस दिन सचिन सत्तरह हजारी हुए उस दिन प्रभाष जी सचिन के आउट होने के बाद गिरते विकटों को देख न सके। पत्रकारिता को नई ऊंचाईयां देने वाले प्रभाष जोशी का निधन एक ऐसी क्षति है जिसे पूरा करना असंभव है। इर्द-गिर्द में उन्हें श्रद्धांजलि दे रहे हैं सूर्यकांत द्विवेदी।
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प्रभाष जोशी नहीं रहे, यह केवल खबर नहीं है। उनका अवसान पत्रकारिता औरसाहित्य दोनों के लिए ही क्षति है। प्रभाष जोशी को जनसत्ता में पढ़ते औरसमारोह में सुनते हुए बहुत कुछ सीखने और समझने का अवसर मिला। छोटे छोटेवाक्य, शब्दों का अनूठा प्रयोग और लाजवाब कथ्य-शिल्प प्रभाष जोशी की हीदेन कही जा सकती है। अस्सी के दशक से पहले पत्रकारिता में वाक्य बड़े औरभाषा क्लिष्ट रखी जाती थी। लेकिन प्रभाष जोशी ने आम बोलचाल की भाषा कोअपनाया। उनका सीधा सा संदेश था कि पाठक जिस भाषा को समझता और बोलता है,वही पत्रकारों की भी भाषा होनी चाहिए। शायद यही कारण है कि यह प्रयोगउन्होंने क्रिकेट से प्रारंभ किया। अजहरुद्दीन की लगातार तीन सेंचुरी परउनकी कलम से लिखा गया-अजहर तेरा नाम रहेगा। कपिल देव जब उत्कर्ष पर थे,तो उनको प्रभाष जोशी ने अपने स्वर्ण-शब्द दिए। लेकिन जब कपिल देव अपनीबालों से कहर नहीं बरपा रहे थे और एक भी विकेट नहीं ले पा रहे थे तोप्रभाष जोशी ने उनको टीम से बाहर करने की भी पैरवी की। उन्होंने कहा किअपना अग्रणी बालर और कप्तान क्या पुछल्लों के ही विकेट लेता रहेगा।उल्लेखनीय है कि उस वक्त तक निचले क्रम के बल्लेबाजों के लिए पुछल्लेशब्द का प्रयोग नहीं होता था। प्रभाष जोशी ने यह नया नाम दिया। ब्लू स्टार आपरेशन के समय तो राजेंद्र माथुर (संपादक नवभारत टाइम्स) औरप्रभाष जोशी में संपादकीय द्वंद्व हुआ। एसा द्वंद्व इसके बाद देखने कोनहीं मिला। प्रेशर कुकर और चश्मे को प्रतीक मानकर दोनों संपादकीय में एकदूसरे के सवालों का जवाब देते रहे। मसलन, प्रभाष जोशी ने लिखा कि कुकरसीटी-पर-सीटी दे रहा है तो उससे फटने में देर नहीं लगेगी। राजेंद्र माथुरने लिखा-हर चीज की एक ताप होती है। प्रेशर कुकर में पकने वाली चीज की तापतय होती है। फटने का मौका ही क्यों दें। हर चीज तो प्रेशर कुकर में नहींपक सकती। इसके बाद चश्मे पर वह केंद्रित हो गए। कुल मिलाकर उस वक्तसंपादकीय में जो गुणवत्ता और विचारों का आदान-प्रदान देखने को मिला, वैसाअब कहां। पत्र कालम मे बहस करायी जाती थी। हमको याद है कि मेरठ में एकसिनेमाघर के क्लर्क ने प्रभाष जोशी के लेख पर टिप्पणी की--इंदिरा गांधीकी हत्या पर समस्त सिख समाज को शक के दायरे में ला दिया गया है। उनको शककी नजर से देखा जा रहा है। क्या यह उचित है। नाथूराम गोडसे ने महात्मागांधी की हत्या की थी, फिर क्या हिंदू समाज शक के दायरे में नहीं आनाचाहिए। इस पत्र पर प्रभाष जोशी ने संपादकीय पृष्ठ पर लंबा लेख लिखा। उसवक्त हम लोगों का अखिल भारतीय पत्र लेखक मंच हुआ करता था। हमने पत्रलिखे-प्रभाष जी, यह तो कोई बात नहीं हुई। आपको भी चौपाल (पत्र स्तंभ) मेंआकर उतनी शब्द-सीमा में जवाब देना चाहिए, जितना उस लेखक को आपने स्थानदिया। आखिरकार, प्रभाष जोशी चौपाल में आए और पत्र का जवाब दिया। जितनीपंक्तियां उस पत्र लेखक की छापी गई थी, उतनी ही प्रभाष जी ने लिखी। यहबात अलग है कि उसके बाद हमारा अखिल भारतीय पत्र लेखक मंच काली सूची मेंडाल दिया गया। यह प्रभाष जोशी की सहजता और पाठकों की बात की स्वीकार्यताही थी। एसे लोग विरले ही होते हैं जो आलोचना को भी सहजता से लेते हैं।एक और संस्मरण याद आता है। इंदिरा गांधी के देहावसान के समय प्रभाष जोशीजी ने अपने लेख में नमनांजलि शब्द का प्रयोग किया। उधेड़बुन में लगनेवाले हम जैसे पत्र लेखकों ने प्रभाष जोशी जी को लिखा-यह शब्द का प्रयोगगलत है। नमन करोगे तो अंजलि कहां से बन जाएगी। प्रभाष जोशी ने इस शब्द कोवापस ले लिया। लेकिन भाषा को सर्वग्रह्य बनाने मे प्रभाष जोशी जी का कोईजवाब नहीं दिया। जब भी लिखा, बेबाक लिखा-चाहे वह इंदिरा गांधी हों यावीपी सिंह या नरसिम्हाराव। राजीव गांधी के दो शब्दों हमे देखना है और हमदेखेंगे का उन्होंने शाब्दिक चित्रण किया और राजीव को भविष्य का भारतकहा। आज, राहुल गांधी को देखकर लगता है, यह बात तो प्रभाष जोशी ने काफीपहले लिख दी थी। लेखन और वो भी क्रिकेटीय लेखन के तो वह मास्टर थे ही,हैडिंग्स के भी वह मास्टर थे। चुटीले और सीधी मार करने वाले हैडिंग्सदेने में उनका कोई सानी नहीं था। बेबाक, बेखौफ और बेलाग लिखने वालेप्रभाष जोशी चूंकि क्रिकेट में काफी मजबूत पकड़ रखते थे, इसलिए राजेंद्रमाथुर जी को शरद जोशी का सहारा लेना पड़ा था। व्यंग्यकार शरद जोशी केक्रिकेटीय व्यंग्य बेजोड़ होते थे।विश्वास नही हो रहा कि प्रभाष जोशी जी चले गए। भारत-आस्ट्रेलिया मैचदेखते हुए उनको दिल का दौरा पड़ा होगा। शायद, अंतिम ओवर का रोमांच प्रभाषजी को ले बैठा हो या सचिन की पारी देखते हुए उनको लंदन के सुनील गावस्करयाद आ गए हों। क्या कहा जा सकता है। प्रभाष जोशी जी आपको प्रणाम। आप बहुतयाद आओगे।
20 comments:
प्रभाष जी के निधन पर शब्दों में दुख व्यक्त करना मेरे लिए असंभव है। इस अपूर्णीय क्षति को पूरा नहीं किया जा सकता। उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि।
प्रभाष जोशी एक नाम .. जब भी पत्रकारिता के मानदंडों की बात होगी .. प्रखरता.. स्पष्टवादी की बात होगी .. यह नाम खारिज नहीं किया जा सकेगा .. .. मेरे अलवर के साथी ने एक बार कहा था तुम प्रभाष जोशी जी के सम्पादकीय पढो .. वास्तव में सबसे हटकर होते थे .. यह क्षति अपूर्णीय है .. एक खालीपन .. जो शायद ही भर सके ... परम पिता उन्हें शान्ति प्रदान करें
प्रभाष जी को हार्दिक श्रृद्धांजलि।
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परा मनोविज्ञान-अलौकिक बातों का विज्ञान।
ओबामा जी, 70 डॉलर में लादेन से निपटिए।
मैंने कई साल उनके मार्गदर्शन में काम किया-दो चार बातें....
@... अब कोई कोरा न बचा कागद...
@ ...शायद क्रिकेट खेलने ही नहीं पढ़ने की भी चीज है..हां मैंने सोचा जब प्रभाष जी को पहले पहल पढ़ा
@..तूने अर्थशात्र में एमए किया लेकिन लिखते कला साहित्य हो कहां क्या कर सकते हो- बेटे मुंबई जा राहुल (देव) के साथ काम कर..
@...सर मैं पहाड़ का रहने वाला हूं और यहां मुंबई समुद्र में आ गया ...इनके किनारे कई दिन से आइसोलेशन हो रहा है...(1989)....तो एक काम करो चंडीगढ़ चले जाओ वहां मनुष्यों की जरूरत है...
@..सर जब गोयनका गुस्सा होते थे तो आप ज्यादातर गीता का वही एक श्लोक ज्यादा क्यों सुनाते थे..
@...हां जसवंत जी क्या हो रहा है...और देखना मोदीजी यह लिख दिया है.. कंपोज के लिए दे दो..अंग्रेजी ठीक कर देना..
@..प्रमोद तुम यह मेज़ पर इतना ढेर क्यों लगाए हो- जिनको मैगजीन में नही छापना वापस क्यों नहीं करता..(1992)
.....और...और...और
शब्द जोशी जी की क्षति को बयां नही कर सकते.मन दु:खी है और मान भी नही रहा है. लेकिन होनी को कौन टाल सकता है.जिससे उन्हे अधिक प्रेम था उसी को देखने के पश्चात ही उन्होने इस संसार को विदा कहा - अनूठा प्रेम.जैसा कि प्रमोद जी ने अपनी एक टिप्पणी मे याद दिलाया कि जोशी जी ने ही क्रिकेट को देखने की ही चीज़ नही बल्कि क्रिकेट को पढना भी सिखाया. विन्रम श्रद्दांजलि
प्रभाष जोशी का यूं चले जाना स्तबध्कारी है .लेकिन मेरा निवेदन है कि इर्द -गिर्द के सभी पाठक नवभारत टाईम्स का ऑनलाइन प्रारूप पर प्रभाष जोशी के निधन पर प्रकाशित समाचार के साथ दर्ज पाठकों कि राय अवश्य देखें .वहां दर्ज कुछ कमेन्ट अभद्रता की सारी सीमा लाँघ गए हैं .इस सम्बन्ध में बता दूं कि नवभारत पर कमेन्ट सम्पादकीय जांच के बाद ही ऑनलाइन होते हैं .एक कमेन्ट में तो जोशीजी को इसलिए कोसा गया है क्योंकि वह अडवाणी जी के खिलाफ लिखते थे .कुछ ने तो इसी बहाने अत्यंत अशालीन भाषा में सचिन को कोसने के लिए इस मौके का istaimaal . किया है
prabhash ji ko vinamra shradhanjli.
Vanya
कलम और विचारों के अद्भुत खिलाड़ी को विनम्र श्रद्धांजलि।
हिन्दी पत्रकारिता को प्रभाष जी ने एक नई पहचान दी। समाचारों के कथ्य, शिल्प, भाषा और प्रस्तुतिकरण को लेकर उन्होंने जितने प्रयोग जनसत्ता में किए, वह सब बाद में दूसरे अखबारों केलिए उदाहरण बन गए। कार्टून विधा को उन्होंने अखबार में लोकप्रिय बनाया। अखबार की जनपक्षधरता को उन्होंने जिस तरह से रेखांकित किया वह सदैव अनुकरणीय रहेगी। वह जितने प्रखर विचारक थे, उतने ही प्रखर वक्ता। वक्त की नब्ज पर अंगुली रखते हुए जनसत्ता में उन्होंने समाचारों और विचारों का जो अद्भुत समन्वय प्रस्तुत किया, उसी वह ऐसी बुलंदी पर पहुंचा जिसकी कल्पना भी उस समय हिंदी अखबारों केलिए संभव नहीं थी।
उनके जाने की बात सुनकर मुझे दुष्यंत की भी याद आ रही है। दरअसल हिंदी अखबारों केलिए प्रभाष जी ने जो काम किया, वही दुष्यंत ने हिंदी गजल केलिए किया। उन्होंने उसे आम आदमी के सरोकारों से जोड़ा और भाषा के स्तर पर नई पहचान दी।
प्रभाष जी हमेशा याद आएंगे।
http://www.ashokvichar.blogspot.com
भला कोई क्रिकेट देखते मोक्ष को प्राप्त हुआ है, एसा अवसर तो उन दिवंगत क्रिकेटरों को भी नसीब नहीं हुआ जिन्होंने क्रिकेट को जीवन बना दिया था। शायद, इसी कारण कि क्रिकेट खेलना अलग विषय है और उसको जीना दूसरा विषय। प्रभाष जी के निधन पर किसी क्रिकेटर के मुंह से दो शब्द भी श्रद्धांजलि के नहीं फूटे। शायद, वह 99 के फेर में होंगे।
उनको पढ़कर अच्छा लिखने का सलीका लोगों को समझ आता था, मैंने निष्पक्षता और बेबाकी का ऐसा संयोजन कहीं और नही देखा। आज तो पत्रकारों की खाल ओढ़े दलाल हमें दिखायी देते हैं। प्रभाष जी का काम ऐसी गन्दगीयों पर अघात भी था। उनकी कमी कभी पूरी नही हो सकेगी।
प्रभाष जोशी जी का निधन पत्रकारिता जगत में निसंदेह एक क्षति है...
उनकी स्पष्ट्वदिता व अपनी आवाज को जनता की आवाज बना कर कह देना ..उनकी विश्ष्टिता थी.....
उन्हें पहली बार सुना था कुछ माह पूर्व त्रिवेणी सभागार में एक पुस्तक के लोकार्पण के लिए पधारे थे .....उनके व्यक्तित्व में गम्भीरता दिख रही थी....जब थोड़ा बोले तो ....हर शब्द जैसे सुलझा कर सामने रख रहे थे ....
उनके मार्गदर्शन से प्रेरित.... सभी मित्रों को उनके अनुभवों से पत्रकारिता की मर्यादा बनाये रखनी होगी....यही एक सच्ची श्रद्धांजलि होगी उन महान वरिष्ट पत्रकार को !!
सूर्यकांत द्विवेदी जी ने बखूबी उस क्षणिक से पल को दर्शाया है...पत्रकारिता से अलग की दुनिया भी ...प्रभाष जी की ..आभार !!
मेरा नमन और श्रद्धा सुमन समर्पित !!
विनम्र श्रद्धाँजलि।
Joshi ji ka nidhan nisandeh ek apurniya kshati hai.
विनम्र श्रद्धाँजलि।
प्रभांश जी भले ही चले गये हो लेकिन उन्होंने पत्रकारिता में जो प्रयोग किए वो और उनके शब्द हमेशा ही हमें नयी राह दिखाते रहेंगे। प्रभांश जी को चंद शब्दों में बयाँ नही किया जा सकता। में मेरठ और अपने सभी पत्रकार भाइयों की और से उन्हें श्रधान्जली अर्पित करता हूँ। इस आशा के साथ की हम प्रभांश जी की लेखनी को ख़ुद में आत्मसात करेंगे, ताकि दुनिया जब भी ऐसे लेख पढ़े तो उन्हें प्रभांश जी एक बार जरूर याद आए।
shehzad ahmed
प्रभाष जोशी को हमारी हार्दिक श्रृद्धांजलि
प्रभाष जी से कभी मिलने का अवसर नही मिला,किंतु उन्हें पढा काफी। उनके निधन का समाचार पढ धक्का लगां हार्दिक श्रद्धांजलि
अशोक मधुप
जोशी जी को श्रद्धांजलि !
आपके परिचय में कलम और कैमरे से मजदूरी पसंद आयी ! इस धारदार कलम और सृजनशीलता को शुभकामनायें !
पिछ्ले चार दिनों तक लगातार केरल की सड़कों और बैक-वॉटर्स में घूमते रहने ने समाचारों की दुनिया से अलग रखा। आज सुबह मेल में सबसे पहले इर्द-गिर्द को खोला और पहले ही समाचार ने चौंका दिया। प्रभाषजी के संपादकीयों को मैंने 1984-85 में जनसत्ता में पढ़ना शुरू किया था। मैंने उनकी जैसी भाषा आज तक भी किसी के पास नहीं पाई। मैं उस क्षण को कभी नहीं भूल सकता जब हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा 'शलाका सम्मान' से अलंकृत किए जाने वाले समारोह में अपना वक्तव्य देते हुए, अपने गुजरे समय के संघर्षों को याद करते हुए वह बहुत भावुक हो उठे थे। उस वक्त उन्होंने कबीर के शब्दों को दोहराते हुए कहा था--मेरी कोशिश आसमान में एक कील ठोंक देने की है…। उनके द्वारा बोला गया यह वाक्य मुझे हमेशा ही याद रहता है क्योंकि मैं हमेशा अपने आप को खुले आसमान के नीचे पाता हूँ और मुझे भी उन्हीं की तरह लगता रहा है कि फलक पर एक कील मुझे भी ठोकनी ही चाहिए…मुझे ही नहीं, श्रम को प्रमुखता देने वाले हर आदमी को। उनका विचार-फलक क्रिकेट तक सीमित नहीं था। पिछले कुछ दिनों से पत्रकारिता के क्षेत्र में वे दूसरे तरह के विरोधों को झेल रहे लगते थे। मैं समझता हूँ शरीर को ही त्यागकर अपने विरोधियों को उन्होंने हरा दिया है। हिन्दी पत्रकारिता को उन जैसे 'आकाशदीप' की हमेशा ही आवश्यकता रहेगी।
प्रभाष जोशी - विदिशा में जब था १९८८-१९९३ में तब जनसत्ता पढता था . याद नहीं . पर संपादक के लिए अख़बार दो - तीन ही ख़रीदे जीवन में गिरी लाल जैन के लिए टाइमस ऑफ़ इंडिया , प्रभाष जी के लिए जनसत्ता , और अंत में ईरानी जी के लिए स्टेटसमैन . बस इतना ही .
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