राम !
तुम्हारी अयोध्या मैं कभी नहीं गया
वहाँ जाकर करता भी क्या
तुमने तो ले ली
सरयू में जल समाधि.
अयोध्या तुम्हारे श्वासों में थी
बसी हुई थी तुम्हारे रग-रग में
लहू बन कर .
तुम्हारी अयोध्या जमीन का
कोई टुकड़ा भर नहीं थी
न ईंट गारे की बनी
इमारत थी वह.
अयोध्या तो तुम्हारी काया थी
अंतर्मन में धड़कता दिल हो जैसे .
तुम भी तो ऊब गए थे
इस धरती के प्रवास से
बिना सीता के जीवन
हो गया था तुम्हारा निस्सार
तुम चले गए
सरयू से गुजरते हुए
जीवन के उस पार.
तुम गए
अयोध्या भी चली गई
तुम्हारे साथ .
अब अयोध्या में है क्या
तुम्हारे नाम पर बजते
कुछ घंटे घडियाल.
राम नाम का खौफनाक उच्चारण
मंदिरों के शिखर में फहराती
कुछ रक्त रंजित ध्वजाएं.
खून मांगती लपलपाती जीभें
आग उगलती खूंखार आवाजें.
हर गली में मौत की पदचाप
भावी आशंका को भांप
रोते हुए आवारा कुत्ते .
तुम्हारे बिना अयोध्या
तुम्हारी अयोध्या नहीं है
वह तो तुम्हारी हमनाम
एक खतरनाक जगह है
जहाँ से रुक -रुक कर
सुनाई देते हैं
सामूहिक रुदन के
डरावने स्वर.
राम !
मुझे माफ करना
तुम्हारे से अलग कोई अयोध्या
कहीं है इस धरती पर तो
मुझे उसका पता मालूम नहीं .
Thursday, September 23, 2010
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20 comments:
ram to kab ke sarv-vyaapi ho chuke hain,vah ab kisi dharm,prant ya desh-deshantar ke bandhan me nahin rah gaye.jaise ram vaisi unki ayodhya !
मर्मस्पर्शी कविता। प्रभु को समझने के लिए एक सेतु है आपकी रचना।
समूचा जग ही राम का है। लेकिन आज की परिस्थितियों में हम मुंह में राम और बगल में छुरी रखते हैं।
बहुत सुंदर रचना, वेसे आज राम के नाम को भी लोग बेच रहे है, आयोध्या से या राम से किसी को कुछ मतलब नही
The politics of religion has a dirty face and this applies to all religion .
हरी जी !! बहुत सुन्दर रचना .. आज राम का नाम तो गूंज रहा है पर राम जैसी भावनाएं कहाँ - पुरुषोत्तम श्री राम के मार्ग के सच्चे अनुयाइयो की जरुरत है लेकिन धर्म के नाम पर हिंसा करने वालो की नहीं, मानवता के साधक की - आपकी कविता बेमिसाल है |
नूतन जी, शुक्रिया...ये रचना हमारे साथी मित्र निर्मल गुप्त की है...जय हो
एक चित्रकार / पत्रकार की कविता वास्तविकता से ज़्यादा अलहदा नहीं हो सकती, इस बात का पूरा पूरा यकीन है मुझे| पर साथ ही, मान्यवर, क्या आपको सिर्फ़ राम के नाम का ही प्रलाप सुनाई पड़ा? ये पूछने की भी इच्छा प्रबल हो रही है, मन में? निस्संदेह, मैं किसी राजनीतिक पार्टी का बंदा नहीं हूँ, न ही आप मुझे किसी दायरे में बँधा हुआ पाओगे कभी भी| अपनी राय से संबंधित चार पंक्तियाँ आपके अवलोकनार्थ:
ऐसी हर बात में दिखते मुझे 'चक्कर' क्यूँ हैं?
प्रश्न इतने, मेरे मन में, इसे ले कर क्यूँ हैं?
जो कि अल्लाह औ भगवान दोनो हैं इक ही!
फिर जमीँ पे कहीं मस्जिद, कहीं मंदर क्यूँ हैं?
मेरे ऊपर के शेर का चौथा मिसरा, ओबिओ के चौथे मुशायरे की पंक्ति है| ये सुदर्शन साहिब की ग़ज़ल से ली हुई है|
साथ ही एक बहुत ही सशक्त भाव-प्रवण कविता साझा करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद| मुझे आगे भी खुद से जोड़े रखिएगा श्रीमान|
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निर्मल गुप्त जी ,,, बेहद सामान्य से ढंग से आपने अयोध्या की स्थिति पर कटाक्ष किया है , कब राम ने कहा कि मेरे नाम पर आओ और बलवा करो ?बहुत सुन्दर लेखन है ...
इसी विषय पर मेरा भी एक आर्टिकल है ,,, समय मिले तो घूम आईयेगा >>>
::: धर्म या रजनीति ::: © ( सोचने की अभी बहुत ज़रूरत है हमें )
.
सुन्दर! क़ैफ़ी आज़मी की नज़्म 'राम बनवास से जब लौट के घर को आये' की याद ताज़ा हो गई। बधाई।
एक मुकम्मल कविता के लिए बधाई
राम
दशरथ पुत्र राम
अजोध्या के राम
तुलसी के राम
कबीर के राम
१९९२ की अजोध्या के राम
अब की अजोध्या के राम
जन-जन के राम
और
हिंदुत्व वादियों के राम
के मर्म को खोलती हुई सार्थक कविता के लिए आभारी हूँ.....
अच्छी कविता
बहुत उम्दा कविता...
मान्यवर सिर्फ कविता को पढ़ा जाय तो सुंदर शब्दों की रचना है भाव विभोर भी करती है किन्तु आपकी पंकितियाँ "मंदिरों के शिखर में फहराती
कुछ रक्त रंजित ध्वजाएं.
खून मांगती लपलपाती जीभें
आग उगलती खूंखार आवाजें.
हर गली में मौत की पदचाप
भावी आशंका को भांप
रोते हुए आवारा कुत्ते ."
प्रश्न करती हैं की राम के ही नाम से अयोध्या खौफनाक बन गयी है , आपने इतिहास को क्यों भुला दिया यदि कोई व्यक्ति जो आपका किरायेदार है घर पर कब्ज़ा कर दे, अथवा कुछ निर्माण कार्य कर रहा हो तो क्या आप ऐसा होने देंगे . प्रयोग करके देखे फिर दुनिया को बताये की आप कैसा महसूस करते हैं. भगवान् राम की व्याख्या तो बहुत दूर की बात है . जो आप जताना चाहते है वह सिर्फ लेखकों और कवियों के काल्पनिक पुलाव की तरह है. जो भी लिखे इतिहास का भी ध्यान दीजियेगा इतिहास में अगर कोई गलती हुई है तो क्या उसका परिमार्जन नहीं होना चाहिए. सिर्फ कविता मत लिखिए इतिहास को भी ठीक कीजियेगा.
राम से शुरू हुई अयोध्या में अब बस, राम नाम सत्य है...!
मिलेंगे राम तो पूछुंगा 'रास्ता' अयोध्या का!!
ab na toh ram hain na ayodhya .. achchhi lagi aapki kavita
Kya bariya kawita likhi hae. bahut bahut badai Nirmal bhai ko.
आप सभी ने मेरी कविता को पढा .कुछ ने सराहा कुछ ने अपनी आपत्ति दर्ज की .मैं तहेदिल से सभी का आभारी हूँ .आपकी राय मेरे लिए बेशकीमती है .
निर्मल गुप्त
बहुतों ने ऐसा महसूस किया है इस दौर में.
तुम्हारे राम का हो ज़िक्र मेरी मस्जिद में, मेरे खुदा की सदा आ बसे शिवालों में / न तुमको खौफ हो मस्जिद में आने-जाने प़र, न हमको डर हो कि मंदिर है बुत्परस्तों का. / सदायें दो कि मुहब्बत के शंख गूंजे हैं, अजां सुनो तो अक़ीदत से सिर झुका लेना. / इसी तरह से मुहब्बत को आओ शहद कर लें! ---ranjan zaidi
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