एक माननीय पाठक/विजीटर ने मेरे आलेख-ये कैसा इंसाफ पर बेनामी टिप्पढ़ी लिखी है। मैं सच्चाई नहीं जानता लेकिन मुझे लगता है कि ये व्यथा कथा मैने नजदीक से देखी है। आप भी इस दर्द को समझिए। टिप्पढ़ी को पोस्ट में परोस रहा हूं।
पहले मास्साब का पेट तो भरो देश में बेसिक शिक्षा का जो हाल है वो किसी से छिपा नहीं है। इसके लिये ज़िम्मेदार ठहराने की बात हो तो लोग शिक्षकों से लेकर नेताओं तक को गालियां देते नहीं थकते हैं लेकिन असली कारण की तह तक कोई नहीं जाना चाहता है। जिन शिक्षकों पर बेसिक शिक्षा का भार है उनको ६-७ माह तक वेतन नहीं मिलता है कोई जानता है इस बात को। क्या उनका परिवार नहीं है क्या उनके बीबी बच्चे नहीं हैं, क्या वो रोटी नहीं खाते हैं, क्या वो कपड़े नहीं पहनते हैं। क्या उनको मकान का किराया नहीं देना होता है. क्या उनके स्कूटर में पेट्रोल नहीं पड़ता है। ऐसी हालत में अगर उनसे पढ़ाने में कोई भूल हो जाये या कमी रह जाये तो हर तरह की मलामत। स्कूल इंस्पेक्टर से लेकर बेसिक शिक्षा अधिकारी तक बेचारे मास्टर की खाल खींचने को तैयार रहते हैं। लेकिन बेसिक शिक्षा अधिकारी के ही बगल में कुर्सी डालकर बैठने वाले उस लेखाधिकारी से कोई एक शब्द भी नहीं पूछता जो शिक्षकों के वेतन के बिल छह-छह महीने तक बिना किसी कारण के अटकाकर रखता है। देश का हाल मुझे नहीं पता लेकिन उत्तर प्रदेश और खासतौर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मेरठ, अलीगढ़, बुलंदशहर, आगरा और मथुरा जैसी जगहों पर तो उस शिक्षक का यहीं हाल है जिसे राष्ट्रनिर्माता कहा जाता है। किसी से शिकायत वो कर नहीं सकता क्योंकि फिर नौकरी खतरे में पड़ जायेगी। शिक्षा विभाग का अदना सा बाबू उस शिक्षक या हेडमास्टर को चाहे जब सफाई लेने के लिये दफ्तर बुला लेता है जिसके पढ़ाये हुए कई बच्चे ऊंचे पदों पर बैठे हैं। बुलंदशहर के कई स्कूलों का हाल मुझे पता है जहां शिक्षकों को महीनों वेतन नहीं मिलता है। कुछ स्कूलों में पिछले साल का बोनस अब तक नहीं मिला है जबकि कुछ में मिल चुका है। आखिर इसका क्या पैमाना है। बेसिक शिक्षा से जुड़े अफसरों की निरंकुशता के अलावा और क्या पैमाना हो सकता है इसका। ऐरियर का भी कोई हिसाब किताब नहीं है। शायद लेखाधिकारी महोदय के रहमोकरम पर इस देश की शिक्षा व्यवस्था चल रही है। जो बेसिक शिक्षा इस देश के निर्माताओं की नींव रखती है वो सरकार और अफसरों की प्राथमिकता सूची में सबसे नीचे हैं शायद। आखिर ऐसा कब तक चलेगा, दरमियाने अफसरों और छुठभैये बाबुओं के चंगुल से कब मुक्त होगी विध्या के उपासकों की बिरादरी। तहसीलदार
Saturday, August 9, 2008
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12 comments:
टिप्पणि बिलकुल करेगे जी :)वाकई दुखी दिल की फ़रीयाद है और सरासर सही है. लेकिन कौन देखे कौन कहे जब सारे कुये मे ही भांग पडी हो ? आप इनका ब्लोग बनवा कर इन्हे लगातार लिखने के लिये प्रेरित करे
bahut achchi post hai.....
माननीय सर्वोच्य नियालय ने कहा है इस देश का तो भगवान भी मालिक नहीं है ..अब और क्या रह जाता है कहने के लिए ..लेकिन आप जरी रहिये .....
जारी रहे यह अभियान ........
sachee joshi ji...
achcha or sachcha likha hai..
Anwar ne b sahi kaha hai ki is desh ka bhagwaan hi malik hai...
achhi post
such kaha hai such ke siwa aur kuch nahi.
शुभकामनाऐं-लिखते रहें-लिखवाते रहें.
मेरी टिप्पणी को आलेख के रूप में छापने पर धन्यवाद। टिप्पणियों की संख्या देखकर लगा कि आम लोगों को तो बेसिक शिक्षा की चिंता है लेकिन उन अफसरों को नहीं जिनको बेसिक शिक्षा शायद मिली ही नहीं है। कोई छोटा-बड़ा सरकारी काम, अभियान शिक्षकों के बगैर पूरा नहीं होता, लेकिन बदलें में थोड़ा-बहुत पैसा मिलना तो दूर उनके काम को कोई काम भी नहीं मानता। सर्दी, गर्मी, बारिश की चिंता किये बगैर जुटे रने वाले शिक्षकों को सबसे ज्यादा परेशानी नौकरशाही से ही है। बेसिक शिक्षा विभाग के ज़िला दफ्तरों में बैठे बाबू इतना तंग करते हैं कि बस पूछिये मत, कई बार रोने को मन करने लगता है। लेकिन रो नहीं पाते। अगर हम ही हिम्मत हार जायेंगे तो उन माता-पिता को क्या मुंह दिखाएंगे जो अपने बच्चों को कुछ बनने के लिये हमारे पास भेजते हैं। अंदर ही अंदर घुलते रहते हैं कुढ़ते रहते हैं। समय पर वेतन,एरियर, बोनस की तो छोड़िये अगर शिक्षक अपने पीएफ में से कुछ पैसा बेटी की शादी के लिये लेना चाहे तो बेसिक शिक्षा के दफ्तर में बैठे बाबू उसकी चकरघिन्नी बना देते हैं और पैसा रिलीज़ करने के लिये सिफारिश तभी आगे बढ़ती है जब......। पश्चिम उत्तर प्रदेश में सहायता प्राप्त स्कूलों के शिक्षकों को मासिक वेतन मिलने की कागज़ी प्रक्रिया ही इतनी लंबी है कि बस पूछिये मत। स्कूल के बाबू से लेकर लेखाधिकारी और ट्रेजरी होते हुए चेक स्कूल आता है, अगर फंड उपलब्ध हो तब। यही कारण है कि बुलंदशहर के कुछ स्कूलों में तो छह-छह महीने लग जाते हैं वेतन मिलने में। सबसे दुखदायी बात ये है कि हम अपने ही वेतन के बारे में पूछताछ नहीं कर सकते, कहीं लेखाधिकारी नाराज़ ना हो जायें। स्कूल के हेडमास्टर से लेकर प्रबंधक तक यही सुझाव देते हैं जो मिल रहा जब मिल रहा है संतोष करो। आखिर कब तक ज़नाब?
तहसीलदार
शुभकामनाऐं-लिखते रहें-लिखवाते रहें.
क्या सचमुच इतना बुरा हाल है पश्चिमी उत्तर प्रदेश में? परेशान लोगों को सूचना के अधिकार का इस्तेमाल करके जानकारी लेनी चाहिये कि उनका वेतन क्यों इतने महीनों तक रोका जाता है। जो दोषी हैं उनकी शिकायत भी कलेक्टर से लेकर मुख्यमंत्री तक करनी चाहिये, आखिर कहीं तो सुनवाई होगी। वैसे भी सुना है कि इस बार मुख्यमंत्री मायावती का अंदाज़ बदला हुआ है और वो आम जनता के हित में सख्त कदम उठा रही हैं। कोशिश करने में क्या हर्ज है मास्टर साहब।
बेसिक शिक्षा की इससे भी खराब हालत यह है कि यहां बच्चा पढ़ने नही छात्रवतिृ ही लेन आता है। वह परीक्षा के दिन ही स्कूल आता है। बाकी दिन कहीं मजदरी या काम करता है। कापी पर नाम लिखकर भी वह शिक्षक पर अहसान करता है। क्योंकि उत्तर पुस्तकि में वह कुछ लिखे या न लिखे विभाग के आदेशानुसार शिक्षक को उसे उत्तीर्ण करना अनिवार्य है। फुल कर देने के हालत मे शिक्षक को छा़त्र को गर्मियों के अवकाश में उसे पढाना होगा आर स्कूल खुलने पर परीक्षा लेकर उत्तीर्ण करना हागा । अब बताआे कौन शिक्षक अपने अवकाश खोना चाहेगा सो केार काफी छोड़कर आने वाले को पास कर अपना पीछा छुडा लेगा।
अशोक मधुप
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