कहीं कृष्ण लीला चल रहीं हैं...कहीं माखनचोर की झांकियां सजी हैं। जन्माष्टमी का मौका है। हर बार ऐसा ही होता है लेकिन इस बार कुछ खास बात है।
इस बार कृष्ण जी चाइना से आए हैं। लगता है वो दिन लद गये जब भगवान कृष्ण कुम्हार के चाक और सांचे से निकलकर सज-संवकर आया करते थे..इस बार तो लीलाधर हिमालय के उस पार चीन से आये हैं। यानी बाज़ार की क्या कहें इस बार भगवान श्रीकृष्ण पर भी परदेस की मुहर लग गई। मथुरा के लड्डू गोपाल वाया चीन आ रहे हैं। होली के चमकीले खतरनाक रंगों-पिचकारियों, दीपावली की लड़ियों-पटाखों और गणेश पूजा के गणपति के बाद चीन ने जन्माष्टमी के बाजार पर भी हल्ला बोला है। कल्लू कुम्हार से कहीं ज्यादा बेहतर फिनिशिंग के साथ बारह से बारह सौ रूपये तक के लार्ड कृष्णा अलग-अलग लीलाओं में हमारे एक्सक्लूसिव भक्तों के लिए आर्चीज से लेकर मॉल्स तक में सज गए हैं, जहां अपमार्केट या अपमार्केट दिखने वाली भीड़ अपने-अपने बांके पैक करा रही है। अगर आप इस भीड़ में घुसकर अपमार्केट ज्ञान लेना चाहेंगे, तो आपको कुछ ऐसा सुनाई देगा- "ये माखन चोर बड़े क्यूट हैं....देखो कितने शरारती लग रहे हैं...हमारे मंदिर में बहुत सुंदर लगेगें....चाइनीज हैं न....पैक कर दीजिए"
बात बहुत पुरानी नहीं है...एक समय था जब कुम्हार छह महीने पहले से जन्माष्टमी के लिये मूर्तियां गढ़ना शुरू कर देते थे। मिट्टी को गूंथकर हाथों से या सांचे में डालकर आकार देते...भट्टियों में पकाते और फिर रंग भरकर, कभी-कभी असली नकली मोरपंख लगाकर भक्ति भावना से अपने-अपने गोपालों को सजाते-संवारते थे। लेकिन वक्त का फेर देखिये पहले जहां कुम्हारों के चाल लगते थे वहां अट्टालिकायें खड़ी हो गई हैं। जबसे त्वचा से उम्र का पता ना लगने देने की जिद सामने आई है काय चिक्तिसा के लिये मिट्टी भी पैकेट में मिल रही है। अब ना मिट्टी है, ना कुम्हार हैं और न ही परंपरागत बाजार। जब हमारे कर्णधारों को सामाजिक सुरक्षा की सुध ही न रही तो हमारे कुम्हार कलाकारों की कला और बाजार कैसे बचता। आज हम ग्लोवल बिलेज में जीते हैं। हमें बेहतर क्वालिटी और क्यूट दिखने वाले गोपाल चाहिएं। लेकिन सोचिए कि हमारी सरकार अगर हमारे भगवान को आयात करने का अधिकार ही न दे तो क्या हमारे परंपरागत कलाकारों का रोजगार छिनने से नहीं बच जाएगा। क्या ऐसे क्षेत्रों में आयात की अनुमति देने और हमारे मूर्तिशिल्पियों को सल्फास की गोली खिलाने में कोई फर्क है। क्या हम केवल ग्रोथ रेट और सेंसेक्स को ही प्रगति का पैमाना मानकर ढोल पीटते रहेंगे। सामाजिक सुरक्षा के लिए क्या हम सिर्फ चुनावी कार्यक्रम चलाकर अपना उल्लू सीधा करते रहेंगे। ऐसे अनगिनत सवाल हैं जिसका जबाव हमें सामूहिक रूप से मांगना और खोजना होगा।
लेकिन घबराने की बात नहीं ये चीन वाले कान्हा को सजा तो खूब देंगे लेकिन उस मूर्ति में मिट्टी की वो सोंधी खुशबू कहां से लाएंगे जिसे दूर से ही सूंघकर दादी कहती थी बेटा, इस बार बड़ी जल्दी आ गये लड्डू गोपाल। वो खुशबू वो मुंह पर लगा माखन..गो ना मिले चीन में गो तो नंदलाला ये हीं मिलेगो जमुना किनारे गंगा किनारे। और सुनी गे प्लास्टिक के रसिया आंखन में तो उतर सकें हैं दिल में कैसे उतरेंगे। छोड़ों रसियाए या चक्कर में मत फंसाओ चीनेऊ कछु खानपीन देओ ओलिंपिक में बलाय पैसा खर्च करो है भैया।
बात बहुत पुरानी नहीं है...एक समय था जब कुम्हार छह महीने पहले से जन्माष्टमी के लिये मूर्तियां गढ़ना शुरू कर देते थे। मिट्टी को गूंथकर हाथों से या सांचे में डालकर आकार देते...भट्टियों में पकाते और फिर रंग भरकर, कभी-कभी असली नकली मोरपंख लगाकर भक्ति भावना से अपने-अपने गोपालों को सजाते-संवारते थे। लेकिन वक्त का फेर देखिये पहले जहां कुम्हारों के चाल लगते थे वहां अट्टालिकायें खड़ी हो गई हैं। जबसे त्वचा से उम्र का पता ना लगने देने की जिद सामने आई है काय चिक्तिसा के लिये मिट्टी भी पैकेट में मिल रही है। अब ना मिट्टी है, ना कुम्हार हैं और न ही परंपरागत बाजार। जब हमारे कर्णधारों को सामाजिक सुरक्षा की सुध ही न रही तो हमारे कुम्हार कलाकारों की कला और बाजार कैसे बचता। आज हम ग्लोवल बिलेज में जीते हैं। हमें बेहतर क्वालिटी और क्यूट दिखने वाले गोपाल चाहिएं। लेकिन सोचिए कि हमारी सरकार अगर हमारे भगवान को आयात करने का अधिकार ही न दे तो क्या हमारे परंपरागत कलाकारों का रोजगार छिनने से नहीं बच जाएगा। क्या ऐसे क्षेत्रों में आयात की अनुमति देने और हमारे मूर्तिशिल्पियों को सल्फास की गोली खिलाने में कोई फर्क है। क्या हम केवल ग्रोथ रेट और सेंसेक्स को ही प्रगति का पैमाना मानकर ढोल पीटते रहेंगे। सामाजिक सुरक्षा के लिए क्या हम सिर्फ चुनावी कार्यक्रम चलाकर अपना उल्लू सीधा करते रहेंगे। ऐसे अनगिनत सवाल हैं जिसका जबाव हमें सामूहिक रूप से मांगना और खोजना होगा।
लेकिन घबराने की बात नहीं ये चीन वाले कान्हा को सजा तो खूब देंगे लेकिन उस मूर्ति में मिट्टी की वो सोंधी खुशबू कहां से लाएंगे जिसे दूर से ही सूंघकर दादी कहती थी बेटा, इस बार बड़ी जल्दी आ गये लड्डू गोपाल। वो खुशबू वो मुंह पर लगा माखन..गो ना मिले चीन में गो तो नंदलाला ये हीं मिलेगो जमुना किनारे गंगा किनारे। और सुनी गे प्लास्टिक के रसिया आंखन में तो उतर सकें हैं दिल में कैसे उतरेंगे। छोड़ों रसियाए या चक्कर में मत फंसाओ चीनेऊ कछु खानपीन देओ ओलिंपिक में बलाय पैसा खर्च करो है भैया।
12 comments:
बहुत अच्छा लेख..सही कहा आपने !
हाँ, भाई। बाजार खुला है तो सभी आएँगे। घर के कुम्हारों की किसे फिक्र है?
सुंदर आलेख, आभार। आभार इसलिए कि नारायण का स्मरण करते वक्त दरिद्र नारायण को भी नहीं भुलाया।
भाई, इस सरकार को कारीगरों, किसानों की चिंता कहां .. यह तो सिर्फ आयातकों-निर्यातकों, उद्योगपतियों और कालाबाजारियों की चिंता करती है। करे भी क्यों नहीं, गरीब किसान और कारीगर तो चंदा देने से रहे। अब देखिए न.. केन्द्र सरकार ने चावल और मक्का के निर्यात पर से पाबंदी नहीं हटाई क्योंकि उसके अनुसार इससे उन अनाजों की महंगाई बढ़ जाएगी। लेकिन उसने उनके बीज के निर्यात को छूट दे दी है। क्या इससे देश में उन बीजों की महंगाई नहीं बढ़ेगी? या किसान इतने अमीर हैं कि उनके लिए महंगाई कोई मायने नहीं रखती? अभी मैं इसी बात पर पोस्ट लिख रहा था, इस बीच आपका यह आलेख नजर में आ गया।
आपके कहने का अंदाज प्यारा है. अच्छे लगे कन्हाई चाइना के. मुकुंद
जन्माष्टमी की बहुत बहुत वधाई
सहमत हूँ आपके विचारों से। बेहतरीन आलेख
sirji badhaie,
apne kanha bhi foreign return ho gaye hai. un par bhi globlization ka bukhar chad gaya hai. tabhi to unhone apna makeover karane ke liye cheen ke bajar ko chuna hai.
vandana
pandit ji maharaaj,
itnaa sundar to amar ujala me bhi nahi likha hai.
arvind kumar singh
सच ....बिकुल सही.
आँखों तक रुकने और दिल में
न उतरने वाले कान्हा देह की चिकित्सा
चाहे करें दें, आत्मा में संगीत पैदा
नहीं कर सकते. ==================
इस प्रस्तुति में सूचना...सरोकार...संदेश
एक साथ मौजूद है....आभार.
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
अच्छा लगा।
प्लास्टिक के रसिया आंखन में तो उतर सकें हैं दिल में कैसे उतरेंगे। , अच्छा लिखा है आपने
शुक्रिया इस सार्थक लेख को देने के लिए .....जो मन में सोये कई सवालो को जगा देता है....शायद जवाब ढूँढने निकले कोई ?
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