आज सुबह उठते ही मेरे सिरहाने रखे अखबार में छपी एक खबर पर नजर गई। हिंदुस्तान में दो टूक शीर्षक से एक समाचार टिप्पणी पहले ही पन्ने पर शीर्ष खबर के बाएं छपी हुई थी। आपके सामने पहले वही प्रस्तुत करता हूं-- अंतत: बाघ मारा गया। मारने वाले इसे बड़ी उपलब्धि बता रहे हैं। आल्हादित शिकारी बड़े शान से फोटो खिंचवा रहे हैं। वन विभाग और उसके मुलाजिमों की भाषा और देहभाषा जरा गौर से देखिए। कुछ ऐसे बिहेव कर रहें हैं मानो उन्होंने कोई खूंखार आतंकवादी मार गिराया हो। क्या विडम्बना है! दरअसल हमने एक निरीह बेजुवान की हत्या की है। कानूनी मंत्रोच्चार के साथ कानून को ही ढाल बना कर उसे घेर कर मारा है। पहले हमने उस बेजुवान को बेघर किया। फिर भूखे बाघ को नरभक्षी बनने दिया। कायदे से तो हमें भटके बाघ को पकड़कर सही-सलामत उसके घर पंहुचाना चाहिए था। तकनीक और तरकीब के तमाम तामझाम वाले 2009 में भी हम इतना नहीं कर सके। फिर इस बेजुवान पर वाहवाही कैसी! धिक्कार है इस फतह पर!
खबर सचमुच हिला कर रख देने वाली थी। दो दिन पहले ही मैने इर्द-गिर्द पर एक पोस्ट आदमखोर होते बाघ : घर उजड़ेगा तो क्या होगा? लिखी थी। इस पोस्ट पर पहली ही प्रतिक्रिया थी कि बाघ को क्या आदमी की कीमत पर संरक्षण दिया जाना चाहिए। ये सवाल लंबे समय से उठता रहा है। इसी कड़ी में कुछ और प्रतिक्रियाएं थीं जिसमें से निर्मल गुप्त जी की प्रतिक्रिया भी कुछ इस तरह थी कि क्या आदमी को उदरस्थ करने के लिए बाघों को यूं ही खुला छोड़ देना चाहिए। सवाल गंभीर है लेकिन निर्मल जी उसका घर भी तो हमने ही उजाड़ा है। जंगलों का दोहन भी तो आदमी ने किया है अपने स्वार्थ के लिए और जब किसी का घर उजड़ता है, उसका भोजन छिनता है तो वह क्या करेगा। आबादी की तरफ भागेगा और वहां खेतों में झुक कर नियार खाती महिला को चौपाया समझकर हमला करेगा। या भूख से व्याकुल अपने भोजन के लिए कुछ भी करेगा। लेकिन आदमी और जानवर में फर्क होता है। क्या आदमी को भी जानवर हो जाना चाहिए। क्या हम इतने आधुनिक और तकनीकी तौर पर उन्नतशील हो जाने के बाद भी एक बाघ को (चाहें वह आदमखोर घोषित हो गया हो) जिंदा नहीं पकड़ सकते। बाघ को ट्रेंकुलाइजर गन से बेहोश कर घने जंगल में किसी दूसरी जगह भी शिफ्ट किया जा सकता था। लेकिन नहीं! बाघ को मारकर अपना शौर्य प्रदर्शित करने वाली टीम के साथ वन विभाग ने फोटो खिंचवाए। जश्न मनाया। क्या ये सचमुच वीरता या शौर्य का कार्य है।
सवाल उठता है कि बाघ जंगलों से निकलकर आबादी से आबादी में भागते रहे क्योंकि बाघ को भी अपनी जान का खतरा था। बाघ को बचाने की जिम्मेदारी अपने कंधों पर संजोने वाले वन विभाग के 'काबिल' अधिकारी और कर्मचारी बाघ की इस तरह से घेराबंदी करते रहे कि वह जंगल की तरफ न जाकर आबादी की तरफ ही भागता रहा। इस बात से हर कोई इत्तफाक रखेगा कि बाघ चाहें कितना भी क्रूर और हिंसक क्यों न हो लेकिन पैंतरेबाजी में वह आदमी का मुकाबला कभी नहीं कर सकता।..और जब आदमी यह ठान ले कि उसे मारना है तो बाघ का जीवित रहना नामुमकिन है। वन विभाग भी कानून की ढाल बनाकर बाघ को आदमखोर घोषित कर पकड़ने या मारने का आदेश दे चुका था और जाहिर है कि उनकी नीयत बाघ को जीवित पकड़ने की होती तो उन्होंने उस तरह के इंतजाम किए होते। बंदूक हाथ में लेकर बाघ को पकड़ा तो नहीं जा सकता। बाघ भी कोई खरगोश का बच्चा तो है नहीं कि दौड़े और पकड़ लिया।
हमने ज्यों-ज्यों तरक्की की राह पकड़ी, सभ्य हुए, आधुनिकता का रंग चढ़ा; त्यों-त्यों साल-दर-साल बाघ गायब होते गए। कानून सख्त हुए, रखवाले बढ़ाए गए, अरबों रुपया प्रोजेक्ट टाइगर के नाम पर बहाया गया लेकिन जनता का वह पैसा भी पानी बन गया। कई जगह बाघ का नामोनिशान नहीं बचा। बाघ की झूठी गणनाएं रखकर सफलता की मुनादी होती रही लेकिन एक दिन पता चला कि सारिस्का में तो बाघ बचे ही नहीं। कारण साफ है कि बाघ को बचाने के लिए धन बहाया जाता रहा लेकिन उसके प्राकृतिक आवास सिकुड़ते रहे। वन माफियाओं ने जंगल का दोहन किया। क्या रखवालों की आंखे खुली रहने पर क्या ये संभव था। लेकिन दो ही काम संभव थे- या तो जेब गर्म रहें या जंगल बचें। हर साल शिकारी पकड़े जाते हैं और उनकी खालें और दूसरे अंग बरामद होते हैं लेकिन फिर भी संसार सिंह जैसे वन्य जीव के तस्करों का कुछ नहीं होता। वह जेल भी जाते हैं तो अंदर रहकर भी अपना नेटवर्क चलाते रहते हैं। कुछ दिन बाद वह कानूनी दावपेंच के सहारे बाहर भी आ जाते हैं। क्यों होता है ऐसा? साफ है कि हमारा सिस्टम और सिस्टम को दुरुस्त रखने वाले ही उनके मददगार हैं। क्या ये लोग भी स्वात घाटी से आते हैं? क्या इन्हें भी आईएसआई और पाकिस्तानी हुकुमत मदद करती है? ट्रेनिंग देती है? वन माफिया हों या वन्य जीवों के तस्कर; इनके मददगार हमारे और आपके बीच के लोग हैं। वही इन भक्षकों के मददगार हैं जिन्हें हमने रक्षक बनाया है।
अगर हम एक आदमखोर बाघ को इस युग में भी कैद नहीं कर सकते तो इस विवशता पर भी विचार करना चाहिए। अब समय आ गया है जब हम प्रोजेक्ट टाइगर की दशा और दिशा की चहुंमुखी समीक्षा करें। आज मैं इतना ही सोच पा रहा हूं; बाकी आप बताइए कि मेरी सोच गलत है या सही।
खबर सचमुच हिला कर रख देने वाली थी। दो दिन पहले ही मैने इर्द-गिर्द पर एक पोस्ट आदमखोर होते बाघ : घर उजड़ेगा तो क्या होगा? लिखी थी। इस पोस्ट पर पहली ही प्रतिक्रिया थी कि बाघ को क्या आदमी की कीमत पर संरक्षण दिया जाना चाहिए। ये सवाल लंबे समय से उठता रहा है। इसी कड़ी में कुछ और प्रतिक्रियाएं थीं जिसमें से निर्मल गुप्त जी की प्रतिक्रिया भी कुछ इस तरह थी कि क्या आदमी को उदरस्थ करने के लिए बाघों को यूं ही खुला छोड़ देना चाहिए। सवाल गंभीर है लेकिन निर्मल जी उसका घर भी तो हमने ही उजाड़ा है। जंगलों का दोहन भी तो आदमी ने किया है अपने स्वार्थ के लिए और जब किसी का घर उजड़ता है, उसका भोजन छिनता है तो वह क्या करेगा। आबादी की तरफ भागेगा और वहां खेतों में झुक कर नियार खाती महिला को चौपाया समझकर हमला करेगा। या भूख से व्याकुल अपने भोजन के लिए कुछ भी करेगा। लेकिन आदमी और जानवर में फर्क होता है। क्या आदमी को भी जानवर हो जाना चाहिए। क्या हम इतने आधुनिक और तकनीकी तौर पर उन्नतशील हो जाने के बाद भी एक बाघ को (चाहें वह आदमखोर घोषित हो गया हो) जिंदा नहीं पकड़ सकते। बाघ को ट्रेंकुलाइजर गन से बेहोश कर घने जंगल में किसी दूसरी जगह भी शिफ्ट किया जा सकता था। लेकिन नहीं! बाघ को मारकर अपना शौर्य प्रदर्शित करने वाली टीम के साथ वन विभाग ने फोटो खिंचवाए। जश्न मनाया। क्या ये सचमुच वीरता या शौर्य का कार्य है।
सवाल उठता है कि बाघ जंगलों से निकलकर आबादी से आबादी में भागते रहे क्योंकि बाघ को भी अपनी जान का खतरा था। बाघ को बचाने की जिम्मेदारी अपने कंधों पर संजोने वाले वन विभाग के 'काबिल' अधिकारी और कर्मचारी बाघ की इस तरह से घेराबंदी करते रहे कि वह जंगल की तरफ न जाकर आबादी की तरफ ही भागता रहा। इस बात से हर कोई इत्तफाक रखेगा कि बाघ चाहें कितना भी क्रूर और हिंसक क्यों न हो लेकिन पैंतरेबाजी में वह आदमी का मुकाबला कभी नहीं कर सकता।..और जब आदमी यह ठान ले कि उसे मारना है तो बाघ का जीवित रहना नामुमकिन है। वन विभाग भी कानून की ढाल बनाकर बाघ को आदमखोर घोषित कर पकड़ने या मारने का आदेश दे चुका था और जाहिर है कि उनकी नीयत बाघ को जीवित पकड़ने की होती तो उन्होंने उस तरह के इंतजाम किए होते। बंदूक हाथ में लेकर बाघ को पकड़ा तो नहीं जा सकता। बाघ भी कोई खरगोश का बच्चा तो है नहीं कि दौड़े और पकड़ लिया।
हमने ज्यों-ज्यों तरक्की की राह पकड़ी, सभ्य हुए, आधुनिकता का रंग चढ़ा; त्यों-त्यों साल-दर-साल बाघ गायब होते गए। कानून सख्त हुए, रखवाले बढ़ाए गए, अरबों रुपया प्रोजेक्ट टाइगर के नाम पर बहाया गया लेकिन जनता का वह पैसा भी पानी बन गया। कई जगह बाघ का नामोनिशान नहीं बचा। बाघ की झूठी गणनाएं रखकर सफलता की मुनादी होती रही लेकिन एक दिन पता चला कि सारिस्का में तो बाघ बचे ही नहीं। कारण साफ है कि बाघ को बचाने के लिए धन बहाया जाता रहा लेकिन उसके प्राकृतिक आवास सिकुड़ते रहे। वन माफियाओं ने जंगल का दोहन किया। क्या रखवालों की आंखे खुली रहने पर क्या ये संभव था। लेकिन दो ही काम संभव थे- या तो जेब गर्म रहें या जंगल बचें। हर साल शिकारी पकड़े जाते हैं और उनकी खालें और दूसरे अंग बरामद होते हैं लेकिन फिर भी संसार सिंह जैसे वन्य जीव के तस्करों का कुछ नहीं होता। वह जेल भी जाते हैं तो अंदर रहकर भी अपना नेटवर्क चलाते रहते हैं। कुछ दिन बाद वह कानूनी दावपेंच के सहारे बाहर भी आ जाते हैं। क्यों होता है ऐसा? साफ है कि हमारा सिस्टम और सिस्टम को दुरुस्त रखने वाले ही उनके मददगार हैं। क्या ये लोग भी स्वात घाटी से आते हैं? क्या इन्हें भी आईएसआई और पाकिस्तानी हुकुमत मदद करती है? ट्रेनिंग देती है? वन माफिया हों या वन्य जीवों के तस्कर; इनके मददगार हमारे और आपके बीच के लोग हैं। वही इन भक्षकों के मददगार हैं जिन्हें हमने रक्षक बनाया है।
अगर हम एक आदमखोर बाघ को इस युग में भी कैद नहीं कर सकते तो इस विवशता पर भी विचार करना चाहिए। अब समय आ गया है जब हम प्रोजेक्ट टाइगर की दशा और दिशा की चहुंमुखी समीक्षा करें। आज मैं इतना ही सोच पा रहा हूं; बाकी आप बताइए कि मेरी सोच गलत है या सही।
25 comments:
हो सकता है कि हरि जी को मेरी बात हजम नहीं हुई हो लेकिन मेरी स्पष्ट धारणा है कि आदमी की कीमत पर किसी से समझौता नहीं होना चाहिए चाहे वो बाघ हो या आतकंवादी।
हरी जी गलतीयां इंसान करे, भुगते वे जुवान जानवर, सच मै इन सब पर धिक्कार है, क्या यह इस बाघ को पकड कर किसी चिडिया घर को नही सोप सकते थे???
धन्यवाद
Kaun baagh kahaan maaraa gya yah bhee to jikr kar dete ! in dinon kayee baagh pne paryaavaas ko chhod bhatak rhe hain !
जोशीजी
बाघों के सम्बन्ध में आपकी चिंता को समझा जा सकता है .
बाघों का मारा जाना किसी को अच्छा नहीं लग रहा .
हमारा वन विभाग इतना लाचार क्यों है कि एक बाघ को
जिन्दा पकड़ पाने में नाकामयाब है?
sarasar galat hai yeh kratya, be-jubaan ko maarne ke bajaye pakada jaana chahiye tha. sach kaha aapne project tiger jaisi thothi koshishen jitni jaldi band ho, utne accha.
आपके द्वारा बताए गए साल्यूशन बिल्कूल ठीक है, बाघों को उनके घर की राह दिखाना चाहिए। लेकिन वन्य अधिकारी इसमे असर्मथ होगे शायद वे इतने हाईटेक ना हो कि इस तरह के बाघो को पकड़ सके। दूसरे वे एक इस शोर्य के तमगे से अपने आपको गौरविन्त भी तो दिखाना चाहते थे। तीसरे वे सरकारी आदमी जो ठहरे, कौन पड़े इतनी जिद्दोजहद में। लेकिन आपका आलेख आत्मियता से लबरेज है जिसके तर्क भी अपनी जगह सही है, परन्तू हमारी ये व्यवस्था भी तो परम्परागत् है।
बहुत बूटा हुआ. आजकल प्राकृतिक वातावरण में जानवरों को चिडिया घरों में रखा जाता है. ऐसे ही किसी बाड़े में भेज देते तो क्या बिगड़ जाता.
ऐसी इर्द-गिर्द की खबरों से मन लगा रहता है।
sahmat hain aapse
sir aap great ho i miss u
बिल्कुल सही बात है.. इस तरह जानवरो के भटक जाने पर उन्हे उनके घर ज़रूर पहुँचाया जाए..
आपकी बात बिलकुल सही है हरि भाई. सबसे ख़तरनाक बात तो यह है कि हमारी व्यवस्था की सारी बहादुरी सिर्फ़ दो तरह के लोगों पर चलती है. पहले कमज़ोर और दूसरे बेज़ुबान. बाघ कमज़ोर न सही, पर बेज़ुबान तो है.
Aapki chinta waajib hai.Jungali jaanwaron ke hisse ka jeevan bhi manushya apne swarth me tahas-nahas karne se baaj nahin aa raha.
जोशी जी, बाघों की यही स्थिति हो गई है। आपने सुना होगा कि खराब वक्त में कुछ जंगली कुत्ते मिलकर शेर को मार लेते हैं। यही हो रहा है...
इंसानों में भी जो शेर की तरह रहते और स्वयं को शेर समझने वाले चंद लोग दिखते हैं, उनका शिकार करने की कोशिशें भी जोर शोर से जारी रहती हैं। डर है कि कहीं जंगली कुत्तों के हाथों उनका मारा जाना भी ऐसे ही शुरू न हो जाए। कुछ कीजिए
मनुष्य पहले उन्हें बेघर करता जा रहा है .फिर उन्हें मर कर कौन सी बहादुरी दिखाना छह रहा है ...ये समझ के परे है .जंगल के जंतुओं की तो बात ही अलग है ..
हरी जी ...क्या आज की तारिख में किसी आंगन में गौरैया ,पेडों पर कौवे दिखाई पड़ते हैं ...कब रुकेगा ये हत्याओं का सिलसिला ?
हेमंत कुमार
आपकी सोच एकदम सही दिशा में है। इस पर गम्भीर विमर्श की आवश्यकता है।
मैने भी इस खबर को पढ़ा था अफसोस इस बात से था कि मारनेवाले सीना तानकर अपने को बहादुर दिखाने की कोशिश कर रहे थे उन्हे नही पता था कि वे कितना नुकसान किये है । उन्हे नही पता है कि बाघ हमसे खोता जा रहा है । उसकी संख्या कितनी कम होती जा रही है । आभार
फिक्र मत करिए कुछ दिनों के बाद न देश में बाघ रहेंगे और न आपको फिर से कोई पोस्ट लिखनी पड़ेगी.....
डा. अरविन्द जी.. यह बाघ बाराबंकी के पास मारा गया है, मैं इस पर अलग तरह का एक पोस्ट लिख चुका हूँ ।
मुझे ग्लानि होती है, निरीह को आधुनिक हथियार से मार कर फोटो खिंचाना, मानों अपनी कायरता और निरीहता का ढिंढोरा पीटना है.. काश ठेके पर आये शूटर महोदय उसे द्वंद में पछाड़ पाते :)
@ संजीव जी,
सर.. जरा बतायेंगे आदमी की कीमत ?
भला उसकी खाल की कीमत कौन लगायेगा ?
और.. और, जीते जी तो वह दो कौड़ी में भी मँहगा सौदा है ।
जानवरों का अपने घरों से पलायन मानवी सभ्यता और आबादी के विस्तार की देन है..
और आतंकवादी ?
वह तो आप भी जानते होंगे, कि अदूरदर्शी राजनीती की देन है..
कारक कौन ? वही ढाक के तीन पात.. आदमी !!
संजीवजी,
अगर आप बाघ होते, तो आपकी टिप्पणी कुछ इस तरह से होती -
बाघ की कीमत पर किसी से समझौता नहीं होना चाहिए चाहे वो आदमी हो या ... ... .
अरविंदजी,
यह मज़ाक करने का विषय नहीं है। मरे हुए बाघों के तो नहीं, पर ज़िंदा बाघों के पते मैं आपको दे सकता हूँ।
अंशुमालीजी,
ऐसी ख़बरें मन लगाने के लिए नहीं, चिंतन करने के लिए होती हैं।
बेनामीजी,
हरिजी ने तो बहुत कुछ कर दिया है। आप के बस का क्या है? आप तो अभी से छुपे हुए हैं।
अनिलजी,
गधे तो यही चाहते हैं कि बाघ समाप्त हो जाएँ और उसके बाद वे अपने आप पर पोस्ट लिखना शुरू कर दें।
किसी अच्छी बात का समर्थन नहीं कर सकते, तो मत कीजिए, पर उसका मज़ाक भी मत उड़ाइए।
हरिजी,
आप का कार्य सराहनीय है। इससे प्रेरणा मिलती है। इसे ज़ारी रखिए। हम सब आपके साथ हैं।
Dear Sir
We human(!)have lost sensitivity. That is why violence everywhere. Non-vegetarism is in our actions also. So the post like 'no tiger at cost of human'by sanjeev.
Even a child knows that killing animals is ecological disaster. Alernate ways of mutual survival has to be found. Conflicts need to be avoided. But first we have to become sensible humans. It is good that you have taken up the issue. And being 'human' i am with you.
It is so good, Sharadjee, you are with us. your comment is valuable.
कई जगह बाघ का नामोनिशान नहीं बचा। बाघ की झूठी गणनाएं रखकर सफलता की मुनादी होती रही लेकिन एक दिन पता चला कि सारिस्का में तो बाघ बचे ही नहीं। कारण साफ है कि बाघ को बचाने के लिए धन बहाया जाता रहा लेकिन उसके प्राकृतिक आवास सिकुड़ते रहे। वन माफियाओं ने जंगल का दोहन किया। क्या रखवालों की आंखे खुली रहने पर क्या ये संभव था। लेकिन दो ही काम संभव थे- या तो जेब गर्म रहें या जंगल बचें। हर साल शिकारी पकड़े जाते हैं और उनकी खालें और दूसरे अंग बरामद होते हैं लेकिन फिर भी संसार सिंह जैसे वन्य जीव के तस्करों का कुछ नहीं होता। वह जेल भी जाते हैं तो अंदर रहकर भी अपना नेटवर्क चलाते रहते हैं....
इस पर गम्भीर विमर्श की आवश्यकता है।
sanjeev ji aapne kaise aatankvaadi aur baagh me samanta dhoodh li? ye samajh me nahin aaya . baaki joshi ji aap sahi hai . aap jaise longon ke prayason ki badaulat hi desh me bagh bachaye jaane ki ummeed ki jati hai . lekh ke liye dhanyavaad .
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