कैसे भूलूँ बचपन अपना , अपना बचपन कैसे भूलूँ
मन गंगाजल सा निर्मल था डर था नहीं पाने खोने का
रूठे भी कभी जो मीत से तो झगडा था एक खिलौने का
वो प्रीत मधुर कैसे भूलूँ , मधुरिम अनबन कैसे भूलूँ
माँ की गोदी में शावक सा जब थक कर मैं सो जाता था
उस आँचल के नीचे मेरा ब्रह्माण्ड सकल हो जाता था
अब जाकर कहाँ हँसूं किलकूं , गलबहियां डाल कहाँ झूलूँ
उस आँचल के नीचे मेरा ब्रह्माण्ड सकल हो जाता था
अब जाकर कहाँ हँसूं किलकूं , गलबहियां डाल कहाँ झूलूँ
बचपन की भेंट चढ़ा कर जो पाया तो क्या पाया यौवन
स्पर्श- परस सब पाप हुए बदनाम हैं चुम्बन -आलिंगन
हर तरफ खिंची हैं सीमायें, किसकी पकड़ू किसको छू लूं
7 comments:
बचपन को भुलाया नही जा सकता और आपने सही फरमाया कि सीमाये खिंची है,बहुत खूब
कुछ भाव येसे ही व्यक्त किये थे http://merachintan.blogspot.com/2010/08/blog-post_22.html
सुंदर रचना,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
सचमुच बचपन कितना प्यारा होता है
वक्त उस पल का कितना निराला होता है
कागज की कश्ती, ईंटो की गाड़ी,
कितनी प्यारी थी, वो बचपन हमारी
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सुंदर कविता बचपन की यादो को लिये धन्यवाद
'असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय ' यानी कि असत्य की ओर नहीं सत्य की ओर, अंधकार नहीं प्रकाश की ओर, मृत्यु नहीं अमृतत्व की ओर बढ़ो ।
दीप-पर्व की आपको ढेर सारी बधाइयाँ एवं शुभकामनाएं ! आपका - अशोक बजाज रायपुर
ग्राम-चौपाल में आपका स्वागत है
http://www.ashokbajaj.com/2010/11/blog-post_06.html
भुलाना बहुत मुश्किल है
बंधु, निष्पाप बचपन को ;
कहाँ हम छोड़ पाए हैं
उषांचल सदृश आँगन को!
बचपन की भेंट चढ़ा कर जो पाया तो क्या पाया यौवन
स्पर्श- परस सब पाप हुए बदनाम हैं चुम्बन -आलिंगन
-कुमार अनिल जी की इन पंक्तियों में आज के बनावटी जीवन पर कड़ा कटाक्ष किया गया है। हम जितना खुलेपन का आडम्बर और तामझाम करते हैं , भीतर से उतने ही संकीर्ण हैं । कुत्ते के पिल्ले को गर्व से चू सकते हैं , किसी और को छू लेंगे तो पापी -दुराचारी हो जाएँगे। यह सहज जीवन से दूर भागने का नतीज़ा है । रामेश्वर काम्बोज
आज की ब्लॉग बुलेटिन ये कि मैं झूठ बोल्यां मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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