Monday, December 6, 2010

चल मन उठ अब तैयारी कर - गीत

यह गीत नहीं है एक सच है । ऐसा सच, जो जिसको जब समझ में आ जाये तब ठीक। सारा जीवन आपा-धापी में गुजारने के बाद कभी न कभी यह सच ज़रूर सामने आता है कि अब तक जैसे भी जिए, जो कुछ भी किया, वह सब अंततः मिथ्या ही था। हर तरफ धन-दौलत, शौहरत, रिश्तों -नातों की अपार भीड़ में घिरे रहकर भी मन कहीं अकेला खड़ा दिखाई देता है। और तब स्वीकारना पड़ता है इस अंतिम सच को। आप सब सुधि पाठकों की प्रतिक्रियाएं अपेक्षित हैं.

गीत-

चल मन, उठ अब तैयारी कर
यह चला - चली की वेला है

कुछ कच्ची - कुछ पक्की तिथियाँ
कुछ खट्टी - मीठी स्मृतियाँ
स्पष्ट दीखते कुछ चेहरे
कुछ धुंधली होती आकृतियाँ

है भीड़ बहुत आगे - पीछे,
तू, फिर भी आज अकेला है।

मां की वो थपकी थी न्यारी
नन्ही बिटिया की किलकारी
छोटे बेटे की नादानी,
एक घर में थी दुनिया सारी

चल इन सबसे अब दूर निकल,
दुनिया यह उजड़ा मेला है।

कुछ कड़वे पल संघर्षों के
कुछ छण ऊँचे उत्कर्शों के
कुछ साल लड़कपन वाले भी
कुछ अनुभव बीते वर्षों के

अब इन सुधियों के दीप बुझा
आगे आँधी का रेला है।

जीवन सोते जगते बीता
खुद अपने को ठगते बीता
धन-दौलत, शौहरत , सपनो के
आगे पीछे भगते बीता

अब जाकर समझ में आया है
यह दुनिया मात्र झमेला है

झूठे दिन, झूठी राते हैं
झूठी दुनियावी बाते हैं
अंतिम सच केवल इतना है
झूठे सब रिश्ते- नाते हैं

भूल के सब कुछ छोड़ निकल
अब तक यहाँ जो झेला है ।

इससे पहले तन सड़ जाये
कांटा सा मन में गड़ जाये
पतझर आने से पहले ही
पत्ता डाली से झर जाये

उससे पहले अंतिम पथ पर
चल, चलना तुझे अकेला है।

कुमार अनिल -

9 comments:

अनुपमा पाठक said...

बहुत सुन्दर चित्रण!
सारा जीवन सफर आँखों के सामने से बह गया और अंतिम सत्य को उद्घाटित करती कविता अपना प्रभाव छोड़ गयी!
सादर!

www.navincchaturvedi.blogspot.com said...

मान्यवर बन्धु कुमार अनिल जी| बहुत ही सुखद अनुभव रहा इस गीत को पढ़ना| विगत समय में जो गीत / नवगीत पढ़ने को मिले, निस्संदेह ये उन में का एक सर्वोत्तम है| बहुत बहुत बधाई कुमार अनिल जी|

Aruna Kapoor said...

Great!

Dr. Amar Jyoti said...

सुन्दर!

अनुपम अग्रवाल said...

अनुभूति मधुर

हैं व्यथित मगर
ये दुनिया का सच
छोड़,जाना तुझे अकेला है।


है निश्चित सब
बनता नासमझ
पर सच तो सच
ये दुनिया ऐसा मेला है।

Barthwal said...

कुछ सच हमे मालूम होते हुये भी उन्हे स्वीकारते नही है और यह विडम्बना है क्योकि आज का इंसान केवल अपने तक या अपने लिये जीता है।

सुंदर अभिव्यक्ति ....

Anonymous said...

बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति प्रस्तुत की हॆ. बधाई.

anupam goel said...

जीवन सोते जगते बीता
खुद अपने को ठगते बीता
धन-दौलत, शौहरत , सपनो के
आगे पीछे भगते बीता

अब जाकर समझ में आया है
यह दुनिया मात्र झमेला है

शब्दों की सुंदरता व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं हैं. बहुत ही सुंदर और सारगर्भित लेखन.
बहुत बहुत बधाई, दिल से.
सम्मान के साथ।

Bharatvasi said...

यही जीवन की सच्चाई है ।बहुत सुन्दर ।

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