Thursday, January 6, 2011

मेरी पसंद : राजेन्‍द्र चौधरी की रचनाएं

राजेन्‍द्र चौधरी श्रेष्ठ कवि, लेखक, अनुवादक और उससे भी बड़े चिन्तक हैं। इनकी रचनाएं अन्तंर्मन के अन्दर तक गहरे उतरती हैं और सोचने पर विवश करती हैं। विशेष बात यह भी है कि इनकी रचनाएं देश काल की सीमाओं में कभी नहीं बांधी जा सकतीं। इतिहास से वर्तमान तक और परंपराओं से आधुनिक परिवेश तक, इनकी रचनाओं में समाया हर एक शब्द अपना अलग अर्थ रखता है। संस्कारों की मिठास और दुनियावी तल्खियों के अनुभवों को अपने चिंतन में पिरो कर प्रस्तुत करने में इनका कोई सानी नहीं है।इर्द-गिर्द के पाठकों के लिए इनकी कुछ रचनाएं यहां प्रस्तुत हैं।


आधार

जब भी कोई ऊँची इमारत मेरी नज़र से गुज़रती है
तो उसकी भव्यता निगाहों से दिल में उतरती है

नज़र को इमारत के बुलंद कंगूरों से वास्ता है
लेकिन मेरा मन ठिठकता है, कुछ और तलाशता है
वो जो दीख नहीं पाता लेकिन इस ऊँचाई का आधार है
मेरे मन को कंगूरों से नहीं, नींव के पत्थरों से प्यार है

वो पत्थर जो धरती में भी दस हाथ जाके धंसता है
और खुशी-खुशी गुमनाम अंधेरी गुफ़ा में फंसता है
ताकि इस इमारत को सौ हाथ ऊंची बुलंदी मिले
और इसके कंगूरों को नया रूप, नयी रोशनी मिले

वो पत्थर जिसने इमारत से अपने जीवन का मूल्य नहीं मांगा
और वर्तमान के कांधे पर कभी अतीत का नाम नहीं टांगा
वो पत्थर हर मंदिर के कलश, हर मस्जिद की गुंबद से ऊंचा है
क्योंकि उसने इस इमारत को अपने प्राण उत्सर्ग से सींचा है

मैं और तुम भी वर्तमान के लिए रीतते किसी अतीत के वंश हैं
निस्वार्थ गहराई तक आकर जुड़ो तो, हम किसी नींव के अंश हैं
लेकिन आज हर तरफ़ हर किसी को परकोटों का चाव है
आज मेरे दोस्त, नींव के पत्थरों का अभाव है
लेकिन रख सको तो याद रखना
ऊंचाई सापेक्ष है, मिटती रहती है, जीवन आधार का होता है
भवन उद़घाटित होते हैं, पूजन आधार का होता है
पूजन आधार का होता है।।


कुछ मुक्तक


एक
हम रिसाले तरक्की के पढते रहे,
वर्क गीता का लेकिन फटा ही रहा।
झूठ खंजर चलाता रहा सत्य पर,
हमको मंत्र अहिंसा रटा ही रहा।
सारी वसुधा को परिवार कहते रहे,
घर का आंगन हमारा बंटा ही रहा।
दूर निर्धनता अभिलेख में हो गयी,
द्वार का टाट लेकिन फटा ही रहा।।

दो
दोस्ती के गुलाबों में लिपटी हुई,
दुश्मनी की मिली हमको सौगात थी।
अर्घ्य देना पडा केक्टस को यहां,
सभ्यता की यह शहरी शुरुआत थी।
चांद रोटी सा हमको चिढाता रहा,
आप कहते हैं पूनम की यह रात थी।
सिर्फ सांपों को विषधर समझते थे हम,
आदमी से न जब तक मुलाकात थी।।

तीन
मैं इस दौर में तहजीब का ढहता मजार हूं
शीशे के मकानों से पुकारा न कीजिये।
अपनों से पाये ज़ख्म जो ताजा हैं वो अभी
फिर अपनेपन की बात दुबारा न कीजिये।
सच्चाइयों के शव को भी मिलता नहीं कफन
ईसा को सलीबों से उतारा न कीजिये।
मेरी तरह हर भीड में तन्हा ही रहोगे
इन्सान बन के उम्र गुजारा न कीजिये।

चार
जिनके चेहरे के खिलते कंवल हैं यहां
उनके पांव तले दलदलें हैं बहुत।
कौन माझी पे अपने भरोसा करे
आज साहिल पे भी जलजले हैं बहुत।
राजनीति की चौसर पे आदर्श हैं
माँ के सीने मे यूँ हलचलें हैं बहुत।
दिल की दहलीज पर पेट की आग से
संस्कारों के शव कल जले हैं बहुत।

6 comments:

Barthwal said...

बहुत सुंदर - कविता भी और चारो मुक्तक भी ...अब इस मंच पर पढने को मिलेगी राजेन्द्र जी रचनाये - खुशी हुई।

Rajendra Chowdhary said...

प्रिय अनिल,

इर्द-गिर्द पर तुम्हारा मेरे बारे में लिखा हुआ लेख पढ़ा। इसके बारे में मैं क्या कहूँ - एक स्नेहिल मन की अभिव्यक्ति या भावनाओं की साझी अनुभूति? मुझे किसी शायर की पंक्तियां याद आ रही हैं:
"मुझे कुछ ऐसी आँखें चाहियें अपने रफ़ीकों में,
जिन्हें बेबाक सच्चे आईनों से डर नहीं लगता।
ये मुमकिन है उन्हें मौत की सरहद तक ले जायें,
परिन्दों को मगर अपने परों से डर नहीं लगता।"

तुम्हारे स्नेह के लिए कोटिश: धन्यवाद और इर्द-गिर्द की टीम का बहुत-बहुत शुक्रिया!

सस्नेह,
राजेन्द्र चौधरी

Kumar Anil said...

आदरणीय भाई साहब,
धन्यवाद देकर मुझे छोटा न करें। मेरा मानना है की चिंता और चिंतन मन और डायरी में सिमट कर नहीं रह जाने चाहिये, बल्कि अपनों और अपने चाहने वालों में बँट जाने चाहिए। आपकी रचनाये हर किसी के चिंतन को जागृत करके सोचने पर विवश करती हैं और जब आज किसी के पास सोचने, समझने का समय ही नहीं है तो थोडा बहुत कुछ ऐसा पढने को मिल जाये तो अन्दर के खालीपन को कुछ भरा होने का अहसास सा होता है। बहरहाल इर्द गिर्द के लिए धन्यवाद के पात्र आदरणीय श्री हरी जोशी जी हैं जिन्होंने मेरे द्वारा भेजी इन रचनाओं को पब्लिश ही नहीं किया अपितु एक नया स्थाई कॉलम 'मेरी पसंद' भी बना दिया। जय हो जोशी जी ।

PN Subramanian said...

सुन्दर रचनाएं. कुछ तो झकझोर देती हैं.हलके रंग के कारण पढने में बड़ा कष्ट हो रहा है.

Satish Saxena said...

अच्छा लिखते हैं आप ....शुभकामनायें !

अनुभूति said...

आदरणीय राजेंद्र जी और अनिल जी आप दोनों विद्वान भावुक संवेदन शील प्राणों को कोटि कोटि नमन...आपकी सशक्त अभिव्यक्तियाँ पड़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ मन को अंतर तक स्पर्श करने वाली इन रचनाओं को
प्रस्तुत करने हेतु आदरणीय श्री हरी जोशी जी का कोटि कोटि अभिनन्दन !!!

तकनीकी सहयोग- शैलेश भारतवासी

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