Sunday, October 12, 2008

अगले जनम मोहे मास्टर ना कीजो


कई बरस पहले जनसत्ता अखबार की रविवारीय पत्रिका में आलोक तोमर का एक लेख पढ़ा था कि जो कुछ नहीं होते वो शिक्षक होते हैं। शिक्षक माता-पिता की संतान आलोक तोमर का ये लेख उस समय अच्छा नहीं लगा था। लेकिन अब अपने ही बीच के एक शिक्षक की कहानी सुनी तो समझ में आया कि आलोक तोमर ने सच लिखा था। उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर ज़िले उस शिक्षक की कहानी सुनकर लगा कि ऐसे हालात में जो शिक्षक धर्म और कर्म निभाये वो गांधी ही हो सकता है। और चूंकि दूसरा गांधी अब तक कोई हुआ नहीं है इसलिये ये ही कहा जायेगा कि जो शिक्षक हैं उनके पास और कोई रास्ता ही नहीं है या वो और कुछ बन नहीं सकते। यानी आलोक तोमर की बात सोलह आने सही कि जो कुछ नहीं होते वो शिक्षक होते हैं।






मास्साब की चिट्ठी


राधा को देखने वाले आ रहे हैं, 15 अक्टूबर की सुबह। लड़का दीपावली की छुट्टियों में घर आ रहा है, इसलिये महीने भर से पहले से कार्यक्रम तय है। लेकिन मैं शायद उनसे ना मिल सकूं। आज ही बेसिक शिक्षा अधिकारी के दफ्तर से संदेश आया है कि 15 अक्टूबर को उत्तर प्रदेश के सभी प्राइमरी और जूनियर हाई स्कूलों में ‘विश्व हाथ धोना दिवस’मनाया जाएगा। इस मौके पर स्कूलों में शिक्षकगण बच्चों को अलग-अलग समूहों में बांटकर विद्यालय की साफ-सफाई कराएंगे। अपनी और आसपास की स्वच्छता-सफाई का संदेश देने के रैलियां निकालीं जाएंगी। और बच्चे टॉयलेट जाने के बाद और कुछ भी खाने से पहले हाथ धोने की शपथ लेंगे। यानी शाम के पांच-छह बजेंगे सामान समेटते-समेटते। हेड मास्टर साहब को भी पता है कि उस दिन मुझे कितना ज़रुरी काम है लेकिन क्या करें उनकी भी मजबूरी है और मेरी भी। राधा की मां ज़िम्मा संभालेगी घर पर। कोई बात नहीं, लेकिन मैं अपनी बेटी राधा की शादी में हाज़िर होने की पूरी कोशिश करूंगा।
वैसे सच बताऊं मेरे जैसे शिक्षकों की बिरादरी इस तरह के आपातकाल की आदी हो गई है या होती जा रही है। आजकल हमारे जिम्मे परिवार नियोजन के लिये लोगों को प्रेरित करने से लेकर पोलिया की दवा पिलवाने तक का काम ही नहीं होता बल्कि लखनऊ में जिस पार्टी की सरकार है उसके छुटभैये नेताओं की सभा के लिये बच्चे-बड़े भी हमको ही जुटाने पड़ते हैं। मेरे पिता जी भी मास्टर थे, लेकिन तब हालात कुछ और थे। इलाके के सबसे प्रतिष्ठित व्यक्ति माने जाने वाले मास्टर साहब या गुरुजी हालात की वजह से अब ‘वो मास्टर’ में बदल चुके हैं। अब ना इज्जत है, ना पैसा और ना ही चैन। गांव के पंचों से लेकर कलेक्टर तक निगरानी के लिये इतने लोग तैनात कर दिये गये हैं कि मेरे जैसे मास्साब, पिता के अंतिम संस्कार या बेटी की शादी की तैयारियों के लिये भी छुट्टी लेने से पहले पचास बार सोचते हैं।
और इतनी मेहनत और बेगार के बाद जब वेतन की बारी आती है तो 5-6 महीने तक इंतज़ार और वो भी इतनी जलालत के बाद, मानो भीख मिल रही हो। देश की जिस राजधानी दिल्ली में शिक्षा और शिक्षकों के लिये बड़ी-बड़ी योजनाये बनती हैं, उससे महज़ 60-70 किलोमीटर दूर बसे बुलंदशहर के बेसिक शिक्षकों का हाल आप सुन लेंगे तो कलेजा मुंह को आ जायेगा। बेसिक शिक्षा अधिकारी के कार्यालय में बैठने वाले लेखाधिकारी महोदय का एक अदना सा बाबू हम भविष्यनिर्माताओं को खून के आंसू रुला देता है। पूरे बुलंदशहर में गिने-चुने स्कूल होंगे जिनके शिक्षकों को वेतन समय पर मिल पा रहा होगा। दरअसल वेतन मिलने की प्रक्रिया इतनी जटिल और लंबी है कि इससे लेखाधिकारी कार्यालय के बाबू के अलावा सब परेशान होते हैं। हर महीने की 20-22 तारीख को स्कूल का बाबू वेतन का बिल बनाकर लेखाधिकारी कार्यालय ले जाता है। लेखाधिकारी कार्यालय के बाबू के मूड के ऊपर है कि वो बिल स्वीकार करता है या नहीं। पहली बार में तो वो नहीं ही करता है, ये कहकर कि अभी बजट नहीं आया है। मानमनौव्वल के बाद बिल स्वीकार होता है और कम से 10-15 दिन से लेकर महीने तक पड़ा रहता है ट्रेज़री में जाने के लिये। जब जाता है तो ट्रेज़री से चैक आने में दो-चार रोज़ लग जाते हैं। ट्रेज़री से आया चेक लेखाधिकारी के बाबू के पास फिर पड़ा रहता है, कई बार तो दो-दो महीने तक। ये हाल तब है जब बाबू से चेक लेने के एवज़ में हर बार 100 रुपये खर्च होते हैं। 10 लोगों के वेतन पर 100 रुपये खर्च का नियम है। बीच में शिक्षकों ने बुलंदशहर में कर्मचारी नेताओं से मिलकर शिकायत की तो छह महीने तक सब ठीक रहा। फिर सातवें महीने अचानक शेर हो गये बाबू ने पिछले छह महीने की भी कसर निकाल ली तब कहीं जाकर चेक दिया। चेक हाथ में देने से पहले 100 रुपये के खर्च का सिलसिला फिर प्रारंभ हो गया है। किससे कहें?
दीपावली की तैयारियां आपके घर मे चल रही होंगी। मेरे घर में भी हर साल शुरू होती हैं लेकिन बीच में ही दम तोड़ देती हैं। पिछले कई साल का नियम है कि जिस महीने दीपावली होती है उस महीने बोनस तो दूर उस माह का वेतन भी नहीं मिल पाता है। इस महीने का वेतन अब तक नहीं मिल सका है, बिल बाबू की टेबल पर ही पड़ा हुआ है। और बोनस, वो तो पिछले साल का भी नहीं मिला है। बाबू जी कहते हैं बजट नहीं हैं। दबंगों के स्कूलों को पिछले साल ही मिल गया था। महंगाई भत्ता बढ़ने का हज़ारों रुपये का एरियर भी नहीं मिल पा रहा है। देर सबेर मिल जायेगा लेकिन उसका जो हिस्सा पीएफ में जायेगा उसके ब्याज का नुकसान तो ही ही रहा है हम लोगों को।
पीएफ पर याद आया, राधा की शादी के लिये 40 हज़ार रुपये निकालने के लिये अर्जी दी हुई है। एक हज़ार रुपये अब तक चाय-पानी के नाम पर बांट चुका हूं।लेकिन अर्जी वहीं की वहीं है, आगे बढ़ ही नहीं रही है। शुक्ला जी, सिंह साहब, मिश्रा जी सबके उदाहरण मेरे सामने हैं कि उनको पीएफ से निकाली गई रकम बच्चों की शादी पर नहीं नाना या दादा बनने पर ही मिल सकी। मुझे भी बहुत ज़्यादा उम्मीद लगती नहीं है।
लेकिन एक उम्मीद आपसे नज़र आ रही है। आपने हमको अपने बच्चों का भविष्य बनाने का जिम्मा दे रखा है। हम पूरी कोशिश करते हैं लेकिन बदले में कभी गुरु दक्षिणा नहीं मांगते हैं, मांगते भी हैं छोटी-मोटी, द्रोण जैसी नहीं। क्या आप पालकों की पूरी बिरादरी दिवाली के मौके पर शिक्षकों की बिरादरी को एक गुरु दक्षिणा दे सकती है। हमारे पढ़ाये कई बच्चे आईएएस, आईपीएस और बड़े अफसर हैं, कृपया हमको बाबुओं से मुक्ति दिलवाकर बस वेतन समय पर दिलवा दीजिये। हम आपके बच्चों का भविष्य बनाते हैं आप हमारे बच्चों का ध्यान रखिये।
मास्टर रामदयाल, पहासू वाले

13 comments:

sanjeev said...

मार्मिक प्रस्‍तुति। सचमुच तस्‍वीर उतार दी आपने शब्‍दों के माध्‍यम से मास्‍साब की। गजब जिंदगीनामा लिखा है मास्‍टरों का। कितनी बधाई दूं, समझ नहीं पा रहा हूं।

Anonymous said...

इस दुख को सिर्फ शिक्षक ही समझ सकता है। इससे ज्‍यादा क्‍या कहूं, आपने तो पराई पीर को इस तरह उकेरा जैसे ये आपकी ही पीर हो।

Anonymous said...

हर आदमी ये तो कहता मिल जायेगा कि अब पहले जैसे मास्टर कहां रहे, लेकिन क्या कोई ये समझने की कोशिश करेगा कि अब पहले जैसे छात्र, पहले जैसे अविभावक और पहले जैसे नेता और अफसर भी कहां रहे जो शिक्षकों का सम्मान करते थे। अब मास्टर सबसे परेशान सरकारी मुलाज़िम है। शहर के बीचोंबीच जमा कचरा उठवाने के अलावा सारे काम उससे करवा लिये जाते हैं बिना कोई अतिरिक्त पैसे या छुट्टियों के। बुलंदशहर में हो सकता है कुछ ज़्यादा हो पर पूरे देश का यही हाल है कि शिक्षा विभाग के बाबू मास्टरों को बहुत परेशान करते हैं। मैंने कई परेशान मास्टरों को भोपाल और रायसेन में जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी के दफ्तर के बाहर फूट-फूटकर रोते देखा है। आपने मास्टरों की दयनीय हालत का जो चित्रण किया है वो सोलह आने सही है। चलो कोई तो है जो मास्टरों की सुध लेता है।

राज भाटिय़ा said...

बहुत ही अच्छी ओर सच्चाई से भरपुर, एक मार्मिक लेख.
धन्यवाद

Anita kumar said...

यही हाल कॉलेज के टीचरों का भी है। जनवरी में आखरी वेतन मिलता है और उसके बाद सीधे जून में , वो भी आधा महीना गुजर जाने के बाद्। सच कहा आप ने अब यहां बाबूतंत्र है प्रजातंत्र नहीं

प्रवीण त्रिवेदी said...

क्या कहूं?
काफी समय से इस पर लिखता रहा हूँ/
सुकून और संतोष है कि एक दो मछली के बावजूद समाज को मानना ही पड़ेगा की अध्यापक बनने के बाद काफी हद तक बिगडा हुआ शिक्षक भी सुधर जाता है / कारण है की बच्चों के सानिध्य में किससे अपना शिकवा या शिकायत करें /

धन्यवाद !
इन लेखों को पढ़ें .... और राय व्यक्त करें
हो सके तो मेरा लिंक भी दें /
http://primarykamaster.blogspot.com/2008/04/blog-post.html

http://primarykamaster.blogspot.com/2008/05/blog-post.html

http://primarykamaster.blogspot.com/2008/09/blog-post_05.html

ajit said...

haan ye to sahi hai.shiksha ke abmulyan ke pradhan karanon main ak shikshkon ki gair shaikshik kamo main lagan.

मसिजीवी said...

बाबूतंत्र ने यकीनन हम मास्‍टरों को बेचारगी से भर दिया है जबकि इन समस्‍याओं के समाधान इतने कठिन भी नहीं हैं।

RISHABHA DEO SHARMA ऋषभदेव शर्मा said...

सत्य वचन, महाराज!
.ऋ.

Anonymous said...

ये मास्टर हमेशा इतने बेचारे क्यों बने रहते हैं . विश्विद्यालायो मे वेतन मान बहुत अच्छे हैं उस मुकाबले जितना समय एक मास्टर वहाँ बिताता हैं . सप्ताह मे २२- २६ period की पढाई होती हैं एक मास्टर के जिम्मे .
वेतन महीने की आखरी तारीख को बैंक मे भेज दिया जाता हैं . इतवार के अलावा एक ऑफ़ डे भी मिलता . सवेतन अवकाश कम से कम ५ वर्ष का मिलता हैं .
जो लोग प्राइवेट कॉलेज मे पढाते और जनवरी के बाद जून मे वेतन पाते हैं वो शायद कभी अपनी क्षमता का आकलन नहीं करते

3rd क्लास m.a भी कॉलेज मे पढाते पाये गए हैं अब क्या पढा ते हैं ये वही जाने

जब meerut और आगरा जैसे विश्विद्यालो से Phd की डिग्री खरीद ते हैं तव बाबू शाही नहीं देखते .

रंजन राजन said...

मार्मिक प्रस्‍तुति। अध्यापकों के वेतन को लेकर ग्रामीण चौपाल पर आपको विरोधाभासी चर्चाएं सुनने को मिल जाएंगी। बहुत से लोग मानते हैं कि अध्यापक कम काम के अधिक वेतन ले रहे हैं। ....आशा है इस विचारोत्तेजक प्रस्तुति से ऐसे कुछ लोगों की आंखें खुलेगी। जबतक पठन-पाठन और अध्यापकों की ओर देश-समाज का ध्यान नहीं जाएगा, देश की युवा पीढ़ी अपनी मंजिल की तलाश में भटकाव के रास्ते पर चलती रहेगी।

भूतनाथ said...

आपने बहुत सही और सची बात लिखी है !

Anonymous said...

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