मुझे इस गणतंत्र दिवस पर कई चेहरे याद आ रहे हैं। मेरे मन मस्तिष्क में उमड़-घुमड़ रहे हैं। इनमें से कुछ चेहरे देश के हैं, कुछ विदेश के और कुछ मेरे अपने शहर के। इनमें से कुछ आकृतियां मेरी मां जैसी हैं, कुछ बहिनों जैसी, कुछ सखियों जैसी और कुछ अंजान। ये तस्वीरें तो अलग-अलग हैं लेकिन इन उमड़ते-घुमड़ते चेहरों को मिलाकर जो आकृति बन रही है, उससे ठिठुरन और सिहरन बढ़ जाती है। मैने गणतंत्र के उनसठ साल तो अपनी आंखों से नहीं देखे लेकिन होशो-हवाश में पच्चीस सालों के बीच देखे गए कई चेहरे हैं। इनमें से मैं अपने ही शहर मेरठ के एक चेहरे का जिक्र कर रही हूं जो मेरे दिमाग को सबसे ज्यादा झकझोरता है।
ये चेहरा उस युवती का है जिसे मैने करीब बीस साल पहले गज भर घूंघट में चूल्हे पर रोटियां सेकते देखा था। टोकरा भर रोटियां सेकती, मुंह में फूंकनी लगाकर चूल्हे को हवा देती, चूल्हे से निकल रहे धुंए को अपनी आंखों में समाती यह युवती आज खुली हवा में उड़ान भर रही है। उत्तर प्रदेशीय महिला मंच के एक कार्यक्रम के सिलसिले में मैने जब पहली बार संगीता राहुल (या कहिए कि उनके पति जगदीश, जो उस समय सभासद थे।) के घर दस्तक दी तब संगीता का यही रूप था। मेरे निमंत्रण पर उनके पति ने संगीता को मंच के कार्यक्रम में शामिल होने की अनुमति दी और धीरे-धीरे उसका घूंघट उठता चला गया। बाद में अपने वार्ड से संगीता सभासद चुनी गई और फिर उसने विधायक का चुनाव भी लड़ा। संगीता एक ऐसा चेहरा है जिसने हमारे साथ अपना सफर शून्य से शुरू किया और फिर आगे की गिनतियां गिनने का सिलसिला अनवरत जारी रखा। भले ही संगीता ने अपनी दिशा को राजनीतिक दिशा दे दी हो। महत्वाकांक्षाओं के पंख लग गए हों लेकिन फिर भी वह हमारे गणतंत्र का एक ऐसा चेहरा है जिसने परिस्थितियों की चाहरदीवारी लांघकर उड़ना सीखा, सपने देखे और खुली हवा में सांस ली। मैं सोचती हूं कि आज भी हमारे इर्द-गिर्द की कितनी ऐसी महिलाएं हैं जिनके पति उन्हें गज भर घूंघट से निकलने की इजाजत देते हैं। अगर हम मुट्ठी भर शिक्षित परिवारों को छोड़ दें तो आज भी बहुतायत में ऐसी महिलाओं की ही संख्या ज्यादा है जिन्होंने अपने हौंसलों और अरमानों को चाहरदीवारी में कैद कर लिया है या वे इसके लिए अभिशप्त हैं। आजाद भारत में आज भी अधिकांश स्त्रियां दासी हैं। सामाजिक ढांचे में उनकी जुबान बंद रहती है और देह व मस्तिष्क हमेशा उत्पीड़ने के लिए तैयार।
ऐसा नहीं कि महिलाओं के उन्नयन के लिए हमारे देश की संसद ने कानून न बनाए हों। कुप्रथाओं व उत्पीड़न रोकने के लिए कागजों और किताबों में स्त्री सुरक्षा का चेहरा चाक-चौबंद है; पर हकीकत में तमाम कानूनों के बावजूद स्त्रियों को अपने वजूद की लड़ाई लड़नी पड़ती है। वास्तविकता तो ये है कि स्त्री सबसे पहले अपने गर्भ में लड़की के लिए जगह ढूंढती है। सामान्यत: सब पहले लड़का ही चाहते हैं। अधिकांश घरों में भी तो लड़कों को ही वरीयता मिलती है। मुद्दा चाहे खानपान का हो, रहन-सहन का या शिक्षा का; परिवारों में इस तरह का भेद लड़कियों को मन ही मन छोटा कर देता है। यह विडम्बना ही है कि वैज्ञानिकों द्वारा यह स्थापित किए जाने के बाद भी लड़का या लड़की होना पुरूष के योगदान पर निर्भर करता है, बेटिया पैदा करने के लिए स्त्री ही प्रताडि़त होती है। किसी ने ठीक ही लिखा है कि दुनियां में अगर न्याय का कोई एक विश्वव्यापी संघर्ष है तो वह नारी के लिए न्याय का संघर्ष है। अगर किसी एक मुद्दे पर हर सभ्यता, हर परंपरा का दामन दागों से भरा है तो वह स्त्री की अस्मिता का मुद्दा है। इस न्यूनता का एहसास भी हर समाज के अवचेतन में मौजूद है। पुरूष विधुर हो या तलाकशुदा, कोई अंतर नहीं पड़ता। उसे दूसरी शादी करने में समस्या का सामना नहीं करना पड़ता जबकि स्त्री की परिस्थितियां विपरीत होती हैं।
यदि शास्त्रार्थ में न जाएं तो इतना बताना जरूरी है कि किसी भी स्त्री के व्यक्तित्व का अधिकार किसी भी धर्म, सभ्यता या समाज-व्यवस्था की कृपा का परिणाम नहीं हैं। उल्टे स्त्री के स्नेहमयी और ममतामयी व्यक्तित्व का हनन हर सभ्यता का सबसे बड़ा खोखलापन है। हर देशकाल में स्त्री को नए सिरे से अपने लिए जगह बनानी पड़ती है। स्त्री के पास निर्णय लेने की क्षमता न होने की वजह से परिवारों में सारे फैंसले पुरूष ही करते हैं।
स्त्री की रक्षा के लिए कानूनों का जो कवच दिया गया है वह नई चुनौतियों के आगे अपने को लाचार पा रहा है। सिर्फ कानूनों के भरोसे निश्चिंत नहीं हुआ जा सकता। वे कानून ठीक तरह से लागू हों; इसके लिए सजग रहने की जरूरत सबसे ज्यादा है।
ये चेहरा उस युवती का है जिसे मैने करीब बीस साल पहले गज भर घूंघट में चूल्हे पर रोटियां सेकते देखा था। टोकरा भर रोटियां सेकती, मुंह में फूंकनी लगाकर चूल्हे को हवा देती, चूल्हे से निकल रहे धुंए को अपनी आंखों में समाती यह युवती आज खुली हवा में उड़ान भर रही है। उत्तर प्रदेशीय महिला मंच के एक कार्यक्रम के सिलसिले में मैने जब पहली बार संगीता राहुल (या कहिए कि उनके पति जगदीश, जो उस समय सभासद थे।) के घर दस्तक दी तब संगीता का यही रूप था। मेरे निमंत्रण पर उनके पति ने संगीता को मंच के कार्यक्रम में शामिल होने की अनुमति दी और धीरे-धीरे उसका घूंघट उठता चला गया। बाद में अपने वार्ड से संगीता सभासद चुनी गई और फिर उसने विधायक का चुनाव भी लड़ा। संगीता एक ऐसा चेहरा है जिसने हमारे साथ अपना सफर शून्य से शुरू किया और फिर आगे की गिनतियां गिनने का सिलसिला अनवरत जारी रखा। भले ही संगीता ने अपनी दिशा को राजनीतिक दिशा दे दी हो। महत्वाकांक्षाओं के पंख लग गए हों लेकिन फिर भी वह हमारे गणतंत्र का एक ऐसा चेहरा है जिसने परिस्थितियों की चाहरदीवारी लांघकर उड़ना सीखा, सपने देखे और खुली हवा में सांस ली। मैं सोचती हूं कि आज भी हमारे इर्द-गिर्द की कितनी ऐसी महिलाएं हैं जिनके पति उन्हें गज भर घूंघट से निकलने की इजाजत देते हैं। अगर हम मुट्ठी भर शिक्षित परिवारों को छोड़ दें तो आज भी बहुतायत में ऐसी महिलाओं की ही संख्या ज्यादा है जिन्होंने अपने हौंसलों और अरमानों को चाहरदीवारी में कैद कर लिया है या वे इसके लिए अभिशप्त हैं। आजाद भारत में आज भी अधिकांश स्त्रियां दासी हैं। सामाजिक ढांचे में उनकी जुबान बंद रहती है और देह व मस्तिष्क हमेशा उत्पीड़ने के लिए तैयार।
ऐसा नहीं कि महिलाओं के उन्नयन के लिए हमारे देश की संसद ने कानून न बनाए हों। कुप्रथाओं व उत्पीड़न रोकने के लिए कागजों और किताबों में स्त्री सुरक्षा का चेहरा चाक-चौबंद है; पर हकीकत में तमाम कानूनों के बावजूद स्त्रियों को अपने वजूद की लड़ाई लड़नी पड़ती है। वास्तविकता तो ये है कि स्त्री सबसे पहले अपने गर्भ में लड़की के लिए जगह ढूंढती है। सामान्यत: सब पहले लड़का ही चाहते हैं। अधिकांश घरों में भी तो लड़कों को ही वरीयता मिलती है। मुद्दा चाहे खानपान का हो, रहन-सहन का या शिक्षा का; परिवारों में इस तरह का भेद लड़कियों को मन ही मन छोटा कर देता है। यह विडम्बना ही है कि वैज्ञानिकों द्वारा यह स्थापित किए जाने के बाद भी लड़का या लड़की होना पुरूष के योगदान पर निर्भर करता है, बेटिया पैदा करने के लिए स्त्री ही प्रताडि़त होती है। किसी ने ठीक ही लिखा है कि दुनियां में अगर न्याय का कोई एक विश्वव्यापी संघर्ष है तो वह नारी के लिए न्याय का संघर्ष है। अगर किसी एक मुद्दे पर हर सभ्यता, हर परंपरा का दामन दागों से भरा है तो वह स्त्री की अस्मिता का मुद्दा है। इस न्यूनता का एहसास भी हर समाज के अवचेतन में मौजूद है। पुरूष विधुर हो या तलाकशुदा, कोई अंतर नहीं पड़ता। उसे दूसरी शादी करने में समस्या का सामना नहीं करना पड़ता जबकि स्त्री की परिस्थितियां विपरीत होती हैं।
यदि शास्त्रार्थ में न जाएं तो इतना बताना जरूरी है कि किसी भी स्त्री के व्यक्तित्व का अधिकार किसी भी धर्म, सभ्यता या समाज-व्यवस्था की कृपा का परिणाम नहीं हैं। उल्टे स्त्री के स्नेहमयी और ममतामयी व्यक्तित्व का हनन हर सभ्यता का सबसे बड़ा खोखलापन है। हर देशकाल में स्त्री को नए सिरे से अपने लिए जगह बनानी पड़ती है। स्त्री के पास निर्णय लेने की क्षमता न होने की वजह से परिवारों में सारे फैंसले पुरूष ही करते हैं।
स्त्री की रक्षा के लिए कानूनों का जो कवच दिया गया है वह नई चुनौतियों के आगे अपने को लाचार पा रहा है। सिर्फ कानूनों के भरोसे निश्चिंत नहीं हुआ जा सकता। वे कानून ठीक तरह से लागू हों; इसके लिए सजग रहने की जरूरत सबसे ज्यादा है।
मेरा यह लेख दैनिक आई नेक्स्ट में प्रकाशित हुआ है।
21 comments:
आपने सही कहा है कि स्त्री की रक्षा के लिए कानूनों का जो कवच दिया गया है वह नई चुनौतियों के आगे अपने को लाचार पा रहा है।
कितना सही लिखा आपने ...आपने बहुत सजीव वर्णन किया है ...
अनिल कान्त
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
बेहद सटीक बात कही आपने. कानून बनाना ही पर्याप्त नही है
" वे कानून ठीक तरह से लागू हों; इसके लिए सजग रहने की जरूरत सबसे ज्यादा है।"
गणतंत्र दिवस की घणी रामराम.
बिल्कुल सहमत हूँ। केवल दो बातों से नहीं, एक तो स्त्री को किसी से अनुमति लेने की बात से व यह कि उसमें निर्णय लेने की क्षमता नहीं है, यहाँ सही शब्द अधिकार होगा।
घुघूती बासूती
सटीक लेखन!
आपको एवं आपके परिवार को गणतंत्र दिवस पर हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं.
भारत में क़ानूनों की कोई कमी नहीं है. सवाल इंप्लिमेंटेशन का है. आभार.
Rcha ji ,
Bahut hee achchhe ,samyik prasna uthaye hain apne is lekh men.hamare desh men striyon ko lekar jo roodhivadita aj bhee banee hai use sirf..aur sirf striyan hee tod saktee hain.
gantantra divas kee badhai.
Hemant Kumar
आप को गणतंत्र दिवस की बहुत बहुत शुभकामनाएं !!
अब सब ने अच्छा है कहा तो हम कहेगे... बोत चंगा जी
... अब समय बदल गया है, यह भेदभाव समाप्त होने के कगार पर है, स्त्रीयाँ पुरुषों से कदम से कदम मिला कर चल रही हैं कहीं-कहीं तो आगे भी निकल गई हैं।
... प्रसंशनीय व प्रभावशाली लेख है।
अच्छा आलेख है ऋचा जी,
देखने की बात यह है कि कोई कानून जिस समाज के लिए बनाया जाता है उसकी सामाजिक संरचना को नज़रन्दाज़ नही कर सकता / नही करता ।इम्प्लिमेंटेशन तो समाज के बीच ही होगा न कानून का।हाँ ,प्रशासन कड़े निगरानी अवश्य रख सकता है।और उससे भी ज़रूरे है कि कानूनों का ज्ञान आम व्यक्ति को हो ही।
दूसरी बात ,
कानून बनाने वाले हमेशा से पुरुषवादी दृष्टि से ही सोचते काम करते रहे इसलिए स्त्री पक्ष की उसमे अवहेलना अब भी मिल/दिख जाती है।यह ऐसा क्षेत्र है जहाँ स्त्रियों ने अपनी मज़बूत भागीदारी अब भी नही दिखाई है।
Aapka lekh bahut accha laga, kisi bhi bhasha mein ... ghuguti basuti ka remark kshamta aur adhikaar par gaur karne yogya hai ... par aphsos to yeh hai ki apni kshamta ko adhikaar ka roop deney mein ham striyaN hi kai baar asamarth ho jati hai, aur ismeiN kanoon doshi nahi ... doshi ham khud hoti hai kyoki ham heenta sweekarti haiN aur nirbalta aur lachaari ka daaman odh leney /odhtey rahney meiN aasani mahsus karti hai.(Hemant Kumar theek kahtey haiN)
Rahi kanoon ke implementaion ki baat, veh to bahut baad mein dakhal deta hai, pehle to pita, chacha, bhai, pati ko sweekarna hoga ki beti, bahen, patni, maa baraabar ki insaan hai ... aur ladkiyoN ki parvarish bhi atma sammaan develop kartey huey ho.
Sorry, naam yaad nahi hai par jisney bhi comment kiya tha ki chetna ki aavashyakta hai, bahut sahi kaha tha.
Richaji,
That was a real 'feel good' kind of story. Actually, men need to move one step ahead from 'not restricting women' to 'supporting them' in order to see them as equal. Koi lakh kahe ki purush-mahila barabar hain, aur mahilaon ko samanta ke liye khud hi sangharsh karna padega adi. Lekin yatharth yah hai ki jis tarah saphal purushon ko mahilao ka samarthan milna zaroori hai, usi tarah, mahilaon ko uncha uthane ke liye purusho ka support milna zaroori hai.
thank you sir for visiting my blog.umeed krti hoon aap phir se aayenge.
ऋचा का लेख काफी कुछ सोचने पर मजबूर करता है.
स्त्री पुरूष के बीच लिंग भेद के आधार पर वास्तविक
समस्या नहीं है,समस्या आपराधिक सोच और नारी
शुचिता के फर्जी दरोगाओं से है.समाज को बजरंगी
तालिबानों से खतरा है.
कुछ ही केस में एेसा है, आप देखेंगी कि महिलाएं आज भी पुरूष के पीछे ही चल रही है। कुछ स्वयं बराबर में आकर लग गई या समझदार पुरूषो ने बराबर में खड़ा करने मे गर्व महसूस किया । अन्यथा आप देखें कि महिला भले ही प्रधान,क्षेत्र पंचायत या जिला पचायत सदस्य हों ,निर्णय तो पति ही करतें हैं। मेरे यहां आेमवती प्रदेश सरकार में राज्य मंत्री है किंतु आप देखे तों पाएंगे कि उनके पास काम को आने वाले उनके पति से ही मिलते एवं सिफारिशी पत्र लिखवातें हैं। प्राय कार्य भी सारे वे ही करते हैं।बिजनौर की महिला आयोग की एक सदस्या की भी हालत कुछ एेसी ही है
bahut accha likha hai sir, samaj ka kadva such hai
stree ya tau samaaj aur pariwar ke thekedaaron ke isharon par pardon aur ghoonghaton me simti tamaasha bani hai,ya fashion designaron ki marzi par,aur baazaar ki bhookhi maang ke bahaane nagnataa ke ashaaleen naach me shareek hoti rahi hai.bhookhe purushon ke haathon ki kathputli bani naari ko apne shoshan ka shadyantra tod kar apni punarpratishtha khud karni hogi.jis sarkar ne sharab,yaun swechchhachar,khuli fashion parades aur nirankush media,filmon ke zariye pag pag par naari ke liye asuraksha ka mahoul banaya ho,vah sarkar rasmi taur par ek-do kaanoon bana bhi de tau naari ki sthiti me vishesh parivartan nahin hone wala!
आज आपका ब्लॉग देखा... बहुत अच्छा लगा. मेरी कामना है की आपके शब्दों को ऐसी ही ही नित-नई ऊर्जा, शक्ति और गहरे अर्थ मिलें जिससे वे जन सरोकारों की सशक्त अभिव्यक्ति का समर्थ माध्यम बन सकें....
कभी फुर्सत में मेरे ब्लॉग पर पधारें;-
http://www.hindi-nikash.blogspot.com
शुभकामनाओं सहित सादर-
आनंदकृष्ण, जबलपुर
बेशक, इस देश में शिक्षा-सम्पन्न यहाँ तक कि कामकाजी महिलाएँ भी घर में दासी से अधिक हैसियत नहीं रखती हैं। आश्चर्य तब और बढ़ जाता है जब मल्टी नेशनल कम्पनी में दस-दस लाख के पैकेज पर कार्यरत सॉफ़्टवेअर इंजीनियर्स और एमबीए'ज़ भी औरत के मामले में अठारहवीं सदी के विचारों तले दबे दिखाई देते हैं। संगीता जैसा सौभाग्य भारत की कम ही बहुएँ पाती हैं।
Sahi kaha...
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