संदर्भ : विभूति नारायण राय प्रकरण
एक प्रख्यात समालोचक ने एक कहानी में कुछ आपत्तिजनक शब्दों या यूं कहें कि भद्दी गालियों पर चल रही चर्चा में विराजमान बुद्धिजीवियों के आपत्ति करने पर कहा था कि वर्तमान परिस्थितियों में भाषा के कौमार्य को सुरक्षित नहीं रखा जा सकता। उनका सवाल था कि आखिर भाषा के कौमार्य को कब तक सुरक्षित रखोगे? और सच यही है कि आज प्रकाशित हो रहीं तमाम कहानी और साहित्य पत्रिकाओं में शब्दों पर कोई सेंसर नहीं रह गया है। शील-अश्लील के मायने और उसके बीच का अंतर भाषा में मिट गया है जबकि भाषाई अखबार शब्दों की गरिमा को पूरी शिद्दत से बचाए हुए हैं। ऐसे में साहित्यिक हलकों में या साहित्यिक गिरोहबंदी में 'छिनाल' शब्द ने हंगामा बरपा रखा है। हांलाकि ऐसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए लेकिन हंगामा करने वालों को पहले अपने गिरेवां में भी झांक कर देख लेना चाहिए कि उनकी भाषा, विचार और कृतियां भाषा के स्तर पर कितनी पाक-साफ हैं। आईए पहले संदर्भ जाने लें और एक बार फिर उस गंदी नाली में उतरें जहां से तब छींटे आए जब उसमें कंकर फेंका गया। जाहिर है कंकर जैसे पानी में फेंका जाएगा, छींटे भी वैसे ही आएंगे।
भारतीय पुलिस सेवा के पूर्व अधिकारी और महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय ने एक साहित्यिक पत्रिका को दिए गए साक्षात्कार में अपनी राय देते हुए कहा कि 'हिंदी लेखिकाओं का एक वर्ग अपने को छिनाल साबित करने की होड़ में लगा हुआ है और नारीवाद का विमर्श अब बेबफाई के बड़े महोत्सव में बदल गया है।' रवींद्र कालिया द्वारा संपादित 'नया ज्ञानोदय' पत्रिका में प्रकाशित इस साक्षात्कार में 'छिनाल' शब्द के प्रयोग से चाय की प्याली में उबाल आ गया है। स्वाभाविक तौर पर महिला जगत में ही नहीं लेखन जगत में भी विभूति के इस बयान की घोर निंदा हुई है। ये महिलाओं का ही नहीं बल्कि हमारे संविधान का भी उल्लंघन है जिसके लिए विभूति नारायण राय को स्पष्ट शब्दों में स्त्री जाति से माफी मांग लेनी चाहिए। हांलाकि विभूति की छवि एक तेज-तर्रार और स्पष्टवादी पुलिस अफसर की रही है। पुलिस अफसर के रुप में हजारों पीडि़ताओं से उनका वास्ता पड़ा होगा लेकिन उनके श्रीमुख से कभी किसी अभद्र टिप्पणी का मामला संज्ञान में नहीं आया।..ऐसे में क्या ये माना जाए कि साहित्य में बेतुके विवाद पैदा कर चर्चा में बने रहने के लिए उन्होंने ये टिप्पणी कर डाली? अपने सर्जनात्मक अवदान के जरिए सम्मान अर्जित करने के बजाय दूसरों को आहत करना क्या साहसिक माना जा सकता है?
विभूतिनारायण राय खुद चर्चित कथाकार हैं। किसी स्त्री के चरित्र हनन के लिए 'छिनाल' शब्द का इस्तेमाल किया जाता है, इस बात से वे भली-भांति परिचित होंगे ही। एक पढ़े-लिखे आदमी की क्या बात, अनपढ़ या देहाती भी इस शब्द की ध्वनि को अच्छी तरह जानता-समझता है। कोई लाख कहे कि ये ओछा शब्द नहीं है या उसे गलत परिपेक्ष्य में लिया जा रहा है, हम तो यही कहेंगे कि शब्दों के जरिए खिलबाड़ नहीं होना चाहिए। वाणी में मधुरता और सौम्यता जरूरी है। 'ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोय, औरन को सीतल लगे आपहु सीतल होय'। लेकिन जरूरी है कि विद्वान विभूति ने ऐसे शब्द का प्रयोग क्यों और किन संदर्भों में किया। इस साक्षात्कार में जब एक चर्चित लेखिका और उसके साहित्य को केंद्र में रखकर प्रश्नकर्ता ने सवाल किया तो उनके श्रीमुख से औचक जो टिप्पणी निकली, जो भाव अंदर से अचानक बाहर आए, उसमें विभूति अपने को तथाकथित तौर पर 'सभ्य' रखने में नाकाम रहे। एक लेखिका जिसे कई पुरस्कार मिल चुके हैं और साहित्य के कई अलंबरदार उसे पलक-पांवड़ों पर बिठाकर सदी की महानतम साहित्यकार की स्वयंभू घोषणा करते रहते हैं का अपमानजनक संदर्भ देते हुए राय ने कह डाला--मुझे लगता है कि इधर प्रकाशित एक बहु प्रचारित-प्रसारित लेखिका की आत्मकथात्मक पुस्तक का शीर्षक होना चाहिए था-'कितने बिस्तरों में कितनी बार'। हांलाकि विभूति ने उस लेखिका का नाम नहीं लिया लेकिन नाम लिए बगैर भी उसे पूरा साहित्य जगत जानता-पहचानता है और ये भी जानता है कि साहित्य में उसकी कैसी गिरोहबंदी है। लेकिन इससे विभूति का दोष कम नहीं हो जाता क्योंकि प्रतिष्ठा के पद पर आसीन व्यक्ति को अपने आचरण में हर पहलू और मर्यादा का ध्यान रखना चाहिए लेकिन क्या साहित्य जगत में लेखनी की मर्यादाओं को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर खूली छूट दी जा सकती है? क्या साहित्य में नैतिक-अनैतिक के कोई मायने नहीं हैं?
अपने को बोल्ड साबित करने के लिए लेखक/लेखिकाओं का एक वर्ग विकृत और कुत्सित मानसिकता का इजहार करता आ रहा है। आज के उपभोक्तावादी, बाजारवादी दौर में साहित्यिक हलकों में भी सनसनी पैदा करने के लिए नंगई पेश की जा रही है। आईए, आपसे साझा करूं आज के दौर की एक नामी-गिरामी लेखिका की कहानी का एक अंश--लेखिका ने अपनी कहानी छुटकारा में अपने पात्र (दलित स्त्री) से कुछ यूं कहलवाया---'ओ पतिव्रता की चो$$ पहले अपने चुटियाधारी खसम से पूछ कि हमने उसे रिझाया या कि हमें वह रिझाए जा रहा था। मैं कहती हूं कि क्यों बूढ़े की लंगोटिया खोलूं, जे जौहर उमर के लाल्लुक सोते हैं आज...हमारा मुंह देखकर अपनी पत्नी को त्यागे बैठा है और वहां आकर हमारे चूतर चाटता था...' इस तरह का लेखन कौन से साहस की बात हुई। लेखिका की बोल्डनैस स्त्री की समस्याओं और संघर्षों को लेकर होनी चाहिए।
इसी लेखिका ने अपनी आत्मकथा में बताया है कि उनकी मां कस्तूरी ग्रामसेविका थी। उनकी पोस्टिंग ग्रामीण क्षेत्र में ही होती थी। पोस्टिंग ऐसी जगह भी हो जाया करती थी जहां स्कूल कालेज नहीं होते थे। इसलिए उस जमाने में जब लड़कियों के लिए माध्यमिक और उच्च शिक्षा ग्रामीण परिवेश में बहुत दुश्कर थी। शिक्षा के प्रति जागरूक उनकी मां ने उन्हें एक पारिवारिक मित्र के परिवार में छोड़ दिया। विस्मय और इससे भी अधिक शर्म की बात है कि इस लेखिका ने बोल्ड लेखन के लिए उसमें भी बुराई तलाश ली। अगर मां अपनी बेटी को चिपकाए-चिपकाए घूमती तो शिक्षा में बाधा पंहुचती और वह लेखिका बनने की स्थिति में न होती। पर ये सब सदभावनाएं, दायित्व निर्वहन नारी विमर्श की अलंबरदार इस लेखिका के लिए कोई मायने नहीं रखता और वह अपनी आत्मथा में अपनी मां पर अनर्गल आरोप गढ़ने से नहीं चूकी कि अपनी निर्विघ्न स्वतंत्रता के लिए मां ने अपने से अलग कर दिया। ऐसा लेखन पढ़कर कोई यही निष्कर्ष निकालेगा कि सचमुच भलाई का जमाना नहीं। चर्चा में बने रहने की आदी ये लेखिका अपने लेखन में स्त्री स्वातंत्रय की पक्षधर है। स्त्री अस्मिता, स्त्रीनिजता की दुहाई देती है, पर अपनी मां के संदर्भ में इस जीवन की आलोचना करती है। जैसे मां स्त्री है ही नहीं। वह यह भी भूल जाती है कि मां ने पढ़ाई के कारण उन्हें अलग रखा था। पढ़ाई 'बहाना' नहीं 'कारण' था।
मृत्युशैय्या पर माता-पिता को देखकर क्रूर से क्रूर व्यक्ति भी दहल जाता है। शायद ही उन पर झुंझलाता हो लेकिन ये लेखिका शायद उस गुणराशि की है जो अकारण मां-बाप पर गुस्सा उतारने, उन्हें अपमानित करने, उन पर झुंझलाने को भी जुझारुपन, संघर्षशीलता और क्रांति समझती है। स्त्री अस्मिता, स्त्री स्वाभिमान और स्त्री अधिकार का दंभ भरने वाली स्त्री, अन्य स्त्री; वह भी मां के प्रति कितना क्रूर और संवेदनहीन हो सकी है उसके जीवंत दस्तावेज हैं ये प्रसंग जो उसकी आत्मकथा का हिस्सा हैं। स्त्री लेखन के व्यापक सरोकारों और स्त्री मुक्ति की चिंता या स्त्री अस्मिता के प्रति चिंतित लेखिका ने अपनी प्रकाशित आत्मकथा में संकेत छिपा है कि 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' आदि पत्र-पत्रिकाओं में जो लेखिकाएं छपीं; वे सब संपादकों, उपसंपादकों के सामने बिछकर ही छपीं, सही तो है ही नहीं आपत्तिजनक भी है। ऐसा संकेत कर लेखिका ने 'मेरिट' पर प्रत्यक्ष द्वार से रचना छपवाने वाली लेखिकाओं--जिनकी बहुत बड़ी संख्या है-- का अपमान ही किया है।
दरअसल वर्तमान साहित्य विशेषतौर पर कथा लेखन आजकल कबीलाई या सामंती खेमों में बंटा नजर आता है। इन्हीं में से एक साहित्य की एक यदुवंशी पाठशाला में स्त्री विमर्श की एक ऐसी पौध तैयार की है जो स्त्री की गरिमा को ही अपने लेखन में तार-तार करने पर जुटी है। ऐसे में विभूति जैसे लोग कभी शब्दों की मर्यादा कायम न रख सकें तो उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार समिति से हटना पड़ता है। कुलपति पद खतरे में आ जाता है। लेकिन उनका क्या कर लेगा कोई जिसकी उतर गई लोई।
विशेष : ये लेख अमर उजाला कांपेक्ट में आंशिक रूप से प्रकाशित हुआ है।
19 comments:
राजेश रेड्डी साहब का एक शेर याद आ रहा है हरी भाई:-
मेरे दिल के किसी कोने में,
इक मासूम सा बच्चा|
बड़ों की देख कर दुनिया,
बड़ा होने से डरता है||
नवीन भाई ये पोस्ट ऋचा की है मेरी नहीं...जय हो
निंदनीय टिपण्णी है. सार्वजनिक रूप से क्षमा याचना करना ही चाहिए.
शब्द तो अवश्य ही निंदनीय है ऋचा जी..लेकिन विभूति राय जैसा व्यक्ति यदि प्रयोग करता है तो और भी कष्टकारी होता है.. यह है एक पहलू लेकिन मै आपकी बात से सहमत हूँ कि जब महिला स्वयं ही( जैसे अपनी माता के संदर्भ)उस पर अंगुली उठाती है या उसे तिरस्करित करती है(स्पष्ट शब्दो मे मां जैसे रिश्ते को ही गिरा सकती है) केवल किताब के नाम पर / साहित्य के नाम पर ये कैसा संस्कार है.. उसकी कंही निंदा नही हुई (कारन बहुत से)..मैने उस दिन ये बहस टीवी पर सुनी थी स्टार न्य़ूज पर।
नकटे का जितना नाक काटो उतना कम है । जो दिल में छुपा रहता है , वह इसी तरह बाहर निकल कर दुर्गति कराता है ।
ये तो मैंने बार-बार कहा है कि विभूति को अपशब्दों के लिए सार्वजनिक माफी मांगनी चाहिए और वह मांग भी चुके हैं लेकिन उनके बारे में भी तो सोचना होगा जो स्त्री विमर्श के नाम पर नारी जगत को ही कलंकित करने में लगी हुई हैं।
Congratlations to writer of this blog.
ऋचा जी बहुत हंगामे हुए वैसे इत्तेफाक से आज दोपहर में मै उस इंटरव्यू को दोबारा पूरा पढ़कर आ रहा हूँ....यहाँ नजर डालिए ...
तथ्य में जाने की जरूरत है। विभूति राय जी ने ऐसा क्यों कहा- क्या वे अभद्र है, नहीं, उनकी साहित्यिक समझ ना के बराबर है, नहीं। क्या वे सस्ती लोकप्रियता चाहते हैं, नहीं। तो फिर ऐसा क्योंकर हुआ। तो तथ्य ये बनता है कि बाध्यताएं ऐसी रही कि विभूति जी को ऐसी भाषा का प्रयोग करना पड़ा। मैं इसे स्वाभाविक मानता हूं, नकली लोकप्रियता और सस्तेपन से परें। मुझे लगता है वे इससे भी बुरा कह सकते थे, उन्होने अभी भी संयत भाषा का प्रयोग किया है, क्योंकि उस लेखिका को देखने और समझने का चश्मा उनका अपना है। फिर भी स्त्री सन्दर्भ के प्रति किसी भी प्रकार की अश्लीलता अमाननीय है। आपकी पड़ताल काफी गहरे से बिन्दुओं को छुकर निकलती है, कुछ चीज़ों को छोड़ दे तो।
स्त्री विमर्श के नाम पर साहित्य के यदुवंशी रजवाड़े क्या -क्या खेल खेल रहे हैं इसका पता तो सबको है लेकिन कुछ लेखिकाएँ जो वीराग्नाएँ भी हैं सेक्स चर्चा में ऐसी मशगूल हैं कि मानो खुलेपन की विश्व स्तरीय किसी नुमाइश में भागीदारी कर रही हों .केवल चर्चा में बने रहने के लिए किसी का भी चरित्र हनन करना इनका प्रिय शगल है .
विभुतिजी को भी समझ लेना चाहिए की अब वे पुलिस अधिकारी नहीं हैं और अब उनके पास किसी को छिनाल आदि कह देने का सरकारी हक भी नहीं है .ताजुब्ब है कि एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी एक थानेदार सरीखी भाषा बोलता है.
वीएन राय के माफी मांगने के बाद उन पर कीचड़ उछालना बंद होना चाहिए। पिछले कुछ दिनों से देखा जा रहा है कि किसी न किसी बहाने वीएन राय पर कीचड़ उछाली जा रही है। वीएन राय ने सभी लेखिकाओं को छिनाल नहीं कहा था। जरा उनके शब्दों पर ध्यान दीजिए – ‘हिंदी में लेखिकाओं का एक वर्ग ऐसा है, जो अपने आप को बड़ा छिनाल साबित करने में लगा है’। उनके इस वक्तव्य के बाद यह पता लगाना बेहद मुश्किल है कि उनका इशारा किस ओर था। कुछ लेखिकाओं ने उनके बयान पर तल्ख टिप्पणियां की हैं। मैत्रेयी पुष्पा ने तो उन्हें सीधे-सीधे ‘लफंगा’ ही कह दिया है। वीएन राय ने तो किसी का नाम लेकर कुछ नहीं कहा था, लेकिन मैत्रेयी पुष्पा ने उन्हें लफंगा कहकर यह साबित कर दिया है कि साहित्यकारों में कहीं न कहीं संयम खोने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। वीएन राय ने लेखिकाओं के एक वर्ग को छिनाल कहा तो कयामत आ गयी, लेकिन किसी को लफंगा कहना कहां तक सही है।
http://mohallalive.com/2010/08/06/saleem-akhtar-siddiqi-react-on-oppositionist-of-vibhuti-narayan-rai/
वीएन राय ने जो कहा उसमें किसी को एक शब्द के अतिरिक्त कही कोई आपत्ति नहीं है। आपत्ति है तो 'छिनाल' शब्द पर है। लेकिन मुख्य प्रश्न चिह्न तो उस महिला लेखक पर है जो महिला होते हुए भी ऐसा लेखन करती है। सही कहा है कि कुत्ता ही कुत्ते को काटता है और मालिक के अन्न की रक्षा करता है। यह लेखिका कौन से महिलाओं के अधिकारों की पक्षधर है, असली परिचर्चा का मुद्दा तो यह होना चाहिए।
Vibhooti Baboo sachche aur saaf aadami hai.Sambhal kar sach kaha to bhi fans Gaye.unhone ne kis sandharbh me kaise Aur kyaa kaha ? ise gekhne ki kisi ko fursat hi nahi hai.......mein to yahi kahoonga-..Bechari Chanda fans Gayi .....mein.
छिनाल शब्द के जरिये विभूति जी का विरोध, बिना बाली वाले "अमर-बकरे" कर रहे हैं. वे अपने पसंदीदा उत्सव को जारी रखने के लिए जीभ निकाले हुए ब्ला ब्ला करते हुए समर्थन जता रहे हैं. एक रेवड़ है बकरियों का हिंदी साहित्य में जो सिर्फ मैं मैं की ध्वनि निकाल सकता है.
मैं इस विचाराभिव्यक्ति को अवश्य पढ़ना चाहूँगा किन्तु बिना पैराग्राफ़्स में बंटे वाले लेखों में मेरी रूचि नहीं जग पाती।
किन्तु पुन: आऊँगा
जो कुछ समाज में चल रहा है वह कभी साहित्यिक क्षेत्र में आने से नहीं रुक सकता। यदि विभूति ने जो कुछ कहा है उस से उन की मानसिकता ही उजागर हुई है। इस से उन की प्रतिष्ठा को जो नए आयाम मिले हैं उसे उन की एक माफी नहीं धो सकती। उसी तरह ये लेखिका जी भी कुछ भी लिखती रहें,अपनी माँ को भी कुछ भी कहें, उन की मर्जी। समाज भी उन्हें उन्हीं के तरीके से नवाज देगा।
यह प्रकरण हमारे देश की भीड़ चाल का एक जीता जगता नमूना है !
छिनाल कह दिया... छिनाल कह दिया...
और सारा देश भाग पड़ा विभूति नारायण सिंह के पीछे ... इसमें नया क्या है ! हमारे साहित्य जगत की यह पहचान नयी है क्या ऋचा जी !
शायद कुछ दिन पहले यही विभूति नारायण सिंह, देश के सर्वश्रेष्ठ मंचों पर प्रसंशा की नज़र से देखे जाते थे ...हैं न ?
बढ़िया मसाला है, तालियाँ बजाइए इनके ऊपर और फिर कोई नया विभूति नारायण सिंह ढूँढिये ....
ऋचा जी, हरि शंकर जोशी जी,
भाषा जब मर्यादा के आंचल से बाहर आ जाए, तो हर किसी को नागवार लगता है...
खास तौर पर जब कहीं साहित्य के नाम पर ऐसा हो, तो स्थिति शर्मनाक हो जाती है..
इस पोस्ट में प्रस्तुत चिन्तन प्रभावशाली है.
मैं वी एन राय के बारे में ज्यादा नहीं जानता ..जानना भी नहीं चाहता ...आक्रोश कितना भी हो एक शिक्षित व्यक्ति को भाषा का ध्यान रखना हि चाहिए...पुरुष हो या स्त्री ..सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए यदि वे अनाप-शनाप लिखने लगे तो वो साहित्य नहीं हो जाता ....बेहतर है ऐसे लोगों को चर्चा में न लाया जाए उन्हें और ज्यादा प्रचार मिलता है आधुनिकता के नाम पर जो हो जाए सो कम ..परन्तु नारी का अपमान करने का अधिकार नारी को भी नहीं है फिर पुरुष की तो बात हि क्या है
Post a Comment