Wednesday, August 11, 2010

फिलहाल स्त्री विमर्श बेवफाई के विराट उत्सव की तरह है: विभूतिनारायण राय

महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय के कुलपति और साहित्‍यकार विभूति नारायण के जिस साक्षात्‍कार को लेकर साहित्‍य जगत में बखेड़ा खड़ा हुआ, उस पर इर्द-गिर्द पर आपने ऋचा जोशी का नजरिया और विभूति नारायण राय का अभिमत/माफीनामा पढ़ा। नया ज्ञानोदय में प्रकाशित इस साक्षात्‍कार को अभी भी बहुत से सुधी पाठक नया ज्ञानोदय के उस अंक की अनुपलब्‍धता के कारण नहीं पढ़ पाएं हैं। इर्द-गिर्द के सुधी पाठकों के आग्रह पर हम इस चर्चित साक्षात्‍कार को नया ज्ञानोदय से साभार प्रस्‍तुत कर रहे हैं।


राय साहब, नया ज्ञानोदय प्रेम के बाद अब बेवफाई पर विशेषांक निकालने जा रहा है, क्या प्रतिक्रिया है आपकी?

- काफी महत्त्वपूर्ण संपादक हैं रवीन्द्र कालिया। प्रेम पर निकाले गए उनके सभी अंकों की आज तक चर्चा है। इस तरह के विषय केन्द्रित विशेषांकों का सबसे बड़ा लाभ है कि न सिर्फ हिन्दी में बल्कि कई भाषाओं में लिखी गई इस तरह की रचनाएं एक साथ उपलब्ध् हो जाती हैं। साथ ही किसी विषय को लेकर विभिन्न पीढ़ियों का क्या नज़रिया है यह भी सिलसिलेवार तरीके से सामने आ जाता है। साहित्य के गम्भीर पाठकों, अध्येताओं के लिए ये अंक जरूरी हो जाते हैं। अब जब उन्होंने बेवफाई पर अंक निकालने की योजना बनायी है तो वह भी निश्चित तौर पर एक महत्त्वपूर्ण प्रसंग होगा।

लेकिन आलोचना भी खूब हुई थी उन अंकों की, खासकर कुछ लोगों ने कहा कि इतने महत्त्वपूर्ण मुद्दों को छोड़कर प्रेम और बेवफाई…

- हिन्दी में विध्न सन्तोषियों की कमी नहीं है। आखिर यदि वे इतने ही महत्त्वहीन अंक थे तो इतने बड़े पैमाने पर लोकप्रिय क्यों हुए? मुझे याद नहीं कि कालिया जी के संपादन को छोड़कर किसी पत्रिका ने ऐसा चमत्कार किया हो कि उसके आठ-आठ पुनर्मुद्रण हुए हों। कुछ तो रचनात्मक कुंठा भी होती है। जैसे उन विशेषांकों के बाद मनोज रूपड़ा की एक चलताउ सी कहानी किसी अंक में आयी थी, यह एक किस्म का अतिवाद ही है आप इतने बड़े पैमाने पर लिख जा रहे विषय का अर्थहीन ढंग से मजाक उड़ाएं। फिर लोगों को किसने रोका है कि वे प्रेम या बेवफाई को छोड़कर अन्य विषयों पर कहानी लिखें या विशेषांक न निकालें।

तो बेवफाई को आप कैसे परिभाषित करेंगे?

- बेवफाई की कोई सर्वस्वीकृत परिभाषा नहीं हो सकती। इसे समझने के लिए धर्म, वर्चस्व और पितृसत्ता जैसी अवधारणाओं को भी समझना होगा। यह इस उत्कट इच्छा की अभिव्यक्ति है जिसके तहत स्त्री या पुरुष एक-दूसरे के शरीर पर अविभाजित अधिकार चाहते हैं। प्रेमी युगल यह मानते हैं कि इस अधिकार से वंचित होना या एक-दूसरे से जुदा होना दुनिया की सबसे बड़ी विपत्ति है और इससे बचने के लिए वे मृत्यु तक का वरण करने के लिए तैयार हो सकते हैं। आधुनिक धर्मों का उदय ही पितृसत्ता के मजबूत होने के दौर में हुआ है। इसीलिए सभी धर्मों का ईश्वर पुरुष है। धर्मों ने स्त्री यौनिकता को परिभाषित और नियंत्रित किया है। उन्होंने स्त्री के शरीर की एक वर्चस्ववादी व्याख्या की है। इससे बेवफाई एकतरपफा होकर रह गई है। मर्दवादी समाज मुख्य रूप से स्त्रियों को बेवफा मानता है। सारा साहित्य स्त्रियों की बेवफाई से भरा हुआ है जबकि अपने प्रिय पर एकाधिकार की चाहना स्त्री-पुरुष दोनों की हो सकती है और दोनों में ही प्रिय की नज़र बचाकर दूसरे को हासिल करने की इच्छा हो सकती है।

देखा जाए तो, बेवफाई एक नकारात्मक पद है लेकिन इसका पाठ हमेशा रोमांटिक या लुत्फ देने वाला क्यों होता है?

-वर्जित फल चखने की कल्पना ही उत्तेजना से भरी होती है। यह मनुष्य का स्वभाव है। फिर यहां लुत्फ लेने वाला कौन है मुख्य रूप से पुरुष ! व्यक्तिगत संपत्ति और आय के स्रोत उसके कब्जे में होने के कारण वह औरतों को नचाकर आनन्द ले सकता है, उन्हें रखैल बना सकता है, बेवफा के तौर पर उनकी कल्पना कर उन्हें अपने फैंटेसी में शामिल कर सकता है। पर जैसे-जैसे स्त्रियां व्यक्तिगत संपत्ति या क्रय शक्ति की मालकिन होती जा रही हैं धर्म द्वारा प्रतिपादित वर्जनाएं टूट रही हैं और लुत्फ लेने की प्रवृत्ति उनमें भी बढ़ रही है।

हिन्दी समाज से कुछ उदाहरण….

-क्यों नहीं। पिछले वर्षों में हमारे यहां जो स्त्री विमर्श हुआ है वह मुख्य रूप से शरीर केन्द्रित है। यह भी कह सकते हैं कि यह विमर्श बेवफाई के विराट उत्सव की तरह है। लेखिकाओं में होड़ लगी है यह साबित करने के लिए उनसे बड़ी छिनाल कोई नहीं है। मुझे लगता है कि इधर प्रकाशित एक बहु प्रमोटेड और ओवर रेटेड लेखिका की आत्मकथात्मक पुस्तक का शीर्षक `कितने बिस्तरों पर कितनी बार´ हो सकता था। इस तरह के उदाहरण बहुत-सी लेखिकाओं में मिल जाएंगे। दरअसल, इससे स्त्री मुक्ति के बड़े मुद्दे पीछे चले गए हैं। मुझे इसमें कुछ भी असहज नहीं लगता। आखिर पहले पुरुष चटखारे लेकर बेवफाई का आनन्द उठाता था, अब अगर स्त्रियां उठा रही हैं तो हाय तौबा क्या मचाना। बिना जजमेंटल हुए मैं यह यहां जरूर कहूंगा कि यहां औरतें वही गलतियां कर रही हैं जो पुरुषों ने की थी। देह का विमर्श करने वाली स्त्रियां भी आकर्षण, प्रेम और आस्था के खूबसूरत सम्बंध को शरीर तक केन्द्रित कर रचनात्मकता की उस संभावना को बाधित कर रही है जिसके तहत देह से परे भी बहुत कुछ ऐसा घटता है जो हमारे जीवन को अधिक सुन्दर और जीने योग्य बनाता है।

क्या बेवफाई का जेण्डर विमर्श सम्भव है एक पुरुष और एक स्त्री के बेवफा होने में क्या अन्तर है?

-मैंने ऊपर निवेदन किया है कि बेवफाई को समझने के लिए व्यक्तिगत संपत्ति, धर्म या पितृसत्ता जैसी संस्थाओं को ध्यान में रखना होगा। एंगेल्स की पुस्तक परिवार, व्यक्तिगत संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति से बार-बार उद्धृत किया जाने वाला प्रसंग जिसमें एंगेल्स इस दलील को खारिज करते हैं कि लंबे नीरस दाम्पत्य से उत्कट प्रेम पगा एक ही चुंबन बेहतर है और कहते हैं कि यह तर्क पुरुष के पक्ष में जाता है। जब तक संपत्ति और उत्पादन के स्रोतों पर स्त्री-पुरुष का समान अधिकार नहीं होगा पुरुष इस स्थिति का फायदा स्त्री के भावनात्मक शोषण के लिए करेगा। असमानता समाप्त होने तक बेवफाई का जेण्डर विमर्श न सिर्फ सम्भव है बल्कि होना ही चाहिए।

हिन्दी साहित्य में तलाशना हो तो पुरुष के बेवफाई विमर्श का सबसे खराब उदाहरण नमो अंधकारम् नामक कहानी है। लोग जानते हैं कि कहानी इलाहाबाद के एक मार्क्सवादी रचनाकार को केन्द्र में रखकर लिखी गई थी। उसमें बहुत सारे जाने-पहचाने चेहरे हैं। इस कहानी के लेखक के एक सहकर्मी महिला के साथ सालों ऐलानिया रागात्मक सम्बंध् रह हैं। उन्होंने कभी छिपाया नहीं और शील्ड की तरह लेकर उसे घूमते रहे। पर उस कहानी में वह औरत किसी निम्पफोमेनियाक कुतिया की तरह आती है। लेखक ऐसे पुरुष का प्रतिनिधि चरित्र है जिसके लिए स्त्री कमतर और शरीर से अधिक कुछ नहीं है। मैं कई बार सोचता हूं कि अगर उस औरत ने इस पुरुष लेखक की बेवफाई की कहानी लिखी होती तो क्या वह भी इतने ही निर्मम तटस्थता और खिल्ली उड़ाउ ढंग से लिख पाती?

बेवफाई कहीं न कहीं एक ताकत का भी विमर्श है। क्या महिला लेखकों द्वारा बड़ी संख्या में अपनी यौन स्वतंत्रता को स्वीकारना एक किस्म का पावर डिसकोर्स ही है ?

-सही है कि बेवफाई पावर डिसकोर्स है। आप भारतीय समाज को देंखे! अर्ध सामन्ती- अर्धऔपनिवेशिक समाज- काफी हद तक पितृसत्तात्मक है। शहरीकरण, औद्योगीकरण, शिक्षा के बढ़ते अवसर या मूल्यों के स्तर पर हो रही उथल-पुथल ने स्त्री पुरुषों को ज्यादा घुलने-मिलने के अवसर प्रदान किए हैं। पर क्या ज्यादा अवसरों ने ज्यादा लोकतांत्रिक संबंध भी विकसित किए हैं? उत्तर होगा- नहीं। पुरुष के लिए स्त्री आज भी किसी ट्राफी की तरह है। अपने मित्रों के साथ रस ले-लेकर अपनी महिला मित्रों का बखान करते पुरुष आपको अकसर मिल जाएंगे। रोज ही अखबारों में महिला मित्रों की वीडियो क्लिपिंग बना कर बांटते हुए पुरुषों की खबरें पढ़ने को मिलेंगी। अभी हाल में मेरे विश्वविद्यालय की कुछ लड़कियों ने मांग की कि उन्हें लड़कों के छात्रावासों में रुकने की इजाजत दी जाए। मेरी राय स्पष्ट थी कि अभी समाज में लड़कों को ऐसा प्रशिक्षण नहीं मिल रहा है कि वे लड़कियों को बराबरी का साथी समझें। गैरबराबरी पर आधरित कोई भी संबंध अपने साथी की निजता और भावनात्मक संप्रभुता का सम्मान करना नहीं सिखाता। हर असफल सम्बंध एक इमोशनल ट्रॉमा की तरह होता है जिसका दंश लड़की को ही झेलना पड़ता है। पितृसत्तात्मक समाज में स्वाभाविक ही है कि स्त्री पुरुष के लिए एक ट्रॉफी की तरह है…जितनी अधिक स्त्रियां उतनी अधिक ट्रॉफियां।

महिला लेखिकाओं द्वारा बड़े पैमाने पर अपनी यौन स्वतन्त्रता को स्वीकारना इसी डिसकोर्स का भाग बनने की इच्छा है। आप ध्यान से देखें- ये सभी लेखिकाएं उस उच्च मध्यवर्ग या उच्च वर्ग से आती हैं जहां उनकी पुरुषों पर आर्थिक निर्भरता अपेक्षाकृत कम है। इस पूरे प्रयास में दिक्कत सिर्फ इतनी है कि यह देह विमर्श तक सिमट गया है और स्त्री मुक्ति के दूसरे मुद्दे हाशिये पर चले गए हैं।

पूंजी, तकनीक और बाजार ने मानवीय रिश्तों को नये सिरे से परिभाषित किया है। ऐसे में यह धारणा आयी है कि लोग बेवफा रहें लेकिन पता नहीं चले। यह कौन सी स्थिति है

-सही है कि बाजार ने तमाम रिश्तों की तरह आज औरत और मर्द के रिश्तों को भी परिभाषित करना शुरू कर दिया है। यह परिभाषा धर्म द्वारा गढ़ी- परिभाषा से न सिर्फ भिन्न है बल्कि उसके द्वारा स्थापित नैतिकता का अकसर चुनौती देती नज़र आती है। आप पाएंगे कि आज एसएमएस और इंटरनेट उस तरह के सम्बंध विकसित करने में सबसे अधिक मदद करते हैं जिन्हें स्थापित अर्थों में बेवफाई कहते हैं। पर आपके प्रश्न के दूसरे भाग से मैं सहमत नहीं हूं। विवाहेतर रिश्तों को स्वीकार करने का साहस आज बढ़ा है। पहली बार भारत जैसे पारंपरिक समाज में लिव इन रिलेशनशिप का चलन बढ़ा है। लोग ब्वॉय फ्रेंड या गर्ल फ्रेंड जैसे रिश्ते स्वीकारने लगे हैं। हां, यह जरूर है कि यह स्थिति उन वर्गों में ही अधिक है जहां स्त्रियां आर्थिक रूप से निर्भर नहीं हैं।

क्या कलाकार होना बेवफा होने का लाइसेंस है?

-इसका कोई सरलीकृत उत्तर नहीं हो सकता। कलाकार अन्दर से बेचैन आत्मा होता है। धर्म या स्थापित मूल्यों से निर्धारित रिश्ते उसे बेचैन करते हैं। वह बार-बार अपनी ही बनाई दुनिया को तोड़ता-फोड़ता है और उसे नये सिरे से रचता-बसता है। ऐसे में यह स्वाभाविक ही है कि उसकी अतृप्ति उसे नये-नये भावनात्मक सम्बंध् तलाशने के लिए उकसाती है। कलाकार के पास अभिव्यक्ति के औजार भी होते हैं इसलिए वह अपनी बेवफाई, जिसमें कई बार दूसरे को धोखा देकर छलने के तत्व भी होते हैं, को बड़ी चालाकी से जस्टिफाई कर लेता है। साधारण व्यक्ति पकड़े जाने पर जहां हकलाते गले और फक पड़े चेहरे से अपनी कमजोर सफाई पेश करने की कोशिश करता है वहीं कलाकार बड़ी दुष्टता के साथ छल सकने में समर्थ तर्क गढ़ लेता है। अकसर आप पाएंगे कि दूसरों को धोखा देने वाले तर्कों को रखते-रखते वह स्वयं उनमें यकीन करने लगता है। यदि एक बार फिर हिन्दी से ही उदाहरण तलाशने हों तो राजेन्द्र यादव की आत्मकथा इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। राजेन्द्र अपनी मक्कारी को साबित करने के लिए जिस झूठ और फरेब का सहारा लेते हैं, आप पढ़ते हुए पाएंगे कि मन्नू भण्डारी को कनविन्स करते-करते वे खुद विश्वास करने लगते हैं कि अपने साथी से छल-कपट लेखक के रूप में उनका अधिकार है।

यह सही कहा आपने, दरअसल हिन्दी में बेवफाई की सुसंगत और योजनाबद्ध शुरुआत नई कहानी की कहानियों और कहानीकारों से ही दिखती है।

-हां, लेकिन उसके ठोस कारण भी हैं। कहानी, उपन्यास, की जिस वास्तविक जमीन को छोड़कर ये मध्यवर्ग की कुंठाओं, त्रासदियों और अकेलेपन को सैद्दांतिक स्वरूप देने में मसरूफ थे, उसमें तो ऐसी स्थितियां पैदा होनी ही थी। यह अकारण नहीं कि ये विख्यात महारथी अपने जीवन काल में ही अपनी कहानियों से ज्यादा अपने (कु) कृत्यों के लिए मशहूर हो चले थे। राजेन्द्र जी तो अपनी मशहूरी अभी तक ढो रहे हैं।

Monday, August 9, 2010

कहे पर शर्मिंदा : बहस की अपेक्षा

इर्द-गिर्द पर विभूति नारायण राय के विवादास्‍पद साक्षात्‍कार पर प्रतिक्रिया में मेरा आलेख आपने पढ़ा। लेकिन मैं जरूरी समझती हूं कि इस मामले में विभूति नारायण का स्‍पष्‍टीकरण या अभिमत भी सबके सामने आए। इसी नजरिए से ये पोस्‍ट आपके सामने है।

नया ज्ञानोदय के अगस्त 2010 अंक में छपे मेरे इंटरव्यू पर प्रतिक्रियाओं से एक बात स्पष्ट हो गई कि मैंने अपनी लापरवाही से एक गंभीर विमर्श का हेतु बन सकने का मौका गंवा दिया। मैंने कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जिनसे बचा जा सकता था।
मुझे जैसे ही यह अहसास हुआ कि मेरी भाषा से हिंदी की बहुत सी लेखिकाओं को कष्ट हुआ है, मैंने अपनी गलती का अहसास किया और बिना शर्त माफी मांग ली। मैं शर्मिंदा हूं कि मेरी असावधानी से बहुत से ऐसे लोग आहत हुए, जो मेरे वर्षों पुराने मित्र रहे हैं। इनमें बड़ी संख्या में लेखिकाएं भी हैं, पर मेरे मन में उनके लिए सम्मान भी बढ़ा है कि मित्रता की परवाह किये बगैर उन्होने मेरी मरम्मत की। हालांकि कुछ लोग जो इस मामले को अन्य कारणों से जिंदा रखना चाहते हैं, इंटरव्यू में उठाये गए मुद्दों पर बहस न करके अब भी उन शब्दों के वाग्जाल में उलझे हुए हैं, जिन पर मैं खुद खेद प्रकट कर माफी मांग चुका हूं। मैं मानता हूं कि इन लोगों की
उपेक्षा कर अब मैं मुद्दों पर बहस की अपेक्षा कर सकता हूं।इंटरव्यू पर शुरूआती प्रतिक्रिया उन लोगों के तरफ से आई जिन्होंने उसे पढ़ा ही नहीं था। अब, जबकि अधिकतर लोगों ने इंटरव्यू पढ़ लिया है, मुझे लगता है उसमें उठाये गए प्रश्नों पर बातचीत होनी चाहिए। संक्षेप में कहूं तो मेरे मन में मुख्य शंका यह है कि महिला लेखन में देह-केंद्रित लेखन को कितना स्थान मिलना चाहिए। एक मित्र ने आपत्ति की कि यह प्रश्न पुरूषों के लेखन पर भी उठना चाहिए। सही है, पर विमर्श सिर्फ वंचित या हाशिए पर पहुंचे हुए तबकों के लेखन से निर्मित होता है। मसलन, दलित लेखन जैसा विमर्श निर्मित करता है, वैसा विमर्श ब्राह्मण लेखन नही कर सकता। दलित लेखन जहां मानवमुक्ति की कामना करता है या उसका मुख्य संघर्ष दबे-कुचलों को उनका खोया सम्मान वापस लौटाने के लिए होगा, वहीं यदि ब्राह्मण लेखन जैसा कोई लेखन किया जाये तो स्वाभाविक है कि उसकी चिंता का केंद्र मनुष्यविरोधी वरण व्यवस्था को वैध ठहराने के लिए तर्क तलाशना होगा और मुझे नहीं लगता कि ऐसे लेखन से कोई उल्लेखनीय विमर्श निर्मित होगा। इसी प्रकार महिला लेखन के केंद्र में स्त्री-मुक्ति के प्रश्न महत्वपूर्ण होंगे।
स्त्री-मुक्ति में अपनी देह पर स्त्री का अधिकार एक महत्वपूर्ण तर्क है, पर और भी गम है जमाने में मोहब्बत के सिवा। मेरा मानना है कि स्त्री देह पर अंतिम अधिकार उसका है, पर साथ में मैं यह भी मानता हूं कि भारत के संदर्भ में स्त्री-मुक्ति से जुड़े और भी महत्वपूर्ण मुद्दे हैं। आज भी परिवारों में निर्णय लेने का अधिकार सिर्फ पुरूषों को है, स्त्रियां केवल उन्हें लागू करती हैं। तमाम बहस-मुबाहिसों के बावजूद घरेलू श्रम के लिए उसका पारिश्रमिक तय नहीं हो पा रहा है। पंचायती राज की संस्थाओं में आरक्षण के बल पर चुनी गई महिलाओं में से बहुत सी अब भी घरों में कैद हैं और उनके प्रधान पति कागजों पर उनकी मुहरें लगाते हैं। बहुत से ऐसे मुद्दे हैं जिन पर बहस होनी चाहिए।
अंत में, इन सबसे महत्वपूर्ण यह प्रश्न कि क्या स्त्री-मुक्ति आइसोलेशन में हो सकती है? क्या आदिवासियों, अल्पसंख्यकों या दलितों के प्रश्नों से जोड़े बिना इस मुद्दे पर कोई बड़ी बहस खड़ी की जा सकती है? अगर एक बार यह सहमति बन सके, तो गुजरात जैसी स्थिति से बचा जा सकता है, जिसमें महिलाओं ने भी अल्पसंख्यकों के संहार में हिस्सा लिया था। मुझे 1990 का इलाहाबाद याद आ रहा है, जहां मैं नियुक्त था और जो मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने के खिलाफ चल रहे आंदोलन का केंद्र था। मैने आंदोलनकारियों के साथ सख्ती की, तो बहुत सारे दूसरे तबकों के अतिरिक्त विश्वविद्यालय की सवर्ण लड़कियों ने मेरे खिलाफ मोर्चा निकाला और अपनी पूरी कोशिशों के बावजूद मैं उन्हें यह नहीं समझा पाया कि उन्हें पिछड़ों के साथ खड़ा होना चाहिए। एक बार फिर अपने शब्दों के लिए माफी मांगते हुए मैं अनुरोध करूंगा कि इन मुद्दों पर भी बातचीत की जाए।

Friday, August 6, 2010

जिसकी उतर गई लोई, उसका क्‍या करेगा कोई

संदर्भ : विभूति नारायण राय प्रकरण

एक प्रख्‍यात समालोचक ने एक कहानी में कुछ आपत्तिजनक शब्‍दों या यूं कहें कि भद्दी गालियों पर चल रही चर्चा में विराजमान बुद्धिजीवियों के आपत्ति करने पर कहा था कि वर्तमान परिस्थितियों में भाषा के कौमार्य को सुरक्षित नहीं रखा जा सकता। उनका सवाल था कि आखिर भाषा के कौमार्य को कब तक सुरक्षित रखोगे? और सच यही है कि आज प्रकाशित हो रहीं तमाम कहानी और साहित्‍य पत्रिकाओं में शब्‍दों पर कोई सेंसर नहीं रह गया है। शील-अश्‍लील के मायने और उसके बीच का अंतर भाषा में मिट गया है जबकि भाषाई अखबार शब्‍दों की गरिमा को पूरी शिद्दत से बचाए हुए हैं। ऐसे में साहित्यिक हलकों में या साहित्यिक गिरोहबंदी में 'छिनाल' शब्‍द ने हंगामा बरपा रखा है। हांलाकि ऐसे शब्‍दों का इस्‍तेमाल नहीं होना चाहिए लेकिन हंगामा करने वालों को पहले अपने गिरेवां में भी झांक कर देख लेना चाहिए कि उनकी भाषा, विचार और कृतियां भाषा के स्‍तर पर कितनी पाक-साफ हैं। आईए पहले संदर्भ जाने लें और एक बार फिर उस गंदी नाली में उतरें जहां से तब छींटे आए जब उसमें कंकर फेंका गया। जाहिर है कंकर जैसे पानी में फेंका जाएगा, छींटे भी वैसे ही आएंगे।
भारतीय पुलिस सेवा के पूर्व अधिकारी और महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय ने एक साहित्यिक पत्रिका को दिए गए साक्षात्‍कार में अपनी राय देते हुए कहा कि 'हिंदी लेखिकाओं का एक वर्ग अपने को छिनाल साबित करने की होड़ में लगा हुआ है और नारीवाद का विमर्श अब बेबफाई के बड़े महोत्‍सव में बदल गया है।' रवींद्र कालिया द्वारा संपादित 'नया ज्ञानोदय' पत्रिका में प्रकाशित इस साक्षात्‍कार में 'छिनाल' शब्‍द के प्रयोग से चाय की प्‍याली में उबाल आ गया है। स्‍वाभाविक तौर पर महिला जगत में ही नहीं लेखन जगत में भी विभूति के इस बयान की घोर निंदा हुई है। ये महिलाओं का ही नहीं बल्कि हमारे संविधान का भी उल्‍लंघन है जिसके लिए विभूति नारायण राय को स्‍पष्‍ट शब्‍दों में स्‍त्री जाति से माफी मांग लेनी चाहिए। हांलाकि विभूति की छवि एक तेज-तर्रार और स्‍पष्‍टवादी पुलिस अफसर की रही है। पुलिस अफसर के रुप में हजारों पीडि़ताओं से उनका वास्‍ता पड़ा होगा लेकिन उनके श्रीमुख से कभी किसी अभद्र टिप्‍पणी का मामला संज्ञान में नहीं आया।..ऐसे में क्‍या ये माना जाए कि साहित्‍य में बेतुके विवाद पैदा कर चर्चा में बने रहने के लिए उन्‍होंने ये टिप्‍पणी कर डाली? अपने सर्जनात्‍मक अवदान के जरिए सम्‍मान अर्जित करने के बजाय दूसरों को आहत करना क्‍या सा‍हसिक माना जा सकता है?
विभूतिनारायण राय खुद चर्चित कथाकार हैं। किसी स्‍त्री के चरित्र हनन के लिए 'छिनाल' शब्‍द का इस्‍तेमाल किया जाता है, इस बात से वे भली-भांति परिचित होंगे ही। एक पढ़े-लिखे आदमी की क्‍या बात, अनपढ़ या देहाती भी इस शब्‍द की ध्‍वनि को अच्‍छी तरह जानता-समझता है। कोई लाख कहे कि ये ओछा शब्‍द नहीं है या उसे गलत परिपेक्ष्‍य में लिया जा रहा है, हम तो यही कहेंगे कि शब्‍दों के जरिए खिलबाड़ नहीं होना चाहिए। वाणी में मधुरता और सौम्‍यता जरूरी है। 'ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोय, औरन को सीतल लगे आपहु सीतल होय'। लेकिन जरूरी है कि विद्वान विभूति ने ऐसे शब्‍द का प्रयोग क्‍यों और किन संदर्भों में किया। इस साक्षात्‍कार में जब एक चर्चित लेखिका और उसके साहित्‍य को केंद्र में रखकर प्रश्‍नकर्ता ने सवाल किया तो उनके श्रीमुख से औचक जो टिप्‍पणी निकली, जो भाव अंदर से अचानक बाहर आए, उसमें विभूति अपने को तथाकथित तौर पर 'सभ्‍य' रखने में नाकाम रहे। एक लेखिका जिसे कई पुरस्‍कार मिल चुके हैं और साहित्‍य के कई अलंबरदार उसे पलक-पांवड़ों पर बिठाकर सदी की महानतम साहित्‍यकार की स्‍वयंभू घोषणा करते रहते हैं का अपमानजनक संदर्भ देते हुए राय ने कह डाला--मुझे लगता है कि इधर प्रकाशित एक बहु प्रचारित-प्रसारित लेखिका की आत्‍मकथात्‍मक पुस्‍तक का शीर्षक होना चाहिए था-'कितने बिस्‍तरों में कितनी बार'। हांलाकि विभूति ने उस लेखिका का नाम नहीं लिया लेकिन नाम लिए बगैर भी उसे पूरा साहित्‍य जगत जानता-पहचानता है और ये भी जानता है कि साहित्‍य में उसकी कैसी गिरोहबंदी है। लेकिन इससे विभूति का दोष कम नहीं हो जाता क्‍योंकि प्रतिष्‍ठा के पद पर आसीन व्‍यक्ति को अपने आचरण में हर पहलू और मर्यादा का ध्‍यान रखना चाहिए लेकिन क्‍या साहित्‍य जगत में लेखनी की मर्यादाओं को अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता के नाम पर खूली छूट दी जा सकती है? क्‍या साहित्‍य में नैतिक-अनैतिक के कोई मायने नहीं हैं?
अपने को बोल्‍ड साबित करने के लिए लेखक/लेखिकाओं का एक वर्ग विकृत और कुत्सित मानसिकता का इजहार करता आ रहा है। आज के उपभोक्‍तावादी, बाजारवादी दौर में साहित्यिक हलकों में भी सनसनी पैदा करने के लिए नंगई पेश की जा रही है। आईए, आपसे साझा करूं आज के दौर की एक नामी-गिरामी लेखिका की कहानी का एक अंश--लेखिका ने अपनी कहानी छुटकारा में अपने पात्र (दलित स्‍त्री) से कुछ यूं कहलवाया---'ओ पतिव्रता की चो$$ पहले अपने चुटियाधारी खसम से पूछ कि हमने उसे रिझाया या कि हमें वह रिझाए जा रहा था। मैं कहती हूं कि क्‍यों बूढ़े की लंगोटिया खोलूं, जे जौहर उमर के लाल्‍लुक सोते हैं आज...हमारा मुंह देखकर अपनी पत्‍नी को त्‍यागे बैठा है और वहां आकर हमारे चूतर चाटता था...' इस तरह का लेखन कौन से साहस की बात हुई। लेखिका की बोल्‍डनैस स्‍त्री की समस्‍याओं और संघर्षों को लेकर होनी चाहिए।
इसी लेखिका ने अपनी आत्‍मकथा में बताया है कि उनकी मां कस्‍तूरी ग्रामसेविका थी। उनकी पोस्टिंग ग्रामीण क्षेत्र में ही होती थी। पोस्टिंग ऐसी जगह भी हो जाया करती थी जहां स्‍कूल कालेज नहीं होते थे। इसलिए उस जमाने में जब लड़कियों के लिए माध्‍यमिक और उच्‍च शिक्षा ग्रामीण परिवेश में बहुत दुश्‍कर थी। शिक्षा के प्रति जागरूक उनकी मां ने उन्‍हें एक पारिवारिक मित्र के परिवार में छोड़ दिया। विस्‍मय और इससे भी अधिक शर्म की बात है कि इस लेखिका ने बोल्‍ड लेखन के लिए उसमें भी बुराई तलाश ली। अगर मां अपनी बेटी को चिपकाए-चिपकाए घूमती तो शिक्षा में बाधा पंहुचती और वह लेखिका बनने की स्थिति में न होती। पर ये सब सदभावनाएं, दायित्‍व निर्वहन नारी विमर्श की अलंबरदार इस लेखिका के लिए कोई मायने नहीं रखता और वह अपनी आत्‍मथा में अपनी मां पर अनर्गल आरोप गढ़ने से नहीं चूकी कि अपनी निर्विघ्‍न स्‍वतंत्रता के लिए मां ने अपने से अलग कर दिया। ऐसा लेखन पढ़कर कोई यही निष्‍कर्ष निकालेगा कि सचमुच भलाई का जमाना नहीं। चर्चा में बने रहने की आदी ये लेखिका अपने लेखन में स्‍त्री स्‍वातंत्रय की पक्षधर है। स्‍त्री अस्मिता, स्‍त्रीनिजता की दुहाई देती है, पर अपनी मां के संदर्भ में इस जीवन की आलोचना करती है। जैसे मां स्‍त्री है ही नहीं। वह यह भी भूल जाती है कि मां ने पढ़ाई के कारण उन्‍हें अलग रखा था। पढ़ाई 'बहाना' नहीं 'कारण' था।
मृत्‍युशैय्या पर माता-पिता को देखकर क्रूर से क्रूर व्‍यक्ति भी दहल जाता है। शायद ही उन पर झुंझलाता हो लेकिन ये लेखिका शायद उस गुणराशि की है जो अकारण मां-बाप पर गुस्‍सा उतारने, उन्‍हें अपमानित करने, उन पर झुंझलाने को भी जुझारुपन, संघर्षशीलता और क्रांति समझती है। स्‍त्री अस्मिता, स्‍त्री स्‍वाभिमान और स्‍त्री अधिकार का दंभ भरने वाली स्‍त्री, अन्‍य स्‍त्री; वह भी मां के प्रति कितना क्रूर और संवेदनहीन हो सकी है उसके जीवंत दस्‍तावेज हैं ये प्रसंग जो उसकी आत्‍मकथा का हिस्‍सा हैं। स्‍त्री लेखन के व्‍यापक सरोकारों और स्‍त्री मुक्ति की चिंता या स्‍त्री अस्मिता के प्रति चिंतित लेखिका ने अपनी प्रकाशित आत्‍मकथा में संकेत छिपा है कि 'साप्‍ताहिक हिंदुस्‍तान' आदि प‍त्र-पत्रिकाओं में जो लेखिकाएं छपीं; वे सब संपादकों, उपसंपादकों के सामने बिछकर ही छपीं, सही तो है ही नहीं आपत्तिजनक भी है। ऐसा संकेत कर लेखिका ने 'मेरिट' पर प्रत्‍यक्ष द्वार से रचना छपवाने वाली लेखिकाओं--जिनकी बहुत बड़ी संख्‍या है-- का अपमान ही किया है।
दरअसल वर्तमान साहित्‍य विशेषतौर पर कथा लेखन आजकल कबीलाई या सामंती खेमों में बंटा नजर आता है। इन्‍हीं में से एक साहित्‍य की एक यदुवंशी पाठशाला में स्‍त्री विमर्श की एक ऐसी पौध तैयार की है जो स्‍त्री की गरिमा को ही अपने लेखन में तार-तार करने पर जुटी है। ऐसे में विभूति जैसे लोग कभी शब्‍दों की मर्यादा कायम न रख सकें तो उन्‍हें ज्ञानपीठ पुरस्‍कार समिति से हटना पड़ता है। कुलपति पद खतरे में आ जाता है। लेकिन उनका क्‍या कर लेगा कोई जिसकी उतर गई लोई।
विशेष : ये लेख अमर उजाला कांपेक्‍ट में आंशिक रूप से प्रकाशित हुआ है।

Wednesday, August 4, 2010

बाघखोर आदमी ........

जंगल सिमटते जा रहे हैं
घटती जा रही है
विडालवंशिओं की जनसंख्या
भौतिकता की निरापद मचानों पर
आसीन लोग
कर रहे हैं स्यापा
छाती पीट-पीट कर
हाय बाघ; हाय बाघ.

हे बाघ! तुम्हारे यूं मार दिए जाने पर
दुखी तो हम भी हैं
लेकिन उन वनवासिओं का क्या
जिनका कभी भूख तो कभी कुपोषण
कभी प्राकृतिक आपदा
कभी-कभी किसी आदमखोर बाघ
उनसे बचे तो
बाघखोर आदमी के हाथ
बेमौत मारा जाना तो तय ही है.

चिकने चुपड़े चेहरे वाले
जंगल विरोधी लोग
गोलबंद हैं सजधज के
बहा रहे हैं
बाघों के लिए नौ-नौ आँसू.

बस बचा रहे मासूमियत का
कोरपोरेटीय मुखौटा
बाघ बचें या मरें वनवासी
इससे क्या?


Sunday, August 1, 2010

नाम की नदी

सभी पुकारते हैं उसे
नदी के नाम से
पर बिना जल के भी
कोई नदी होती है भला.

कभी रही होगी वह
एक जीवंत नदी
आकाश की नीलिमा को
अपने आलिंगन में समेटे
कलकल करते जल से भरपूर.
तभी हुआ होगा इसका नामकरण

समय की धार के साथ
बहते-बहते वाष्पित हो गया
नदी का जल .
और बादलों ने भी
कर लिया नदी से किनारा
सभी ने भुला दिया नदी को
बस नाम चलता रहा.
अपनों की बेरुखी देख
सूख गई नदी .

अब नदी कहीं नहीं
केवल नाम भर है
जिसमे बहता है
पाखण्ड, धर्मान्धता और स्वार्थ का
हाहाकारी जल .

तकनीकी सहयोग- शैलेश भारतवासी

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