दामोदर दत्त दीक्षित की आदत है कि वह इर्द-गिर्द ताकाझांकी बहुत करते हैं। दरअसल नाक-कान-आंख को हमेशा एक्टिव रखने वाले कथाकार-व्यंग्यकार दामोदर उत्तर प्रदेश में आला अफसरी भी करते हैं। हांलाकि उनका विभाग मिठास भरा है लेकिन उनकी व्यंग्य रचनाएं तीखी होती हैं। उप चीनी आयुक्त के पद पर काम करते हुए भी उनका नियमित लेखन हमेशा गतिमान रहता है। इर्द-गिर्द के लिए उन्होंने ये व्यंग्य भेजा है। पढिए, आनंद लीजिए और जी भर कर टिपियाइए। बेहिचक।
हिंदुस्तानी आदमी बहुरंगी-बहुस्तरीय विशेषताओं वाला प्राणी है। उसकी एक विशेषता यह है कि वह टायर हो जाता है, रिटायर नहीं होना चाहता। वह अजर-अमर कामी होता है और स्वयं को विकल्पहीन मानते हुए उसी दिन रिटायर होना चाहता है जिस दिन महिषवाहन यमराज टांग पकड़ कर कुर्सी से खींचे और भैंसे की पूंछ से बांधकर फिल्मी अंदाज में घसीटते हुए नरक की ओर प्रस्थान करें या क्या जाने उस दिन भी नहीं? शायद सोचता हो कि उसकी भटकती हुई प्रेतात्मा भी छूटे हुए महान दायित्व को संभालने में सक्षम है।
वैसे तो देशवासी बात-बात में मूंछ मरोड़ते रहते है, पर रिटायर होने के मामले में भयंकर कायर होते हैं। इकदम बोदे, इकदम कांचू। वे वन से भले ही न डरें पर वानप्रस्थ से डरते हैं। जैसे कुत्ते के काटने से पागल हुआ व्यक्ति पानी से डरता है, जैसे पुलिस के लोग 'लाइन हाजिर' होने से डरते हैं, जैसे राजनेता चुनावी हार से, जैसे उपदेशक मौनव्रत से और अध्यापक कक्षा से डरता है, वैसे ही हिंदुस्तानी पदधारक रिटायर होने से डरता है। उसके दो-चार झापड़ रसीद कर दो, चार-पांच लाते जड़ दो, मुर्गा बना दो, बस रिटायर न करो। रिटायरमेंट का नाम सुनते ही उल्टी-दस्त होने लगती हैं। सिरदर्द, पेटदर्द मुंहदर्द, दांतदर्द, आंखदर्द, कानदर्द, नाकदर्द सब सताने लगता है। कुछ लोग राजयोग छूटने का नाम सुनते ही राजरोग के शिकार हो जाते हैं। किसी को मधुमेह, किसी को हृदयरोग, किसी का गुर्दा क्षतिग्रस्त तो किसी का यकृत। एक से एक महंगे, मजबूत और टिकाउ राजरोग। किसी को जूड़ीताप हो जाता है तो किसी को दमा, किसी को कब्ज तो किसी को गठिया। किसी को बबासीर हो जाती है, किसी को गुप्तरोग तो किसी को नामर्दी। कुल मिलाकर वे चिकित्सा विज्ञान के अदभुत मॉडल बन जाते हैं। ये तो कहिए अंगविशेष होते नहीं अन्यथा रिटायरमेंटद्रोही जन रजोनिवृत्ति और स्तनकैंसर की भी शिकायत करने लगें।
रिटायरमेंटोलॉजी (सेवानिवृत्ति-विज्ञान) का एक और फंडा भी है। अशुद्ध-अबुद्ध जीवात्मा स्वयं तो रिटायर होना नहीं चाहती, पर दूसरों को समय से या हो सके समयपूर्व रिटायर होते देखना चाहती है। सार्वजनिक स्थानों की बतकहियों, दफ्तरों की कनफुसकियों और ड्राइंगरूमीय चर्चाओं में अक्सर लोग अमुल्य सुझाव देते मिल जाते हैं। 'राजनेताओं के भी रिटायरमेंट की आयुसीमा होनी चाहिए।' मेरा अनुभव है कि ऐसे लोग वे होते हैं जो कभी रिटायर नहीं होना चाहते हैं। वे परसंताप-ग्रंथि से पीडि़त होते हैं। 'ये नामाकूल नेता कभी रिटायर नहीं होते, मरते दम तक जनता की छाती पर मूंग दलते रहते रहते हैं जबकि ये सुअवसर हम नामाकूलों को दिया जाना चाहिए।'
अफसरशाही देश का सबसे निर्लज्ज वर्ग है। ऐसा मैं दावे के साथ कह सकता हूं क्योंकि मैं उसका अविभाज्य अंग हूं। चतुर-चंट अफसर रिटायरमेंट से पहले ही कटोरा लेकर खड़ा हो जाता है-हुजूर, कुछ काम-धंधे का जुगाड़ किया जाए।' यानी कि रिटायरमेंट की वय तक आधिकारिक तौर पर जोंक बनकर खून चूसते रहे, पर पेट नहीं भरा। तन शिथिल, मन उससे भी शिथिल, पर रिटायरमेंट के लिए तैयार नहीं। ऐसे लोगों के लिए भर्तृहरि बहुत पहले कह गए हैं-
अंग गलितं पलितं मुण्डं, दशनविहीनं जातं तुण्डम्।
वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मंचत्याशा पिण्डम्।।
हमारे अफसर भी आशा का पिण्ड नहीं छोड़ते। 'माइटी-हाइटी-फाइटी' अफसरों के लिए विभिन्न आयोग, निगम, संस्थाएं आदि चारागाह के रूप में उपलब्ध है। हाल ये है कि घोड़ा न हो तो गधे की ही सवारी दे दो, सिर पर चौराहा बना दो, तब भी चलेगा। अफसर में जरा भी गैरत बची हो, तो उसे सेवाविस्तार, पुनर्नियुक्ति या दैनिक वेतनभोगी के रूप में मिलने वाले प्रस्ताव से इंकार कर देना चाहिए। पर अफसरों के पास सब कुछ होता है, बस गैरत नहीं होती। आप चारों तरफ नजर दोड़ाइए, एक से एक सेवानिवृत्त अफसर निर्लज्जता के साथ, राजा ययाति की मुद्रा में कुर्सी से चिपके बैठे हैं, तन-मन से मजबूत योग्य जनों का अधिकार हड़पते हुए। सच ही, बेशर्ममेव जयते।
खेल का भी खेल कुछ कम नहीं। दुनिया जानती है कि आउटडोर खेलों या शारीरिक शक्ति वाले खेलों की प्रतिस्पर्धापरक आयु लगभग पंद्रह से बत्तीस बर्ष तक होती है। अद्वितीय क्षमतावान खिलाड़ी हो तो एक-दो साल और खींच ले जाएगा। बस़......। पर हमारे हिंदुस्तानी खिलाड़ी इस तथ्य से अपरिचित हैं, अपरिचित ही रहना चाहते हैं। अन्य देशों में क्षमता के ह्रास होते ही खिलाड़ी सम्मानजनक ढंग से स्वयं रिटायर होने की घोषणा कर देता है। पर अपने देश में जब तक खिलाड़ी की पीठ से चार इंच नीचे, चार लातें मारकर 'जा फूट, बहुत हुआ' कहने का पवित्र मंत्रोच्चारण नहीं होता, तब तक वह रिटायर नहीं होता। यानी खिलाड़ी रिटायरमेंट से पूर्व चार लातें खाना अपना अनिवार्य धर्म समझते हैं।
एक समस्या और भी। यहां अगर खिलाड़ी रिटायर होना चाहे, तो उसके फेन रिटायर नहीं होने देते। अगर 'टेनिस एल्बो' के कारण किसी क्रिकेटर का हाथ उठने से इंकार करता है और वह बार-बार बोल्ड होने की उदारता दिखाता है तो उसके समर्थक कहते हैं, ‘कोई बात नहीं। ससुरे लंदन के डाक्टर कब काम आएंगे। वे हमारे खिलाड़ी की महान ‘टेनिस एल्बो’ को महान ‘क्रिकेट एल्बो’ बना देंगे।‘ पर ऐसा हो नहीं पाता। हमारे महान खिलाड़ी और उससे भी ज्यादा महान उनके समर्थकों को यह नहीं पता कि उम्र का तकाज़ा होता है और एक निश्चित उम्र के बाद एक नहीं, एक सौ एक ऑपरेशन करा डालो, पर पहले जैसी बात नहीं आ सकती। ऐसे में खिलाड़ी देश के प्रति ही नहीं, अपने प्रति भी अन्याय करता है। कमर में पीरें उठने लगती हैं, गठिया ने घुटने का जकड़ लिया है। ऐसी स्थिति में गेंद आपकी हाकी स्टिक का नमस्ते स्वीकार करने से रहा। स्पान्डलाइटिस हो जाने पर, टेबलेट खाकर ‘हेडर’ मारेंगे, तो फुटबाल कितनी दूर जाएगा, इसका अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है। फास्ट बालर के कंधे में अंदरूनी चोट है, तो उसकी बालिंग की गति कितनी होगी और बाल किस दिशा में जाएगा, समझा जा सकता है। पर हमारे तथाकथित खिलाड़ीप्रेमी सुनने-समझने को तैयार नहीं होते। अंधभक्ति और व्यक्तिपूजा हावी रहती है और वे घायल-चोटिल-अस्वस्थ-कमजोर हो चुके खिलाडियों की पैरवी करते रहते हैं। गालिब याद आते हैं-
गो हाथ में जुबिंश नही, आंखों में तो दम है,
रहने दो अभी सागर-ओ-मीना मेरे आगे।
कुल मिलाकर हम अ-रिटायरमेंट माहौल में घिसट रहें हैं। लोग इतने कायर हो चुके हैं कि घिसे टायर बनने को तैयार हैं, पर रिटायर होने को नहीं। पर घिसा हुआ टायर तो घिसा हुआ होता है। एक दिन अचानक फटेगा, तो बस में सवार यात्रियों को भी दुर्घटनाग्रस्त कर देगा, ‘हम तो डूबेंगे सनम, तुमको भी ले डूबेंगे।‘ इसलिए प्यारे देशवासियो, आदरणीय रिटायरणीयों को अशांति से रिटायर होने दो, उन्हें टायर होने से बचाओ। इसी में देश का भला है और जिसमें देश का भला है, उसमें सबका भला है।
दारा रहा न रहा सिकंदर-सा बादशाह,
तख्त-ए-ज़मीं पे सैंकड़ों आए, चले गए।
13 comments:
आप हो जाइए रिटायर, हम क्यों हों जी
सटीक और मजेदार। जायकों से भरी रचना।
बधाई।
joshiji,
dixitji ka katha sahitya to pada tha, vyangya rachna sey aapney parichaiya karaya. sadhuvaad. bahut dukhti rag per ungli rakhi hai dixitji ney. badhai.
बढिया व्यंग ।
बहुत ही सुन्दर लेख, हंस हंस के कुते की तरह से लोट्पोट हो गये,फ़िर कपडे झाड कर खडे हुये, ओर अब आप को टिपाण्णी देने आये है, क्यो भी रिटायार क्यो नही होना चाहते? मे तो इन्तजार कर रहा हू बच्चे थोडा पढ लिख जाये, फ़िर हम मियां बीबी रिटायार ओर फ़िर घुमेगे सारी दुनिया आराम से, पता नही दुवारा पेदा भी होना है कि ही
धन्यवाद
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आपकी प्रस्तुति और दीक्षित जी की लेखनी को नमन
अच्छा आलेख
शुक्रिया
shandar vyang. Badhaie!
vandana
tiring is a natural process.But a
beshram person neither tire nor retire.now we have plenty of besharam[shameless]persson.
anyways nice satire.nirmal
bahut sunder lekh sir
ravn dahan ki badhai
waqt ho to humari dustbin me jhanke
regards
बहुत खूब। रिटायर होने वालों के लिये प्रेरणा का स्रोत बनेगा। हमें तो अभी टायर होने में समय लगेगा।
आप मेरे ब्लाग पर आये इसके लिए आपको बहुत-बहुत धन्यवाद । उम्मीद है कि आगे भी आप लोग आते रहेगे । अपना विचार भी रखे । हमे हमेशा इंतजार रहता है । दिनकर पर मेर विचार को जानने के लिए मै आपका आभारी हूं।
Bahut badiya.
Badhiya wyang!!Jaise har wyaktee janmeke samayhee apnee apnee mautkaa samaybhee likhwaake aata hai, har naukareepeshewala, jis din naukaree shuru karta hai, use retirementkee taareekh pata hotee hai...mautkee taareekh chahe na pata ho...phirbhee retire honeko taiyyar nahee hota!
kamal kar diya aapnay?tarkon say sidh kar diya aur to aur sanskrit aur urdu say bhee quation dundh laayay.
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