इर्द-गिर्द पर विभूति नारायण राय के विवादास्पद साक्षात्कार पर प्रतिक्रिया में मेरा आलेख आपने पढ़ा। लेकिन मैं जरूरी समझती हूं कि इस मामले में विभूति नारायण का स्पष्टीकरण या अभिमत भी सबके सामने आए। इसी नजरिए से ये पोस्ट आपके सामने है।
नया ज्ञानोदय के अगस्त 2010 अंक में छपे मेरे इंटरव्यू पर प्रतिक्रियाओं से एक बात स्पष्ट हो गई कि मैंने अपनी लापरवाही से एक गंभीर विमर्श का हेतु बन सकने का मौका गंवा दिया। मैंने कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जिनसे बचा जा सकता था।
मुझे जैसे ही यह अहसास हुआ कि मेरी भाषा से हिंदी की बहुत सी लेखिकाओं को कष्ट हुआ है, मैंने अपनी गलती का अहसास किया और बिना शर्त माफी मांग ली। मैं शर्मिंदा हूं कि मेरी असावधानी से बहुत से ऐसे लोग आहत हुए, जो मेरे वर्षों पुराने मित्र रहे हैं। इनमें बड़ी संख्या में लेखिकाएं भी हैं, पर मेरे मन में उनके लिए सम्मान भी बढ़ा है कि मित्रता की परवाह किये बगैर उन्होने मेरी मरम्मत की। हालांकि कुछ लोग जो इस मामले को अन्य कारणों से जिंदा रखना चाहते हैं, इंटरव्यू में उठाये गए मुद्दों पर बहस न करके अब भी उन शब्दों के वाग्जाल में उलझे हुए हैं, जिन पर मैं खुद खेद प्रकट कर माफी मांग चुका हूं। मैं मानता हूं कि इन लोगों की उपेक्षा कर अब मैं मुद्दों पर बहस की अपेक्षा कर सकता हूं।इंटरव्यू पर शुरूआती प्रतिक्रिया उन लोगों के तरफ से आई जिन्होंने उसे पढ़ा ही नहीं था। अब, जबकि अधिकतर लोगों ने इंटरव्यू पढ़ लिया है, मुझे लगता है उसमें उठाये गए प्रश्नों पर बातचीत होनी चाहिए। संक्षेप में कहूं तो मेरे मन में मुख्य शंका यह है कि महिला लेखन में देह-केंद्रित लेखन को कितना स्थान मिलना चाहिए। एक मित्र ने आपत्ति की कि यह प्रश्न पुरूषों के लेखन पर भी उठना चाहिए। सही है, पर विमर्श सिर्फ वंचित या हाशिए पर पहुंचे हुए तबकों के लेखन से निर्मित होता है। मसलन, दलित लेखन जैसा विमर्श निर्मित करता है, वैसा विमर्श ब्राह्मण लेखन नही कर सकता। दलित लेखन जहां मानवमुक्ति की कामना करता है या उसका मुख्य संघर्ष दबे-कुचलों को उनका खोया सम्मान वापस लौटाने के लिए होगा, वहीं यदि ब्राह्मण लेखन जैसा कोई लेखन किया जाये तो स्वाभाविक है कि उसकी चिंता का केंद्र मनुष्यविरोधी वरण व्यवस्था को वैध ठहराने के लिए तर्क तलाशना होगा और मुझे नहीं लगता कि ऐसे लेखन से कोई उल्लेखनीय विमर्श निर्मित होगा। इसी प्रकार महिला लेखन के केंद्र में स्त्री-मुक्ति के प्रश्न महत्वपूर्ण होंगे।
स्त्री-मुक्ति में अपनी देह पर स्त्री का अधिकार एक महत्वपूर्ण तर्क है, पर और भी गम है जमाने में मोहब्बत के सिवा। मेरा मानना है कि स्त्री देह पर अंतिम अधिकार उसका है, पर साथ में मैं यह भी मानता हूं कि भारत के संदर्भ में स्त्री-मुक्ति से जुड़े और भी महत्वपूर्ण मुद्दे हैं। आज भी परिवारों में निर्णय लेने का अधिकार सिर्फ पुरूषों को है, स्त्रियां केवल उन्हें लागू करती हैं। तमाम बहस-मुबाहिसों के बावजूद घरेलू श्रम के लिए उसका पारिश्रमिक तय नहीं हो पा रहा है। पंचायती राज की संस्थाओं में आरक्षण के बल पर चुनी गई महिलाओं में से बहुत सी अब भी घरों में कैद हैं और उनके प्रधान पति कागजों पर उनकी मुहरें लगाते हैं। बहुत से ऐसे मुद्दे हैं जिन पर बहस होनी चाहिए।
अंत में, इन सबसे महत्वपूर्ण यह प्रश्न कि क्या स्त्री-मुक्ति आइसोलेशन में हो सकती है? क्या आदिवासियों, अल्पसंख्यकों या दलितों के प्रश्नों से जोड़े बिना इस मुद्दे पर कोई बड़ी बहस खड़ी की जा सकती है? अगर एक बार यह सहमति बन सके, तो गुजरात जैसी स्थिति से बचा जा सकता है, जिसमें महिलाओं ने भी अल्पसंख्यकों के संहार में हिस्सा लिया था। मुझे 1990 का इलाहाबाद याद आ रहा है, जहां मैं नियुक्त था और जो मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने के खिलाफ चल रहे आंदोलन का केंद्र था। मैने आंदोलनकारियों के साथ सख्ती की, तो बहुत सारे दूसरे तबकों के अतिरिक्त विश्वविद्यालय की सवर्ण लड़कियों ने मेरे खिलाफ मोर्चा निकाला और अपनी पूरी कोशिशों के बावजूद मैं उन्हें यह नहीं समझा पाया कि उन्हें पिछड़ों के साथ खड़ा होना चाहिए। एक बार फिर अपने शब्दों के लिए माफी मांगते हुए मैं अनुरोध करूंगा कि इन मुद्दों पर भी बातचीत की जाए।
मुझे जैसे ही यह अहसास हुआ कि मेरी भाषा से हिंदी की बहुत सी लेखिकाओं को कष्ट हुआ है, मैंने अपनी गलती का अहसास किया और बिना शर्त माफी मांग ली। मैं शर्मिंदा हूं कि मेरी असावधानी से बहुत से ऐसे लोग आहत हुए, जो मेरे वर्षों पुराने मित्र रहे हैं। इनमें बड़ी संख्या में लेखिकाएं भी हैं, पर मेरे मन में उनके लिए सम्मान भी बढ़ा है कि मित्रता की परवाह किये बगैर उन्होने मेरी मरम्मत की। हालांकि कुछ लोग जो इस मामले को अन्य कारणों से जिंदा रखना चाहते हैं, इंटरव्यू में उठाये गए मुद्दों पर बहस न करके अब भी उन शब्दों के वाग्जाल में उलझे हुए हैं, जिन पर मैं खुद खेद प्रकट कर माफी मांग चुका हूं। मैं मानता हूं कि इन लोगों की उपेक्षा कर अब मैं मुद्दों पर बहस की अपेक्षा कर सकता हूं।इंटरव्यू पर शुरूआती प्रतिक्रिया उन लोगों के तरफ से आई जिन्होंने उसे पढ़ा ही नहीं था। अब, जबकि अधिकतर लोगों ने इंटरव्यू पढ़ लिया है, मुझे लगता है उसमें उठाये गए प्रश्नों पर बातचीत होनी चाहिए। संक्षेप में कहूं तो मेरे मन में मुख्य शंका यह है कि महिला लेखन में देह-केंद्रित लेखन को कितना स्थान मिलना चाहिए। एक मित्र ने आपत्ति की कि यह प्रश्न पुरूषों के लेखन पर भी उठना चाहिए। सही है, पर विमर्श सिर्फ वंचित या हाशिए पर पहुंचे हुए तबकों के लेखन से निर्मित होता है। मसलन, दलित लेखन जैसा विमर्श निर्मित करता है, वैसा विमर्श ब्राह्मण लेखन नही कर सकता। दलित लेखन जहां मानवमुक्ति की कामना करता है या उसका मुख्य संघर्ष दबे-कुचलों को उनका खोया सम्मान वापस लौटाने के लिए होगा, वहीं यदि ब्राह्मण लेखन जैसा कोई लेखन किया जाये तो स्वाभाविक है कि उसकी चिंता का केंद्र मनुष्यविरोधी वरण व्यवस्था को वैध ठहराने के लिए तर्क तलाशना होगा और मुझे नहीं लगता कि ऐसे लेखन से कोई उल्लेखनीय विमर्श निर्मित होगा। इसी प्रकार महिला लेखन के केंद्र में स्त्री-मुक्ति के प्रश्न महत्वपूर्ण होंगे।
स्त्री-मुक्ति में अपनी देह पर स्त्री का अधिकार एक महत्वपूर्ण तर्क है, पर और भी गम है जमाने में मोहब्बत के सिवा। मेरा मानना है कि स्त्री देह पर अंतिम अधिकार उसका है, पर साथ में मैं यह भी मानता हूं कि भारत के संदर्भ में स्त्री-मुक्ति से जुड़े और भी महत्वपूर्ण मुद्दे हैं। आज भी परिवारों में निर्णय लेने का अधिकार सिर्फ पुरूषों को है, स्त्रियां केवल उन्हें लागू करती हैं। तमाम बहस-मुबाहिसों के बावजूद घरेलू श्रम के लिए उसका पारिश्रमिक तय नहीं हो पा रहा है। पंचायती राज की संस्थाओं में आरक्षण के बल पर चुनी गई महिलाओं में से बहुत सी अब भी घरों में कैद हैं और उनके प्रधान पति कागजों पर उनकी मुहरें लगाते हैं। बहुत से ऐसे मुद्दे हैं जिन पर बहस होनी चाहिए।
अंत में, इन सबसे महत्वपूर्ण यह प्रश्न कि क्या स्त्री-मुक्ति आइसोलेशन में हो सकती है? क्या आदिवासियों, अल्पसंख्यकों या दलितों के प्रश्नों से जोड़े बिना इस मुद्दे पर कोई बड़ी बहस खड़ी की जा सकती है? अगर एक बार यह सहमति बन सके, तो गुजरात जैसी स्थिति से बचा जा सकता है, जिसमें महिलाओं ने भी अल्पसंख्यकों के संहार में हिस्सा लिया था। मुझे 1990 का इलाहाबाद याद आ रहा है, जहां मैं नियुक्त था और जो मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने के खिलाफ चल रहे आंदोलन का केंद्र था। मैने आंदोलनकारियों के साथ सख्ती की, तो बहुत सारे दूसरे तबकों के अतिरिक्त विश्वविद्यालय की सवर्ण लड़कियों ने मेरे खिलाफ मोर्चा निकाला और अपनी पूरी कोशिशों के बावजूद मैं उन्हें यह नहीं समझा पाया कि उन्हें पिछड़ों के साथ खड़ा होना चाहिए। एक बार फिर अपने शब्दों के लिए माफी मांगते हुए मैं अनुरोध करूंगा कि इन मुद्दों पर भी बातचीत की जाए।
6 comments:
विभूति नारायण राय यदि अपने किए पर शर्मिंदा हैं और दिल से माफी मांग रहे हैं तो भी उन्हें माफ करने का अधिकार केवल स्त्री समाज को है लेकिन उनकी इस बात में दम है कि देह केंद्रित साहित्य को केंद्र में रखकर लिखे गए साहित्य की उपादेयता पर चर्चा होनी चाहिए। हम भारतीय नारी की समस्याओं को पश्चिम की नारी के संदर्भ में नहीं देख सकते।
ऐसा कम हि होता है कि आप मं की बात न कह पायें ...बहुधा जैसा आपका चिंतन होता है वो स्वत: बाहर आ जाता है इसलिए विभूति नारायण जी ने जो सोचा वो कह डाला अब वो लाख दुहाई दें ..खम मांगे उसका कोई औचित्य है नहीं ...दूसरी बात अगर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई होती क्या तब भी वो माफ़ी मांगते ?....और अभी भी वो दलित और सवर्ण में साहित्य को बाँट रहे हैं ....नारी देह पर चर्चा भी ....मुझे लगता है वो सिर्फ अपनी छवि को सुधारने का प्रयास कर रहे हैं ......मानसिकता वही है
कृपया मं को मन पढ़ें और ख़म को क्षमा
बारिश होनेपर मनुष्य छाता ओढ़ता है.!
मैने विभुतिजी का इंटरव्यू पढ़ा है और उनकी ओर से जारी स्पष्टीकरण भी .इसके बाद और अधिक हल्ला गुल्ला मचाते रहने का कोई ओचित्य नहीं है .
लेकिन एक बात साफ़ है कि नारी विमर्श पर किसी भी प्रकार की सार्थक बहस की शुरुआत किसी पुरुष की ओर से नहीं हो सकती .
एक बात हमे मान लेनी होगी इस गैलक्सी पर नर और मादा की न केवल शारीरिक सरंचना वरन सोचने समझने और रिअक्ट करने का तरीका भी अलग होता है.हर नारी का अपना गोपन संसार होता है और उसमे किसी पुरुष का अतिक्रमण अस्वीकार्य होता है .कोई नारी विमर्श के नाम पर चाहे जो परोसे उस पर बहस करने न करने का अधिकार केवल और केवल महिलाओं को ही होता है .स्त्री पुरुष समानता के नारों के बीच हालात जटिल हुए हैं .कुछ महिलाएं पुरुषों जैसा दिखने और व्यवहार की जिद पर हैं और कुछ पुरुष महिलाओं जैसे दिखना चाहते हैं .
यदि गुलाब का फूल गेंदे जैसा दिखने की कोशिश करता है तो क्या होगा वो न गेंदा रहेगा न गुलाब -बस बीच की कोई बेहूदा -सी चीज बन कर रह जायगा.यहाँ मैं यह भी साफ़ कर दूं कि पुरुष को महिला का नियामक होने का कोई अधिकार नहीं है .वह उसके लिए लक्ष्मण रेखा खीचने की रामायणकालीन भूल को न दोहराय.
हमारे यहाँ साहित्य में अनेक विदुषी महिलाएं हैं और इतनी सक्षम भी कि अपने मसलों को निबटाने के लिए पुरुषों की ओट कतई दरकार नहीं है .
मुझे लग रहा है कि अनेक लोग ऐसे हैं जिन्होंने विभूति जी के विवादास्पद इंटरव्यू को पढ़ा ही नहीं है.यह इंटरव्यू नया ज्ञानोदय के अगस्त अंक में छपा था और हमारे यहाँ साहित्यिक पत्रिका का प्रसार कितना है वाह किसी से छिपा नहीं है. हालाँकि नया ज्ञानोदय के जुलाई अंक की प्रसार संख्या १ लाख तक पहुँच जाने की खबर है फिर यदि इस इंटरव्यू को आप इर्द -गिर्द पर डाल देते तो समुद्र पार के पाठकों के लिए सुविधा हो जाती .
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