Thursday, October 2, 2008

बटला हाउस के बहाने उठे कुछ सवाल

दिल्‍ली में हुए धमाकों और उसके बाद बटला हाउस में हुई मुठभेड़ के बाद लगातार सवाल उठ रहे हैं। इस तरह के सवाल देश में शायद ही कभी इतने बड़े पैमाने पर उठे हों। आखिर क्‍यों उठ रहें हैं सवाल? क्‍या लोकतंत्र में सवाल उठाना भी गुनाह है? क्‍या कुछ लोग एक अलग तरह का आतंक फैलाकर अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता भी छीन लेना चाहते हैं? अगर सवाल उठ रहें हैं तो हमें जबाव भी खोजने होंगे। अगर बहस हो रहीं हैं तो ये इस बात का सुबूत है कि हम एक आजाद मुल्‍क में सांस ले रहें हैं। लोकतंत्र की जड़ें अभी दीमक से बची हुई हैं। मेरी पिछली पोस्‍ट बटला हाउस के बहाने में मैने अपने विचार रखे थे। कुछ मुद्दे उठाए थे। मुझे खुशी है कि साथियों ने रियेक्‍ट किया। तर्कों के साथ। निहायत ही सौम्‍य तरीके से। लेकिन मैने चिट्ठाजगत में देखा कि शाब्दिक हिंसा की होड़ लगी है। मैं शुक्रगुजार हूं आपका कि आपने न मुझे संघी कहा और न सिमी का एजेंट। लेकिन यदि आप कह भी देते तो क्‍या मुद्दे नेपथ्‍य में चले जाते। सवाल उठना बंद हो जाते। सवालों से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता।

Ratan Singh ने अफसोस जताया कि हमारे यहाँ कुछ ऐसे नेता और लोग है जो ख़बरों में बने रहने के लिए उलजलूल बयानबाजी करते रहतें है। मिहिरभोज का गुस्‍सा कुछ यूं था-‘हर मुसलमान आतंकवादी होता है ,देशद्रोही होता है ये साबित करने मैं लगे है ऐसे लोग....आतंकवादी का कोई धर्म नहीं होता है मित्र ....पर जब जब किसी आतंकवादी का बाल भी बांका होता है तो ये मीडिया वाले ये मानवाधिकार वादी उसे आतंकवादी न कहकर मुसलमान कहने लगते हैं....मुसलमान हो या हिंदू हर देशभक्त नागरिक इस देश मैं बराबर हक और कर्तव्य का निर्वाह कर रहै हैं और करना चाहते हैं। ओमकार चौधरी के विचार थे कि आतंकवाद विश्वव्यापी समस्या बन चुका है लेकिन लगता है कि अभी दुनिया के बहुत से देश इस महादैत्य से निपटने के लिए मानसिक और रननीतिक तौर पर तैयार ही नहीं हुए हैं. भारत भी उनमे से एक है. भारतीय नेताओं, मानवाधिकारवादियों, मीडिया और आम जन को ये सीखना होगा कि इस से कैसे निपटना है. राज भाटिय़ा और सचिन मिश्रा ने अच्‍छा लेख और धन्‍यवाद देकर रस्‍मअदायगी की। लेकिन गुफरान ( gufran) की प्रतिक्रिया जरा गौर से पढिए- जोशी जी आप ने जो लिखा वो हर नज़रिए से तारीफ के काबिल है ! लेकिन क्या ऐसा इससे पहले भी कभी हुवा है इस तरह से क्या कभ और किसी ने ऊँगली उठाई है ! क्या इससे पहले मुडभेड नहीं हुई हो सकता है की उसपर ऊँगली उठी हो पर ऐसा आरोप आज तक नहीं लगा! वैसे क्या मुसलमान को टारगेट करने से पहले मीडिया या नेताओं को ये नहीं सोचना चाहिए की अभी कानपूर में जो हुवा वो क्या था किस संगठन के लोग थे और बम क्यूँ बना रहे थे आखिर इससे फायदा किसको है! मै आपके लेख के लिए आपको धन्यवाद् देता हूँ ! लेकिन मीडिया और आज की राजनीती पर भी कुछ बेबाक राय दीजिये......!आपका हिन्दुस्तानी भाई गुफरान (ghufran.j@gmail.com)मेरा मानना है कि गुफरान की सोच को हवा में नहीं उड़ाया जा सकता। हो सकता है कि कुछ लोग गुफरान को मुसलमान/पाकिस्‍तानपरस्‍त या आतंकी सोच वाला व्‍यक्ति मानकर मुद्दे को भटकाने की कोशिश करें लेकिन गुफरान आज जो पूछ रहा है वह इस देश के कम से कम अठारह करोड़ नागरिकों का सवाल है। गुफरान का सीधा सवाल है कि आखिर इससे फायदा किसको है। गुफरान के मन में मीडिया और वर्तमान दौर की राजनीति को लेकर भी पीड़ा है। मैं गुफरान को नहीं जानता लेकिन गुफरान के मन में जो सोच पल रही है उससे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। दरअसल कुछ ऐसी ताकते हैं जिनकी राजनीतिक रोटियां तभी सिकती हैं जब मुसलमान और हिंदू एक दूसरे को देखते ही अपनी-अपनी आसतीनें चढ़ा लें। यही ताकतें न केवल धर्म और जाति के आधार पर हमें बांट रहीं हैं बल्कि ऐसा बीज बो रहीं हैं जो जिन्‍ना से भी ज्‍यादा खतरनाक है। मैं फिर कहता हूं कि गोली का जबाव फूलों से नहीं दिया जा सकता लेकिन आप उस पुलिस को छुट्टा कैसे छोड़ सकते हैं जिसके आचार-व्‍यवहार से औसत आदमी थाने में शिकायत लेकर जाने से भी डरता है। जो दबंगों की शह पर या रिश्‍वत लेकर किसी को भी अपराधी बना देती दरअसल हमारे दो चेहरे हैं। जब हम परेशानी में होते हैं तो हमारा सोच कुछ और होता है और जब दूसरा परेशानी में होता है तो हम धर्म देखते हैं। जाति देखते हैं। सामने वाले की औकात को देखकर व्‍यवहार करते हैं। बिल्‍कुल उसी तरह जैसे हम अपने घर आने वाले मेहमान की अहमियत देखकर ही आवभगत करते हैं।आज समाज के हर वर्ग में गिरावट है। मीडिया भी उससे अछूता नहीं है लेकिन फिर भी मीडिया के खाते में अच्‍छे कामों की फेहरिस्‍त बहुत लंबी है। लेकिन एक फैशन है कि मीडिया को गाली दो। अगर मीडिया आपका माउथ आर्गन नहीं बनता तो आप उसे कोसने लगते हो। अगर वह बटला हाउस की घटना पर सवाल उठाता है तो आप उसे कोसने लगते हो। डॉ .अनुराग का मैं दिल से मुरीद हूं। बहुत सेंटी ब्‍लागर हैं। बहुत भावुक हैं और बहुत सारे चिंतकों से बेहतर सोच के साथ लिखते हैं। अभी उनकी पोस्‍ट थी एफआईआर। पुलिस थाने और गिरते मूल्‍यों का सटीक चित्रण किया था डाक्‍टर साहब ने। डाक्‍टर साहब ने अपना अमूल्‍य समय निकाल कर मेरा चिट्ठा पढ़ा और तर्कसंगत प्रतिक्रिया दी- ‘एक तरीका तो ये था की मै आपका लेख पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त किए बिना समझदारी भरी चुप्पी ओड लूँ ताकि मुझे कल को किसी विवाद में न पड़ना पड़े ...पर मन खिन्न हो जाता है कई बार .....
शुक्र है आप छदम धर्म-निरपेक्ष का रूप धारण करके कागजो में नही आये ,हमारे देश को एक स्वस्थ बहस ओर आत्म चिंतन की जरुरत है ,बाटला हाउस की मुठभेड़ ओर मुसलमानों को सताया जाना ?इन दोनों का क्या सम्बन्ध है मुझे समझ नही आता है .इस देश में राज ठाकरे अगर कुछ कहते है तो देश की ८० प्रतिशत जनता उनका विरोध करती है ,तोगडिया ओर दूसरे हिंदू कट्टरपंथी के समर्थक गिने चुने लोग है ,उनके विरोध में हजारो लोग खड़े हो उठते है ...ऐसी ही अपेक्षा मुस्लिम बुद्धिजीवियों से होती है पर वे अक्सर चुप्पी ओडे रहते है .क्या किसी घायल इंसपेक्टर को पहले अपने घाव मीडिया को दिखाने होगे इलाज में जाने से पहले ?क्या अब किसी इंसान को पकड़ने से पहले उसके घरवालो ,मोहल्लेवालो ओर पूछना पड़ेगा ?क्या आतंकवाद हमारे देश की समस्या नही है ?पर सच कहूँ मीडिया भी अपनी जिम्मेदारी नही समझ रहा है ?इस सवेदनशील मुद्दे पर जहाँ किसी भी ख़बर को दिखाने से ..उनकी पुष्टि की जरुरत है ?कही न कही उसे भी बाईट का लालच छोड़ना होगा ......कोई भी ख़बर ,कोई भी धर्म इस देश से ऊपर नही है...’डाक्‍टर साहब जहां आप जैसे प्रतिष्ठित व्‍यक्ति को ऍफ़ .आई .आर जैसी पोस्‍ट लिखनी पड़ती हो वहां पुलिस पर सवाल तो उठेंगे ही। मैं फिर कहता हूं कि जब बटला हाउस के अंदर बैठे बदमाश या आतंकी गोलियां चलाएंगे तो उसका जबाव फूलों से नहीं दिया जा सकता। लेकिन अगर मीडिया ये सवाल उठाता है कि तीन दिन से उस फ्लैट पर पुलिस की निगाहें गढ़ी हुईं थीं। उनके मोबाइल सर्विलांस पर थे तब पुलिस ये अंदाजा क्‍यों नहीं लगा पाई कि अंदर बैठे आतंकवादी कितने हथियारों से लैस होंगे। जिन लोगों पर देश के कई हिस्‍सों में ब्‍लास्‍ट करने का आरोप है वह भजन-कीर्तन तो करने से रहे। क्‍यों हमारे बहादुर इंस्पेक्‍टर ने बुलेट प्रूफ जैकेट पहनने में लापरवाही की ? ऐसे सवाल तो उठेंगे ही और इनसे मुंह मोड़ना एक दूसरे खतरे को खड़ा करेगा। डाक्‍टर साहब मेरी आपसे गुजारिश है कि अगर मेरी कोई बात गलत लगे तो कहिएगा जरूर क्‍योंकि तार्किक मंथन से ही अमृत निकलेगा। मैं फिर कहता हूं कि बहुत सारे मामलों में मीडिया की भूमिका अच्‍छी नहीं रही लेकिन बहूतायत में मीडिया ने अपनी जिम्‍मेदारी बखूबी निभाई है। बटला के बहाने रौशन जी ने भी इर्द-गिर्द पर शिरकत की है। वह कहते हैं कि ‘अगर किसी सिलसिले में पुलिस किसी को गिरफ्तार करे तो उसका विरोध करने की जगह सच्चाई खोजने की कोशिश की चाहिए जरूरी नही है की जो पकड़े गए हैं सभी दोषी हों और यह भी जरूरी नही है की सभी निर्दोष ही हों। हम नागरिक समाज के लोगो को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि किसी के साथ अन्याय न हो न्याय सबसे बड़ा मरहम होता है और न्याय ऐसा हो जिसके निष्पक्ष होने में किसी को संदेह न होने पाये।कोई मुठभेड़ होते ही उसे सही या गलत ठहराने कि परम्परा बंद होनी चाहिए और किसी के पकड़े जाने पर उसको दोषी या निर्दोष बनाया जाना बंद किया जाना चाहिए। कानून की प्रक्रियाओं का निष्पक्ष पालन जरुरी है।……॥और अंत में मैं उस अनामी की टिप्‍पढ़ीं को जस का तस प्रस्‍तुत कर रहा हूं। इस आशय के साथ कि आप इसे एक पोस्‍ट समझकर चर्चा को आगे बढ़ाएं। वैसे मैं इन अनामी भाई के बारे में आपको इतना बताना चाहूंगा कि ये मेरे अजीज हैं। देश के सबसे बड़े चैनल में विशेष संवाददाता हैं। इनकी गिनती उन चंद मूल्‍यवान पत्रकारों में हैं जिन्‍होंने न कभी समझौता किया और न किसी दबाव में आए। कई सत्‍ताधारी माफियाओं और दबंगों की असलियत उजागर कर चुके मेरे इस भाई की प्रतिक्रिया पढ़कर आप चर्चा को आगे बढ़ाएं।Anonymous हरि भाई, मैं आपकी बातों से कई बार असहमत होता हूं। लेकिन अपनी बात रखना चाहता हूं। पहली बात कि हमें बहस करने पर कभी शर्म नहीं करनी चाहिये। यदि सवालों की हद तय होने लगेगी और बहस करने में शर्म आने लगेंगी तो हरि भाई जल्द ही आप को खुद का नाम बताने के लिये किसी की मुहर चाहिये होगी। साथ ही हरि भाई क्या आपको लगता है कि पुलिस अधिकारी माला ही पहनने वहां गया था। यदि उनका अधिकारी रेकी कर चुका था और पिछले चार दिनों से वो आतिफ के फोन और मूवमेंट को ट्रेक कर रहे थे तो फिर क्या वो माला ही पहनने उस जीने से से चौथी मंजिल चढ़ रहे थे जिससे एक वक्त में एक ही आदमी बाहर आता है। मैं एक बात से मुतमईन हूं कि आप भी बटला हाऊस के एल 18 में नहीं घुसे होंगे लेकिन आप उन आदमियों की निंदा मुक्त हस्त से कर रहे है जो वहां रिपोर्ट कर आ चुके है। क्या आपकों लगता है कि सवाल खड़े करने वाले पत्रकारों का कोई रिश्ता लश्कर ए तोईबा या फिर इंडियन मुजाहिदीन से है। जिस बहस में जिस बात की आप को सबसे ज्यादा चिंता है उसी के ऐवज में ये सवाल किये जा रहे है। क्या आपने एक भी बाईट किसी पुलिस अधिकारी की ऐसी सुनी है जो ये कह रहा हो कि मोहन चंद शर्मा ने अपनी पहचान छुपाने के लिये ही बुलेटप्रूफ जैकेट नहीं पहनी थी। या फिर पैतींस किलों की जैकेट पहनना मुश्किल था इसीलिये उसने जैकेट नहीं पहनी। जैकेट उनका पीएसओ लिये गाड़ी में था। लेकिन जिस इंसपेक्टर ने पैतीस से ज्यादा एनकाउंटर किये हो उस अधिकारी को चार दिन की सर्विलांस के बाद भी ये अंदाज नहीं हुआ कि वहां आतंकवादी मय हथियार हो सकते है।एक बात और हरि भाई जब आप पर जिम्मेदारी बड़ी होती है तो सवाल भी आप से ही किये जाते है। मैंने आज तक एक भी न्यूज एडीटर ऐसा नहीं देखा जो ब्रेकिंग न्यूज में पिछडने पर चपरासी को गरियाता हो। सवाल तो और भी हरि भाई दुनिया में लापरवाही के लिये जो भी सजा हो हमारे लिये मैडल है। मैं जानता हूं कि मैंने कभी चलती हुयी गोलियों के बीच पीस टू कैमरा नहीं किया है। मैंने कभी किसी फायरिंग के बीच किसी की जान नहीं बचायी है लेकिन मेरे भाई मैंने अपने माईक पर कभी अपने ड्राईवर से लाईव नहीं कराया। देश में इतने गहरे होते जा रहे डिवीजन पर आप के तीखे सवाल ज्यादा उन लोगों को चुभ रहे है जो झूठ के लिये ज्यादा लड़ते है और सच का आवरण खड़ा किये रहते है। मैं एक बात जानता हूं कि इस देश में करप्ट नेता चलेगा करप्ट ब्यूरोक्रेट चलेंगे लेकिन एक बात साफ है कि करप्ट या दिशाहीन पत्रकार देश को डूबो देंगे। आप सवाल खड़े करने में हिचक रहे है लेकिन आप ही लिख रहे है कि देश में नियानवे फीसदी एनकाउंटर फर्जी होते है क्या इस बात का मतलब है मैं नहीं समझा। क्या आप अपने स्टाफ को तो छोडिये उस करीबी दोस्त के सौवें वादे पर आंख मूंद कर ऐतबार करते है जिसने निन्यानवे बार झूठ बोला हो। मैं एक कहावत लिख रहा हूं आपके ही इलाके में बोली जाती है ...मरे हुये बाबा की बड़ी-बड़ी आंख भले ही बाबा अंधा क्यों न हो। एक बात जान लीजिये हरि भाई जमीन गर्म है अगर उसका मिजाज नहीं भांप पाये तो बेटे के सामने पछताना पडेगा। आपका छोटा भाई.......डीपी मैं उन सभी साथियों का आभारी हूं जिन्‍होंने इर्द-गिर्द पर आकर विचारों को पढ़ा। चर्चा की। हमारे विचारों से सहमति या असहमति जताई लेकिन मेरी गुजारिश है कि ये कारवां, ये तार्किक मंथन जारी रहना चाहिए। शायद किसी बिंदु पर जाकर हम सभी की सहमति बने। कोई रास्‍ता निकले। इसलिए अपने दिल की बात को दबाईए नहीं। खुल कर विचार प्रकट कीजिए। एक बार फिर मैं सभी से क्षमायाचना करता हूं। शायद जाने-अनजाने मुझसे कुछ गुस्‍ताखी हो गई हो।

11 comments:

Dr. Ashok Kumar Mishra said...

joshiji,
vaicharik manthan sey hi blog ki sarthakta hai.

aapki icha key mutabik nai pot main gazal likh di hai.

sanjeev said...

आप लोगों के चश्‍में का नंबर पुराना हो गया है। आप सख्‍ती होन नहीं देंगे। कोई आतंकवादी मारा जाएगा तो मानवाधिकार की बाते करेंगे। मैं पूछता हूं कि यदि दूसरों की जान लेने वालों को पुलिस ने पकड़ कर भी मार दिया तो क्‍या नेक काम नहीं किया।

Anonymous said...

AAP YE BATAAIE KI EK AATANKVAADI KE MAARE JAANE KE BAAD ITNAA HALLA KYON HO RAHAA HAI. EED KEE NAMAAZ MEN BHEE TAQREEREN HO RAHEEN HEIN KI SARKAAR NE HATYAAYEN KARAAIN. KYAA YE AATANKBAAD KO PROTECTION DENAA NAHEEN HEIN

Anonymous said...

हरी भाई , पुलिश की कार्य शेली पर सवाल उठाये जा सकतें है , बाटला हाउस की मुटभेड के तरीके पर भी सवाल उठाये जा सकतें है हो सकता पुलिस ने इसमे कुछ लापरवाही की हो या होड़ की वजह से इंस्पेक्टर शर्मा ने जल्द बाजी कर कोई गलती की हो जिसकी सजा वो अपनी जान देकर भुगत चुकें है लेकिन इस मुटभेड को अन्य मुत्भेडों की तरह नही फर्जी तो नही माना जा सकता ,मुटभेड में शामिल सैफ पुलिस के पास जिन्दा है और ये मुटभेड फर्जी होती तो मेरे ख्याल से पुलिस सैफ को कतई जिन्दा नही छोड़ती |

डॉ .अनुराग said...

जोशी जी मै मानता हूँ देश जिस तरह से ईस वक़्त धुंध ओर संदेह के बादलो से गुजर रहा है उस समय सवालों को नजर अंदाज नही करना चाहिए ,निसंदेह इस वक़्त देश का प्रबुद्ध नागरिक दुखी है ,हताश है ,उसे हर मुस्लिम आतंकवादी नजर नही आता ...न ही वो किसी ब्लास्ट को आम मुस्लिम से जोड़ता है ..मै मानता हूँ की बहुसंख्यक समाज को ओर धैर्य की जरुरत है ओर अल्पसंख्यक समाज को एक कदम बढ़ाने की .....
सच पूछिए तो मै भी देश के उन हजारो नागरिको की तरह हूँ जो कभी बटला हाउस नही गये ...लेकिन जाहिर है जब सवाल उठते है तो कई बार हैरानी होती है क्यों सवाल इतनी जल्दी उठ गये ?
मुझे ऐतराज उन तथाकथित बुद्दिजीवियों के छदम क्रान्तिकारो उदगारों से होता है जहाँ वे कुछ घंटे बाद ही एक शहीद के चरित्र पर ऐतराज उठाकर उसके पूर्व के एन्कोउन्टर पर सवाल उठाने लगते है ...जबकि अभी कुछ भी साफ़ नही हुआ है ..क्या जम्मू के एन्कोउन्टर में दो आतानाक्वादी भाग नही गये थे ?मुझे ऐतराज इस बात से होता है की किसी भी मुस्लिम बुद्दिजीवी ने छाती ठोककर एक भी शब्द शर्मा के लिए नही बोला ?क्यों ?शिकायत ही क्यों ?क्या समझदारी भरी चुप्पी हर बेमारी का इलाज़ है ?शबाना जी आजमगढ़ मामले में सामने आती है पर राज ठाकरे के ख़िलाफ़ कुछ नही बोलती ?क्यों ?
ऐसा क्यों है की प्रसून ,रविश ,ओर कई पत्रकार बिना डरे इस एन्कोउन्टर पर सवाल उठाते है ....तो दूसरे मुद्दे पर क्यों मुस्लिम बुद्दिजीवी सामने नही आते ?नसीर जब बोलते है तो दिल में खुशी होती है....क्यूंकि वो बिना लाग लपेट के बोलते है ?
..मेरे बेस्ट friends में से एक मुस्लिम है जिसकी शादी तक में हमने गवाही दी थी ...(उसने लव मेरिज की थी )जिस शनिवार दिल्ली में बम विस्फोट हुए .उसी रात मैंने उसके साथ अत्ता मार्केट में करीम के सामने एक सिगरेट पी थी वो एयरटेल में काम करता है.....हमने खुलकर हर मुद्दे पर बहस की है ओर आज भी १५ सालो बाद हमारी दोस्ती उसी तरह कायम है ..वो पांचो वक़्त की नामाज नही पढता .जैसे मुझे मन्दिर गये ज़माना गुजर गया ....पर मेरी तरह वो भी रोता है ....उसे भी इस देश से इतना ही प्यार है....उसे भी बुखारी से ठीक वैसी ही नफरत है जैसे मुझे तोगडिया से ....उसे भी शाहबुद्दीन वैसा ही लगता है जैसा राज ठाकरे मुझे......
पर हम किसी बहस को लंबा खींचेगे तो तल्खिया ज्यादा बढेगी....ओर तल्खिया यही अलगाव वादी चाहते है .....

अजित वडनेरकर said...

बहुत कुहासा है...लोग समझना नहीं चाहते ...
बुद्धिजीवी शब्द में भी बड़ा घालमेल है...धर्म, आतंक, नस्लवाद, सरकार, कानून...
कुछ भी अपनी जगह पर नहीं...

सुप्रतिम बनर्जी said...

हरि जी,
मेरा तो मानना है कि मसला चाहे कोई भी हो, अगर उसमें बहस की गुंजाइश हो, तो बहस होनी चाहिए। फिर चाहे वो धमाकों की बात हो या उसके बाद हुए एनकाउंटर की। आखिर बहस-मुबाहिसों से भाग कर क्या मिलेगा? ये तो शुतुरमुर्ग वाली बात ही होगी। लेकिन बहस में एक बात का ध्यान रखना भी ज़रूरी है। वो ये कि प्रगतिशीलता के नाम पर किसी संप्रदाय विशेष को कोसना और राष्ट्रीयता के नाम पर दूसरे को, ये भी ठीक नहीं है। मैंने अक्सर देखा है कि बड़े से बड़े लोग भी गंभीर मसलों पर बात करते हुए तटस्थ नहीं रह पाते हैं।

हिन्दीवाणी said...

बटला हाउस एनकाउंटर में जो कुछ भी हुआ, अभी से उस बारे में कोई राय बनाना बेमानी होगी। सच सामने आएगा। पुलिस अधिकारियों के रोजाना के बयानों को अगर आप एक जगह रख लें और उनका विश्लेषण करें तो आपको नतीजे पर आपको पहुंचते देर नहीं लगेगी। लेकिन अदालत में जरा इस मामले को चलने तो दीजिए, सारी बातें सामने आएंगी। अदालत पर हमें विश्वास करना चाहिए। जहां तक आतंकवादियों की बात है, उनके बारे में इस बहस में और तमाम लोग कह चुके हैं कि एसे लोगों का न कोई मजहब होता है न देश होता है। भला कौन इस बात को नहीं मानेगा।

योगेन्द्र मौदगिल said...

अनुराग जी को उनकी सार्थक एवं महत्वपूर्ण टिप्पणी के लिये बधाई..
वैसे मैं बहुमत के साथ हूं..

VerAsh said...

Vyapar kaon nai karta is duniya me. Aisa vyapar jisase logo ko phayda ho use karne me koi nuksan nahi hai..

Regards.
http://ashver.blogspot.com/

निर्मल गुप्त said...

joshi jee,
atlast now i am able to comment on your blog. really it is fabulous in style and content.

पुरालेख

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