अब आप बताइए कि खालिदा और राजदीप का ये कदम ठीक था या नहीं? अगर आप ठीक मानते हैं तो ये भी सुझाव दीजिए कि वह अपनी जान कैसे बचाएं।
Monday, December 29, 2008
प्यार ने ढहाई मजहब की दीवार
अब आप बताइए कि खालिदा और राजदीप का ये कदम ठीक था या नहीं? अगर आप ठीक मानते हैं तो ये भी सुझाव दीजिए कि वह अपनी जान कैसे बचाएं।
Tuesday, December 2, 2008
पुरबिया मज़दूर
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ अंतर्जाल पर लघुकथा डॉट कॉम नाम से एक आंदोलन चला रहे हैं। कथा के अतिरिक्त इनका हस्तक्षेप कविता में भी है। इर्द-गिर्द के पाठक इनकी कविताएँ पढ़ते भी रहे हैं। आज हम पाठकों के लिए इनकी एक कविता 'पुरबिया मजदूर' लेकर आये हैं-
घर से बाँधकर पोटली में भूजा
परदेस के लिए निकलता है
पुरबिया मज़दूर ।
रेलगाड़ी की जनरल बोगी में
भीतर ठुँसकर
कभी छत पर बैठकर (टिकट होने पर भी )
सफ़र करता है पुरबिया मज़दूर।
सुनहले सपने पेट भरने के
आँखों में तैरते हैं।
कभी चलती गाड़ी की छत से
किसी नीचे पुल से टकराकर
बैमौत मरता है पुरबिया मज़दूर।
सफ़र में जो भी टकराता है
जी भरकर गरियाता है
कुहुनी से इसको ठेलकर
खुद पसर जाता है
गठरी-सा सिकुड़ा भूजा खाता है
पुरबिया मज़दूर ।
एल्यूमिनियम के पिचके लोटे से
पानी पीता है
इस तरह पूरे सफ़र को
अपने ढंग से जीता है ।
भीड़ बढ़ने पर
डिब्बे से बार-बार भगाया जाता है
पुरबिया मज़दूर।
टिकट होने पर भी
प्लेटफ़ार्म पर छूट जाता है
भगदड़ होने पर
पुलिस के डण्डे खाता है
सिर और पीठ सहलाता है
पुरबिया मज़दूर।
पॉकेटमार किसी का बटुआ मार
चुपके से उतर जाता है
उसके बदले में भी धरा जाता है
पुरबिया मज़दूर।
सीट पर उकड़ू बैठकर बीड़ी पीता है
एक –एक कश के साथ
एक-एक युग जीता है
पुरबिया मज़दूर।
पंजाब जाएगा बासमती धान काटेगा
मोटे चावल का भात
और आलू का चोखा खाकर
पेट के गड्ढे को पाटेगा
अपनी किस्मत को सराहेगा
फिर भी पता नहीं घर आएगा
या किसी की गोली से ढेर हो जाएगा ।
लाश की शिनाख़्त नहीं होगी
लावारिस समझकर जला दिया जाएगा
घरनी सुबक-सुबककर गाती रहेगी-
“गवना कराई पिया घर बैइठवले
अपने गइले परदेस रे बिदेसिया।”
कलकता जाएगा
हाथ –रिक्शा खींचेगा;
तपती सड़क पर घोड़े-सा दौड़ेगा
बहुतों को पीछे छोड़ेगा
और अपने तन से
लहू की एक-एक बूँद फींचेगा ।
पथराए पैरों को ढोकर
सँभालकर दमे से उखड़ती साँसे
मिर्च -नमक के साथ सत्तू फाँकेगा
अपनी सारी उम्र को
हरहे जानवर की तरह हाँकेगा
मुल्क़ भर की पीड़ा
अपने ही भाग्य में टाँकेगा
पुरबिया मज़दूर।
गुवाहाटी हो या दिल्ली
तिनसुकिया हो या बम्बई
हर जगह मिल जाएगा
पुरबिया मज़दूर।
सभी शहरों ने इसको
बेदर्दी से चूसा है
फिर भी यह पराया रहा हर शहर में
किसी ने इसको अपना नहीं कहा
अपना खून पिलाकर भी
यह न तो उन शहरों का रहा
न अपने देस का ,
न पत्नी का न बच्चों का ।
ये पचास –साठ भी मर जाएँ
तो ख़बर नहीं बनते
किसी का दिल नहीं दहलता इनके मरने पर
कोई जाँच नहीं होती
किसी को आँच नहीं आती
कोई शोक सभा नहीं होती
कोई भाषण नहीं देता ।
इसके लहू में जो लाली हुआ करती थी
वह अब
ठेकेदार के गालों पर नज़र आती है
अस्थि पंजर ढोकर
जब यह अपने देस लौटता है
सबको अपने आराम के किस्से सुनाता है
बात –बात में सहम जाता है
जैसे कोई बुरा सपना याद आ गया हो
सारी उम्र
मीठे दम तोड़ते सपनों को चढ़ाता है
यह आदमी है ठीकरा नहीं
फिर भी बहुत कुछ सह जाता है
पुरबिया मज़दूर।
उम्र भर बिचौलियों का शिकार होता है
बार-बार धोखा खाता है
मरने तक सिर्फ़ तकलीफ़ उठाता है
एक दिन फिर गहरी नींद में सो जाता है
पुरबिया मज़दूर।
इस तरह भव-बन्धन से
मुक्त हो जाता है
पुरबिया मज़दूर।
Tuesday, November 25, 2008
अनुशासनहीन रहकर देश का गौरव बढ़ाएं
Saturday, November 15, 2008
पाँच रुपये की शादी
कहते हैं कि आम हिंदुस्तानी जीवन में सबसे ज्यादा धन या तो मकान बनाने में खर्च करता है या शादी में। शादियां आमतौर पर दो सितारों का मिलन नहीं बल्कि स्टेटस सिंबल ज्यादा होती हैं। गरीब हो या अमीर, राजा हो या रंक; सभी अपनी हैसियत बनाने और दिखाने में नहीं चूकते। फकीरों की नुमाइंदगी करने वाले आधुनिक महाराजा हों या वजीर या फिर हर काल में राज करने वाले सेठों की शादियां हमेशा चर्चा में रहती हैं। ऐसी ही एक शादी में जाना हुआ तो सोचा कि ब्यौरा अपने ब्लाग साथियों से भी शेयर कर लिया जाए। ये शादी थी महात्मा टिकैत के घर में। जी हां! नंगे पैर घूमकर हुक्का गुड़गुड़ाते हुए किसान आंदोलन चलाने वाले उत्तर भारत के सबसे दमदार किसान नेता को लोग महात्मा टिकैत या बाबा टिकैत के नाम से ही जानते हैं। किसानों के हित में शासन से सीधी टक्कर लेने वाले किसान नेता चौधरी महेन्द्र सिंह टिकैत के घर उनकी पोती की शादी थी उनके गांव सिसौली में। गन्ना बाउल मुजफ्फरनगर के गांव सिसौली में इस शादी को देखकर आंखे चुंधिया रही थी।
अपनी सादगी के लिए मशहूर इस किसान नेता की शादी में पचास हजार से ज्यादा मेहमान आए। मेहनतकश किसानों की नुमाइंदगी करने वाले बाबा टिकैत के परिवार में इस शाही शादी का अंदाजा आप मेहमानों की संख्या से भी लगा सकते हैं। करीब एक बीघा जमीन में अतिथियों के लिए स्वरुचि भोज का आयोजन किया गया था और इस पंडाल में ऐसा कोई शाकाहारी व्यंजन अनुपलब्ध नहीं था जिसमें आपकी रुचि हो। करीब एक हजार कारीगर एक हफ्ते पहले से मेहमानों के लिए पकवान और मिष्ठान तैयार करने में जुटे हुए थे। दूध, जलेबी से लेकर बंगाली मिठाइयों और व्यंजनों की महक पूरे पंडाल में बिखरी हुई थी। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के तमाम हैसियतदार लोग फास्ट फूड से लेकर देसी जायकों का चटखारा ले रहे थे। उत्तर से लेकर दक्षिण तक के व्यंजन विशाल पंडाल में लगी मेजों पर शाही दावत का हिस्सा थे।
दूल्हा राजा दिल्ली में डाक्टर हैं। बारात कारों से आई लेकिन दूल्हे राजा के लिए हेलीकॉप्टर बुक था। बुरा हो मौसम का जो उड़ान संभव न हो सकी तो दूल्हा को भी कार से आना पड़ा। कार तो कार है लेकिन लक्जीरियस विदेशी कार हो तो उसकी शान समाज में अलग ही होती है। दूल्हा राजा कार से गांव पंहुचे और विवाह स्थल तक उन्हें ट्रैक्टर पर बिठा कर लाया गया। आखिर किसानों के मसीहा के यहां शादी थी तो ट्रैक्टर प्रेम कैसे छूटता। विदाई के समय हेलीकॉप्टर आ गया। गांव में ही हेलीपेड बनबाया गया था। दुल्हन का ख्वाब था कि उसके सपनों का राजकुमार उसे आसमान में उड़ा कर ले जाए लेकिन तब तक मीडिया वाले बाबा से शादी की फिजूलखर्ची पर कुछ सवाल पूछ चुके थे। मीडिया से भी किसी की खुशी बरदाश्त नहीं होती! लिहाजा चौधरी टिकैत ने दूल्हे से कह दिया कि लड़की तो सुबह ही विदा होगी। दुल्हन तो नहीं उड़ पाई लेकिन दूल्हा पक्ष के निकटतम परिजन हेलीकॉप्टर से वापस हो गए।
अब हम बताते हैं कि मीडिया ने टिकैत पर क्या सवाल दागे। पत्रकारों ने पूछा कि शादी में कितने लोग आए तो टिकैत ने कहा कि मैने तो अभी तक सिर्फ दूल्हे को देखा है। जब उनसे पूछा गया कि पचास हजार लोगों के भोज का आयोजन किसके लिए था और कौन लोग शामिल हुए तो बाबा टिकैत मासूमियत से बोले कि सभी घर के लोग हैं। कितना खर्च हुआ? किसान नेता का जबाव था कि पांच रूपये की शादी है। कोई दिखावा नहीं। सादगी के साथ। इसके बाद जब उन्हें याद दिलाया कि आपने किसानों की पंचायत कर ये फैंसला लिया था कि शादी में कोई दिखावा नहीं होगा, पंद्रह लोगों से ज्यादा की बारात नहीं होगी और सादा भोजन कराया जाएगा, तब ये हेलीकॉप्टर और दिखावा क्यों हुआ? बड़ी मासूमियत से महात्मा जी बोले कि भई कहां आया हेलीकॉप्टर, मुझे तो मालूम नहीं....मैं तो यहां से कहीं निकला नहीं....और मेहमानों की आवभगत तो गांव वाले कर रहे हैं।
ये तो एक बानगी है। देश में रोज शादियां होती हैं और कुछ अपवादों को छोड़कर राजा से लेकर रंक तक सभी अपनी हैसियत के मुताबिक या हैसियत से ज्यादा खर्च करते हैं। हम भी उन समारोह का हिस्सा बनते हैं। क्या कभी हमें ये सब अखरता है। यदि अखरता है तो शुरुआत तो खुद से ही करनी होगी। अगर ये शुरूआत चौधरी टिकैत ने की होती तो इसका व्यापक असर होता क्योंकि वह उत्तर भारत में किसानों के सबसे बड़े अलंबरदार हैं।
Tuesday, November 4, 2008
फौज, फेयर सेक्स और उम्मीदें!
बीते एक अक्तूबर को दुर्गानवमी थी। समूचे देश में मां दुर्गा के नवम् सिद्धिदात्री स्वरूप की पूजा की जा रही थी। इसी दिन वायुसेना अध्यक्ष एयरमार्शल होमी मेजर साहब का बयान आया कि महिलाओं के लिए वायुसेना में भी कुछ कर दिखाने के बहुत से अवसर हैं। हांलाकि वायुसेना में महिलाओं को काफी पहले ही अवसर मिलने शुरू हो गए थे। पंजाब की एक वीरांगना को वायुसेना (नाम जानबूझकर नहीं दिया जा रहा है।) पहली फाईटर बनने का अवसर मिला था लेकिन दुर्भाग्य से वह वीर नायिका अपने हुनर दिखाने से पहले ही एक असमायिक दुर्घटना का शिकार होकर इस संसार को अलविदा कह गई थी। अभी तक महिलाएं रक्षा सेनाओं में शार्ट सर्विस कमिश्न्ड अफसर के रूप में ही अपनी सेवाएं दे पा रहीं थीं। यानी कि चौदह साल की सेवा के बाद बिना किसी पेंशन सुविधा के सेना से उनकी छट्टी कर दी जाती थी। अभी तक ऐसा हो भी रहा है।
इस बात को कुछ महिला अधिकारियों ने कुछ इस तरह भी कहा है कि अपने युवा जीवन के अमूल्य चौदह वर्ष देश के हित में सेना को समर्पित करने के बाद जब हम सेवा से विदा लेती हैं तो स्वयं को ठगा हुआ सा महसूस करती हैं।
इकत्तीस मई को खड़कवासला की राष्ट्रीय रक्षा अकादमी के कमांडेंट एयरमार्शल टी एस रणधावा ने अकादमी के एक सौ चौदह वेच के केडेट्स की पासिंग परेड के समापन के अवसर पर पत्रकारों को बताया कि अकादमी महिलाओं को सेना अधिकारियों के रूप में प्रशिक्षित किए जाने को पूरी तरह तैयार है। उन्होंने कहा कि सेना में महिलाओं को स्थायी कमीशन्ड अफसर के रूप में जज एडवोकेट जनरल (जे ए जी विभाग) और एजूकेशन कोर में भर्ती किए जाने पर गंभीरता से विचार किया जा रहा है। एयरमार्शल रणधावा ने जो बात कही उसकी पुष्टि भारत के रक्षामंत्री श्री ए के एंटनी ने इस प्रस्ताव पर अपनी सहमति जता कर कर दी। फिलवक्त रक्षा सेनाओं में पांच हजार एक सौ सैंतीस महिला सेना अधिकारी अपनी सेवाएं दे रहीं हैं। इनमें से सर्वाधिक चार हजार एक सौ एक थल सेना में, सात सो चौरासी वायुसेना में और दो सौ बावन नौसेना में पदस्थ हैं।
इस मुद्दे पर ब्रिगेडियर चितरंजन सावंत (वीएसएम) का स्पष्ट मत है कि एक समय था जब सेना में किसी महिला का नाम भी नहीं सुना जाता था। रक्षा सेना के आफिसर्स मेस के बार रूम अथवा भोजनालय में महिलाओं का प्रवेश तक वर्जित था। सैनिक अधिकारियों के मैस में महिलाओं के लिए लेडीज रूम बनाए जाते थे लेकिन वहां सेना अधिकारियों के परिवार की महिला सदस्य ही पंहुच सकती थीं।
जिस देश में नारी की पूजा किए जाने की बात की गई है उस देश की सैनिक इकाइयों में महिलाओं के साथ अछूतों जैसा बर्ताव करना हैरत में डालने वाला है। अगर हम अपने पौराणिक ग्रंथों से ही उदाहरण ढूंढे तो महारानी कैकेयी के बारे में कहा जाता है कि वह अपने पति महाराज दशरथ के साथ युद्ध के मैदान में जाती थीं और सहयोगी के रूप में युद्ध में भाग लेती थीं।
उन्नीसवी सदी में महारानी लक्ष्मीबाई ने ब्रिटिश सेनाओं के विरूद्ध युद्ध में भारतीय सेनाओं का नेतृत्व करते हुए देश के लिए अपना बलिदान दे दिया था। इसी प्रकार दक्षिण भारत में किट्टर की रानी चेनम्मा ने देश की स्वतंत्रता की रक्षा करते हुए अपने प्राणों की आहूति दी थी। द्वितीय विश्व युद्ध में नेताजी सुभाष चंद बोस के नेतृत्व में गठित की गई आजाद हिंद फौज में एक अलग महिला रेजिमेंट का गठन किया गया था जिसकी कमान सुश्री लक्ष्मी सहगल को सौंपी गई थी। इसके बावजूद आजादी के बाद भी भारतीय रक्षा सेनाओं में वही सामंती नियम कायदे कायम हैं जो अंग्रेजी सेनिक नेतृत्व से विरासत में मिले थे।
राष्ट्रीय रक्षा अकादमी खड़कवासला के कमांडेंट एयर मार्शल टीएस रणधावा का कहना है कि एन डी ए में पुरूष कैडेट्स को ही प्रशिक्षण दिया जाता है इसलिए महिला कैडेट्स के प्रशिक्षण के लिए चैन्नई की सैन्य अकादमी में व्यवस्था की जाएगी। श्री रणधावा ने कहा कि सेना की महिला रक्षा अधिकारी सीधे युद्ध में भाग नहीं लेंगी। सेना के केवल उन्हीं अंगों में उन्हें स्थान दिया जाएगा जहां उन्हें शत्रु के साथ युद्ध में सीधे-सीधे भाग न लेना पड़े।
वास्तव में 1990 में ही भारतीय नौ सेना और वायुसेना में महिला अधिकारियों के लिए अवसरों के द्वार खोल दिए गए थे। इन महिला अधिकारियों को शार्ट सर्विस कमिशन्ड अधिकारी का दर्जा दिया गया था परन्तु इन महिला अधिकारियों को पुरूष अधिकारियों के समान कठोर प्रशिक्षण दिए जाने के बाद भी बहुत साधारण से कार्यों पर नियुक्त किया गया। इस सारी प्रक्रिया में लिंग भेद का अहसास सीधे-सीधे होता था। हांलाकि बिट्रेन की शाही सेना में महिला अधिकारियों को पुरूषों के समान ही सम्मान और अधिकार प्राप्त होते हैं लेकिन भारतीय सेना के उच्च अधिकारी अपनी सामन्ती सोच से उबर न पाने के कारण महिला अधिकारियों को अभी तक भी उनके पुरूष सहयोगियों के बराबर सम्मान के योग्य नहीं समझते।
भारतीय सेना के उपसेनाध्यक्ष लेफ्टीनेंट जनरल पट्टाभिरमन का स्पष्ट रूप से कहना है कि हमें यूनिट स्टर पर लेडी आफिसर्स की नहीं युवा जेंटलमेन आफिसर्स की भागीदारी की आवश्यकता है। वास्तव में खेलने की गुडि़याओं (बार्बी डाल्स) का युद्ध मैदान के बंकर्स में कोई स्थान नहीं होता है। उच्च सेना अधिकारियों की इसी मानसिकता के कारण सेना में कार्य कर रही महिला अधिकारियों के यौन उत्पीड़न और यौन शोषण की घटनाएं भी सामने आने लगीं।
महिलाओं को मामूली सी घटना पर भी चार्जशीट किया गया जबकि उनके पुरूष सहयोगी बड़ा अपराध करने पर भी छुट्टे छोड़ दिए गए। सेना के दस्तावेजों के अनुसार पिछले चौदह वर्षों में कम से कम सात महिला अधिकारियों का कोर्टमार्शल किया गया। इनमें से अधिकांश महिलाएं अपने शैक्षणिक जीवनकाल में ही अपनी विलक्षण प्रतिभाओं का प्रदर्शन कर चुकीं थीं। यदि वे चाहती तो सिविल सेवाओं में भी अपना कैरियर चुन सकती थीं लेकिन स्वदेश प्रेम का जज्बा ही उन्हें रक्षा सेना मे खींच कर लाया था। पर इसका परिणाम क्या निकला। यही कि रक्षा सेना में उन्हें तरह-तरह से अपमानित किया गया। इसका विरोध करने पर मामूली से मामूली (पेटी मेटर्स) बातों पर उन्हें चार्जशीट थमाई गई। उनका कोर्ट मार्शल किया गया और अपमानित करके रक्षा सेवा से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। अफसोस की बात तो यह है कि एक मामले में तो एक महिला अधिकारी पर मात्र दस रूपये के गबन का चार्ज लगा कर उसे सेना से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया।
बातें बड़ी-बड़ी हैं पर सेना में कार्यरत महिला अधिकारियों की वास्तविक हालत क्या है, इस बात का अनुमान लेफ्टीनेंट जनरल पद्मनाभन की टिप्पणीं से तो लगता ही है। एक सेना अधिकारी द्वारा अपने पिता को लिखे पत्रों से भी लगता है। 27 मार्च 98 को लिखे एक ऐसे ही पत्र में उसने लिखा था - पापा आपने हमेशा इतनी खुशियां दी हैं कि पता ही नहीं चला कि दुख क्या है। यहां आई एन एस हमला और कोची ने बहुत कुछ सिखा दिया। लेकिन यह सब सहन करना आसान भी तो नहीं है। मेरे पास परिवार का कोई ऐसा व्यक्ति भी नहीं है जिससे अपनी चिंताएं और पीड़ा बांट सकूं। घर फोन करके कुछ शांति मिलती है पर बारह दिनों में चार हजार रूपये फोन पर खर्च हो चुके हैं फिर भी सुकून नहीं है।
कभी कोई सीनियर अफसर बुलाता है तो उनके व्यवहार पर इतना गुस्सा आता है कि दुनिया पलटने को मन करता है। पापा! असल बात यह है कि फौज में लड़कियों को कोई इंसान नहीं समझता। आदर, सम्मान केवल दिखाने को है पर असल जिंदगी में ऐसा नहीं होता। कुछ दिनों के लिए इस एनवायरमेंट से भाग जाने को दिल करता है। हरिद्वार, देहरादून जाने को मन कर रहा है। अपने भाई-बहिनों के पास, आपके पास आने का मन है। यहां से उड़ जाने का मन कर रहा है। पापा! डिफेंस लड़कियों के लिए कितना गंदा है, यह बात सब को पता लगनी चाहिए। फौज में इतने लोग आत्महत्या क्यों करते हैं यह बात सब को पता लगनी चाहिए। हम सोचते हैं डिफेंस और ज्यूडिसियरी यही दो अच्छी जगह बची हुईं हैं जबकि ऐसा नहीं है।
...फिर लगता है कि ये बातें बाहर गईं तो देश की अस्मिता को भी खतरा हो सकता है। बात उछली तो इंटरनेशनल लेवल तक खिंच सकती है। खैर छोड़ो यहां पीडि़त व्यक्ति का ही कोर्ट मार्शल होता है। ... इस कोर्ट मार्शल ने मुझे इन उच्च अधिकारियों का असली चेहरा तो दिखा ही दिया। वास्तव में इन लोगों को बेनकाब किया जाना चाहिए पर ऐसा हो नहीं सकता। ये सो काल्ड सीनियर आफिसर तो फिर भी बचे ही रहेंगे। क्योंकि न्याय तो इन्हें ही करना है। ... यहां फौज में अपराधियों को ही न्याय करने की पावर दी जाती है।
पत्र का मजबून तो दहलाने वाला है। ऐसे में फौज में महिलाओं को स्थाई कमीशन दिए जाने की बात बहुत ज्यादा उम्मीदें नहीं जगाती।
Thursday, October 30, 2008
जलते सवाल
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ का नाम लघुकथा आंदोलन से जुड़ा है। लेकिन हिंदी के इस चर्चित लघुकथाकार ने समय-समय पर इर्द-गिर्द की घटनाओं और उनसे उपजे सवालों पर कविताओं के माध्यम से आपकी चुप्पी तोड़ने की कोशिश की है। ताजा हालात पर उन्होंने एक कविता इर्द-गिर्द के लिए भेजी है। आशा है आप अपनी प्रतिक्रियाओं से उनका स्वागत करेंगे।
छायाचित्र Word Photos से साभार
ट्रेन जलाई जा रही है
यह समझने की बात है-
क्या यह लालू जी की भैंस है ;
जिसने ग़लती से आपका खेत
चर लिया था या
इस मरखनी भैंस ने
किसी के पूत को
सींगों पर धर लिया था?
चक्का जाम है-
क्या ये रास्ते
किसी गलत मंज़िल की ओर जा रहे हैं
या किसी चलने वाले को सता रहे हैं
ये रास्ते किसी के जूते की कील हैं ?
जो पैरों में गड़ रहे हैं
या किसी के माथे पर कलंक का टीका
जड़ रहे हैं?
राह चलते लोग,
जिन्हें हम जानते तक नहीं
उनको मार दे रहे हैं
ये दूकाने -जिन पर लोग
घर का चूल्हा जलाने के लिए बैठे है।
हमारे दुश्मन कैसे बन गए
हम आज तक नहीं समझ पा रहे हैं
‘पंजाब ,सिन्ध ,गुजरात ,मराठा,द्रविड़ ,उत्कल ,बंग’
इतने साल गा कर भी
हम अर्थ नहीं समझ पा रहे हैं।
हम किस अँधेरी गुफ़ा में जा रहे हैं?
नहीं पता ।
मेरे घर मे लगे
शहीद भगतसिंह,सुभाष चन्द्र बोस और शिवाजी के कलेण्डर
मेरे गाँव-घर का पता पूछ रहे हैं-
सोच नहीं पा रहा हूँ
मैं क्या बताऊँ ?
जो आज़ादी के वक़्त देश मिला था
उसे ढूँढ्कर कहाँ से लाऊँ?
Friday, October 24, 2008
अब तार नहीं आते हैं बस तार बाबू आता है
जो जैमिनी की पुरानी
काली-सफेद फिल्मों
और दूरदर्शन के
सीरियलों में अब
भी दिख जाता है।
दीपावली आ रही, त्यौहार के 4 दिन पहले से लेकर 4 दिन बाद तक इनाम मांगने वालों की भीड़ लगी रहेगी। चंद्रयान के युग में भी हमेशा डेड रहने वाले बीएसएनएल के लैंडलाइन फोन वाला लाइनमैन आएगा, बत्ती गुल हो जाने पर कभी भी फोन ना उठाने वाले बिजली कर्मचारी आएंगे, रोज़ आधा कचरा डिब्बे में ही छोड़ जाने वाला सफाई कर्मचारी आएगा, रात को दफ्तर से लौटने पर हमेशा सोता नज़र आने वाला सोसायटी का चौकीदार आएगा और मुहल्ले भर की चिट्ठियां एक ही घर में पटक जाने वाला डाकिया भी खींसे निपोरते हुए घंटी बजाएगा। सब आएंगे, साल भर के ताने एक दिन में सुनेंगे फिर पचास का नोट लगभग हाथ से छीनने के अंदाज़ में जेब में ठूंसेंगे और मुस्कराते हुए चले जाएंगे, मानो कह रहे हों देखा कैसा बनाया, साले को।
लेकिन इन सामाजिक झपटमारों की भीड़ में मुझे लुटने के लिये सबसे ज़्यादा इंतज़ार रहता है तार बाबू का। तार बाबू यानी वो कर्मचारी जो तार लाता था। अब तार तो नहीं आते हैं लेकिन कुछ इलाकों में दीपावली के मौके पर तार बाबू ज़रूर नज़राना लेने आते हैं। जो कम उम्र के हों उनको बता दूं कि आजकल जो छोटे मोटे संदेश एसएमएस से भेजे जाते हैं ना वो पहले तार से भेजे जाते थे। हर शहर में एक तारघर होता था। खाकी वर्दी पहने, खाकी टोपी लगाये हेडलाइट वाली साइकिल पर घंटी बजाते हुए आने वाले तारबाबू को आते देखते ही आम लोग सहम जाते थे और फौजी खुश हो जाते थे। मोहल्ले में दहशत फैल जाती थी कि पता नहीं किसके बाबू जी या अम्मा जी चल बसे। लेकिन फौजियों के लिये घर से आने वाला अम्मा-बाबू की बीमारी तार छुट्टी मिलने की गारंटी होता था, शायद अब भी होता हो। हमारे गांव के कई फौजी तो जब छुट्टी में गांव आते थे तो घर के कामकाज के हिसाब से अगली छुट्टी के लिये तारीख तय करके तार भेजने के लिये मजमून भी लिखवा जाते थे। तय तारीख को उनके लिये तार होता था, तार पहुंचता था और और फौजी गांव भर के लिये कैंटीन से मंगाई रम, मच्छरदानी, एचएमटी की घड़ी, टॉर्च, रब़ड़ की चप्पलें और अफगान स्नो की चार शीशियां लेकर हाज़िर हो जाता था। तार झूठ को विश्वसनीयता में बदलने की ही नहीं तेजी की भी गारंटी था। लैंब्रेटा और फिएट के उस युग में भी आज की स्पीड पोस्ट से जल्दी तार पहुंचते थे। चाहे उत्तर-पूरब में बसा नेफा हो या जैसलमैर में रेत के टीलों के बीच नज़र ना आने वाली सीमा सुरक्षा बल की चौकी हो, जम्मू-कश्मीर की बर्फ में गश्त लगाते सैनिक हों या समंदर की पहरेदार करते कोस्ट गार्ड, दूसरे विश्व युद्ध के वक्त की बनी मशीनों से तार झट से पहुंचता था। तेजी का आलम ये था कि 10 पैसे के पोस्टकार्ड पर चिट्ठी को ही तार का रूप देने के लिये अम्मा नीचे एक लाइन जुड़वा देती थीं, इसे चिट्ठी नहीं तार समझना और मिलते ही बच्चों के साथ चले आना।
Tuesday, October 21, 2008
लोगों का काम है कहना
शिक्षाविद और साहित्यकार राधा दीक्षित ने लोक साहित्य पर काफी काम किया है। हिंदी और अवधी के लोकगीतों और लोकमुहावरों पर उनकी शोधपरक पुस्तकें काफी चर्चित रहीं हैं। भारी-भरकम शब्दों से भरा एक संस्मरण उन्होंने बड़े स्नेह से इर्द-गिर्द के लिए भेजा है। पढिए, संस्मरण में छिपी वेदना को समझिए।
ऊंच चबूतरा तुलसी का बिरवा
तुलसी का बिरवा
तुलसा जमीं घनघोरे न.....
भोपाल में अवधी का ये लोकगीत सुनकर पुलकित हुई ही थी कि कानों में सीसा उड़ेलती कर्कश ध्वनि टकराई, ' आजकल के फैशन की बलिहारी। सुखी-सुहागिन हैं, पर हाथों में देखो तो क्या लटकाएं हैं, कांच की चूडियों से जैसे वैर है वैर।'
फुसफुसाहट से आहट होकर उनकीं निगाहों का अनुगमन करती हुई मेरी दृष्टि बाईं और बैठी, अनुपम सौंदर्य की स्वामिनी भद्र महिला पर पड़ी। निगाहें थमीं की थमी रह गईं। बैठने की मुद्रा कितनी प्रभावशाली है। मृदु, मधुर स्वर, एक-एक शब्द मोती जैसा झरता हुआ! उनके बारे में जानने की इच्छा बलवती हो उठी।
हां मैं भोपाल से आई थी अपने एक पारिवारिक मित्र के समारोह में। महिला-संगीत का कार्यक्रम चल रहा था। जलपान के बाद मैनें उनसे मिलने का बहाना ढूंढ ही लिया। उनके हाथों को अपने हाथों में लेते हुए कहा, ‘ कितनी प्यारी हैं आप और कितने प्यारे हैं कंगन हैं आपके।‘ उन्होंने मेरे कंधे थपथपाते हुए कहा, ‘अक्सर तो इनके लिए आलोचना ही सुननी पड़ती है। अच्छा लगा तुमसे मिलकर।‘ मन में कौंधा, अच्छा तो ये अपनी आलोचना से बेखबर नहीं हैं। बातें शुरू हुईं तो रवर की के मानिंद खिंचती चली गईं। उन्होंने बताया, मेरे भैय्या की नियक्ति फिरोजाबाद में हुई। मन में सतरंगी सपने जाग उठे। चूडियों का शहर फिरोजाबाद। ढेर सारी चूडियां लाउंगी। रंग-बिरंगी, हर साड़ी, हर सूट से मेल खाती। एक दिन मैं फिरोजाबाद पंहुच गई। भईया उच्चाधिकारी हैं। मेरे उगमते उत्साह को देखकर उन्होंने चूड़ी कारखाने को देखने का भी प्रबंध करवा दिया। मैं उत्साह से भरपूर एक-एक चीज को देख रही थी, कैसे वे कांच को पिघलाते हैं, कैसे कांच की लंबी-लंबी लटें बनाते हैं, कैसे उन्हें काटकर विभिन्न रंग-रूप देते हें। मैं शिशुवत उत्साह से सब देखती रही। जब उन्होंने मेरी उंगलियों की नाप के कांच के बने छल्ले दिए तो उन्हें पहनकर कांच की उष्मा देर तक महसूस करती रही। साथ के लोग कारखाने के एक-एक विभाग को दिखलाते रहे और धीरे-धीरे मेरे सामने एक नया रहस्य खुला। वहां बच्चे, बूढ़े, हर आयु वर्ग के लोग काम कर रहे थे। पता चला कि यहां के मजदूर असमय ही बुढ़ा जाते हैं और काल के ग्रास बन जाते हैं। कांच से चूडियां बनाने की प्रक्रिया में उत्सर्जित गैसों से उन्हें यक्ष्मा यानी टीवी जैसे राजरोग हो जाते हैं। यह देख-सुनकर मेरा मन वितृष्णा से भर उठा। पहले चूडियों भरे हाथों पर मैं इतराती घूमती थी। अब वही हाथ नौ-नौ मन के भारी लगने लगे थे।
Friday, October 17, 2008
पधारो ना म्हारे देस (अगर यही करना है तो)
Thursday, October 16, 2008
इज़राइल से दूर एक इज़राइल
कुल्लू से मणिकर्ण जाते हुए रास्ते हुए में एक जगह पड़ती है कसोल। अजीब माहौल, अजीब से रेस्त्रां और अजीब सी ही दुकाने, अजीब सी बोली में खुसुर-पुसुर के अंदाज़ में बात करते लोग और अजीब सी भाषा में लिखे हुए साइन बोर्ड। कुछ अपने से दिखते लोगों के बीच एक और अपनी सी चीज़ नज़र आती है रॉयलइनफील्ड की बुलेट मोटरसाइकिल, जिसके तीन छोटे-बड़े सर्विस स्टेशन इस ज़रा सी बस्ती में मुझे दिख गये। फिर पता चलता है कि ये लोग इज़राइल के सैलानी हैं, और इन्हीं की सुविधा के लिये यहां के सारे साइनबोर्ड इज़राइल की भाषा हिब्रू में लिखे गये हैं। मिनी इज़राइल सा नज़र आ रहे कसोल में आने वाले सैलानियों में से 90 फीसदी इज़राइल के होते हैं जो दो चार पांच दिन के लिये नहीं बल्कि 5-6 महीने और कई तो यहीं बस जाने के लिये आते हैं। परदेस में अपने देश की हैसियत जानकर बड़ा अच्छा लगा। कुछ लोगों ने बताया कि लड़ाई और आतंकवाद से ऊबे इन लोगों को कसोल में सुकून मिलता है। लेकिन जब वहां गाड़ी खड़ी की और एक दिन ठहरने का मन बनाया तो कसोल और इज़राइलियों की तारीफ के कसीदे काढ़ रहे लोग परेशान हो गये। मेरी खोजी बातों से हाल ये हो गया कि खाली होटल (अगर उनको होटल माना जाये तो) वालों ने भी मुझे कमरा देने से मना कर दिया। गाड़ी पर लगा एक बड़े नेशनल टीवी चैनल का स्टीकर उनको कुछ ज़्यादा ही परेशान कर रहा था जबकि ना मेरे पास कोई कैमरा था ना माइक। बिखरे बालों में मैं भी टी शर्ट, लिनेन का पायजामा और स्लिपर्स पहने वहां के सैकड़ों सैलानियों जैसा ही हिप्पी लग रहा था। लेकिन ना जाने क्या हुआ कि देखते-देखते कसोल में कर्फ्यू सा लग गया, कोई मुझसे बात करने को तैयार नहीं। दुकानदारों ने बिसलरी की बोतल तक बेचने से मना कर दिया।
चढ़ी आंखों वाले एक आदमी ने मेरे ड्राइवर को समझाया, चले जाओ यहां से। ड्राइवर ने भी आकर बस इतना कहा, साहब निकल लो बस। जब ड्राइवर ने भी हाथ खड़े कर दिये तो मेरे सामने कोई रास्ता नहीं बचा। लेकिन मैने तय कर लिया कि मैं रहूंगा आसपास ही कहीं। और फिर इसके बाद कुल्लू से जगतसुख और कसोल होकर मणिकर्ण के बीच तीन रोज़ तक गाड़ी दौड़ाकर जो कहानी सामने आई वो चौंकाने वाली है।
आगे की कहानी यहाँ है॰॰॰॰
Tuesday, October 14, 2008
फिर याद आए मातादीन
ये कोई नई खबर नहीं है। बस! समय, स्थान और पात्र बदले हुए हैं। पुलिसिया किस्सों में ये आम हैं। परंपरागत हैं। लेकिन फिर भी ये घटनाएं जहां भी हों, परदे में नहीं रहनी चाहिएं। आप अपनी मनपसंद बात न सुनने या पढ़ने पर मीडिया को चाहें जितना भी कोसें लेकिन ये भी सच है कि ऐसे मामले गिनती की दुनिया से परे हैं जिनमें मीडिया की वजह से न्याय का दीपक जल पाता है।
इंस्पेक्टर मातादीन का किस्सा तो आपने सुना होगा। अगर नहीं तो हम सुनाए देते हैं। मातादीन को टास्क मिला कि उन चूहो को पकड़ कर लाया जाए जिसने सरकारी गोदाम के माल को चट कर दिया। तीन दिन का समय और मुश्किल टास्क लेकिन मातादीन ने मुमकिन कर दिखाया। कप्तान साहब के सामने मातादीन एक हाथी को लाकर खड़े हो गए और बोले कि हुजूर यही वह चूहा है। कप्तान साहब झल्लाए तो इंस्पेक्टर बोले कि हुजूर ये इकबाल-ए-जुर्म कर रहा है। इंस्पेक्टर ने हाथ के डंडे को हवा में लहराते हुए हाथी से पूछा कि बताओ सरकारी गोदाम के माल को चट करने वाले चूहे हो या नहीं? हाथी जोर-जोर से सूंड और सिर हिलाने लगा। ऐसा ही कुछ हुआ है उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में जहां पुलिस की कहानी में मार डाला गया बच्चा वापस आ गया और उसके अपहृता और कथित हत्यार छह महीने से जेल की हवा खा रहे हैं।
पुलिस की ऐसी कारगुजारियां अक्सर देखने-सुनने को मिलती हैं और निरपराध लोग सींखचों के पीछे चले जाते हैं। मुजफ्फरनगर के सुनील, सोनू और रवि पिछले छह महीने से मुजफ्फरनगर की जिला जेल में बंद हैं। मुजफ्फरनगर के भोपा थाना इलाके के रहने वाले इन तीनों लोगों पर छठी क्लास में पढ़ने वाले राजन के अपहरण और हत्या का इल्जाम है। पुलिस ने करीब छह महीने पहले राजन का बस्ता और हत्या में प्रयोग किया गया चाकू भी गंग नहर के किनारे से बरामद कर लिया और धारा एक सौ इकसठ के तहत अपराधियों के बयान भी दर्ज कर लिए जिसमें तीनों अभियुक्तों ने इकबाल-ए-जुर्म कुछ इस तरह से किया-''सोनू और रवि ने अपहृत राजन के हाथ पकड़े और सुनील ने उसकी पेट में चाकू घोंपकर नहर में फेंक दिया।'' इसी इकबाल-ए-जुर्म के बाद कथित अपराधियों की कथित निशानदेही पर आला कत्ल यानी हत्या में प्रयुक्त चाकू भी बरामद कर लिया लेकिन अब राजन वापस आ गया है। यानी जिस बच्चे को अपहरण के बाद मार डाला गया और तीन युवक पिछले छह महीने से जेल की हवा खा रहे हैं, जबकि वह बच्चा अभी जिंदा है।
आप समझ ही सकते हैं कि राजन के वापस आ जाने के बाद क्या हो रहा होगा। राजन के वापस आते ही मुजफ्फरनगर पुलिस सकते में आ गई है तो दूसरी तरफ जेल में बंद राजन की कथित हत्या के हत्यारोपियों के घरवाले पुलिस की हाय-हाय कर प्रदर्शन कर रहें हैं। उनका आरोप है कि पुलिस ने रंजिश के चलते राजन के पिता से रिश्वत खाकर अपहरण और हत्या का ड्रामा करवाया और सुनील, सोनू और रवि को कई दिन तक अवैद्य हिरासत में रखकर जमकर मारा-पीटा और फिर कथित इकबाल-ए-जुर्म के आधार पर जेल भेज दिया। पिछले छह महीने से जेल में बंद तीनों युवकों के घर वाले अब इंसाफ मांग रहे हैं लेकिन साथ में वे शंका भी जता रहें हैं कि उन्हें न पहले इंसाफ मिला था और न अब उम्मीद है।
राजन के जिंदा लौटने पर पुलिसिया कहानी और षडयंत्र का आधा सच तो सामने आ चुका है लेकिन बाकी के सच पर पर्दा डाले रखने और महकमें की तार-तार हो रही लाज को बचाने के लिए पुलिस ने एक बार फिर से लीपापोती शुरू कर दी है। थानेदार साहब कह रहे हैं कि मामला उनसे पहले थानेदार साहब के कार्यकाल का है। और साथ ही साथ अपहृत राजन और उसके पिता को थाने में बुलाकर बिठा लिया है और वे दोनों अपहरण की कहानी को सच बता रहे हैं।
अब एक तरफ राजन और उसके परिजन अपने अपहरण की मॉलीवुड कथा सरीखी अपहरण की कहानी सुना रहे हैं वहीं अभियुक्तों के परिजनों का कहना है कि राजन पहले भी कई बार घर से भाग चुका है और गायब हो जाना उसकी फितरत है। सचाई क्या है? आधा सच तो सामने है। पुलिस के कागजों में मर चुका राजन वापस आ गया है। कब सामने आएगा बाकी बचा सच।
Sunday, October 12, 2008
अगले जनम मोहे मास्टर ना कीजो
कई बरस पहले जनसत्ता अखबार की रविवारीय पत्रिका में आलोक तोमर का एक लेख पढ़ा था कि जो कुछ नहीं होते वो शिक्षक होते हैं। शिक्षक माता-पिता की संतान आलोक तोमर का ये लेख उस समय अच्छा नहीं लगा था। लेकिन अब अपने ही बीच के एक शिक्षक की कहानी सुनी तो समझ में आया कि आलोक तोमर ने सच लिखा था। उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर ज़िले उस शिक्षक की कहानी सुनकर लगा कि ऐसे हालात में जो शिक्षक धर्म और कर्म निभाये वो गांधी ही हो सकता है। और चूंकि दूसरा गांधी अब तक कोई हुआ नहीं है इसलिये ये ही कहा जायेगा कि जो शिक्षक हैं उनके पास और कोई रास्ता ही नहीं है या वो और कुछ बन नहीं सकते। यानी आलोक तोमर की बात सोलह आने सही कि जो कुछ नहीं होते वो शिक्षक होते हैं।
मास्साब की चिट्ठी
राधा को देखने वाले आ रहे हैं, 15 अक्टूबर की सुबह। लड़का दीपावली की छुट्टियों में घर आ रहा है, इसलिये महीने भर से पहले से कार्यक्रम तय है। लेकिन मैं शायद उनसे ना मिल सकूं। आज ही बेसिक शिक्षा अधिकारी के दफ्तर से संदेश आया है कि 15 अक्टूबर को उत्तर प्रदेश के सभी प्राइमरी और जूनियर हाई स्कूलों में ‘विश्व हाथ धोना दिवस’मनाया जाएगा। इस मौके पर स्कूलों में शिक्षकगण बच्चों को अलग-अलग समूहों में बांटकर विद्यालय की साफ-सफाई कराएंगे। अपनी और आसपास की स्वच्छता-सफाई का संदेश देने के रैलियां निकालीं जाएंगी। और बच्चे टॉयलेट जाने के बाद और कुछ भी खाने से पहले हाथ धोने की शपथ लेंगे। यानी शाम के पांच-छह बजेंगे सामान समेटते-समेटते। हेड मास्टर साहब को भी पता है कि उस दिन मुझे कितना ज़रुरी काम है लेकिन क्या करें उनकी भी मजबूरी है और मेरी भी। राधा की मां ज़िम्मा संभालेगी घर पर। कोई बात नहीं, लेकिन मैं अपनी बेटी राधा की शादी में हाज़िर होने की पूरी कोशिश करूंगा।
वैसे सच बताऊं मेरे जैसे शिक्षकों की बिरादरी इस तरह के आपातकाल की आदी हो गई है या होती जा रही है। आजकल हमारे जिम्मे परिवार नियोजन के लिये लोगों को प्रेरित करने से लेकर पोलिया की दवा पिलवाने तक का काम ही नहीं होता बल्कि लखनऊ में जिस पार्टी की सरकार है उसके छुटभैये नेताओं की सभा के लिये बच्चे-बड़े भी हमको ही जुटाने पड़ते हैं। मेरे पिता जी भी मास्टर थे, लेकिन तब हालात कुछ और थे। इलाके के सबसे प्रतिष्ठित व्यक्ति माने जाने वाले मास्टर साहब या गुरुजी हालात की वजह से अब ‘वो मास्टर’ में बदल चुके हैं। अब ना इज्जत है, ना पैसा और ना ही चैन। गांव के पंचों से लेकर कलेक्टर तक निगरानी के लिये इतने लोग तैनात कर दिये गये हैं कि मेरे जैसे मास्साब, पिता के अंतिम संस्कार या बेटी की शादी की तैयारियों के लिये भी छुट्टी लेने से पहले पचास बार सोचते हैं।
और इतनी मेहनत और बेगार के बाद जब वेतन की बारी आती है तो 5-6 महीने तक इंतज़ार और वो भी इतनी जलालत के बाद, मानो भीख मिल रही हो। देश की जिस राजधानी दिल्ली में शिक्षा और शिक्षकों के लिये बड़ी-बड़ी योजनाये बनती हैं, उससे महज़ 60-70 किलोमीटर दूर बसे बुलंदशहर के बेसिक शिक्षकों का हाल आप सुन लेंगे तो कलेजा मुंह को आ जायेगा। बेसिक शिक्षा अधिकारी के कार्यालय में बैठने वाले लेखाधिकारी महोदय का एक अदना सा बाबू हम भविष्यनिर्माताओं को खून के आंसू रुला देता है। पूरे बुलंदशहर में गिने-चुने स्कूल होंगे जिनके शिक्षकों को वेतन समय पर मिल पा रहा होगा। दरअसल वेतन मिलने की प्रक्रिया इतनी जटिल और लंबी है कि इससे लेखाधिकारी कार्यालय के बाबू के अलावा सब परेशान होते हैं। हर महीने की 20-22 तारीख को स्कूल का बाबू वेतन का बिल बनाकर लेखाधिकारी कार्यालय ले जाता है। लेखाधिकारी कार्यालय के बाबू के मूड के ऊपर है कि वो बिल स्वीकार करता है या नहीं। पहली बार में तो वो नहीं ही करता है, ये कहकर कि अभी बजट नहीं आया है। मानमनौव्वल के बाद बिल स्वीकार होता है और कम से 10-15 दिन से लेकर महीने तक पड़ा रहता है ट्रेज़री में जाने के लिये। जब जाता है तो ट्रेज़री से चैक आने में दो-चार रोज़ लग जाते हैं। ट्रेज़री से आया चेक लेखाधिकारी के बाबू के पास फिर पड़ा रहता है, कई बार तो दो-दो महीने तक। ये हाल तब है जब बाबू से चेक लेने के एवज़ में हर बार 100 रुपये खर्च होते हैं। 10 लोगों के वेतन पर 100 रुपये खर्च का नियम है। बीच में शिक्षकों ने बुलंदशहर में कर्मचारी नेताओं से मिलकर शिकायत की तो छह महीने तक सब ठीक रहा। फिर सातवें महीने अचानक शेर हो गये बाबू ने पिछले छह महीने की भी कसर निकाल ली तब कहीं जाकर चेक दिया। चेक हाथ में देने से पहले 100 रुपये के खर्च का सिलसिला फिर प्रारंभ हो गया है। किससे कहें?
दीपावली की तैयारियां आपके घर मे चल रही होंगी। मेरे घर में भी हर साल शुरू होती हैं लेकिन बीच में ही दम तोड़ देती हैं। पिछले कई साल का नियम है कि जिस महीने दीपावली होती है उस महीने बोनस तो दूर उस माह का वेतन भी नहीं मिल पाता है। इस महीने का वेतन अब तक नहीं मिल सका है, बिल बाबू की टेबल पर ही पड़ा हुआ है। और बोनस, वो तो पिछले साल का भी नहीं मिला है। बाबू जी कहते हैं बजट नहीं हैं। दबंगों के स्कूलों को पिछले साल ही मिल गया था। महंगाई भत्ता बढ़ने का हज़ारों रुपये का एरियर भी नहीं मिल पा रहा है। देर सबेर मिल जायेगा लेकिन उसका जो हिस्सा पीएफ में जायेगा उसके ब्याज का नुकसान तो ही ही रहा है हम लोगों को।
पीएफ पर याद आया, राधा की शादी के लिये 40 हज़ार रुपये निकालने के लिये अर्जी दी हुई है। एक हज़ार रुपये अब तक चाय-पानी के नाम पर बांट चुका हूं।लेकिन अर्जी वहीं की वहीं है, आगे बढ़ ही नहीं रही है। शुक्ला जी, सिंह साहब, मिश्रा जी सबके उदाहरण मेरे सामने हैं कि उनको पीएफ से निकाली गई रकम बच्चों की शादी पर नहीं नाना या दादा बनने पर ही मिल सकी। मुझे भी बहुत ज़्यादा उम्मीद लगती नहीं है।
लेकिन एक उम्मीद आपसे नज़र आ रही है। आपने हमको अपने बच्चों का भविष्य बनाने का जिम्मा दे रखा है। हम पूरी कोशिश करते हैं लेकिन बदले में कभी गुरु दक्षिणा नहीं मांगते हैं, मांगते भी हैं छोटी-मोटी, द्रोण जैसी नहीं। क्या आप पालकों की पूरी बिरादरी दिवाली के मौके पर शिक्षकों की बिरादरी को एक गुरु दक्षिणा दे सकती है। हमारे पढ़ाये कई बच्चे आईएएस, आईपीएस और बड़े अफसर हैं, कृपया हमको बाबुओं से मुक्ति दिलवाकर बस वेतन समय पर दिलवा दीजिये। हम आपके बच्चों का भविष्य बनाते हैं आप हमारे बच्चों का ध्यान रखिये।
Saturday, October 11, 2008
जुग –जुग जियो समाजवाद !
भ्रष्टाचार, ब्लैक मार्केट ,गुण्डागर्दी जिन्दाबद !
जुग–जुग जियो समाजवाद !
कालूराम जी ने एक दिन ,बहुत मुझे ये समझाया ।
काले धन और काले तन की बहुत पूछ ये बतलाया।।
काले थे कृष्ण जी देखो दुनिया में पूजे जाते ।
काला धन कमाने वाले ईश्वर से न घबराते ॥
भेंट और पूजा लिए बिना,
अफ़सर भी सुनता नहीं फ़रियाद।
जुग–जुग जियो समाजवाद !
पुलिस डकैती में शामिल है ,नेता जी ऐसा हथियार।
सत्य और न्याय की हत्या करने में हरदम तैयार ॥
खाने –पीने की चीज़ों में भी मिलावट का है राज ।
धन कमाना सेवा करना एक पंथ और दो-दो- काज ।।
घूम रहे सड़कों पर नंगे
रिश्वत रानी और अपराध
जुग–जुग जियो समाजवाद !
बिना सहारा लिये चमचों का हो नहीं पाता कोई काम।
स्वर्गलोक की बात दूर है,सिफ़ारिश से मिलता नरकधाम ॥
दफ़्तर में जाकरके देखो-बड़े बाबू जी ऊँघ रहे ।
उनके गुर्ग़े हर असामी की जेबों को सूँघ रहे ॥
जो हो रहा सो ठीक हो रहा,
क्योंकि अब भारत आज़ाद ।
जुग–जुग जियो समाजवाद !
(रचनाकाल :29 जून 1974)
Wednesday, October 8, 2008
हम टायर होंगे, रिटायर नहीं
दामोदर दत्त दीक्षित की आदत है कि वह इर्द-गिर्द ताकाझांकी बहुत करते हैं। दरअसल नाक-कान-आंख को हमेशा एक्टिव रखने वाले कथाकार-व्यंग्यकार दामोदर उत्तर प्रदेश में आला अफसरी भी करते हैं। हांलाकि उनका विभाग मिठास भरा है लेकिन उनकी व्यंग्य रचनाएं तीखी होती हैं। उप चीनी आयुक्त के पद पर काम करते हुए भी उनका नियमित लेखन हमेशा गतिमान रहता है। इर्द-गिर्द के लिए उन्होंने ये व्यंग्य भेजा है। पढिए, आनंद लीजिए और जी भर कर टिपियाइए। बेहिचक।
हिंदुस्तानी आदमी बहुरंगी-बहुस्तरीय विशेषताओं वाला प्राणी है। उसकी एक विशेषता यह है कि वह टायर हो जाता है, रिटायर नहीं होना चाहता। वह अजर-अमर कामी होता है और स्वयं को विकल्पहीन मानते हुए उसी दिन रिटायर होना चाहता है जिस दिन महिषवाहन यमराज टांग पकड़ कर कुर्सी से खींचे और भैंसे की पूंछ से बांधकर फिल्मी अंदाज में घसीटते हुए नरक की ओर प्रस्थान करें या क्या जाने उस दिन भी नहीं? शायद सोचता हो कि उसकी भटकती हुई प्रेतात्मा भी छूटे हुए महान दायित्व को संभालने में सक्षम है।
वैसे तो देशवासी बात-बात में मूंछ मरोड़ते रहते है, पर रिटायर होने के मामले में भयंकर कायर होते हैं। इकदम बोदे, इकदम कांचू। वे वन से भले ही न डरें पर वानप्रस्थ से डरते हैं। जैसे कुत्ते के काटने से पागल हुआ व्यक्ति पानी से डरता है, जैसे पुलिस के लोग 'लाइन हाजिर' होने से डरते हैं, जैसे राजनेता चुनावी हार से, जैसे उपदेशक मौनव्रत से और अध्यापक कक्षा से डरता है, वैसे ही हिंदुस्तानी पदधारक रिटायर होने से डरता है। उसके दो-चार झापड़ रसीद कर दो, चार-पांच लाते जड़ दो, मुर्गा बना दो, बस रिटायर न करो। रिटायरमेंट का नाम सुनते ही उल्टी-दस्त होने लगती हैं। सिरदर्द, पेटदर्द मुंहदर्द, दांतदर्द, आंखदर्द, कानदर्द, नाकदर्द सब सताने लगता है। कुछ लोग राजयोग छूटने का नाम सुनते ही राजरोग के शिकार हो जाते हैं। किसी को मधुमेह, किसी को हृदयरोग, किसी का गुर्दा क्षतिग्रस्त तो किसी का यकृत। एक से एक महंगे, मजबूत और टिकाउ राजरोग। किसी को जूड़ीताप हो जाता है तो किसी को दमा, किसी को कब्ज तो किसी को गठिया। किसी को बबासीर हो जाती है, किसी को गुप्तरोग तो किसी को नामर्दी। कुल मिलाकर वे चिकित्सा विज्ञान के अदभुत मॉडल बन जाते हैं। ये तो कहिए अंगविशेष होते नहीं अन्यथा रिटायरमेंटद्रोही जन रजोनिवृत्ति और स्तनकैंसर की भी शिकायत करने लगें।
रिटायरमेंटोलॉजी (सेवानिवृत्ति-विज्ञान) का एक और फंडा भी है। अशुद्ध-अबुद्ध जीवात्मा स्वयं तो रिटायर होना नहीं चाहती, पर दूसरों को समय से या हो सके समयपूर्व रिटायर होते देखना चाहती है। सार्वजनिक स्थानों की बतकहियों, दफ्तरों की कनफुसकियों और ड्राइंगरूमीय चर्चाओं में अक्सर लोग अमुल्य सुझाव देते मिल जाते हैं। 'राजनेताओं के भी रिटायरमेंट की आयुसीमा होनी चाहिए।' मेरा अनुभव है कि ऐसे लोग वे होते हैं जो कभी रिटायर नहीं होना चाहते हैं। वे परसंताप-ग्रंथि से पीडि़त होते हैं। 'ये नामाकूल नेता कभी रिटायर नहीं होते, मरते दम तक जनता की छाती पर मूंग दलते रहते रहते हैं जबकि ये सुअवसर हम नामाकूलों को दिया जाना चाहिए।'
अफसरशाही देश का सबसे निर्लज्ज वर्ग है। ऐसा मैं दावे के साथ कह सकता हूं क्योंकि मैं उसका अविभाज्य अंग हूं। चतुर-चंट अफसर रिटायरमेंट से पहले ही कटोरा लेकर खड़ा हो जाता है-हुजूर, कुछ काम-धंधे का जुगाड़ किया जाए।' यानी कि रिटायरमेंट की वय तक आधिकारिक तौर पर जोंक बनकर खून चूसते रहे, पर पेट नहीं भरा। तन शिथिल, मन उससे भी शिथिल, पर रिटायरमेंट के लिए तैयार नहीं। ऐसे लोगों के लिए भर्तृहरि बहुत पहले कह गए हैं-
अंग गलितं पलितं मुण्डं, दशनविहीनं जातं तुण्डम्।
वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मंचत्याशा पिण्डम्।।
हमारे अफसर भी आशा का पिण्ड नहीं छोड़ते। 'माइटी-हाइटी-फाइटी' अफसरों के लिए विभिन्न आयोग, निगम, संस्थाएं आदि चारागाह के रूप में उपलब्ध है। हाल ये है कि घोड़ा न हो तो गधे की ही सवारी दे दो, सिर पर चौराहा बना दो, तब भी चलेगा। अफसर में जरा भी गैरत बची हो, तो उसे सेवाविस्तार, पुनर्नियुक्ति या दैनिक वेतनभोगी के रूप में मिलने वाले प्रस्ताव से इंकार कर देना चाहिए। पर अफसरों के पास सब कुछ होता है, बस गैरत नहीं होती। आप चारों तरफ नजर दोड़ाइए, एक से एक सेवानिवृत्त अफसर निर्लज्जता के साथ, राजा ययाति की मुद्रा में कुर्सी से चिपके बैठे हैं, तन-मन से मजबूत योग्य जनों का अधिकार हड़पते हुए। सच ही, बेशर्ममेव जयते।
खेल का भी खेल कुछ कम नहीं। दुनिया जानती है कि आउटडोर खेलों या शारीरिक शक्ति वाले खेलों की प्रतिस्पर्धापरक आयु लगभग पंद्रह से बत्तीस बर्ष तक होती है। अद्वितीय क्षमतावान खिलाड़ी हो तो एक-दो साल और खींच ले जाएगा। बस़......। पर हमारे हिंदुस्तानी खिलाड़ी इस तथ्य से अपरिचित हैं, अपरिचित ही रहना चाहते हैं। अन्य देशों में क्षमता के ह्रास होते ही खिलाड़ी सम्मानजनक ढंग से स्वयं रिटायर होने की घोषणा कर देता है। पर अपने देश में जब तक खिलाड़ी की पीठ से चार इंच नीचे, चार लातें मारकर 'जा फूट, बहुत हुआ' कहने का पवित्र मंत्रोच्चारण नहीं होता, तब तक वह रिटायर नहीं होता। यानी खिलाड़ी रिटायरमेंट से पूर्व चार लातें खाना अपना अनिवार्य धर्म समझते हैं।
एक समस्या और भी। यहां अगर खिलाड़ी रिटायर होना चाहे, तो उसके फेन रिटायर नहीं होने देते। अगर 'टेनिस एल्बो' के कारण किसी क्रिकेटर का हाथ उठने से इंकार करता है और वह बार-बार बोल्ड होने की उदारता दिखाता है तो उसके समर्थक कहते हैं, ‘कोई बात नहीं। ससुरे लंदन के डाक्टर कब काम आएंगे। वे हमारे खिलाड़ी की महान ‘टेनिस एल्बो’ को महान ‘क्रिकेट एल्बो’ बना देंगे।‘ पर ऐसा हो नहीं पाता। हमारे महान खिलाड़ी और उससे भी ज्यादा महान उनके समर्थकों को यह नहीं पता कि उम्र का तकाज़ा होता है और एक निश्चित उम्र के बाद एक नहीं, एक सौ एक ऑपरेशन करा डालो, पर पहले जैसी बात नहीं आ सकती। ऐसे में खिलाड़ी देश के प्रति ही नहीं, अपने प्रति भी अन्याय करता है। कमर में पीरें उठने लगती हैं, गठिया ने घुटने का जकड़ लिया है। ऐसी स्थिति में गेंद आपकी हाकी स्टिक का नमस्ते स्वीकार करने से रहा। स्पान्डलाइटिस हो जाने पर, टेबलेट खाकर ‘हेडर’ मारेंगे, तो फुटबाल कितनी दूर जाएगा, इसका अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है। फास्ट बालर के कंधे में अंदरूनी चोट है, तो उसकी बालिंग की गति कितनी होगी और बाल किस दिशा में जाएगा, समझा जा सकता है। पर हमारे तथाकथित खिलाड़ीप्रेमी सुनने-समझने को तैयार नहीं होते। अंधभक्ति और व्यक्तिपूजा हावी रहती है और वे घायल-चोटिल-अस्वस्थ-कमजोर हो चुके खिलाडियों की पैरवी करते रहते हैं। गालिब याद आते हैं-
गो हाथ में जुबिंश नही, आंखों में तो दम है,
रहने दो अभी सागर-ओ-मीना मेरे आगे।
कुल मिलाकर हम अ-रिटायरमेंट माहौल में घिसट रहें हैं। लोग इतने कायर हो चुके हैं कि घिसे टायर बनने को तैयार हैं, पर रिटायर होने को नहीं। पर घिसा हुआ टायर तो घिसा हुआ होता है। एक दिन अचानक फटेगा, तो बस में सवार यात्रियों को भी दुर्घटनाग्रस्त कर देगा, ‘हम तो डूबेंगे सनम, तुमको भी ले डूबेंगे।‘ इसलिए प्यारे देशवासियो, आदरणीय रिटायरणीयों को अशांति से रिटायर होने दो, उन्हें टायर होने से बचाओ। इसी में देश का भला है और जिसमें देश का भला है, उसमें सबका भला है।
दारा रहा न रहा सिकंदर-सा बादशाह,
तख्त-ए-ज़मीं पे सैंकड़ों आए, चले गए।
Sunday, October 5, 2008
कहां तक जाएंगे हम
कर्फ्यू, गोलियां बम
कहां तक जाएंगे हम
आंचल में खून मां के
अश्कों से आंख है नम
कहां तक पाएंगे गम
कहां तक जाएंगे हम
कर्फ्यू गोलियां बम
कहां तक जाएंगे हम
ये किताबें, ये धर्मस्थल
सब हो रहें हैं मक़त़ल
लिखें आदमी की किस्मत
कानून और राइफल
सबकी निगाह में दौलत
और बारूद पे कदम
कर्फ्यू गोलियां बम
कहां तक जाएंगे हम
खेतों और खलिहानों में
सुरक्षा नहीं मकानों में
देश कहां है, पता नहीं
सब कुछ बंद बयानों में
रोजी रोटी सुख और गम
राजा रानी आप और हम
कर्फ्यू गोलियां बम
कहां तक जाएंगे हम
Thursday, October 2, 2008
बटला हाउस के बहाने उठे कुछ सवाल
दिल्ली में हुए धमाकों और उसके बाद बटला हाउस में हुई मुठभेड़ के बाद लगातार सवाल उठ रहे हैं। इस तरह के सवाल देश में शायद ही कभी इतने बड़े पैमाने पर उठे हों। आखिर क्यों उठ रहें हैं सवाल? क्या लोकतंत्र में सवाल उठाना भी गुनाह है? क्या कुछ लोग एक अलग तरह का आतंक फैलाकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी छीन लेना चाहते हैं? अगर सवाल उठ रहें हैं तो हमें जबाव भी खोजने होंगे। अगर बहस हो रहीं हैं तो ये इस बात का सुबूत है कि हम एक आजाद मुल्क में सांस ले रहें हैं। लोकतंत्र की जड़ें अभी दीमक से बची हुई हैं। मेरी पिछली पोस्ट बटला हाउस के बहाने में मैने अपने विचार रखे थे। कुछ मुद्दे उठाए थे। मुझे खुशी है कि साथियों ने रियेक्ट किया। तर्कों के साथ। निहायत ही सौम्य तरीके से। लेकिन मैने चिट्ठाजगत में देखा कि शाब्दिक हिंसा की होड़ लगी है। मैं शुक्रगुजार हूं आपका कि आपने न मुझे संघी कहा और न सिमी का एजेंट। लेकिन यदि आप कह भी देते तो क्या मुद्दे नेपथ्य में चले जाते। सवाल उठना बंद हो जाते। सवालों से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता।
Ratan Singh ने अफसोस जताया कि हमारे यहाँ कुछ ऐसे नेता और लोग है जो ख़बरों में बने रहने के लिए उलजलूल बयानबाजी करते रहतें है। मिहिरभोज का गुस्सा कुछ यूं था-‘हर मुसलमान आतंकवादी होता है ,देशद्रोही होता है ये साबित करने मैं लगे है ऐसे लोग....आतंकवादी का कोई धर्म नहीं होता है मित्र ....पर जब जब किसी आतंकवादी का बाल भी बांका होता है तो ये मीडिया वाले ये मानवाधिकार वादी उसे आतंकवादी न कहकर मुसलमान कहने लगते हैं....मुसलमान हो या हिंदू हर देशभक्त नागरिक इस देश मैं बराबर हक और कर्तव्य का निर्वाह कर रहै हैं और करना चाहते हैं। ओमकार चौधरी के विचार थे कि आतंकवाद विश्वव्यापी समस्या बन चुका है लेकिन लगता है कि अभी दुनिया के बहुत से देश इस महादैत्य से निपटने के लिए मानसिक और रननीतिक तौर पर तैयार ही नहीं हुए हैं. भारत भी उनमे से एक है. भारतीय नेताओं, मानवाधिकारवादियों, मीडिया और आम जन को ये सीखना होगा कि इस से कैसे निपटना है. राज भाटिय़ा और सचिन मिश्रा ने अच्छा लेख और धन्यवाद देकर रस्मअदायगी की। लेकिन गुफरान ( gufran) की प्रतिक्रिया जरा गौर से पढिए- जोशी जी आप ने जो लिखा वो हर नज़रिए से तारीफ के काबिल है ! लेकिन क्या ऐसा इससे पहले भी कभी हुवा है इस तरह से क्या कभ और किसी ने ऊँगली उठाई है ! क्या इससे पहले मुडभेड नहीं हुई हो सकता है की उसपर ऊँगली उठी हो पर ऐसा आरोप आज तक नहीं लगा! वैसे क्या मुसलमान को टारगेट करने से पहले मीडिया या नेताओं को ये नहीं सोचना चाहिए की अभी कानपूर में जो हुवा वो क्या था किस संगठन के लोग थे और बम क्यूँ बना रहे थे आखिर इससे फायदा किसको है! मै आपके लेख के लिए आपको धन्यवाद् देता हूँ ! लेकिन मीडिया और आज की राजनीती पर भी कुछ बेबाक राय दीजिये......!आपका हिन्दुस्तानी भाई गुफरान (ghufran.j@gmail.com)मेरा मानना है कि गुफरान की सोच को हवा में नहीं उड़ाया जा सकता। हो सकता है कि कुछ लोग गुफरान को मुसलमान/पाकिस्तानपरस्त या आतंकी सोच वाला व्यक्ति मानकर मुद्दे को भटकाने की कोशिश करें लेकिन गुफरान आज जो पूछ रहा है वह इस देश के कम से कम अठारह करोड़ नागरिकों का सवाल है। गुफरान का सीधा सवाल है कि आखिर इससे फायदा किसको है। गुफरान के मन में मीडिया और वर्तमान दौर की राजनीति को लेकर भी पीड़ा है। मैं गुफरान को नहीं जानता लेकिन गुफरान के मन में जो सोच पल रही है उससे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। दरअसल कुछ ऐसी ताकते हैं जिनकी राजनीतिक रोटियां तभी सिकती हैं जब मुसलमान और हिंदू एक दूसरे को देखते ही अपनी-अपनी आसतीनें चढ़ा लें। यही ताकतें न केवल धर्म और जाति के आधार पर हमें बांट रहीं हैं बल्कि ऐसा बीज बो रहीं हैं जो जिन्ना से भी ज्यादा खतरनाक है। मैं फिर कहता हूं कि गोली का जबाव फूलों से नहीं दिया जा सकता लेकिन आप उस पुलिस को छुट्टा कैसे छोड़ सकते हैं जिसके आचार-व्यवहार से औसत आदमी थाने में शिकायत लेकर जाने से भी डरता है। जो दबंगों की शह पर या रिश्वत लेकर किसी को भी अपराधी बना देती दरअसल हमारे दो चेहरे हैं। जब हम परेशानी में होते हैं तो हमारा सोच कुछ और होता है और जब दूसरा परेशानी में होता है तो हम धर्म देखते हैं। जाति देखते हैं। सामने वाले की औकात को देखकर व्यवहार करते हैं। बिल्कुल उसी तरह जैसे हम अपने घर आने वाले मेहमान की अहमियत देखकर ही आवभगत करते हैं।आज समाज के हर वर्ग में गिरावट है। मीडिया भी उससे अछूता नहीं है लेकिन फिर भी मीडिया के खाते में अच्छे कामों की फेहरिस्त बहुत लंबी है। लेकिन एक फैशन है कि मीडिया को गाली दो। अगर मीडिया आपका माउथ आर्गन नहीं बनता तो आप उसे कोसने लगते हो। अगर वह बटला हाउस की घटना पर सवाल उठाता है तो आप उसे कोसने लगते हो। डॉ .अनुराग का मैं दिल से मुरीद हूं। बहुत सेंटी ब्लागर हैं। बहुत भावुक हैं और बहुत सारे चिंतकों से बेहतर सोच के साथ लिखते हैं। अभी उनकी पोस्ट थी एफआईआर। पुलिस थाने और गिरते मूल्यों का सटीक चित्रण किया था डाक्टर साहब ने। डाक्टर साहब ने अपना अमूल्य समय निकाल कर मेरा चिट्ठा पढ़ा और तर्कसंगत प्रतिक्रिया दी- ‘एक तरीका तो ये था की मै आपका लेख पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त किए बिना समझदारी भरी चुप्पी ओड लूँ ताकि मुझे कल को किसी विवाद में न पड़ना पड़े ...पर मन खिन्न हो जाता है कई बार .....
शुक्र है आप छदम धर्म-निरपेक्ष का रूप धारण करके कागजो में नही आये ,हमारे देश को एक स्वस्थ बहस ओर आत्म चिंतन की जरुरत है ,बाटला हाउस की मुठभेड़ ओर मुसलमानों को सताया जाना ?इन दोनों का क्या सम्बन्ध है मुझे समझ नही आता है .इस देश में राज ठाकरे अगर कुछ कहते है तो देश की ८० प्रतिशत जनता उनका विरोध करती है ,तोगडिया ओर दूसरे हिंदू कट्टरपंथी के समर्थक गिने चुने लोग है ,उनके विरोध में हजारो लोग खड़े हो उठते है ...ऐसी ही अपेक्षा मुस्लिम बुद्धिजीवियों से होती है पर वे अक्सर चुप्पी ओडे रहते है .क्या किसी घायल इंसपेक्टर को पहले अपने घाव मीडिया को दिखाने होगे इलाज में जाने से पहले ?क्या अब किसी इंसान को पकड़ने से पहले उसके घरवालो ,मोहल्लेवालो ओर पूछना पड़ेगा ?क्या आतंकवाद हमारे देश की समस्या नही है ?पर सच कहूँ मीडिया भी अपनी जिम्मेदारी नही समझ रहा है ?इस सवेदनशील मुद्दे पर जहाँ किसी भी ख़बर को दिखाने से ..उनकी पुष्टि की जरुरत है ?कही न कही उसे भी बाईट का लालच छोड़ना होगा ......कोई भी ख़बर ,कोई भी धर्म इस देश से ऊपर नही है...’डाक्टर साहब जहां आप जैसे प्रतिष्ठित व्यक्ति को ऍफ़ .आई .आर जैसी पोस्ट लिखनी पड़ती हो वहां पुलिस पर सवाल तो उठेंगे ही। मैं फिर कहता हूं कि जब बटला हाउस के अंदर बैठे बदमाश या आतंकी गोलियां चलाएंगे तो उसका जबाव फूलों से नहीं दिया जा सकता। लेकिन अगर मीडिया ये सवाल उठाता है कि तीन दिन से उस फ्लैट पर पुलिस की निगाहें गढ़ी हुईं थीं। उनके मोबाइल सर्विलांस पर थे तब पुलिस ये अंदाजा क्यों नहीं लगा पाई कि अंदर बैठे आतंकवादी कितने हथियारों से लैस होंगे। जिन लोगों पर देश के कई हिस्सों में ब्लास्ट करने का आरोप है वह भजन-कीर्तन तो करने से रहे। क्यों हमारे बहादुर इंस्पेक्टर ने बुलेट प्रूफ जैकेट पहनने में लापरवाही की ? ऐसे सवाल तो उठेंगे ही और इनसे मुंह मोड़ना एक दूसरे खतरे को खड़ा करेगा। डाक्टर साहब मेरी आपसे गुजारिश है कि अगर मेरी कोई बात गलत लगे तो कहिएगा जरूर क्योंकि तार्किक मंथन से ही अमृत निकलेगा। मैं फिर कहता हूं कि बहुत सारे मामलों में मीडिया की भूमिका अच्छी नहीं रही लेकिन बहूतायत में मीडिया ने अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाई है। बटला के बहाने रौशन जी ने भी इर्द-गिर्द पर शिरकत की है। वह कहते हैं कि ‘अगर किसी सिलसिले में पुलिस किसी को गिरफ्तार करे तो उसका विरोध करने की जगह सच्चाई खोजने की कोशिश की चाहिए जरूरी नही है की जो पकड़े गए हैं सभी दोषी हों और यह भी जरूरी नही है की सभी निर्दोष ही हों। हम नागरिक समाज के लोगो को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि किसी के साथ अन्याय न हो न्याय सबसे बड़ा मरहम होता है और न्याय ऐसा हो जिसके निष्पक्ष होने में किसी को संदेह न होने पाये।कोई मुठभेड़ होते ही उसे सही या गलत ठहराने कि परम्परा बंद होनी चाहिए और किसी के पकड़े जाने पर उसको दोषी या निर्दोष बनाया जाना बंद किया जाना चाहिए। कानून की प्रक्रियाओं का निष्पक्ष पालन जरुरी है।……॥और अंत में मैं उस अनामी की टिप्पढ़ीं को जस का तस प्रस्तुत कर रहा हूं। इस आशय के साथ कि आप इसे एक पोस्ट समझकर चर्चा को आगे बढ़ाएं। वैसे मैं इन अनामी भाई के बारे में आपको इतना बताना चाहूंगा कि ये मेरे अजीज हैं। देश के सबसे बड़े चैनल में विशेष संवाददाता हैं। इनकी गिनती उन चंद मूल्यवान पत्रकारों में हैं जिन्होंने न कभी समझौता किया और न किसी दबाव में आए। कई सत्ताधारी माफियाओं और दबंगों की असलियत उजागर कर चुके मेरे इस भाई की प्रतिक्रिया पढ़कर आप चर्चा को आगे बढ़ाएं।Anonymous हरि भाई, मैं आपकी बातों से कई बार असहमत होता हूं। लेकिन अपनी बात रखना चाहता हूं। पहली बात कि हमें बहस करने पर कभी शर्म नहीं करनी चाहिये। यदि सवालों की हद तय होने लगेगी और बहस करने में शर्म आने लगेंगी तो हरि भाई जल्द ही आप को खुद का नाम बताने के लिये किसी की मुहर चाहिये होगी। साथ ही हरि भाई क्या आपको लगता है कि पुलिस अधिकारी माला ही पहनने वहां गया था। यदि उनका अधिकारी रेकी कर चुका था और पिछले चार दिनों से वो आतिफ के फोन और मूवमेंट को ट्रेक कर रहे थे तो फिर क्या वो माला ही पहनने उस जीने से से चौथी मंजिल चढ़ रहे थे जिससे एक वक्त में एक ही आदमी बाहर आता है। मैं एक बात से मुतमईन हूं कि आप भी बटला हाऊस के एल 18 में नहीं घुसे होंगे लेकिन आप उन आदमियों की निंदा मुक्त हस्त से कर रहे है जो वहां रिपोर्ट कर आ चुके है। क्या आपकों लगता है कि सवाल खड़े करने वाले पत्रकारों का कोई रिश्ता लश्कर ए तोईबा या फिर इंडियन मुजाहिदीन से है। जिस बहस में जिस बात की आप को सबसे ज्यादा चिंता है उसी के ऐवज में ये सवाल किये जा रहे है। क्या आपने एक भी बाईट किसी पुलिस अधिकारी की ऐसी सुनी है जो ये कह रहा हो कि मोहन चंद शर्मा ने अपनी पहचान छुपाने के लिये ही बुलेटप्रूफ जैकेट नहीं पहनी थी। या फिर पैतींस किलों की जैकेट पहनना मुश्किल था इसीलिये उसने जैकेट नहीं पहनी। जैकेट उनका पीएसओ लिये गाड़ी में था। लेकिन जिस इंसपेक्टर ने पैतीस से ज्यादा एनकाउंटर किये हो उस अधिकारी को चार दिन की सर्विलांस के बाद भी ये अंदाज नहीं हुआ कि वहां आतंकवादी मय हथियार हो सकते है।एक बात और हरि भाई जब आप पर जिम्मेदारी बड़ी होती है तो सवाल भी आप से ही किये जाते है। मैंने आज तक एक भी न्यूज एडीटर ऐसा नहीं देखा जो ब्रेकिंग न्यूज में पिछडने पर चपरासी को गरियाता हो। सवाल तो और भी हरि भाई दुनिया में लापरवाही के लिये जो भी सजा हो हमारे लिये मैडल है। मैं जानता हूं कि मैंने कभी चलती हुयी गोलियों के बीच पीस टू कैमरा नहीं किया है। मैंने कभी किसी फायरिंग के बीच किसी की जान नहीं बचायी है लेकिन मेरे भाई मैंने अपने माईक पर कभी अपने ड्राईवर से लाईव नहीं कराया। देश में इतने गहरे होते जा रहे डिवीजन पर आप के तीखे सवाल ज्यादा उन लोगों को चुभ रहे है जो झूठ के लिये ज्यादा लड़ते है और सच का आवरण खड़ा किये रहते है। मैं एक बात जानता हूं कि इस देश में करप्ट नेता चलेगा करप्ट ब्यूरोक्रेट चलेंगे लेकिन एक बात साफ है कि करप्ट या दिशाहीन पत्रकार देश को डूबो देंगे। आप सवाल खड़े करने में हिचक रहे है लेकिन आप ही लिख रहे है कि देश में नियानवे फीसदी एनकाउंटर फर्जी होते है क्या इस बात का मतलब है मैं नहीं समझा। क्या आप अपने स्टाफ को तो छोडिये उस करीबी दोस्त के सौवें वादे पर आंख मूंद कर ऐतबार करते है जिसने निन्यानवे बार झूठ बोला हो। मैं एक कहावत लिख रहा हूं आपके ही इलाके में बोली जाती है ...मरे हुये बाबा की बड़ी-बड़ी आंख भले ही बाबा अंधा क्यों न हो। एक बात जान लीजिये हरि भाई जमीन गर्म है अगर उसका मिजाज नहीं भांप पाये तो बेटे के सामने पछताना पडेगा। आपका छोटा भाई.......डीपी मैं उन सभी साथियों का आभारी हूं जिन्होंने इर्द-गिर्द पर आकर विचारों को पढ़ा। चर्चा की। हमारे विचारों से सहमति या असहमति जताई लेकिन मेरी गुजारिश है कि ये कारवां, ये तार्किक मंथन जारी रहना चाहिए। शायद किसी बिंदु पर जाकर हम सभी की सहमति बने। कोई रास्ता निकले। इसलिए अपने दिल की बात को दबाईए नहीं। खुल कर विचार प्रकट कीजिए। एक बार फिर मैं सभी से क्षमायाचना करता हूं। शायद जाने-अनजाने मुझसे कुछ गुस्ताखी हो गई हो।
Monday, September 29, 2008
बटला हाउस के बहाने
हर बार चंद चेहरे आतंकी वारदात के बाद चमकते हुए दिखाई देते हैं तो कुछ चेहरे किसी मुठभेड़ के बाद मानव अधिकारों का अलाप या रूदन करते दिखाई देते हैं। हकीकत में ये दिल से कुछ नहीं करते बल्कि ये इनका एक तरह का रोजगार है। शगल है। चमकने की आकांक्षा है। ये कोई नहीं सोचता कि हम अपने मुल्क के पढ़े-लिखे नौजवानों को भटकने से कैसे रोकें। क्यों ये हथियार उठा रहें हैं। कौन लोग मदारी है जिनके हाथों में ये नौजवान कठपुतलियां बने नाच रहे हैं। सृजन के लिए बने हाथ विध्वंस की तरफ कैसे मुड़ रहे हैं। ऐसी हमारे सिस्टम में क्या खामी है जो इन्हें पनपने से रोक नहीं पाती।
दरअसल ये सिर्फ हमारे यहां नहीं है बल्कि पूरी दूनिया ही इस वक्त आतंकवाद के महादैत्य से जूझ रही है। वह मुल्क भी अब इसकी तपिश से झुलस रहें हैं जहां आतकंवाद की पौध तैय्यार हूई। उन महाशक्तियों ने भी इस आग में अपने को झुलसाया है जिन्होंने आतंकवाद को अपने हितों के लिए पाला-पोसा। कौन नहीं जानता है कि लादेन को जिसने पाला उसी को लादेन ने अपना सबसे बड़ा निशाना बनाया। अपने हितों के लिए जिन मुल्कों ने आतंकवाद की नर्सरी खोली उसी को शिकार बनना पड़ा। लिट्टे भी उन्हीं में से एक है। आज अगर दिल्ली धमाकों से झुलस रही है तो इस्लामाबाद भी लपटों के आगोश में आने से नहीं बच पा रहा। लेकिन हमारा दुर्भाग्य ये है कि हम छोटे-छोटे स्वार्थों से ऊपर उठकर नहीं देख पा रहे हैं।
हमें शर्म आनी चाहिए। हम बहस कर रहें हैं कि बटला हाउस में इंस्पेक्टर को गोली दिल्ली पुलिस के ही किसी कर्मी ने मारी। गोली कमर में लगी। अंदर से गोली नहीं चली। पुलिस ने आतंक बरपा दिया बटला हाउस में। मैं मानता हूं कि पुलिस की निनायनवे प्रतिशत मुठभेड़ की कहानियां फर्जी होती हैं। लेकिन क्या ये संभव है कि पुलिस के वहां पंहुचते ही बटला हाउस के उस कमरे से गोलियां नहीं चलीं बल्कि फूल बरसे होंगे। और ऐसे मौके पर गोली का जबाव सिर्फ और सिर्फ गोली ही होता है। ये किस किताब में लिखा है कि कोई छात्र या कोई वकील, डाक्टर या इंजीनियर आतंकवादी नहीं हो सकता।
सोचिए। ये सब करके हम क्या वही नहीं कर रहे जो अलगाववादी चाहते हैं। आतंकवादियों के मंसूबे यही तो हैं कि हम धर्म के नाम पर बंट जाएं। विखंडित हो जाएं। कबीलाई युग की तरफ मोड़ने का ये मंसूबा क्या हम जाने-अनजाने वोटों की राजनीति के लिए परवान नहीं चढ़ा रहे हैं। ये सही है कि अपराधियों को सजा देने का काम कानून का है। अदालतों का है। लेकिन ये भी सही है कि हम आज तक संसद पर हमला करने वालों को भी सजा नहीं दे पाए हैं। चर्चा में मेरे बहुत से मित्र कहते हैं कि पुलिस बदमाशों को निहत्था पकड़ने के बाद मारती है और अपनी बहादुरी दिखाने के लिए मुठभेड़ की फर्जी कहानी गढ़ती है। ये सही है कि पुलिस को मुठभेड़ के नाम पर फर्जी एनकाउंटर की छूट नहीं होनी चाहिए लेकिन क्या ये छूट होनी चाहिए कि कोई भी हमारे एक शहीद इंस्पेक्टर के कर्म पर उंगलियां उठाए। ये कहे कि बटला हाउस के उस फ्लेट में भजन-कीर्तन चल रहा था और पुलिस धमाके कर रही थी और अपनी बात जायज करार देने के लिए ही इंस्पेक्टर को दिल्ली पुलिस ने ही गोली मारी। अगर बटला हाउस में पुलिस चैकिंग करे या किसी संदिग्ध की तलाशी ले तो इसमें हाय-तौबा क्यों हो रही है। ये देश भर में तमाम जगहों पर होता है। आखिर इससे किसको फायदा हो रहा है।
हमें सोचना होगा कि क्या वोटों की राजनीति के साथ क्या आतंकवाद से लड़ा जा सकता है।
Friday, September 26, 2008
'औरतें रोती नहीं' की आखिरी किश्त
पिछली कड़ी में आपने पढ़ा-
गांव से रिश्तेदार के आते ही कमल नयन शोभा को श्याम के पास छोड़ चला जाता है। शोभा को अहसास हो जाता है कमल नयन अब वापस नहीं आएंगे। बेखुदी में श्याम चल देते हैं जंगल की तरफ, वहां उनकी मुलाकात होती है नक्सली युवाओं से, जो एमरजेंसी में जान बचा कर इस तरह भाग आए हैं। श्याम उन्हें अपने संग ले आते हैं। युवकों का रवैया शोभा के साथ ठीक नहीं। जब श्याम को पता चलता है कि शोभा खुद उनके सामने अपना जिस्म परोस रही है, वे वहां से भाग जाते हैं। आगे की कहानी:
शोभा से इसके बाद उनकी कोई बात नहीं हुई। अगले दिन भी वे इसी तरह बस चाय भर पी कर दफ्तर चले गए। ऊब और अशांत दिन। शाम तक वे झल्ला पड़े खुद पर कि क्या मुसीबत मोल लिया?
घर लौटना ही था। ऊपर से सब शांत लगा। पांच लडक़ों में से दो ही घर पर थे प्रवीर और विनोद। शोभा भी गायब थी। देर से लौटी चौकड़ी। एकदम बदले हुए हालात। शोभा हंस रही थी सबके साथ। ठिठोली हो रही थी। हंसी-ठठ्ठा। अचानक मजाक-मजाक में एक ने शोभा का आंचल ही पकड़ लिया। पल्लू खुल कर जमीं पर गिर गया। अपनी देह ढकने के बजाय शोभा जमीन पर बैठ कर हंसने लगी। श्याम से रहा ना गया। दिन दिन में यह क्या हो गया? इतनी बेहयाई? उनकी आंखों के सामने? अचानक वे फट पड़े,'क्या हो रहा है? क्या समझ के रखा है तुम लोगों ने? क्या है ये चकला खाना?'
शोभा एकदम से चुप हो कर अंदर चली गई। सन्नाटा। प्रवीर ने उनके पास आ कर कंधे पर हाथ रख कर कहा,'बड़े दिनों बाद लडक़ों का मूड सही हुआ है। रहने दीजिए।'
श्याम को एकदम से गुस्सा आ गया,'क्यों रहने दूं भई? क्या लगती है वो तुम्हारी, किस हक से छेड़ रहे हो उसे?'
प्रवीर की आवाज पत्थर की तरह कठोर हो गई,'यूं तो सर, वह किसी की कुछ नहीं लगती। और लगने को सबकी लगती है। आप क्यों इतना परेशान हो रहे हैं? उनसे बियाह आपकेमित्र ने किया है, आपने तो नहीं। फिर एक बात बता देते हैं, वे छिड़वाना चाहती हैं, तभी ना... '
एकदम से श्याम चक्कर खा गए। तो क्या सबको पता चल गया कि शोभा की असलीयत क्या है?
वे दनदनाते हुए रसोई में गए। शोभा जमीन पर बैठी स्टोव जलाने की कोशिश कर रही थी। श्याम को देखते ही उसने अपने अस्तव्यस्त कपड़े ठीक करने की कोशिश की। श्याम को ना जाने क्या हुआ, उसका स्टोव जलाने को उठा हाथ पकड़ कर मरोड़ दिया। शोभा कराह उठी। श्याम उग्र हो गए,'दिखा दी ना अपनी जात? एक दिन भी सब्र नहीं हुआ? धंधा करना है तो यहां क्यों बैठी है? लौट कर चली क्यों नहीं जाती?'
शोभा की आंखों में दर्द से आंसू छलक आए थे। पर अपनी आवाज को धीमी रख कर बोली,'क्यों...आप करवाना चाहते हो क्या? सबने करवा लिया, अब आप भी करवा लो श्याम जी। अपनी मरदानगी हमारा हाथ मोड़ कर ही दिखाना चाहते हो क्या?'
श्याम हक्केबक्के रह गए। शोभा ने उसी तरह धीमी आवाज में कहा,'आप हमारे बारे में जानते ही क्या हो? यही ना कि हम शरीर बेचते हैं। आज इन लडक़ों से जरा हंसी क्या कर ली, सोचा इन्हीं को बेच रही हूं अपना शरीर। है ना? सच बताएं साहब... हमको आप जैसे लोगों की तरह दो बातें करनी नहीं आती। एक ही चेहरा है हमारा। हमें बताने की जरूरत ही नहीं पड़ी। इन लडक़ों को आप ही पता था कि हम क्या हैं? वे तो आपको भी दल्ला ही समझ रहे हैं। पूछ भी रहे थे कि रेट आप तय करेंगे कि हम खुद ही...हमें बताओ हमारा क्या होगा अब? शादी करके भी कौन सा सुख देख लिया? अपने खाने-पीने के एवज में रोज ही तो शरीर देते थे उन्हें। बस उससे ज्यादा क्या रिश्ता था हमारा साहिब जी से?'
कहते-कहते हांफने लगी शोभा। फिर खुद ही चुप हो गई। श्याम सिर झुकाए बैठे रहे, जमीन पर। चेहरा पसीने से तरबतर। शोभा ने अपना हाथ उनकेहाथ पर रखा,'हमारी वजह से शर्मिंदा मत होओ। हम आपके घर के बहू-बेटियों की तरह नहीं है। हम बचपन से मरदों के बीच जीते आए। डर नहीं लगता हमें। हमसे क्या छीन लेंगे? हमें बंध कर जीना नहीं आता साहिबजी। बंधे तो लगा सांस ही रुक गई है। अब जीने के लिए कुछ तो करना पड़ेगा ना... हमने इन छोकरों से दो सौ रुपए लिए हैं। आप कहें तो आधे आपको दे दिए देते हैं। घर तो आपही का है ना...'
श्याम के अंदर उबाल सा आ गया। लगा शाम का खाया-पिया उलट देंगे। किसी तरह अपने को समेट कर उठे और बाहर चले आए। तीन दीवारों वाले कमरे का एक हिस्सा भी उनका जाना पहचाना नहीं लग रहा था। अनजाने से पांच युवक। अपनी धुन में खोए। वे घर से बाहर निकल आए। सीधे कदम स्टेशन की तरफ बढ़े। वहीं प्लेटफॉर्म पर बैठ कर उन्होंने खूब उलटी की और पस्त हो कर सीमेंट की बेंच में लेट गए।
घंटे भर बाद होश आया, तो जेब टटोल कर देखा। पर्स था। अठन्नी निकाल कर स्टेशन की चाय पी और दो खारी खाई। इस स्टेशन से हो कर तीन ट्रेन गुजरती थीं। सुबह छह बजे की एक्सप्रेस दिल्ली जाती थी। दस बजे पेसेंजर दिल्ली होते हुए जम्मू तक जाती थी और रात ग्यारह बजे की ट्रेन झांसी। बीच-बीच में मालगाडिय़ां आती-जाती रहती थीं।
दस बजे तक श्याम प्लेट फॉर्म पर ही बैठे रहे। ट्रेन वक्त पर आई। देखते-देखते उनके आसपास शोरगुल सा भर गया। एक अजीब सी चिरपरिचित गंध। खाने-पीने, पसीने, शौच और कोयले की गंध। श्याम उठे और बड़े आत्मविश्वास के साथ पग रखते हुए ट्रेन के अंदर बैठ गए। छुट्टियों के दिन अभी शुरू नहीं हुए थे। ट्रेन में काफी जगह थी। खिडक़ी के पास खाली जगह देख, वे वहीं बैठ गए। रास्ते में टिकट चैकर को पैसे दे कर टिकट बनवा लिया और अगले दिन आनन-फानन दिल्ली लौट आए।
श्याम लौट आए दिल्ली। दिमाग में तमाम प्रश्न लिए। शोभा ने क्या किया होगा? एक तरह से वे भाग ही तो आए? किसी को कुछ बताया भी नहीं। बैंक में लिख भेजा कि उन्हें पीलिया हो गया है। संयोग ऐसा हुआ कि दिल्ली पहुंचते ही उन्हें पता चला कि उनका ट्रांसफर दिल्ली से सटे गाजियाबाद के एक ब्रांच में हो गया है। श्याम ने राहत की सांस ली।
बहुत कुछ था जो छूट गया। कपड़े, किताबें, घर का दूसरा सामान। किराया उन्होंने तीन महीने का एडवांस में दे रखा था। दो महीने का किराया पानी में गया, सो गया। दफ्तर में छूटी उनकी व्यक्तिगत चीजें तो पार्सल से आ ही गईं।
श्याम बहुत बेचैन हो गए। मन करता ही नहीं कि दफ्तर जाएं। घर में भी बहुत अच्छा माहौल नहीं था। रूमा के साथ रहने की आदत छूटी तो वापस निबाहने में दिक्कतें आने लगीं। बच्चे जिद्दी हो गए थे। अनिरुद्घ की शैतानियां उनसे बर्दाश्त ही नहीं होती थी। हमेशा उज्जवला उसका शिकार बनती। अपनी छोटी बहन को मारने-पीटने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ता अनिरुद्घ। ऊपर से इस बार रूमा ने एक नया तमाशा शुरू किया-- उज्जवला को ले कर। बेटी का रंग सांवला था। छोटा कद और घुंघराले बाल। रूमा बाप-बेटी को एक साथ लपेट कर ताने कसती कि बेटी का रंग दादी पर गया है। इस रंग के तो उनकी तरफ के कौए भी नहीं होते। श्याम देख रहे थे कि उज्जवला के अंदर हीन भावना घर करती जा रही है। दुखी, त्रस्त बच्ची। जो अब बोलते में हकलाने लगी थी।
श्याम को लगने लगा, जिंदगी व्यर्थ जा रही है। उस आग का क्या करें, जो कुछ दिनों पहले चलते-फिरते युवकों ने उनके सीने में लगा दिया? यह भी लगता कि वे एक बेसहारा स्त्री को बीच राह छोड़ आए हैं। उनमें इतनी हिम्मत क्यों नहीं थी कि शोभा को एक राह दिखला कर जाते? क्या किया होगा शोभा ने? लगता शोभा केसाथ उन्होंने गलत किया। उस महिला को अपनी कसौटियों पर मापना उनकी भूल थी। जितना सोचते, उतना ही तनाव में आ जाते। क्या वापस लौट जाएं? फिर? कोई रास्ता नजर नहीं आता। फिर खीझ उठते कि वे एक बेमानी विषय पर इतना क्यों वक्त बरबाद कर रहे हैं? उनसे मिलने से पहले भी शोभा जिंदा थी अब भी रहेगी। वह ऐसी स्त्री नहीं, जो पगपग पर पुरुष का सहारा ढूंढ़ती है।
वे जिस माहौल में रहते थे, वहां सीने में आग लगे या तूफान, कोई फर्कनहीं पड़ता था। बस हर समय दाल-रोटी की चिंता में घुलते लोग। स्कूटर, गैस के बाद अब फ्रिज लेने की चिंता। देश दुनिया से बेखबर। आपातकाल है तो है, तुम्हें क्या दिक्कत हो रही है? समय पर बैंक जाओ, ड्यूटी बजाओ। वे कोई और लोग होते हैं जो क्रांति की बात करते हैं। क्रांति करने से पहले अपना पेट भरो, अपने घरवालों की सेहत का ख्याल करो, फिर आगे की सोचना...
श्याम को उन्हीं दिनों गांव जाना पड़ा। रूमा नहीं आई। श्याम के आते ही दो-चार बार के संसर्ग के बाद ही एक बार फिर से वह मां बनने की राह चल पड़ी। इस बार अनिच्छा से। यह कहते हुए कि अच्छा होता जो मैं कल्लो उज्जवला के जनम के बाद ऑपरेशन करवा छोड़ती। एक बेटा हो तो गया है, अब काहे के और बच्चे? परेशान कर डाला है। कौन संभालेगा बच्चों को? मेरे बस का नहीं। श्याम को मजबूरी में एक पूरे वक्त का नौकर रखना पड़ा।
गांव में उनके छोटे चाचा के बेटे ज्ञान की शादी थी। पापा का खास आग्रह था कि श्याम आएं।
श्याम कई दिनों बाद अपने घर जा रहे थे। अजीब सा अहसास था। पापा से उनकी कम पटती थी। हमेशा तनाव सा बना रहता। श्याम ने घर जाना कम कर दिया, तो सबसे ज्यादा नुकसान मां और छोटी बहन सरला को हुआ। मां उनसे भावनात्मक स्तर पर जुड़ी थीं। बल्कि मां केलिए श्याम ने कई लड़ाइयां लड़ी थीं। दादी के आतंक से कई बार मां को बचाया। उनकी फटी पुरानी धोतियों की पोटली बना पापा केसामने रख आते और कहते कि मेरी मां इन कपड़ों में दिखती है, मुझे शर्म आती है, पता नहीं आपको क्यों नहीं आती। जब सरला होनेवाली थी, श्याम अपनी मां को ले कर बहुत भावुक हो जाया करते थे। अपने किशोर बेटे के सामने पेट छिपा कर घूमती मां। श्याम सबसे छिपा कर मां के लिए कभी दोनेवाली चाट ले आते, तो कभी परांठे के ऊपर खूब मलाई और पिसा गुड डाल कर रोल सा बना उनके मुंह में ठूंस देते। श्याम को मां पर नहीं, पिता पर गुस्सा आता। इस उम्र में मां के साथ ये ज्यादती? नसबंदी क्यों नहीं करवा लिया?
मां को दवाखाने वही ले जाते, अपनी साइकिल पर। मां लंबा घूंघट करके निकलती। घर के सामने साइकिल पर बैठते हिचकिचाती। सास देख लेंगी, तो ना जाने क्या कहेंगी? वैसे भी जवान लडक़े के साथ साइकिल पर जाती वे अच्छी थोड़े ही ना लगती हैं? श्याम जिद करते। धूप में मां पैदल जाए? फिर घर का इतना काम कि सुबह से शाम तक सिर उठाने की फुरसत नहीं।
सरला केपैदा होने के बाद मां की तबीयत भी गिरी गिरी रहने लगी। श्याम की कोशिश होती कि घर में कामों में वे उनकी मदद कर दें। लेकिन दादी को बिलकुल पसंद नहीं था कि श्याम भैंस दुहें, चूल्हा फंूकें या बहन को संभालें। श्याम ने कभी परवाह नहीं की। दादी को भी सुना देते कि वे बैठे-बैठे रोग पाल लेंगी, इससे अच्छा है कि अपनी बहू के साथ काम में लग जाएं। दादी पिताजी से शिकायत करती। पिताजी कर्कश आवाज में मां-बेटे को गाली देते। कभी कभार श्याम को इतना तेज गुस्सा आ जाता कि वे पलट कर पिता को सुना दिया करते।
गांव में स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद वे बनारस गए बीए करने। वहीं से कलेक्टर बनने का भूत सवार हुआ तो दिल्ली आ गए कोचिंग लेने। इसी बीच पिताजी और दादी ने शादी का इतना जोर डाला कि श्याम तो करनी ही पड़ी।
इस बार गांव और घर का आलम ही अलग था। घर का हाल बुरा था। मां बूढ़ी लगने लगी थीं। पिताजी के सिर पर सफेद बाल नजर आने लगे थे। श्याम चुपचाप जा कर कामकाज में लग गए। उनके बचपन के सखा और भाई ज्ञान की शादी थी। ज्ञान का मन पढऩे-लिखने में नहीं लगा। सो चाचा ने गांव में ही एक दुकान खुलवा दिया। गाहे बगाहे दुकान पर बैठ लिया करता था। मां के मुंह से ही सुना कि ज्ञानुवा को बहुत सुंदर दुल्हिनया मिली है।
शादी के चार दिन पहले ज्ञान ने श्याम को मन्नू से मिलवाया। बिलकुल साफ रंग की बेहद खूबसूरत छोटी सी खरगोश की तरह लगी मन्नू। उन आंखों में ना जाने क्या था कि श्याम ने आंखें ही चुरा ली।
वह अपनी सहेली के साथ चूडिय़ां खरीदने निकली थी। पहले से तय था कि वह ज्ञान की दुकान पर आएगी। पीले रंग की छींटदार साड़ी में मन्नू आई। श्याम को दया सी आ गई उस पर। जानतेबूझते इसके माबांप ज्ञान के पल्ले क्यों बांध रहे हैं? ज्ञान खिलंदड़ प्रवृत्ति का है। पीना पिलाना, औरतबाजी सारे शौक रखता है। चाची का मानना है कि शादी के बाद ज्ञान सुधर जाएगा।
श्याम को कम उम्मीद थी इस बात की। शादी से एक दिन पहले घटना घट गई। शुरुआत शायद दादी की तरफ से हुई-वे देखना चाहती थीं कि शादी में मन्नू को जो गहने दिए जा रहे हैं वे असली हैं या नकली। ना जाने किस बहाने से वे गहने वहां से निकाल सुनार को दिखा आईं, पर आते ही शोर मचा दिया कि गहनों में पीतल ज्यादा है, सोना कम।
खूब हल्ला हुआ। शादी रोकने तक की नौबत आ गई।
श्याम के पिता घर में सबसे बड़े थे। सुबह-सुबह मन्नू के घर के मर्दों ने आ कर अपनी पगडिय़ां पिताजी केकदमों पर उतार दिए। बेटी का मामला, इज्जत की दुहाई। दादी थीं की टस से मस नहीं हो रही थीं। आखिर तय हुआ कि ऊपर से दस हजार रुपए दिए जाएंगे।
श्याम को बहुत बुरा लग रहा था सबकुछ। वे कुछ कह नहीं पाए। फेरे के वक्त क्षण भर के लिए मन्नू के चेहरे से घूंघट हटा, तो श्याम को उसका आंसुओं से भीगा चेहरा दीख गया। उनके कान में बात पड़ी थी कि कल की घटना के बाद मन्नू शादी के लिए मना कर रही है। पर उसकी सुनता कौन?
श्याम शादी के तीन दिन बाद दिल्ली लौट आए। जाने से एक दिन पहले पिताजी से जम कर झगड़ा हुआ। पिताजी को शिकायत थी कि वे शादी के बाद अपने मां बाप को भूल गए हैं। पढ़ी-लिखी लडक़ी से तो गांव की लडक़ी अच्छी, जो ससुराल की तो हो कर रहे। श्याम तर्क देने के मूड में नहीं थे। पिताजी ने तो यहां तक कह दिया कि वे उन्हें अपना बेटा ही नहीं मानते।
बहुत कुछ हो रहा था उनकी जिंदगी में जो उनकेबस में नहीं था। जी चाहता था कि नौकरी-वौकरी छोड़ कुछ ढंग का काम करें। अपने लिए नहीं, समाज के लिए देश के लिए। लौटे तो दूसरे ही दिन खबर आई कि मन्नू के पिता ने आत्महत्या कर ली है। कर्ज के बोझ तले वे समझ नहीं पाए कि जिंदगी की गाड़ी आगे कैसे बढ़ाना है। गांव की जमीन गिरवी थी, उसे बेच पैसे दिए थे शादी में। मन्नू की मां तो पहले ही गुजर चुकी थीं। शादी के बाद मायका ही नहीं रहा।
साल भर बाद ज्ञान मन्नू को ले कर दिल्ली आया, तो काफी कुछ बदल चुका था। इमर्जेंसी हट चुकी थी। श्याम की दूसरी बेटी अंतरा का जन्म हो चुका था। श्याम ने क्रांति का इरादा मुल्तवी कर दिया था। जिंदगी ढर्रे पर चलने लगी। ऊबाऊ और नीरस सी जिंदगी। एक से सुर। एक से लोग।
ज्ञान के सपत्नीक आने की खबर से रूमा खुश नहीं हुई। कहां ठहराएंगे? देखभाल कौन करेगा? खर्चा कितना होगा जैसे तमाम सवाल। श्याम निरुत्तर थे। लेकिन ज्ञान को कह दिया था कि वो आ जाए।
मन्नू को देखते ही श्याम ने भांप लिया कि वह खुश नहीं है ज्ञान के साथ। सफेद चेहरे पर पीलापन। पहले से दुबला शरीर। आने के बाद ही श्याम को पता चला कि ज्ञान बीमार है। दो महीने से जीभ पर बहुत बड़ा सा छाला हो गया है, जो ठीक होने के बजाय फैलता ही जा रहा है। श्याम उसे ले कर एम्स गए, तो उनसे सीधे कह दिया गया कि जीभ की बायप्सी होनी है। श्याम को आशंका थी, कहीं ये कैंसर तो नहीं?
तो क्या ज्ञान को ले कर मुंबई जाया जाए? टाटा कैंसर अस्पताल से बढिय़ा और कौन सा होगा? दिल्ली में कैंसर के लिए अलग अस्पताल नहीं। बायप्सी का परिणाम आने तक सब तनाव में रहे। श्याम बेहद ज्यादा। क्योंकि रूमा से उन्हें किसी किस्म का सहयोग नहीं मिल रहा था। वह अकसर अपने कमरे में बंद रहती। तर्क देती कि अभी बच्चा हुआ है। वह बीमार आदमी के संग नहीं रहेगी।
श्याम ने बहुत समझाने की कोशिश की। रूमा का व्यवहार कठोर होता जा रहा था। ऑपरेशन की तारीख तय हो गई।
दो दिन पहले रूमा ने जिद की कि वे सप्ताह भर का राशन-पानी-सब्जी वगैरह ला कर रखे। फिर तो उन्हें फुर्सत नहीं मिलेगी। श्याम चलने को हुए, तो उनके साथ मन्नू और बच्चे भी तैयार हो गए। अनिरुद्घ और उज्जवला को स्कूटर पर आगे खड़ा कर और सहमती सी मन्नू को पीछे बिठा कर वे पहले ओखला सब्जी मंडी गए और वहां से आइएनए मार्केट आए। कोने की पर चाट की दुकान लगती थी। मन्नू के आने केबाद पहली बार उन्होंने उसे बाहर ले जा कर चाट खिलाया। अपने जेठ से बचते-बचाते और आंचल संवारते मन्नू ने जैसे ही गोलगप्पा मुंह में रखा, पचाक से पानी छलक कर उसकी साड़ी पर आ गिरा। श्याम की नजर पड़ी, तो जेब से अपना रूमाल निकाल कर दे दिया।
मन्नू के चेहरे पर दिनों बाद उन्होंने हंसी देखी। ढलका आंचल, खिला चेहरा और चेहरे पर लाज और ठिठोली की कशिश। श्याम ने देखा, तो देखते रह गए। कौन है ये शापित कन्या? इतनी आकर्षक, इतनी वांछनीय? मन काबू में नहीं। भावनाएं उछाल भर रही हैं। पल भर को मन्नू से उनकी नजरें मिलीं और श्याम को अपने तमाम प्रश्नों का उत्तर मिल गया।
बच्चे खापी कर खुश थे। श्याम ने उस शाम मन्नू को इंडिया गेट दिखलाया। इंडिया गेट की लॉन पर पांव सिकोड़ कर बैठी मन्नू के करीब बैठ गए श्याम। बदन की खुशबू और सामीप्यता को पूरी तरह अपने अंदर भर लेना चाहते थे। पता नहीं ऐसा फिर कभी कर पाएं भी या नहीं?
उस वक्त अगर जमीं धंस जाती, धडक़नें रुक जाती, आसमां टूट पड़ता तो भी अफसोस ना होता। एक पल में भी तो जीने का आनंद लिया जा सकता है। उसके लिए देह का मिलना क्या जरूरी है?
लेकिन वे पल कुछ समय बाद वहीं बिखरे से रह गए। लौटे तो एक हादसा हो चुका था।
ज्ञान का इस तरह से मरना बहुत समय तक श्याम को मंजूर ना हुआ। समय से पहले। कुछ तो वक्त था हाथ में।
बहुत टुकड़ों में उन्होंने बात समझने की कोशिश की। घर में रूमा थी अपनी बच्ची के साथ अपने कमरे में बंद। अचानक ज्ञान के सिर में दर्द उठा, लगा दिल की धडक़न ही रुक जाएगी। हथेलियों में पसीना। घबरा कर ज्ञान रूमा के कमरे का दरवाजा खटखटाने लगा। अंदर रूमा ने तेज गाना चलाया हुआ था, ऊपर से कूलर की खरखर की आवाज। ज्ञान ने तीन चार बार कोशिश की, फिर शक्ति चुक गई, तो जमीन पर गिर पड़ा।
जिस समय श्याम बच्चों के साथ लौटे, देर तक घंटी बजाने के बाद ही दरवाजा खुला। रूमा दरवाजे पर अवाक खड़ी थी,'पता नहीं ज्ञान भाई साब को क्या हो गया है? दरवाजे पर गिरे हुए हैं।'
श्याम लपक कर अंदर गए। ज्ञान का शरीर टटोला, गरम था, लेकिन सांस रुक चुकी थी।
उस रात उन्होंने रूमा को खूब लताड़ा। इतना कि खुद पछाड़ खा कर रोने लगे। रूमा को भी अहसास था कि उसकी गैरजिम्मेदारी की ही वजह से ज्ञान की मौत हुई है।
जब श्याम और मन्नू का संबंध बना, रूमा ने एक बार श्याम से कहा भी,'मेरे अंदर एक बोझ सा है। मैं कभी तुमसे इस बारे में कोई सवाल नहीं करूंगी कि मन्नू से तुम्हारा क्या संबंध है और उसे तुम क्या दे रहे हो? हां, कभी मेरी और बच्चों की कीमत पर तुम उसे कुछ देने की हिम्मत मत करना। अपनी सीमा नहीं लांघोगे, तो मैं भी यह बात दिल में रखूंगी।'
एक बार मन्नू से शारीरिक संबंध होने के बाद श्याम रूमा से शरीर के स्तर पर कभी नहीं जुड़ पाए। उसने शिकायत भी नहीं की। बस अपने इर्दगिर्द पंजा कसती चली गई।
सरला कब एक बच्ची से युवती हो गई, पता ही नहीं चला। बीच के दस साल श्याम ने यूं ही गुजार दिए। मन्नू के साथ, उसका घर बनाने में, उसका साथ निबाहने में। जिस मन्नू को देख उनका दिल पिघला था, वह उनके नजदीक आते ही और भी मोहिनी बन गई। वह कहती श्याम राम हैं और वो अहिल्या। श्याम ने जो छुआ, तो वह जीवित हो उठी।
मन्नू की जिंदगी श्याम से ही शुरू होती थी और उन्हीं पर खतम। मायका ना के बराबर। ससुराल से तो कब का नाता टूट गया। श्याम का साथ एक सम्मानजनक ओट था जीने के लिए।
बहुत बाद में अहसास हुआ था मन्नू को कि जिंदगी यूं ही निकल गई श्याम के नाम। हाथ कुछ ना आया। यह अहसास भी हुआ कि कहीं छली तो नहीं गई वह श्याम के हाथों?
सरला की शादी। मन्नू को लगने लगा था कि कहीं कुछ दरकने लगा है उसके और श्याम के बीच। वो पहले सी मोहब्बत ना रही। सरला की शादी को ले कर श्याम तनाव में थे--पिताजी ने मुझसे कुछ मांगा नहीं। जिससे सरला की शादी कर रहे हैं, उम्र में उससे बारह साल बड़ा है, दो बच्चे हैं। पहली पत्नी को मरे अभी साल नहीं हुआ। कैसे निबाएगी सरला? पिताजी को ना जाने क्या सूझी, कम पैसे वाला ही सही, कुंआरा लडक़ा खोजा होता...
श्याम रो पड़े। फफक फफक कर।
'मैं अपनी बहन के लिए कुछ नहीं कर पाया। मैं किसी काम का नहीं... देखो क्या हो गया...'
मन्नू ने उन्हें प्रलाप करने दिया। श्याम की तबीयत ठीक नहीं थी। सडक़ पर चक्कर खा कर गिरने के बाद डॉक्टर को दिखाया। ब्लड प्रेशर देखते-देखते चक्करघिन्नी सा ऊपर नीचे होने लगता। डॉक्टर की हिदायत थी कि वे ज्यादा तनाव ना पालें। सुबह-शाम सैर करें।
क्या करे मन्नू? कैसे कहे कि बहन के लिए इस तरह रोने की जरूरत नहीं। शादी में कुंआरा और विधुर क्या है? शादी शादी है और मर्द मर्द। अगर उसकी संवेदनाएं सही स्थान पर हैं तो औरत की इज्जत करेगा। श्याम रोते रहे। अगले दिन उन्हें शादी के लिए निकलना था।
मन्नू ने उनको उसी तरह विलाप करने दिया। घर में एक अलमारी थी। कभी श्याम ने ही दिलवाई थी। उसी अलमारी के एक खाने में एक पुराने दुपट्टे में बांध कर गहने रखा करती थी। करीब बीसेक तौला सोना। कुछ शादी के समय मायके से आया हुआ, बाकि श्याम का दिलाया। हर साल श्याम दीवाली पर उसे कुछ दिलाते थे।
गहनों की पोटली खोल मन्नू ने एक नौलखा नेकलेस निकाल कर अलग रखा। मां की निशानी। हालांकि चमक पुरानी पड़ गई है, लेकिन गहने का गढऩ लाखों में एक। सोने की अमिया नुमा झालरों पर जड़ाऊ नग। बाकि गहनों को बिना देखे पुटलिया सी बना दी।
कमरे में लौटी तो श्याम उसी तरह कुरसी पर सिर टिकाए लेटे थे। मन्नू ने उन्हें टहोक कर कहा,'ये ... अपनी बहन को दे देना। मन में यह शिकायत मत रखो कि बहन के लिए कुछ किया नहीं।'
ऐसा नहीं था कि उस दिन के बाद श्याम मन्नू से मिलने नहीं आए, संबंध बनाए नहीं रखा। उस दिन जो हुआ मन्नू के साथ ही हुआ। मन के कांच में तिरक लग गया। श्याम को जो अलकोंपलकों पर बिठा रखा था, जो जिंदगी की धुरी मान रखी थी, उसे दिल ने नीचे धकेल दिया। श्याम पहले की ही तरह आते मन्नू के पास। लेकिन मन्नू बदल गई। पहले वह घर से बाहर निकलती ही नहीं थी। श्याम ने जो राशन-पानी ला दिया, उसीसे गुजारा चलाती। अब उसने अपनी बंद दुनिया की किवाड़ें खोलनी शुरू कर दी। श्याम आते तो पाते कि बिस्तर पर पड़ोस का चार साल का बेटा सो रहा है।
कभी मन्नू बरामदे में बैठ कर दो तीन औरतों केसाथ अचार या बडिय़ा डाल रही है।
मन्नू हंसने लगी थी, श्याम के बिना भी। रोती नहीं थी श्याम के जाने पर।
दुबली पतली बाइस इंची कमर की मन्नू ने अपने को भी खुला छोड़ दिया। मोटापे ने घेरा, तो श्याम ने कह ही दिया,'क्या हाल बना लिया है तुमने अपना? एकदम भैंसी होती जा रही हो। मैं यहां किसलिए आता हूं? दो घड़ी चैन मिलता था तुमसे, अब वो भी नहीं...'
मन्नू रोई नहीं। उस दिन अपने रूखे बालों में ढेर सा तेल लगा रखा था उसने, वो भी सरसों का। श्याम ने आते ही साथ कहा था कि बाल धो ले।
ढीलेढाले सलवार कमीज में ऊपर से ही उसके अंग-प्रत्यंग टटोल कर श्याम ने इशारा कर दिया था कि आज वे समागम के मूड में हैं। पता नहीं कैसे मन्नू ने पहली बार उनके आग्रह को ठुकरा दिया। ना बाल धोए, ना कपड़े बदले। ढीठ सी बैठी रही टीवी के सामने। बेकार सी फिल्म चल रही थी। नायिका का दो बार बलात्कार हो चुका था। नायक उससे कहने आया था कि बावजूद इसके वह उससे शादी करना चाहता है। मन्नू ने तुरंत प्रतिक्रिया की,'बकवास। औरत में हिम्मत हो, तो उसे नहीं करनी चाहिए शादी। एक के चंगुल से निकली, दूसरे में फंसने चली। क्या होगा इस आदमी के साथ रह के? कौन सी जिंदगी सुधर जाएगी? हरामी, वो भी वही सब करेगा... उसने जबरदस्ती की, ये शादी के नाम पर करेगा।'
श्याम हतप्रभ रह गए। मन्नू ऐसा सोचती है पुरुषों के बारे में? क्या वह उन्हें भी इसी श्रेणी में आंकती है? मन्नू की आंखों में अब भी क्षोभ था। अपने तेल से सने बालों में उंगलियां घुमाते हुए बड़ी अजीब निगाहों से टीवी पर नजरें गड़ाए थी। श्याम की मन्नू नहीं थी वह। वह एक ऐसी मन्नू थी, जिसने अपने ढंग से अपने विचारों के साथ जीना सीख लिया था।
उस दिन के बाद श्याम मन्नू से मिलने कभी नहीं आए। बल्कि मरनेेसे कुछ समय पहले उन्होंने मन्नू को एक लंबा पत्र लिखा, यह कहते हुए कि वे उसके लिए कुछ कर नहीं पाए। तमाम दुख। मन्नू के गहने लेने का दुख। रूमा की बेरुखी का गम।
श्याम लिखते समय शायद जल्दी में थे। मन्नू ने सुना था कि उनको दिल के तीन दौरे पड़ चुके हैं। इन दिनों नौकरी पर भी नहीं जा पा रहे। घर पर ही रहते हैं। मन्नू ने कभी जा कर उनसे मिलने की कोशिश भी नहीं की।
श्याम ने पत्र में यही लिखा था--तुम बहुत छोटी और नासमझ थी, जब मेरे एक बार कहने पर मेरे साथ चली आई। अब सोचता हूं, तो मसोस उठती है कि तुम्हारी मैंने दोबारा शादी क्यों ना की? ना मैं तुम्हें नाम दे पाया ना बाल-बच्चे। मुझे इस बात का हमेशा अफसोस रहेगा।
मन्नू्...एक बात बड़े दिनों से साल रही है, मन करता है तुमसे बांटने को। जब मैं तुमसे मिला और ज्ञान की मृत्यु हुई, मन में एक ललक थी किसीके लिए कुछ करने की। सोचा तुम्हें एक जिंदगी दे कर अपनी यह इच्छा पूरी करूंगा।
वह पांच लडक़े जो चौदह साल पहले मेरे अंदर एक आग सी जला गए, उसकी आंच मैंने रोक ली मन्नू। मैं आज भी गुनहगार महसूस करता हूं अपने को, शोभा के लिए और तुम्हारे लिए। देश की तो छोड़ दो, मैं तो अपने आसरे जो आया, उसके लिए भी कुछ कर ना पाया।
अब मेरे शरीर में ताकत ना रही। तन-मन से खोखला हो चला हूं। बस, एक ही काम कर पाया, वो घर तुम्हारे नाम कर दिया है, रूमा को बता कर ही। तुम हो सकेतो अपना घर बसा लो। सरला का ही देख लो, एक बच्चा हो गया। ठीक चल रही है उसकी गृहस्थी। तुमने अपना क्या कर डाला है? ऐसे जिंदगी से उम्मीद मत छोड़ो। कभी न कभी कुछ होगा तुम्हारा भी।
मैं अगले इतवार को ऑपरेशन करवा रहा हूं। तुम मत आना। घर से सब आ रहे हैं। पिताजी भी। बच गया तो कभी आ कर तुमसे मिलूंगा।
मेरी तरफ से अपना मन दुखी ना करना।
पत्र पढ़ कर दो-चार दिन मन्नू विचलित रही। पर श्याम को अनुमान ना था कि वे उसकी जिंदगी से बहुत दूर चले गए हैं। श्याम को कहने की जरूरत ही नहीं कि वो उनसे मिलने ना आए। वो खुद अब श्याम से अपने को जुड़ा हुआ नहीं पाती।
बस, एक बात कहना चाह रही थी श्याम से-- यह कहने में देर कर दी कि शादी कर लो, बच्चे पैदा कर लो। दो महीने पहले उसे भयंकर रूप से रक्त स्त्राव हुआ। इतनी पीड़ा... पड़ोसिन डॉक्टर के पास ले गई। सारे टेस्ट हुए। डॉक्टर ने कहा कि उसे समय से पहले मेनोपॉज हो रहा है। यह उसीके लक्षण हैं। अब वह हर महीने की परेशानी से मुक्त है। मन्नू ने अंदर बहुत खालीपन महसूस किया। उन पीड़ा के क्षणों में आंसुओं से कई बार चेहरा धुंधलाया। लेकिन कहीं ना कहीं इस अहसास ने उसे राहत दी कि अब वह मातृत्व के लिए कामना नहीं करेगी। अब उसकी जिंदगी उसकी अपनी है। कोई श्याम आ कर यह दलील नहीं देगा कि तुमको मैंने मां बनने का सुख नहीं दिया।
काहे का सुख, काहे का मातृत्व? कहां से अपूर्ण हूं मैं? पहली बार अपने को यह कहते सुना मन्नू ने। पर श्याम यह सुनने के लिए बचे नहीं।
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Tuesday, September 23, 2008
औरतें रोती नहीं
प्रथम कड़ी में आपने पढ़ा-
मन्नू श्याम के भाई ज्ञान की पत्नी है। ज्ञान की मौत के बाद श्याम ने उसे सहारा दिया और मन्नू को मिला आसरा, हर तरह का। श्याम ने शादी की रूना से, लेकिन जल्द ही अनुमान हो गया कि रूना के सपने और ख्वाहिशें अलग है। एमरजेंसी के दौरान श्याम की बदली एक ऐसे कस्बे में होती है, जहां उनकी मुलाकात कमल नयन से होती है। कमल नयन एक वेश्या शोभा से शादी कर श्याम के घर ले आते हैं। आगे की कहानी-
शोभा शांत थी। चाय बनाया, नाश्ता बनाया। श्याम का मन ही नहीं किया कि दफ्तर जाएं।
वे यूं ही निकल गए पैदल-पैदल, मंदिर और आगे जंगल। पगडंडियों से होते हुए। चलते रहे बस चलते रहे। जंगल के बीचोबीच एक झरने के किनारे पुराना सा मंदिर था। अहाते में कमर तक पीली धोती चढ़ाए एक बाल ब्रहृमचारी चंदन घोंट रहा था। श्याम को देख उसने हाथ रोक लिया।
श्याम हांफ से गए थे। इतना चलने की आदत नहीं रही। ना जाने क्या सोच कर बालक एक लोटे में पानी ले आया। वे गटागट पी गए। छलक कर पतलून में आ गिरा। श्याम ने कुछ रुक कर पूछा,'क्यों छोरे, कुछ खाने का इंतजाम हो जाएगा? रूखा-सूखा कुछ भी चलेगा।'
बालक लोटा नीचे छोड़ दौड़ता हुआ मंदिर के अंदर घुस गया। पांच मिनट बाद निकला तो एक बड़ी उम्र केलंबी दाढ़ी वाले साधू के साथ। नंगे पैर, ऊंची रंग उड़ी भगवा धोती, नग्न बदन। पूरे बदन पर भभूत का लेप। सिर के बाल जटा जूट से। आंखें भक्ख लाल। श्याम क्षण को डर गए। कौन है ये? कपाल साधक? सुन रखा था कि इस जंगल में नर बलि देनेवाले आदिवासी भी हैं।
श्याम उठ खड़े हुए। साधू ने बैठने का इशारा किया। वे खुद श्याम के बिलकुल सामने आलतीपालती मार कर बैठ गए।
आंखें बंद। खोलीं, तो मुलायम आवाज में पूछा,'बच्चा, कैसे आना हुआ?'
श्याम हड़बड़ा गए,'महाराज, बस ऐसे ही घर से निकला, रास्ता भटक गया, तो इधर चला आया।'
साधू जोर से हंसने लगे,'ऐसा कहो कि महादेव ने तुम्हें बुलाया है। बच्चा, तुम सही वक्त पर आए। आज शाम ही हमारा डेरा उठने वाला है यहां से। चले जाएंगे वहां, जहां स्वामी आवाज देंगे... बम बम भोले...' साधू ने आंख बंद कर लंबी डकार ली और जोर से कहा,'अरे ओ लुच्चे की औलाद, ए नित्यानंद... क्या बनाया है रे आज खाने को?'
बालक दौड़ता हुआ आया और उनके चरणों को छू कर बोला,'बाबा, आटा गूंध लिया हूं। दूध रक्खा है...'
'ऐ मूरख... देखता नहीं अतिथि आए हैं। दूध-रोटी खिलाएगा? चल, जल्दी से आलू उबाल। आज तेरे हाथ के आलू के परांठे जीमेंगे महाराज। घी पड़ा है कि भकोस लिया तेने?'
'जी। घी डाल कर परांठे बना लूंगा। दस मिनट लगेंगे महाराज।'
बालक कूदता हुआ चला गया। साधू फैल कर बैठ गए। कमर सीधी कर चिलम सुलगा ली और श्याम की आंखों में सीधे देखते हुए बोले,'हमें ऐसा-वैसा ना समझ बच्चा। हम पिछले पचास साल से गुरूदेव की साधना कर रहे हैं। याद नहीं कहां जन्म हुआ... हां पता है बच्चे, मरना यहीं है गुरूदेव केचरणों में... अलख निरंजन...' साधू ने इतनी ऊंची गुहार लगाई कि पास के पेड़ पर बैठे पंछी चहचहा कर उड़ गए।
श्याम ने घड़ी देखी। तीन बजने को आए। सुबह के निकले हैं। लौटने में जल्दी नहीं करेंगे, तो राह ही भटक जाएंगे। दिन में जंगल का यह तिलिस्मी रूप है तो रात में क्या होगा?
साधू ने जैसे उनके मन की बात समझ ली, 'जाने की सोच रहे हो बच्चे? चिंता ना करो। हम तुम्हें रास्ता बता देंगे। दिखाओ तो अपना मस्तक... चिंता की रेखाएं हैं। अच्छा चलो हाथ की लकीरें पढ़ते हैं।'
श्याम का कतई विश्वास नहीं था हाथ बंचवाने में। रूमा ने कितनी बार कहा अपनी कुंडली बनवा लो, दिल्ली में एक अच्छे पंडित है, बंचवा लेंगे। उन्होंने मना कर दिया। लेकिन साधू ने जब उनका दाहिना हाथ खींच हथेली अपनी गोद में धर लिया, तो वे कुछ कह नहीं पाए।
अचानक उनकी हथेली अपनी पकड़ से निकल जाने दी साधू ने और गंभीर आवाज में बोले,'अपनी जनानी से परेशान हो बच्चा। लेकिन मुक्ति नहीं मिलेगी। वो ही बनेगी तुम्हारे स्वर्गवास का कारण। बच्चों से सुख नहीं है तुम्हें। लडक़ा है, ठीक निकलेगा। लड़कियां... बड़ी की जिंदगी तुम्हारे जैसी होगी। अधेड़ उम्र के बाद मिलेगा साथी। संभल के रहना बच्चा, एक औरत आ रही है तुम्हारी जिंदगी में। बहुत मुश्किलें साथ लाएगी। उम्र में छोटी। तबीयत सही नहीं रहेगी। बाबा का नाम लो सुबह-शाम।
श्याम तुरंत हाथ बांध कर खड़े हो गए। माथे पर पसीना। तलब हो आई एक सिगरेट पीने की। मन हुआ साधू के हाथ से चिलम ले कर एकाध काश मार ही लें।
कहां फंस गए? पता नहीं बालक खाना बना कर खिला रहा भी है या नहीं?
पांचेक मिनट बाद बालक दो बड़ी-बड़ी कांसे की थाल में गरम रोटी रख गया। रोटियां मोटी थी, पर घी से तर। साथ में कटा हुआ प्याज, आम की चटनी और लोटे में पानी। श्याम खाने पर ऐसे टूटे, जैसे बरसों बाद नसीब हुआ हो। साधू हंसने लगा। उसने अपने पुष्ट हाथों में रोटी रख उसका चूरा सा बनाया और मुंह में पान की तरह दाब लिया।
एक के बाद पांच रोटियां खा गए श्याम। आलू के पिठ्ठे से भरी रोटी। कच्ची मिर्च की सोंधी खुशबू और घी की मदमाती गंध। इतना स्वाद तो खाने में पहले कभी आया ही नहीं। ऊपर से झरने का निर्मल मीठा पानी। तो इसे कहते हैं वैकुंठ भोजन।
साधू खा पी कर वहीं लेट गया। डकार पर डकार। उसने हुंकारा भर कर कहा,'बच्चे, आज तो तुमने गुरूदेव का प्रसाद चख ही लिया। बड़े विरलों को ही मिलता है उनका प्रसाद। अब घर जाओ बच्चा। सब अच्छा होगा...'
क्षण भर बाद ही आंखें बंद कर साधू खर्राटे लेने लगे। बालक प्लेट उठाने आया। साधू ने प्लेट में खाना खा उसी में हाथ धो कर थूक दिया था। लडक़े ने बुरा सा मुंह बनाया और श्याम के सामने साधू को जोर की लात मारी।
श्याम हतप्रभ रह गए। साधू की आंख नहीं खुली। लडक़ा हंसते हुए बोला,'बिलकुल बेहोश हैं साब। अब शाम को आंख खुलेगी। इस बीच गरदन भी काट डालूं, तो ये उठेगा नहीं साब।'
वाकई साधू परमनिद्रा में लीन थे। खर्राटों की उठती-गिरती लय के साथ उनका भारी बदन हाथी के शरीर की तरह झूम रहा था। बालक झूठन उठा कर जाने लगा, तो श्याम ने पूछ लिया,'यहां से बाहर जाने का रास्ता बताओगे? महाराज कह रहे थे कि यहां से सीधा रास्ता है।'
'इनको क्या पता साब। ये इधर थोड़े ही रहते हैं। अफीम की पिनक में कुछ भी बोल जाते हैं। आप ऐसा करो, ये सामने जो पगडंडी है, उससे हो कर निकल जाओ। इससे ज्यादा तो मैं भी नहीं जानता। यहां कोई नहीं आता साब। बस हम दोनों रहते हैं। हम चले जाएंगे, तो मंदिर सूना पड़ा रहेगा।'
श्याम झटपट खड़े हो गए। शाम ढलने लगी थी। बस जरा सी देर में अंधेरा हो जाएगा, तो पांव को पांव नहीं सूझेगा। झरने के पार पहुंचने के बाद श्याम असमंजस में खड़े हो गए, अब आगे कैसे जाएंगे? बहुत दूर उन्हें रोशनी सी नजर आ रही थी। टिमटिमाता हुआ दिया। वे उसी दिशा में चल पड़े। पास गए, तो देखा आठ-दस युवक थे। हाथ में लाठी-भाला लिए। कइयों की दाढ़ी बढ़ी हुई। श्याम डर गए। कौन हो सकते हैं? डाकू-लुटेरे? इनसे जा कर कैसे पूछें कि रास्ता बताओ।
श्याम को पास आता देख वे युवक खुद ही चुप हो गए। एकदम नजदीक जाने के बाद श्याम ने देखा कि उनमें से एक युवक जमीन पर चित्त पड़ा था। पैर में घाव। खून केथक्कों के बीच लेटा बेजान युवक। श्याम सकते में आ गए। कुछ हकलाते हुए पूछा,'मैं रास्ता भटक गया हूं। बता सकते हैं क्या?'
उन युवकों के चेहरे पर गुस्सा था। तमतमाया हुआ चेहरा। एक ने कुछ चिढ़ कर कहा,'नहीं पता। यहां मरने क्यों चले आए?'
उसे शांत किया एक लंबे कद के शालीन युवक ने,'इन पर गुस्सा हो कर क्या मिलेगा तुम्हें? अरे भाई, रास्ता तो जरा टेढ़ा है। सामने टीले तक सीधे जाओ, फिर ढलान से उतर जाओ। बायीं तरफ से हो कर सीधे निकल जाना...'
श्याम ने सिर हिला दिया, पर समझ कुछ नहीं आया। वे अचानक पूछ बैठे,'ये... इन्हें क्या हुआ? घायल कैसे हो गए?'
किसी ने तुरंत कोई जवाब नहीं दिया। श्याम नीचे बैठ कर घायल युवक का नब्ज टटोलने लगे। सांस बाकि थी। स्कूली दिनों में डॉक्टर बनने की उत्कठ इच्छा थी। दूर के चाचा थे भी डॉक्टर। उनके साथ कई बार श्याम हो लेते थे मरीज को देखने। यहां तक कि छोटे-मोटे ऑपरेशन करने भी।
नीचे बैठते ही साथ वे भांप गए कि युवक को गोली लगी है। पांव में। पता नहीं क्या हुआ उन्हें। झटपट उन्होंने उसका पैंट खींच कर उतारा और उसे कस कर जांघों में बांध दिया। घुटने की नीचे लोथड़ा सा निकल आया था। अगर कहीं से गरम पानी और चाकू मिल जाता तो कुछ कर लेते। अचानक उन्हें मंदिर का ख्याल आया। बालक नित्यानंद वहीं होगा। उन्होंने कुछ रौबीले आवाज में कहा,'इसे उठा कर मेरे साथ मंदिर तक आओ। वरना ये बचेगा नहीं।'
पता नहीं क्या बात थी उनकी आवाज में कि उनके हुक्म की तुरंत तामील हुई। उस युवक को कंधे पर लाद जैसे ही श्याम मंदिर के अहाते में पहुंचे, नित्यानंद भागता हुआ आ गया,'क्या हो गया? आप काहे फिर आ गए? गुरू जी को तो होश ही नहीं आया अभी तलक।'
श्याम ने कुछ जोर से कहा,'चल बकवास छोड़। एक बड़े बरतन में पानी गरम कर ला। सुन... बच्चे, सब्जी काटने वाला चाकू है ना उसे आग में तपा कर ले आ। कुछ कपड़े पड़े हों तो लेते आना।'
अगले एक घंटे में श्याम ने एक व्यक्ति की जिंदगी की डूबती नब्जों को नए सिरे से प्राण फूंक लौटा दिया। थक कर पस्त हुए, तो किसी ने उनकेहाथ चाय की प्याली पकड़ा दी। तब जा कर उन्होंने पाया कि रात घिर आई है। हवा चलने लगी है। नित्यानंद ने मंदिर में दिए जला दिए। हलकी रोशनी।
सभी युवक पस्त से हो चले थे। उनमें से एक श्याम के पास आ बैठा। वही लंबे कद का शालीन युवक प्रवीर। अपने हाथ की जली सिगरेट श्याम को थमाता हुआ बोला,'यू आर लाइक गॉड सेंड। हम सोच भी नहीं सकते थे कि विनोद को बचा पाएंगे।'
श्याम ने सिगरेट की कश ली। अच्छे ब्रांड की सिगरेट थी। तंबाखू की सुगंध से उनके नथुने फडक़ने लगे। इस वक्त जैसे उन्हें किसी की चिंता नहीं थी। ना घर लौटने की, ना शोभा की ना अंधेरे की। अच्छा लग रहा था इस तरह अनजाने युवकों के साथ एक अनजानी सी जिंदगी जीना।
वे युवक नक्सली थे। महाराष्ट्र से भाग कर यहां पहुंचे थे, छिपते-छिपाते। बीस साल के युवक। देश की तसवीर को बदल देने का जज्बा रखने वाले गरम खून से लबालब।
'यू ऑर सो इग्नोरेंट।' प्रवीर ने कुछ जज्बाती हो कर कहा,'आपको पता है देश लहूलुहान हो चुका है? हर तरफ न्याय की गुहार लगानेवालों का गला घोंटा जा रहा है। हम अपनी मरजी से बगावती नहीं बने। किसने बनाया हमें? बोलिए... आपको पता भी है इमेरजेंसी के पीछे का सच क्या है? कत्ल, दहशत और तानाशाही। पिछले तीन महीने से हम भाग रहे हैं। हमें पता है कि इसी तरह भागते-भागते हम दम तोड़ देंगे एक दिन।'
श्याम सोचने लगे... वाकई वे देश-दुनिया से कट गए हैं। कमलनयन कभी कभार चरचा कर लिया करता था जय प्रकाश नारायण और उनके आंदोलन की। पर श्याम ने कभी रुचि नहीं ली। उनके लिए आपातकाल का मतलब था समय से ट्रेन का आना, दफ्तर में समय पर जाना और समय पर राशन मिलना। अपनी छोटी सी दुनिया के छोटे से बाशिंदे। बीवी, घर-परिवार इससे ज्यादा क्या सोचे? पांच साल में दो बच्चे हो गए हैं। खरचे बढ़ गए। नौकरी ऐसी कि एक जगह टिकने की सोच नहीं पा रहे। जबसे इस कस्बे में आए हैं खानेपीने केही लाले पड़ गए हैं। ऐसे में देश की सोचे भी तो क्या? एक वक्त था जब वे खुद आइएएस बन कर मुख्य धारा में बहना चाहते थे। अब लगता है नसों में खून में उबाल ही नहीं रह गया। खून है कि पानी। शायद वो भी नहीं। होगा कोई गंदला, गंधहीन और नशीला द्रव।
उस रात उन्हें लगा कि जिंदगी वो नहीं जो वे जी रहे हैं। जिंदगी तो जी रहे हैं प्रवीर, विनोद, कश्यप, लखन और वेणु। जोश से लबालब। आग लगा दो इस दुनिया को ये दुनिया बेमानी है-- आग अंतर में लिए पागल जवानी... आग...आग...आग।
संसार को बदलना है। अन्याय से लडऩा है। कानून किसी की बपौती नहीं। हम भी जिएंगे खुल कर अपनी तरह से।
साधू महाराज उसी तरह बेहोश पड़े थे। लडक़ों ने बहला फुसला कर नित्यानंद से परांठे बनवा लिए थे और अब चिलम का घूंट लगाए बेसुध हो रहे थे।
आधा चांद, मंदिर के पास बूढ़े बरगद के ऊपर टंगा हुआ चांद। श्याम ने उस रात जी भर चांद को देखा, मधुमालती की सुगंध को अंतस में भर प्रण किया कि वे बेकार सी जिंदगी नहीं जिएंगे। कुछ तो अर्थ हो, मकसद हो सांस लेने का।
मंदिर के अहाते में पूरी रात बीत गई। हलका सा उजास हुआ, तो श्याम उठ खड़े हुए। प्रवीर ने ही पूछा,'हम साथ चलें? दो चार दिन। कोई दिक्कत तो नहीं होगी?'
बिना सोचे समझे श्याम ने हां कह दिया। रास्ता ढूंढना उतना मुश्किल ना था। घर की राह आते ही श्याम आशंका में पड़ गए। कमलनयन ने आज लौटने की कही थी। शोभा ने पता नहीं रात क्या किया होगा? घर के सामने ही शोभा दीख गई। बरामदे में गीले बाल सुखाती हुई। श्याम को इतने सारे युवकों के साथ देख कर थोड़ा अचकचा गई। श्याम ने अटपटा कर कहा,'चाय पिलाएंगी?'
प्रवीर ने टहोका, तो श्याम हड़बड़ा कर बोले,'मेरे दोस्त की बीवी है। यहीं रहते हैं दोनों।'
शोभा चुपचाप सबके लिए चाय और मठरियां ले आई। नहा-धो कर श्याम दफ्तर के लिए निकल गए। शोभा को यह भी बता कर नहीं गए कि खाना पकाओ, नहीं पकाओ। लडक़े यहीं रहेंगे या चले जाएंगे।
दिनभर इंतजार करते रहे कि कमलनयन लौट आएगा तो आगे की भूमिका वह संभाल लेगा। शाम तक वह नहीं आया। श्याम बैंक से लौटे। सारे लडक़े उनके तीन दीवारों वाले घर में जमे थे। विनोद की तबीयत ठीक लग रही थी। पूरे कमरे में सिगरेट का धुआं। कागज इधर-उधर बिखरे हुए। शोभा रसोई में थी। साग चुन रही थी। श्याम को देखा तो चेहरे पर बेबसी के से भाव आए। श्याम को दया आ गई। साथ बैठ गए और धीरे से बोले,'देखो, कमलनयन के लौटते ही तुम दोनों अलग कमरा ले कर चले जाना। तुम्हें आराम मिलेगा। इस तरह मेहमान की तरह कब तक रहोगी?'
शोभा ने पलकें उठा कर श्याम की तरफ देखा। चेहरे पर अजीब से भाव। उसके होंठ फडक़े। वह धीरे से बोली,'वे नहीं आएंगे अब।'
'क्या? क्यों? तुमसे कुछ कह कर गए क्या? बोलो तो?' श्याम सिटपिटा से गए। आवाज शायद थोड़ी ऊंची हो गई।
शोभा शांत थी। उसी तरह साग चुनने में लगी रही। रुक कर बोली,'समझ में तो आ ही जाता है ना श्याम जी। उनका इस तरह से जाना... पल्ला झाड़ कर ही तो गए हैं। हमें क्या पता नहीं? आप बताओ, आपको तो बता कर गए होंगे कि ... हमारा क्या करना है?'
श्याम को गुस्सा आ गया। सब पर। पहले कमल नयन पर, फिर अपने आप पर भी। अगर शोभा सच कह रही है तो क्या करेंगे उसका? वापस जाए वहीं जहां से आई थी?
'मुझे कुछ नहीं पता। ... पता करने की जरूरत भी नहीं है।' वे भन्ना कर उठ गए वहां से।
सीधे ढाबा जा कर सबके लिए रोटी और दाल मखानी बनवा लाए। लडक़े खा-पी कर सो गए। उसी एक तीन दीवारों वाले कमरे में पांच लडक़े, एक अधेड़ आदमी और शोभा-- इतनी जगह भी नहीं थी। गनीमत थी कि गरमियों के दिन थे। वरना उनकेपास इतने आदमियों के लिए बिस्तर और रजाइयां कहां थी?
शोभा रसोई के बाहर फैल गई। श्याम को लग रहा था इतने मर्दों के रहते उसे रसोई में सोना चाहिए। एक आदमी के लिए वहां जगह कम नहीं।
क्रमशः......................