Sunday, December 13, 2009

भगवान के दर पर अंधेर

भगवान के दर पर यह कैसा पुण्य?
तीर्थों पर जब मैं हांफते, सहमते और अनायास ही जेब ढीली करते यात्रियों को देखता हूं, तो एक दर्द सवाल दागता है...तीर्थ क्यों? क्या हम तीर्थ पर केवल जेब खाली करने के लिए आए हैं? यह कैसी पुण्य नगरी, जहां लोग पाप से डरते नहीं। किसी को लूटना, नाजायज पैसे लेना और उनको ठगना भी इसी पाप की श्रेणी में आता है। लेकिन सभी धर्मस्थलों का एक सा ही हाल हो चला है। हजारों और लाखों यात्री आते हैं। धर्म की बैसाखियां उनके पैरों मेंं जंजीर बनकर रह जाती हैं। बस या रेल से उतरे नहीं, कि लुटाई का सिलसिला चल पड़ता है। लोगों के मुंह से शायद यही निकलता है, इससे अच्छे तो हम अपने शहर में भले थे? ऐसा क्यों?
गरमियों की छुट्टियां पड़ते ही लोगों की भीड़ तीर्थों पर निकल पड़ती है. अपनी-अपनी इच्छाओं के मुताबिक लोग यात्रा पर जाते हैं। जिन इच्छाओं को लेकर वे जाते हैं और जिस शांति और पुण्य की तलाश उनको होती है, वह शायद ही इस यात्रा में उनको मिलती है। किसी भी तीर्थ पर चले जाइये, पैसे के बिना पुण्य नहीं। जितना पैसा उतनी पुण्य की कामना। जितना घी उतनी धर्म की लौ तेज। ऐसा क्यों? हमको यह सच्चाई मानने में संकोच नहीं करना चाहिए कि अब धर्म भी एक बाजार की शक्ल ले चुका है। धर्म को हम धर्म के धरातल से कहीं दूसरे स्थान पर ले आए हैं। निस्वार्थ भावना का कोई मोल नहीं है। माया-मोह से विरक्ति की बात अब केवल कथा-प्रसंगों तक ही सीमित रह गई है। कथा वाचक भी जानते हैं कि माया-मोह नहीं होगा तो कथाएं कैसे मिलेंगी। सरयु और गंगा के तट पर कौन कथा कहे? हरेक को विशाल पंडाल चाहिए। उसमें भी सभी कुछ तो कथा महाराज का है. पांच प्रमुख आयोजनों के चढ़ावे तो विशुद्ध रूप से कथा व्यास के पास ही जाते हैं। शेष राशि आयोजकों के पास आती है। इनपुट और आउटपुट यहां भी देखा जाता है। महाराज जी के चेहरे का तेज विदेशी क्रीम से चमकता है। सबकुछ आयातित। हमारी भावना...विश्व का कल्याण हो।
लाखों रूपये में होने वाली इन कथाओं का प्रचलन जिस तेजी से राम मंदिर आंदोलन के बाद बढ़ा था, उतना ही ठंडा भी हो गया। चैनलों ने धर्म को खूब भुनाया। ट्रेंड बदला तो योग छा गया। अब यह भी उतार पर है। लेकिन शनि की कृपा से चैनलों का भाग्य चमक रहा है। लेकिन नहीं है। तीर्थों की यात्रा दुश्वारियों से प्रारंभ होती है। हांफते यात्री किसी कोने की तलाश में आपको हर जगह मिल जाएंगे। यात्रियों के लिए शेड नहीं। शौचालय नहीं तीर्थ-धाम पहुंचे तो लंबी-लंबी कतारें। वीआईपी की लाइन। भगवान के दर पर भी वीआईपी। पुण्य तो जैसे इनके ही भाग्य में लिखा है। बाहर इंतजार करती भीड़। अंदर होती विशेष पूजा। विशेष पूजा भी सभी के लिए नहीं। जितना चढ़ावा, उतनी पूजा। असहाय भक्तों के हाथ में सिर्फ एक फूल। फूलमाला भी विशेष के लिए ही। आमभक्त तो यही मान लेते हैं कि भगवान के दर्शन हो गए। जियारत हो गई। भगवान सबके हैं तो सभी के लिए क्यों नहीं। केदारनाथ धाम में वीआईपी को लेकर झगड़ा हो चुका है। व्यवस्था में कुछ परिवर्तन किया गया है लेकिन इससे व्यवस्था में कुछ सुधार होगा, लगता नहीं। यह तो हमको ही तय करना होगा कि भगवान के दर पर हम भक्तों को वीआईपी मानें या उनको आम जनता ही मानकर छोड़ दें।
यह कहना समुचित ही होगा कि प्राय: सभी धर्मस्थलों की हालत एक सी है। पूजा की बात हो या जियारत की बात। मंदिर हों या दरगाह। हाल सभी का एक सा है। भिखारियों की लंबी कतारें। मजबूरी का फायदा उठाते लोग। जेब काटने वालों की भीड़। व्यवस्था को मुंह चिढ़ाता ऐलान कि यात्रीगण अपने सामान, पर्स और मोबाइल की सुरक्षा स्वयं करें। अगर ऐलान किया जा रहा है तो इसका मतलब है कि शरारती तत्वों की जानकारी सभी को है। धर्म स्थलों के संचालकों को भी और पुलिस-प्रशासन को भी। लेकिन कोई कार्रवाई नहीं। माना कि दान देना पुण्य है लेकिन हृष्ट-पुष्ट लोगों को दान देकर उनको भिखारी या फकीरों की श्रेणी में शामिल करना घोर पाप है। सभी धर्मों में। धर्मों में कहा गया है कि दान देने से पहले हम अच्छी प्रकार देख लें कि कहंीं हम उनको भिखारी या फकीर तो नहीं बना रहे हैं। दान सुपात्र को दो और ज्ञान सुपात्र से लो। यह सीख तो बहुत पुरानी है। फिर, धर्मस्थल इससे अलग क्यों जा रहे हैं?
इस लेख का मकसद किसी की धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाना कतई नहीं है, लेकिन हमको यह तो देखना ही होगा कि धर्म स्थलों पर हम भक्तों की भीड़ को देते क्या हैं? वह हमारे धर्मस्थलों के बारे में क्या छवि लेकर जा रहे हैं? विदेशियों को हम भक्तों की श्रेणी में नहीं रखते। उनको पर्यटक मानते हैं। गंगा के तट पर उनसे अनुष्ठïान कराए जाते हैं(या वे स्वयं करते हैं।) केवल इसलिए कि वे जानें कि हमारी सभ्यता और संस्कृति कितनी पुरानी है। लेकिन जब इन विदेशियों को हरिद्वार में गंगा आरती देखने के लिए हिंदुस्तानी कल्चर का सामना करना पड़ता है तो इन पर क्या बीतती होगी? हजारों की भीड़ और व्यवस्था बौनी।
महंगाई के इस दौर में असली महंगाई (इसको आप महंगाई भी नहीं कह सकते) तो तीर्थ और धर्मस्थलों पर है। कर्मकांड से लेकर साधारण पूजा तक, अंतिम संस्कार से लेकर वार्षिक श्राद्ध (गंगा के तटों पर) तक, खान-पान से लेकर पूजा के सामान तक हरेक के दाम दसवें आसमान पर। अनलिमिटेड प्रोफेट। कोई अंकुश नहीं। कोई पहल नहीं।
दूर-दूरस्थ स्थानों से आने वाले यात्री जेब हल्की करने नहीं आते। वह पुण्य लाभ और भगवान के दर्शन करने आते हैं, हम उनको देते क्या हैं? यहां चढ़ाओ-यहां चढ़ाओ? धर्मस्थलों की संचालन समितियां और सरकारी कोष मालामाल हैं मगर भक्तों का हाल बेहाल। सड़क, सफर, सुरक्षा, सुविधा और संसाधन कुछ भी तो नहीं। कदम-कदम पर हादसे। कदम कदम पर पैसा निकालने की तरकीबें।
-सूर्यकांत द्विवेदी

तकनीकी सहयोग- शैलेश भारतवासी

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