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Monday, May 16, 2011

किसानों के 'महात्‍मा' टिकैत का जाना

कैसे करुं आत्‍मा की शांति के लिए प्रार्थना

हांलाकि नियति का सभी को पूर्वाभास था लेकिन फिर भी जब आज सुबह किसान नेता चौधरी महेन्‍द्र सिंह टिकैत के निधन का समाचार आया तो झटका लगा। मन ने कहा कि काल को अभी कुछ और रुक जाना चाहिए था। बीते चौबीस सालों में चौधरी टिकैत से हुईं मुलाकातें, किसान आंदोलन की तस्‍वीरें, उनका जुझारुपन, अक्‍खड़ता और ठेठ गंवई अंदाज की तस्‍वीरें दिमाग में दस्‍तक देने लगीं। मैने अपने पचास साल के जीवन में ऐसा स्‍वाभिमानी आदमी नहीं देखा। अक्‍खड़ दिखाई देने वाले इस व्‍यक्ति में मिलनसारिता कूट-कूट कर भरी हुई थी। व्‍यवहारिक इतनी कि यदि आप एक बार बिना परिचय के भी मिलने चले जाएं तो उसके मुरीद हो जाएं। टिकैत को नेतृत्‍व के गुण तो विरासत में मिले थे लेकिन अद्भुत संघर्ष की क्षमता ने उन्‍हें उस मुकाम पर पंहुचा दिया, जहां किसान उन्‍हें 'बाबा' और 'भगवान' का दर्जा दिया करते थे। अपने आखिरी समय में भी उनका स्‍वास्‍थ्‍य जब कैंसर की वजह से लगातार बिगड़ रहा था, अपने बेटे के घर की बैठक के एक कोने में पड़ा पलंग उनका स्‍थाई डेरा हो गया था, तब भी वह न केवल देश-दुनिया की खबरों से बाखबर रहते थे बल्कि बिस्‍तर पर पड़े कसमसाते रहते थे।
बीती 20 अप्रैल को जब मैं उनसे मिलने मुजफ्फरनगर गया तो पलंग पर लेटे हुए भी किसानों पर हो रहे अत्‍याचारों और शोषण के खिलाफ गुर्रा रहे थे। मुझे देखते ही बोले, 'इल्‍जाम भी उनके, हाकिम भी वह और ठंडे बंद कमरे में सुनाया गया फैंसला भी उनका.....लेकिन एक बार परमात्‍मा मुझे बिस्‍तर से उठा दे तो मैं इन्‍हें सबक सिखा दूंगा कि किसान के स्‍वाभिमान से खिलबाड़ का क्‍या मतलब होता है.....' दरअसल उसी दिन सुप्रीम कोर्ट ने एक फैंसले में खापों को अवैद्य बताते हुए उनसे कड़ाई से निपटने के आदेश दिए थे। सुप्रीम कोर्ट की एक बैंच ने कहा था कि विभिन्न जाति व धर्मो के विवाहित या विवाह की इच्छा रखने वाले युवक-युवतियों के खिलाफ ऑनर किलिंग या अन्य ज्यादतियों को बढ़ावादेने वाली खाप पंचायत लोगों की निजी जिंदगी में दखल देती है। यह पूरी तरह अवैध है। इसे तत्काल बंद कराया जाना चाहिए। टिकैत कराहते हुए गरज रहे थे कि कोई एक उदाहरण बता दो जहां किसी खाप पंचायत ने इस तरह का कोई फैसला दिया हो। उनका कहना था कि किसी गांव के कुछ लफंगे या आहत लोगों के एक समूह ने ऐसा किया भी हो तो उसे 'खाप' का फैसला कैसे माना जा सकता है। हांलाकि वह सगोत्रीय विवाह के पूरी तरह खिलाफ थे और ऐसे लोगों का सामाजिक बाहिष्‍कार के पक्षधर। इसके लिए उनके तर्क थे। दहाड़ते हुए बोले कि सुप्रीम कोर्ट का सम्‍मान सभी करते हैं ल‍ेकिन सुप्रीम कोर्ट हमें ये थोड़े ही बताएगा कि किस से बोलो और किस से व्‍यवहार रखो। टिकैत उसके बाद टप्‍पल में किसानों पर चली गोलियों और उनके उत्‍पीड़न पर दहाड़ने लगे। किसानों पर हो रहे जुल्‍मों के खिलाफ उनके सीने में ज्‍वाला धधक रही थी। गुस्‍से में उनका चेहरा लाल था। उसके बाद जब भटटा पारसौल में गोलीकांड हुआ तो भी मृत्‍युशैय्या पर पड़ा किसानों का ये योद्धा यही कह रहा था कि मुझे एक बार भट्टा ले चलो तो मैं जालिमों का 'भट्टा' बना दूंगा। ये टिकैत की जिजीविषा थी।
चौधरी महेन्‍द्र सिंह टिकैत को एक जुझारु किसान नेता के तौर पर पूरी दुनिया जानती है लेकिन यह व्‍यक्ति एक दिन में या किसी की कृपा से 'किसानों का मसीहा' नहीं बन गया बल्कि सच तो यह है कि कभी इस शख्‍सीयत ने धूप-छांव, भूख-प्‍यास, लाठी-जेल की परवाह नहीं की। अगर अपने कदमों को किसान संघर्ष के लिए बाहर निकाल दिया तो फिर कभी पीठ नहीं दिखाई लेकिन यदि लगा कि इससे किसानों या साथियों का नुकसान हो जाएगा तो कभी मूछ का सवाल भी नहीं बनाया। 1935 में जन्‍में चौधरी महेन्‍्द्र सिंह टिकैत को आठ साल की उम्र में तब बालियान खाप का मुखिया बनाया गया था जब वह महज आठ साल के थे। ये गद्दी उन्‍हें अपने पिता के निधन के बाद विरासत में मिली थी क्‍योंकि तेरहवीं शताब्‍दी से इस खाप की चौधराहट टिकैत खानदान के पास ही चलती चली आ रही थी। टिकैत जाटों के रघुवंशी गौत्र से ताल्‍लुक रखते थे लेकिन बालियान खाप में सभी बिरादरियां शामिल थीं। टिकैत ने बचपन से ही खाप व्‍यवस्‍था को समझा और 'जाति' से ऊपर 'किसान' को स्‍थापित करने में जुट गए। उनकी प्रशासकीय और न्‍यायिक सूझ गजब की थी। वह हमेशा दूसरी खापों से गूढ़ संबंध रखते और एक दिन 17 अक्‍टूबर 1986 को किसानों के हितों की रक्षा के लिए एक गैर राजनीतिक संगठन 'भारतीय किसान यूनियन' की स्‍थापना कर ली। यह वह समय था जब चौधरी चरण सिंह की मृत्‍यु के बाद किसान राजनीति में एक शून्‍य पैदा हो गया था। किसानों की हालत यह थी कि डरा-सहमा किसान जब खाद, पानी, बिजली की समस्‍याओं को लेकर जब सरकारी दफ्तरों में जाता था तब उसे दुत्‍कार कर भगा दिया जाता था। अजित सिंह चौधरी चरणसिंह के बारिस तो थे लेकिन आम किसान उन्‍हें चौधरी साहब की वजह से ही अपना मानता था क्‍योंकि एलीट क्‍लास के अजित किसानों से उनके अपने जैसा व्‍यवहार नहीं कर पाते थे। हांलाकि बीकेयू उन दिनों लोकल संगठन था लेकिन सूबे के किसानों की समस्‍याएं एक जैसी थीं। टिकैत ने जब देखा कि गांवों में बिजली न मिलने से किसान परेशान है, उसकी फसलें सूख रहीं हैं, चीनी मिलें उनके गन्‍ने को औने-पौने दामों में खरीदती हैं तो उन्‍होंने किसानों की समस्‍याओं को लेकर 27 जनवरी 1987 को मुजफ्फरनगर के शामली कस्‍बे में स्थित करमूखेड़ी बिजलीघर को घेर लिया और हजारों किसानों के साथ समस्‍या निदान के लिए वहीं धरने पर बैठ गए। पुलिस-प्रशासन ने तीन दिन तक कोशिश की कि किसान किसी तरह वहां से उठ जाएं लेकिन जब किसान टिकैत के नेतृत्‍व में वहां डटे रहे तो पुलिस ने उन पर सीधी गोलियां चला दीं। इस गोलबारी में दो किसान जयपाल और अकबर अली ने मौके पर ही दम तोड़ दिया। टिकैत के नेतृत्‍व में किसानों ने गोलीबारी में मारे गए दोनों युवकों के शव पुलिस को घटनास्‍थल से नहीं उठाने दिए। इतना ही नहीं टिकैत आंदोलन में शहीद हुए किसानों के अस्थिकलश गंगा में प्रवाहित करने खुद शुक्रताल के लिए रवाना हुए तो उनके पीछे इतना बड़ा किसानों का कारवां था कि उनके रास्‍ते में एक भी खाकी वर्दी वाला दिखाई नहीं दिया। अस्थि कलश यात्रा में टिकैत के पीछे चलती भीड़ की संख्‍या का अंदाजा लगाना तो मुश्किल था लेकिन जितना मैने देखा उसके मुताबिक यात्रा का एक सिरा शुक्रताल पंहुच चुका था लेकिन दूसरा सिरा मुजफ्फरनगर में था। इसके बाद टिकैत का जुझारुपन किसानों को इतना भाया कि इस आंदोलन के बाद से उनके मुंह से निकले शब्‍द किसानों के लिए ब्रह्मवाक्‍य बन गए। टिकैत ने पश्चिमी उत्‍तर प्रदेश के सभी किसानों को एकजुट कर दिया और सभी खापें एक मंच पर आ गईं। टिकैत के शब्‍द भले ही ब्रह्मवाक्‍य बन चुके थे लेकिन उन्‍होंने हमेशा किसी भी आंदोलन को शुरु करने या खत्‍म करने के लिए मंच पर सभी खापों और सभी बिरादरियों के पंचों को बिठाया और उनकी रायशुमारी पर आगे का फैंसला लिया। ये उनके नेतृत्‍व का गुण था कि वह 'शक्तिशाली' होने के बाद भी लोकतांत्रिक परंपराओं का हमेशा निर्वहन करते थे।
दो किसानों की मौत के बाद टिकैत ने आंदोलन बंद नहीं किया बल्कि 1 अप्रैल 1987 को उन्‍होंने वहां किसानों की सर्वखाप महापंचायत बुलाई और उसमें फैंसला लिया कि शामली तहसील या जिले में उनकी मांगों पर कोई विचार नहीं हो रहा इसलिए कमिश्‍नरी घेरी जाए। लाखों किसानों की इस महापंचायत में फैसला लेने के बाद 27 जनवरी को मेरठ कमिश्‍नरी पर डेरा डाल दिया। लाखों किसानों ने मेरठ कमिश्‍नरी घेर ली और वहीं पर किसानों ने खाने के लिए भट्टियां सुलगा दीं। नित्‍य कर्मों के लिए कमिश्‍नरी का मैदान सुनिश्चित कर लिया। 35 सूत्रीय मांगों को लेकर यह आंदोलन शांतिपूर्ण तरीके से चौबीस दिन चला। आंदोलन में भाग लेने आए कई किसान ठंड लगने से मर गए लेकिन टिकैत के नेतृत्‍व में किसान टस से मस नहीं हुए। पुलिस-प्रशासन ने उन्‍हें उकसाने की बहुत कोशिश की लेकिन उन्‍होंने अहिंसा का रास्‍ता नहीं छोड़ा। चौधरी महेन्‍द्र सिंह टिकैत अब महात्‍मा टिकैत के नाम से पुकारे जाने लगे थे। शासन-प्रशासन हतप्रभ था कि इतने दिन तक इतने किसान भयंकर सर्दी के मौसम में खुले आसमान के नीचे कैसे डटे हुए हैं। चौबीस दिन बाद टिकैत ने सरकार को गूंगी-बहरी कहते हुए यह आंदोलन खुद यह कह कर खत्‍म कर दिया कि कमिश्‍नरी में उनकी सुनवाई संभव नहीं तो वह लखनऊ और दिल्‍ली में दस्‍तक देंगे। इसके बाद रेल रोको-रास्‍ता रोको आंदोलन में पुलिस ने गोलियां चला दीं तो टिकैत दल-बल सहित 6 मार्च 1988 को रजबपुरा पंहुच गए और एक सौ दस दिन तक किसानों के साथ तब तक धरने पर बैठे रहे जब तक गूंगी-बहरी सरकार के कानों में जूं नहीं रेंगी। रजबपुरा के बाद टिकैत ने देश भर के किसान नेताओं और किसानों के अराजनीतिक संगठनों से संपर्क किया और उनके साथ एक बैठक में फैंसला लेने के बाद 25 अक्‍टूबर को वोट क्‍लब पंहुच गए। लाखों किसानों ने वोट क्‍लब को घेर लिया। उन्‍हें हटाने के लिए पुलिस ने काफी यत्‍न किए। पानी की बौछारों और लाठियों के सहारे उन्‍हें उत्‍तेजित करने की भी कोशिश की गई लेकिन टिकैत और उनके नेतृत्‍व में किसान यह जान चुके थे कि उनका हथियार अहिंसा है। सात दिन चले धरने में केंद्र सरकार के प्रतिनिधियों के आग्रह और आश्‍वासन के बाद टिकैत ने वोट क्‍लब से किसानों का धरना उठा लिया।
मेरठ कमिश्‍नरी, रजबपुरा और वोट क्‍लब की रैलियों में टिकैत की मुट्ठी में लाखों किसानों को देख राजनीतिक दिग्गज उनसे नजदीकियां बनाने का जतन करने लगे। नब्बे के दशक में यूपी और हरियाणा से उन्हें राज्यसभा में पद ग्रहण करने का न्यौता भी मिला लेकिन बाबा ने स्वीकार नहीं किया। पूर्व प्रधानमंत्री देवगौड़ा से टिकैत की नजदीकियां किसी से छिपी नहीं रही। कभी उपप्रधानमंत्री रहे स्वर्गीय देवीलाल ने भी टिकैत को किसान हित के लिए राजनीति में कूदने की सलाह दी थी। टिकैत ने राजनेताओं से नजदीकियां तो रखीं लेकिन कभी प्रत्‍यक्ष रूप से कोई लाभ नहीं लिया और न संघर्ष का रास्‍ता छोड़ा। हांलाकि उनके बेटे राकेश टिकैत ने भारतीय किसान यूनियन की राजनीतिक बिंग बनाकर चुनाव भी लड़े लेकिन पुत्रमोह में टिकैत ने बस इतना किया कि वह अपने पुत्र की राजनीतिक हसरतों पर खामोश रहे। सापेक्ष रूप से कभी राजनीतिक गतिविधियों का साथ नहीं दिया। संघर्ष की राह को हमेशा कायम रखा। वोट क्‍लब के बाद भी उन्‍होंने दर्जनों बड़े आंदोलन किए और कई बार उन्‍हें जेल भी जाना पड़ा लेकिन वह न कभी याचक बने और न स्‍वाभिमान से समझौता किया। उनकी खुद्दारी को इसी से समझा जा सकता है कि जब बीती 8 मार्च को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उन्‍हें सरकारी खर्चे पर दिल्‍ली में बेहतर इलाज की पेशकश की तो वह गंभीर अवस्‍था में भी ठहाके लगा कर हंस दिए। उन्‍होंने प्रधानमंत्री से सिर्फ इतना कहा कि उनकी हालत गंभीर है; पता नहीं कब क्‍या हो जाए, ऐसे में यदि उनके जीते जी केंद्र सरकार किसानों की भलाई में कुछ ऐसा ठोस कर दे जिससे वह आखिरी वक्‍त में कुछ राहत महसूस कर सकें और उन्‍हें दिल से धन्‍यवाद दे सकें............आज ये किसान नेता हमारे बीच नहीं है और समस्‍याएं भी वही हैं.........काश! वह अपने जीवन में किसानों को खुशहाल देख पाता। काश! उसे अपने अंतिम दिनों में टप्‍पल और भट्टा पारसौल जैसी लोमहर्षक घटनाएं न देखने को मिलतीं.................ऐसे में समझ में नहीं आ रहा कि उस महान दिवंगत आत्‍मा की शांति के लिए प्रार्थना कैसे करूं।
(यह लेख प्रभात खबर में प्रकाशित हुआ है)

Friday, November 20, 2009

....सुनो सुनो गन्ने का गम

हम गुड़ और चीनी खाते हैं। शराब पीते हैं। कागजों पर लिखते हैं। लेकिन गन्ने को नही समझते। जिस फसल में मिठास है, नशा है और साक्षात लक्ष्मी व सरस्वती का वास है, उस फसल की यह तौहीन। समझ से परे है. इसी दशहरे की बात है। गन्ने का पूजन होना था। बाजार गया। एक गन्ना पांच रूपये का मिला। चीनी लेने निकले तो 36 रूपये किलो थी। एक क्विंटल गन्ने में करीब दो सौ गन्ने चढ़ते हैं। हिसाब लगाया तो एक हजार रूपये क्विंटल कीमत बैठी। चीनी 3600 रूपये क्विंटल थी। सुना है,कागज के दाम भी आसमान छू रहे हैं। पेपर मालिक सरकार से इस पर रियायत मांग रहे हैं। सरकार का इरादा भी है। हो सकता है कि करम हो जाए।
मैं बता दूं कि मैं किसान परिवार से नहीं हूं। लेकिन गन्ना किसानों का दर्द करीब से देखा है। जब केंद्र सरकार ने गन्ने की कीमत 130 (129.84 रूपये) लगाई तो सोच में पड़ गया। किसान क्या बोएगा, क्या कमाएगा और क्या खाएगा। अगर वह पटरी पर गन्ना बेचे तो भी शायद उसको उचित दाम मिल जाए। लेकिन सरकार तो देने से रही। सरकार ने यह कीमत किस आधार और किस मानक से लगाई है, समझ से परे है। फुटकर में गन्ना एक हजार रूपये क्विंटल और चीनी 3600 रूपये क्विंटल। और गन्ना 130 रूपये। फिर भी नारा-जय किसान। जितना सस्सा गन्ना है, उतना सस्ता तो इंसान भी नहीं। किसान की पीड़ा पर हम मौन क्यों हैं। हम उसको अपना क्यों नहीं समझते। हम उसको वाजिब मूल्य देने से क्यों कतराते हैं। हम मकान बेचते हैं तो अपनी संपत्ति की कीमत खुद लगाते हैं। सरकार ने सर्किल रेट तय कर रखे हैं। इस पर रजिस्ट्री तो होती है लेकिन क्रय-विक्रय नहीं होता। यह सरकार की संपत्ति का भी हाल है। बाजार में जाते हैं तो हम नही कहते कि लाला जी, तुम्हारे माल की कीमत यह है। हम मोलभाव अवश्य करते हैं। हम अपना लाभ देखते हैं और व्यापारी अपना लाभ देखता है। परता खाया तो सौदा पट जाता है। लेकिन गन्ना किसान बोता है, उसके माल की कीमत सरकार लगाती है। चंद चीनी मिल मालिक और उनके पिछलग्गू नेता तय करते हैं कि किसान की फसल की कीमत क्या हो। इस देश का दुर्भाग्य है कि यहां चंद लोग ही आवाम का फैसला करते हैं। ओबामा मे पूरी दुनिया का अक्स देखने लगते है। आसमान सिर पर उठा लेते हैं। अपनों को गिरा देते हैं। सागर में मोती नहीं तलाश करते। मोती हाथ लग जाए तो उससे ही पूछते हैं...सागर कितना गहरा है। पूरे देश में मिल मालिक दो सौ से अधिक नहीं होंगे। कुकुरमुत्तों की तरह उग रहे राजनीतिक दलों की भी तादाद इससे अधिक नहीं होगी। लेकिन यह हमारे भाग्य निर्माता हैं। मुश्किल यह है कि अपने देश में 15फीसदी लोग 85 फीसदी लोगों का भाग्य तय करते हैं। कहा जाता है कि इंसान का भाग्य भगवान लिखता है और किसान अपना भाग्य खुद लिखता है। यानी भगवान ने भी किसान को भगवान ही माना है। लेकिन कया यह हकीकत है।
कुछ और कड़वी हकीकत देखिए। गुड़ और चीनी का निर्माता किसान गन्ना बेचने के बाद हमारे और आपकी तरह एक उपभोक्ता ही है। वह बाजार से उसी मोल से चीनी और गुड़ लाता है, जो आप लाते हैं। उनको रियायत नहीं होती। लेकिन मिल मालिक के घर इस मोल से चीनी नहीं आती। उसके तो घर का माल है। अगर चीनी उसका घर का माल है तो गन्ना किसान का घर का माल क्यों नहीं है। जब और लोग अपने माल की कीमत खुद लगा सकते हैं तो किसान को यह अधिकार क्यों नहीं है। सरकार ने फसलों के दाम तय करने के लिए आयोग बनाए, लेकिन क्या रेट इनकी सिफारिशों से तय होते हैं। अपने देश मे गन्ने का दाम लगाते हैं-शरद पंवार। कृषि मंत्री। जिनकी खुद की चीनी मिले हैं। किसान राजनीति पर आइये। किसान राजनीति के मुद्दे पर समूचा विपक्ष एक है। जिनको गन्ने की समझ है, वे भी और नासमझ भी। उनको किसान एक वोट बैंक के रूप में दिख रहा है। दिखता रहा है और आगे भी दिखता रहेगा।
भारतीय किसान यूनियन के उदयकाल मे किसानों को उम्मीद जगी थी कि अब अऱाजनैतिक यह संगठन उनकी मदद करेगा। महाभारत का दृष्टांत देखिए। अर्जुन जब रणक्षेत्र मे था तो वह आवाक सा था। कृष्ण ने पूछा-क्या देख रहे हो। अर्जुन ने कहा-सोच रहा हूं। कौन अपना है कौन पराया। किसको मारना है और क्यों मारना है। यह सभी तो अपने हैं। किसानों के साथ भी यही तो हुआ। जिनको उसने अपना समझा, वह कौरव निकले। टिकैत को भी राजनीति का चस्का लग गया। अब तो वह अपने बेटे राकेश टिकैत को एडजेस्ट करने में लगे हैं। टिकट नहीं मिला तो बगावत। सम्मान नहीं मिला तो बगावत। भाकियू का किसान खो गया। दिल्ली में चार दिन धरना दिया, लेकिन भीड़ लायी गई पूर्वांचल से। पश्चिम को क्या हुआ। नहीं पता। जैसी भीड़ कभी टिकैत के साथ देखी जाती थी, वह चौधरी अजित सिंह के साथ हो ली। हाईफाई पालिटिकल ड्रामा हुआ। धरने पर विपक्षी नेता आए। कुछ दूर रहे। कुछ संसद में रहे। शोर हुआ। हंगामा हुआ। भाषण हुए। दिल्ली हिली। दिल्ली डोली। दिल्ली बोली-देखेंगे। विजयमुद्रा में किसान लौट आया। मांगने गया था दाम। बात खत्म हो गई एफएंडआरपी पर। अजित सिंह भी खुश। ताकत दिखा दी। रालोद के कांग्रेस में विलय की बात कहने वालों को झटका दे दिया। कांग्रेस को अहसास दिला दिया कि रालोद में कितनी ताकत है। अजित पहली बार लीडर की शक्ल में थे। उनके पीछे थे मुलायम सिंह। टीवी (धरने पर नही) पर थे भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह। मानो पूरा विपक्ष एक था। लेकिन....यक्ष प्रश्न अपनी जगह है-गन्ना किसान को क्या मिलेगा। 280, 250, 225, 200 या बोनस के साथ सिर्फ 180 रूपये। यह अभी तय नहीं। हो सकता है कि इस आंदोलन के बाद अजित या जयंत मंत्री बन जाएं लेकिन वजीरों की वजारत में क्या गारंटी कि किसान फकीर नहीं बनेगा। उसको वाजिब दाम मिलेगा।
सचमुच....किसान हर दम हारा। हर दिन रीता।
सूर्यकांत द्विवेदी

तकनीकी सहयोग- शैलेश भारतवासी

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