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Tuesday, November 25, 2008

अनुशासनहीन रहकर देश का गौरव बढ़ाएं

व्यंग्य

जब कोई व्यक्ति लगातार अनुशासन तोड़ता है तो उसे बड़े होने, शक्तिमान होने साधन सम्पन्न होने का आभास मिलता है। वह क्या आदमी जो बड़ा हो और अनुशासन भी न तोड़े। अब कई सांसदों ने पालाबदल लिया । पार्टी व्हिप को ठेंगा दिखाया । तब पता चला कि वे सब भी बड़े हैं । उनके भरोसे पार्टी के बडे़ दादा संसद में धोंसिया रहे थे । उन्होंने दादा लोगों की हवा निकाल दी । बाद में बड़े भोलेपन से कह रहे थे कि उन्हैं पार्टी व्हिप का पता नहीं था ।
क्या जमाना था जब टीचर कक्षा में होता था, गुरू जी के साथ-साथ चेले चेलियां तथागत भावों से उनकी बात मानते चलते लगता था मुर्दों की सभा हो या कि सारे रोबोट हों ये भी कौन सी बात हुई कि कि गुरू जैसे हिले वैसे ही चेले हिले, जैसे गुरू चले वैसे चेले चले, जैसा गुरू ने कहा वैसा ही चेले, चेलियों ने किया । भला यह कौन सी जीवन षैली हुई, आखिर वह चेला क्या जो गुरू की राह चले इसलिए कहा गया चेला वही जो गुरू से आगे निकल जाय या कि गुरू को लंगड़ी देकर आगे चला जाए ।
कुछ लोग गुरू चेलों की इस हालत पर खुश होते हैं जाहिर है दूसरों को परेशान देख खुश होने वालों की इस देश में कमी नहीं है। पर खुश होना क्या अंधों अंधे ठेलिया दोनों कूप परंत वाली बात होनी ही चाहिए । देश के कुआ खोदने वाले विभागों का भी उपयोग हो जाएगा और हमारे ज्ञान की परख भी । सो अच्छे गुरू चेले वह भी कहे जा सकते हैं जो या तो खुद कुए में गिर जाए या ठेल-ठाल प्रतियोगिता संपन्न करते हुए एक साथ लुढ़क जाए। आखिर अंधे गुरू के अंधे चेले दोनों जैसे मिलते रहेंगे तभी गुरू परंपरा की दुहाई दी जा सकेगी । मेरा एक सुझाव यह भी है ऐसे लोगों को जो उपर कही गई परंपरा में आगे न पाए उन्हे दण्डित करना चाहिए।
असल में कक्षा तो वह है जब गुरू राम रहें तो चेला श्याम-श्याम कहे । चेला वही जो गुरू से आगे चले । आगे चले ही नहीं गुरू को भी ठेले । जब गुरू पढ़ाने की चेष्टा करे तो चेला उसका मुखौटा बना तो ज्यादा अच्छा होगा । इससे पाठ के साथ चित्र कला का विकास होगा । गुरू जब गंभीर होकर पढ़ाए और आप उसे हंसाने का प्रयास करें तो इससे व्यंग्य तथा हास्य के साथ अभिनय कला का विकास होगा। गुरू जब लिखने को कहें और न लिखने पर बहस करें और जब व्याख्यान सुनने को कहें तो आप नोट्स नोट बनाने को कहें इससे वकृत्व कला का विकास होगा । संघर्ष का सिद्धान्त आखिर माक्र्स यू ही नहीं सुझा गये । संघर्ष का मंत्र आखिर कितना प्रभावी होता है । इसका भी पता चलेगा । इसका प्रतिफल हमें मिलना ही चाहिए।
देश को अधिकारी कर्मचारियों के भरोसे छोड़ हमारे नेता अपने धंधों में लिप्त रहते हैं। चारा से लेकर कफन घोटाले करने के बाद भी उनका देश में योगदान खत्म नहीं होता तो हमारे अधिकारी, कर्मचारी भी अपना योगदान देते हैं । 10 बजे के कार्यालय में 11 बजे आकर तदंतर गप, बहस, लंच, चाय और वापसी का क्रियाकर्म पूरा कर वे भी अनुशासनहीनता का विकास करते हैं आखिर समय पर ही पूरी तरह देश को विकसित कर देंगे तो उनकी नौकरी की जरूरत पर ही संदेह हो जाएगा। जाहिर है किसी भी अक्लमंद को अपने पांवों पर कुल्हाड़ी मारने की जरूरत नही है। सो वे भी शनैः चरति के सिद्धान्त पर चल रहे हैं ।
अब माता पिता का हाल देखिए खुद देर से सोएंगे बच्चे से समय पर सोने को कहेंगे, जो खुद खाएंगे पीएंगे वही बच्चों से मना करेंगे । जो खुद करेंगे वह बच्चों से न करने को कहेंगे। आखिर अनुशासन तोड़ने का पाठ हम अपने माता-पिता के अनुशासन तोड़ने से सीखते हैं कि बड़ा होने का मतलब स्वयं को अनुशासन से बाहर रखने का ही है।
इसी प्रकार गुरूजन भी वही सब करते हैं जो वे छात्रों से न करने को कहते हैं । पढ़ना लिखना एम0ए0 करने के बाद न छोड़ गए तो नौकरी मिलने के बाद पढ़ना बंद कर ही देते हैं। छात्रों से कहेंगे समय पर आएं खुद देर से आऐंगे, छात्रों से कहेंगे राजनीति मत करो खुद राजनीति करेंगे इससे भी हमें यह सबक मिलता है जो कहो वह मत करो, अर्थात अनुशासन शब्द में हो तो कर्म में तो कतई न हो, इससे रचनात्मकता का विकास होता है, आखिर बार-बार वही करना जो करणीय न हो और जो करणीय हो, न करना सबसे बड़ा लक्ष्य रखना चाहिए । सुपुत्र (सुपुत्री भी) वही हैं जो अपने माता पिता से कई कदम आगे हों । अतः हमें गुरूजनांे तथा माता-पिता से ये ही सारे गुर सीखने चाहिए, जिससे हम लायक सिद्ध हो सकें ।
अब देखिए घर पर फोन आने पर या किसी के घर आने पर माता-पिता कहते हैं बेटा कह दो घर में नहीं हूँ , बेटा फोन पर कह देता है ‘‘पिता जी कह रहे हैं कि वे घर पर नहीं हैं।’’ उत्तर में वह पिता के गुस्से का शिकार होता है । इससे भी सिद्ध होता है कि पिता जो कहते पर असल वह वहीं न करने का कह रहे होते हैं। यह अनुभव भी आपको सबक सिखाने के लिए काफी है ।
सो मैं तो हर पढ़े और बडे़ आदमी से निवेदन करूंगा कि आप अपने स्तर पर अनुशासन तोड़ें, तोड़ने का अभ्यास करें, खुद तोड़ें औरों से तोड़ने का निवेदन करें, जो न तोडं तो उन्हें अनुशासन पालन करने का सबक सिखाएं । आखिर इस देष में अनुशासन का सबक सिखाते हुए गाधी बनने से तो कोई लाभ है नही । सही काम कर माफी मांगने या पिटने से तो अच्छा है कि आप जब जहा जैसे हो के आधार पर अनुशासन तोड़ने का यथासंभव अभ्यास करें । अगर अब भी आप अनुशासन तोड़ने का सबक नहीं सीख पाए तो क्या गाधी जी की तरह अपना जीवन अनुशासन के बढ़ावे के नाम पर चुका दें और गोली खाकर ही राम-राम कहें।


नवीन चन्द्र लोहनी
nclohani@gmail.com

Wednesday, October 8, 2008

हम टायर होंगे, रिटायर नहीं



दामोदर दत्‍त दीक्षित की आदत है कि वह इर्द-गिर्द ताकाझांकी बहुत करते हैं। दरअसल नाक-कान-आंख को हमेशा एक्टिव रखने वाले कथाकार-व्‍यंग्‍यकार दामोदर उत्‍तर प्रदेश में आला अफसरी भी करते हैं। हांलाकि उनका विभाग मिठास भरा है लेकिन उनकी व्‍यंग्‍य रचनाएं तीखी होती हैं। उप चीनी आयुक्‍त के पद पर काम करते हुए भी उनका नियमित लेखन हमेशा गतिमान रहता है। इर्द-गिर्द के लिए उन्‍होंने ये व्‍यंग्‍य भेजा है। पढिए, आनंद लीजिए और जी भर कर टिपियाइए। बेहिचक।


हिंदुस्‍तानी आदमी बहुरंगी-बहुस्‍तरीय विशेषताओं वाला प्राणी है। उसकी एक विशेषता यह है कि वह टायर हो जाता है, रिटायर नहीं होना चाहता। वह अजर-अमर कामी होता है और स्‍वयं को विकल्‍पहीन मानते हुए उसी दिन रिटायर होना चाहता है जिस दिन महिषवाहन यमराज टांग पकड़ कर कुर्सी से खींचे और भैंसे की पूंछ से बांधकर फिल्‍मी अंदाज में घसीटते हुए नरक की ओर प्रस्‍थान करें या क्‍या जाने उस दिन भी नहीं? शायद सोचता हो कि उसकी भटकती हुई प्रेतात्‍मा भी छूटे हुए महान दायित्‍व को संभालने में सक्षम है।
वैसे तो देशवासी बात-बात में मूंछ मरोड़ते रहते है, पर रिटायर होने के मामले में भयंकर कायर होते हैं। इकदम बोदे, इकदम कांचू। वे वन से भले ही न डरें पर वानप्रस्‍थ से डरते हैं। जैसे कुत्‍ते के काटने से पागल हुआ व्‍यक्ति पानी से डरता है, जैसे पु‍लिस के लोग 'लाइन हाजिर' होने से डरते हैं, जैसे राजनेता चुनावी हार से, जैसे उपदेशक मौनव्रत से और अध्‍यापक कक्षा से डरता है, वैसे ही हिंदुस्‍तानी पदधारक रिटायर होने से डरता है। उसके दो-चार झापड़ रसीद कर दो, चार-पांच लाते जड़ दो, मुर्गा बना दो, बस रिटायर न करो। रिटायरमेंट का नाम सुनते ही उल्‍टी-दस्‍त होने लगती हैं। सिरदर्द, पेटदर्द मुंहदर्द, दांतदर्द, आंखदर्द, कानदर्द, नाकदर्द सब सताने लगता है। कुछ लोग राजयोग छूटने का नाम सुनते ही राजरोग के शिकार हो जाते हैं। किसी को मधुमेह, किसी को हृदयरोग, किसी का गुर्दा क्षतिग्रस्‍त तो किसी का यकृत। एक से एक महंगे, मजबूत और टिकाउ राजरोग। किसी को जूड़ीताप हो जाता है तो किसी को दमा, किसी को कब्‍ज तो किसी को गठिया। किसी को बबासीर हो जाती है, किसी को गुप्‍तरोग तो किसी को नामर्दी। कुल मिलाकर वे चिकित्‍सा विज्ञान के अदभुत मॉडल बन जाते हैं। ये तो कहिए अंगविशेष होते नहीं अन्‍यथा रिटायरमेंटद्रोही जन रजोनिवृत्ति और स्‍तनकैंसर की भी शिकायत करने लगें।
रिटायरमेंटोलॉजी (सेवानिवृत्ति-विज्ञान) का एक और फंडा भी है। अशुद्ध-अबुद्ध जीवात्‍मा स्‍वयं तो रिटायर होना नहीं चाहती, पर दूसरों को समय से या हो सके समयपूर्व रिटायर होते देखना चाहती है। सार्वजनिक स्‍थानों की बतकहियों, दफ्तरों की कनफुसकियों और ड्राइंगरूमीय चर्चाओं में अक्‍सर लोग अमुल्‍य सुझाव देते मिल जाते हैं। 'राजनेताओं के भी रिटायरमेंट की आयुसीमा होनी चाहिए।' मेरा अनुभव है कि ऐसे लोग वे होते हैं जो कभी रिटायर नहीं होना चा‍हते हैं। वे परसंताप-ग्रंथि से पीडि़त होते हैं। 'ये नामाकूल नेता कभी रिटायर नहीं होते, मरते दम तक जनता की छाती पर मूंग दलते रहते रहते हैं जबकि ये सुअवसर हम नामाकूलों को दिया जाना चाहिए।'
अफसरशाही देश का सबसे निर्लज्‍ज वर्ग है। ऐसा मैं दावे के साथ कह सकता हूं क्‍योंकि मैं उसका अविभाज्‍य अंग हूं। चतुर-चंट अफसर रिटायरमेंट से पहले ही कटोरा लेकर खड़ा हो जाता है-हुजूर, कुछ काम-धंधे का जुगाड़ किया जाए।' यानी कि रिटायरमेंट की वय तक आधिकारिक तौर पर जोंक बनकर खून चूसते रहे, पर पेट नहीं भरा। तन शिथिल, मन उससे भी शिथिल, पर रिटायरमेंट के लिए तैयार नहीं। ऐसे लोगों के लिए भर्तृहरि बहुत पहले कह गए हैं-
अंग गलितं पलितं मुण्‍डं, दशनविहीनं जातं तुण्‍डम्।
वृद्धो याति गृहीत्‍वा दण्‍डं तदपि न मंचत्‍याशा पिण्‍डम्।।

हमारे अफसर भी आशा का पिण्‍ड नहीं छोड़ते। 'माइटी-हाइटी-फाइटी' अफसरों के लिए विभिन्‍न आयोग, निगम, संस्‍थाएं आदि चारागाह के रूप में उपलब्‍ध है। हाल ये है कि घोड़ा न हो तो गधे की ही सवारी दे दो, सिर पर चौराहा बना दो, तब भी चलेगा। अफसर में जरा भी गैरत बची हो, तो उसे सेवाविस्‍तार, पुनर्नियुक्ति या दैनिक वेतनभोगी के रूप में मिलने वाले प्रस्‍ताव से इंकार कर देना चाहिए। पर अफसरों के पास सब कुछ होता है, बस गैरत नहीं होती। आप चारों तरफ नजर दोड़ाइए, एक से एक सेवानिवृत्‍त अफसर निर्लज्‍जता के साथ, राजा ययाति की मुद्रा में कुर्सी से चिपके बैठे हैं, तन-मन से मजबूत योग्‍य जनों का अधिकार हड़पते हुए। सच ही, बेशर्ममेव जयते।
खेल का भी खेल कुछ कम नहीं। दुनिया जानती है कि आउटडोर खेलों या शारीरिक शक्ति वाले खेलों की प्रतिस्‍पर्धापरक आयु लगभग पंद्रह से बत्‍तीस बर्ष तक होती है। अद्वितीय क्षमतावान खिलाड़ी हो तो एक-दो साल और खींच ले जाएगा। बस़......। पर हमारे हिंदुस्‍तानी खिलाड़ी इस तथ्‍य से अ‍परिचित हैं, अपरिचित ही रहना चाहते हैं। अन्‍य देशों में क्षमता के ह्रास होते ही खिलाड़ी सम्‍मानजनक ढंग से स्‍वयं रिटायर होने की घोषणा कर देता है। पर अपने देश में जब तक खिलाड़ी की पीठ से चार इंच नीचे, चार लातें मारकर 'जा फूट, बहुत हुआ' कहने का पवित्र मंत्रोच्‍चारण नहीं होता, तब तक वह रिटायर नहीं होता। यानी खिलाड़ी रिटायरमेंट से पूर्व चार लातें खाना अपना अनिवार्य धर्म समझते हैं।
एक समस्‍या और भी। यहां अगर खिलाड़ी रिटायर होना चाहे, तो उसके फेन रिटायर नहीं होने देते। अगर 'टेनिस एल्‍बो' के कारण किसी क्रिकेटर का हाथ उठने से इंकार करता है और वह बार-बार बोल्‍ड होने की उदारता दिखाता है तो उसके समर्थक कहते हैं, ‘कोई बात नहीं। ससुरे लंदन के डाक्‍टर कब काम आएंगे। वे हमारे खिलाड़ी की महान ‘टेनिस एल्‍बो’ को महान ‘क्रिकेट एल्‍बो’ बना देंगे।‘ पर ऐसा हो नहीं पाता। हमारे महान खिलाड़ी और उससे भी ज्‍यादा महान उनके समर्थकों को यह नहीं पता कि उम्र का तकाज़ा होता है और एक निश्चित उम्र के बाद एक नहीं, एक सौ एक ऑपरेशन करा डालो, पर पहले जैसी बात नहीं आ सकती। ऐसे में खिलाड़ी देश के प्रति ही नहीं, अपने प्रति भी अन्‍याय करता है। कमर में पीरें उठने लगती हैं, गठिया ने घुटने का जकड़ लिया है। ऐसी स्थिति में गेंद आपकी हाकी स्टिक का नमस्‍ते स्‍वीकार करने से रहा। स्‍पान्‍डलाइटिस हो जाने पर, टेबलेट खाकर ‘हेडर’ मारेंगे, तो फुटबाल कितनी दूर जाएगा, इसका अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है। फास्‍ट बालर के कंधे में अंदरूनी चोट है, तो उसकी बालिंग की गति कितनी होगी और बाल किस दिशा में जाएगा, समझा जा सकता है। पर हमारे तथाकथित खिलाड़ीप्रेमी सुनने-समझने को तैयार नहीं होते। अंधभक्ति और व्‍यक्तिपूजा हावी रहती है और वे घायल-चोटिल-अस्‍वस्‍थ-कमजोर हो चुके खिलाडियों की पैरवी करते रहते हैं। गालिब याद आते हैं-
गो हाथ में जुबिंश नही, आंखों में तो दम है,
रहने दो अभी सागर-ओ-मीना मेरे आगे।

कुल मिलाकर हम अ-रिटायरमेंट माहौल में घिसट रहें हैं। लोग इतने कायर हो चुके हैं कि घिसे टायर बनने को तैयार हैं, पर रिटायर होने को नहीं। पर घिसा हुआ टायर तो घिसा हुआ होता है। एक दिन अचानक फटेगा, तो बस में सवार यात्रियों को भी दुर्घटनाग्रस्‍त कर देगा, ‘हम तो डूबेंगे सनम, तुमको भी ले डूबेंगे।‘ इसलिए प्‍यारे देशवासियो, आदरणीय रिटायरणीयों को अशांति से रिटायर होने दो, उन्‍हें टायर होने से बचाओ। इसी में देश का भला है और जिसमें देश का भला है, उसमें सबका भला है।
दारा रहा न रहा सिकंदर-सा बादशाह,
तख्‍त-ए-ज़मीं पे सैंकड़ों आए, चले गए।

तकनीकी सहयोग- शैलेश भारतवासी

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