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Saturday, December 18, 2010

तंदूर से फ्रिजर तक : भुनती और जमती औरत

करीब पंद्रह साल पहले एक आदमी ने अपने प्‍यार को तंदूर में भून डाला था और पंद्रह साल बाद एक दूसरे आदमी ने अपने प्‍यार को बर्फ में जमा दिया। पंद्रह सालों में दुनिया बदल गई लेकिन नहीं बदला तो 'मर्द' और उसकी 'मर्दानगी'। दुनिया में हम विकासशील से विकसित की दौड़ में पंहुच गए तो मर्द भी तंदूर से डीप-फ्रिजर तक पंहुच गया। कहते हैं कि शिक्षा के साथ संपन्‍नता और सभ्‍यता में भी इजाफा होता है लेकिन लगता है कि दरिंदगी की रफ्तार इन सबसे कई गुना चलती है; तभी तो देहरादून की अनुपमा बहत्‍तर टुकड़ों में कटकर डीप फ्रिजर में पड़ी रही और उसके कथित तौर पर शिक्षित, सभ्‍य और संपन्‍न पति सत्‍तावन दिनों तक एक दिन भी आत्‍मग्‍लानि नहीं हुई। कहते हैं कि हिंदु या भार‍तीय शादियां किसी लाटरी की तरह होती हैं। शादी के बाद ही पता चलता है कि लाटरी लाख की हुई या खाक की। लेकिन सोफ्टवेयर इंजीनियर राजेश गुलाटी ने तो उड़ीसा की अनुराधा को दिल की आवाज पर अपनी संगिनी बनाया था। दोनों ने लव मैरिज की थी और अमेरिका में रहने के बाद जब वह अपने वतन लौटे तो देहरादून में आकर बस गए। अनुराधा के जुड़वा बच्‍चे हुए जो उनके साथ ही रह रहे थे और अब चार साल के हैं। तब आखिर ऐसा क्‍या हुआ जिसने आदमी को दरिंदा बना दिया या यूं कहिए कि आदमी की खोल में छिपा दरिंदा यकायक बाहर आ गया। क्‍या मर्दानगी ही आदमी की दरिंदगी है या दरिंदगी में ही मर्दानगी का वास होता है या फिर औरत इस सृष्टि में इसी तरह के किसी हश्र के लिए जन्‍मी है।
आज से करीब पंद्रह साल पहले दो जुलाई 1995 को नैना साहनी तंदूर में मुर्गे की तरह भूनी गई थी। उसके राजनेता पति ने गोली मारकर उसे तंदूर में सेंक दिया था। नैना साहनी के दबंग पति सुशील शर्मा को शक था कि उसकी पत्‍नी के किसी दूसरे मर्द के साथ संबंध हैं। सुशील ने अपनी पायलट पत्‍नी की उड़ान बंद करने के लिए पहले उसे गोली मारी और फिर उसके टुकड़े कर उसे एक होटल के तंदूर में डालकर भूनना शुरु कर दिया ताकि कोई सुबूत ही न बचे लेकिन वहां से गुजर रहे एक सिपाही की आत्‍मा तंदूर से उठती गंध ने जगा दी और वह थाने से पुलिस लेकर पंहुच गया। सुशील शर्मा तो मौके से फरार हो गया लेकिन होटल का मालिक केशव हत्‍थे चढ़ गया तो पता चला कि दिल्‍ली युवा कांग्रेस का कद्दावर नेता सुशील अपनी पत्‍नी के टुकड़ों को तंदूर में भून रहा था। ठीक कुछ इसी तरह राजेश गुलाटी ने बीती 17 अक्‍टूबर को पहले अपनी पत्‍नी का वध किया और उसके बाद बाजार से डीप फ्रिजर लाकर उसमें जमा दिया। इसके बाद उसके शातिर दिमाग ने बाजार से पत्‍थर काटने का कटर और आरी लेकर उसके 72 टुकड़े किए और धीरे-धीरे एक-एक टुकड़े को वह मंसूरी की वादियों में फेंककर ठिकाने लगाता रहा। उसके बच्‍चे मां को याद करते तो वह उन्‍हें पुचकार कर चुप करा देता कि उनकी मां दिल्‍ली गई है, जल्‍दी आ जाएगी। यदि राजेश की ससुराल से फोन आता तो वह उन्‍हें भी कोई बहाना बनाकर टरका देता। बाहर का कोई आदमी राजेश पर दरिंदा होने का शक भी नहीं कर सकता था क्‍योंकि अमेरिका में नौकरी कर लौटा सोफ्टवेयर इंजीनियर राजेश आज की सोसायटी के लिए एक आयकॉन भी था। सुशील को तो मौत की सजा सुना दी गई और हो सकता है कि दस-बीस साल में राजेश का भी वही हश्र हो लेकिन सवाल उठता है कि समाज के उस वर्ग के लोग दरिंदंगी की सीमाएं क्‍यों पार कर रहे हैं जिनको समाज एक बिंब की तरह देखता है; जिन से प्रभावित होता है और उनकी तरफ देखकर वैसा ही बनने की आकांक्षा पालता है।
ऐसा नहीं है कि नैना और अनुपमा दो ही उदाहरण हैं। ऐसी घटनाएं हमारे समाज में अलग-अलग जगहों पर आए दिन घटित होती हैं। इनमें से बहुत सी घटनाएं तो कभी अखबारों की सुर्खियां भी नहीं बनतीं। जेसिका लाल, प्रियदर्शन मट्टू या कुसुम बुद्धिराजा जैसे नाम तो मीडिया की सुर्खियों की वजह से जाने जाते हैं वरना हमारा समाज आमतौर पर मर्द को माफ करने का ही हिमायती रहता है और बहुत सी अमानवीय दुराचार की कहानियां घर की चहारदीवारी से बाहर भी नहीं आ पातीं। अगर ऐसा न होता तो मुजफ्फरनगर की इमराना के बलात्‍कारी ससुर को गांव की पंचायत सिर्फ सात जूतों की सजा सुनाकर वरी न करती। यानी एक निरीह औरत की अस्‍मत गांव की पंचायत ने सिर्फ सात जूतों में ही निपटा दी लेकिन इमराना को भी हम मीडिया के जरिए ही जानते हैं वरना न जाने कितनी इमरानाएं रोजाना इस तरह के अत्‍याचार सहती हैं। समाज और पंचायते ही नहीं अदालतों का रवैया भी इससे कहीं इतर नहीं है। 1977 में महाराट की एक आदिवासी लड़की का थाने में ही बलात्‍कार हुआ था तब भी आरोपी सिपाहियों को वरी करते हुए मथुरा नाम की उस आदिवासी लड़की को ही निचली अदालत ने बदचलन करार दिया था। इस फैंसले पर भी खूब हंगामा हुआ और बाद में हाईकोर्ट ने दोनों बलात्‍कारी सिपाहियों को आजीवन कारावास की सजा दी लेकिन एक बात साफ है कि औरत की आबरू मर्द के नजरिए में कोई अहमियत नहीं रखती। हर साल करीब पच्‍चीस हजार महिलाओं की इज्‍जत तार-तार होती है, इतनी ही अगुवा की जाती हैं तो इससे तीस गुना या और भी अधिक घर पर 'मर्दो' के हाथों रोज पिटती हैं।
सवाल उठता है कि इसके लिए दोषी समाज है, गिरते नैतिक मूल्‍य हैं या अपसंस्‍कृति इसके लिए दोषी है? क्‍या हमारी लाचार कानून-व्‍यवस्‍था इन पवृतियों को निरंकुश करने में सहायता नहीं कर रही है? सच तो यही है कि आज हमारी कानून-व्‍यवस्‍था की हालत दिल दहला देने वाली है। जेसिका लाल, प्रियदर्शिनी मट्टू, शिवानी भटनागर, मनू शर्मा, बीएमडब्‍लू कांड लगातार हमारे दिमाग में हथौड़े नहीं बजाते। नैना साहनी कांड में लाश को टुकड़ों में विभाजित कर तंदूर में भूना जाना क्‍या हमारे समाज के गर्त में जाने, उसके अधोपतन के उदाहरण नहीं है। या फिर एक पढ़े-लिखे विदेश में रहे एक सोफ्टवेयर इंजीनियर द्वारा अपनी पत्‍नी की हत्‍या कर पत्‍थर काटने की मशीन से उसके टुकड़े कर उसे डीप फ्रिज में रखना आदमी के पत्‍थर हो जाने की कहानी नहीं तो और क्‍या है? आदमी के दरिंदा होने की कहानियां हमारे समाज में लगातार क्‍यों बढ़ रहीं हैं; ये एक ऐसा यक्षप्रश्‍न है जिसका हल किसी युधीष्ठिर के पास ही हो सकता है लेकिन अफसोस कि हमारा समाज आजकल दुशासन पैदा कर रहा है और उनके हाथ भी खून से रंगे हुए हैं जिनपर युगनिर्माण की जिम्‍मेदारी है। ऐसे में कहना मुश्किल है कि कब तक नैना तंदूर में और अनुपमा बर्फ में जमती रहेंगी...ये दो तो फिलहाल एक प्रतीक हैं वरना इस वेद में तो ऋचाएं बहुत हैं।

Sunday, October 25, 2009

ये सच तो डरावना है

देश में सर्वशिक्षा अभियान की शुरुआत को सात साल पूरे होने को हैं। अभियान की सफलता का श्रेय लेने के लिए केंद्र-राज्‍य सरकारों ने कोई कसर नहीं छोड़ी है। सरकारे डंका पीट-पीट कर बता रही हैं कि अब 14 साल तक हर बच्‍चा स्‍कूल में है। पर, उत्‍तराखंड में सर्वशिक्षा अभियान के बारे में अचानक एक ऐसा कड़वा सच सामने आ गया कि जिसे स्‍वीकार करना आसान कतई नहीं है। यह 'सच' अनायास ही उस वक्‍त सामने आया जब उत्‍तराखंड की सरकार यह पता लगाने चली कि सरकारी स्‍कूलों से कितने मास्‍साब गायब हैं। मास्‍टर गायब मले तो उनके खिलाफ कार्रवाई भी हो गई, जो दूसरा सच उजागर हुआ उससे भौचक्‍की है।
पता ये चला कि कागजों में जो पंजीकरण दिखाया गया स्‍कूलों में वे बच्‍चे हैं ही नहीं। प्रदेश भर में औसत मिसिंग 20 प्रतिशत मानी गई। आंकड़े डरावने हैं क्‍योंकि यह मिसिंग राजधानी दून में 60 प्रतिशत और हरिद्वार जैसे संपन्‍न जिले में 50 प्रतिशत है। तीसरे मैदानी जिले उधमसिंह नगर में भी 25 प्रतिशत बच्‍चे नहीं हैं। प्रदेश में एक महीने से इन बच्‍चों की तलाश हो रही है, लेकिन ये नहीं मिले। सरकार भी परोक्ष तौर पर ये मान चुकी है कि नहीं मिलेंगे, क्‍योंकि संख्‍या बढ़ाने के लिए इनकी आड़ में करोड़ों का भ्रष्‍टाचार कर फर्जीवाड़ा हुआ है।
इस स्थिति के साथ कई गंभीर बातें जुड़ी हैं। कक्षा आठ तक के स्‍कूलों में 19 लाख बच्‍चों के आंकड़े के दम पर उत्‍तराखंड सरकार शिक्षा के क्षेत्र में दक्षिण भारत की बराबरी का दावा कर रही है। यदि स्‍कूलों में 20 प्रतिशत यानी करीब पौने चार लाख बच्‍चे फर्जी हैं, तो इससे साफ है कि असली बच्‍चे स्‍कूलों के बाहर हैं और वे अनपढ़ हैं। इसके साथ यह सवाल भी खड़ा हो गया कि जिस अभियान को आगामी मार्च में शत-प्रतिशत सफल घोषित किया जाना था वह पौने चार लाख फर्जी बच्‍चों के साल किस आधार पर सफल कहलाएगा?
एक अन्‍य सवाल यह है कि इतनी बड़ी संख्‍या में बच्‍चों का फर्जी पंजीकरण कैसे हुआ। दरअसल, धांधली पंजीकरण में दोहराव के जरिए हुई। एक बच्‍चे को अलग-अलग नामों से प्राइवेट स्‍कूलों, मदरसों, आंगनबाड़ी में पंजीकृत किया गया। इसके पीछे मकसद इन छात्रों के नाम पर मिलने वाली छात्रवृत्ति, मिड डे मील, ड्रेस, कॉपी-किताबों की धनराशि हड़पने का था। इन बच्‍चों को उत्‍तराखंड सरकार एक साल में 34 करोड़ की छात्रवृत्ति बांटती है और 20 प्रतिशत छात्र फर्जी होने के नाम पर सरकार को 7 करोड़ रूपये का चूना लगाया गया। इसी तरह किताबों के सेट तथा मिड डे मील की व्‍यवस्‍था पर सरकार द्वारा रोज ढाई रूपया प्रति बच्‍चा खर्च किया जाता है। पता ये चला कि पूरे साल में मिड डे मील में करीब 16-17 करोड़ रूपये का फर्जीवाड़ा हुआ। वजीफे, मिड डे मील और किताबें, तीनों मदों की यह राशि हर साल 28-30 करोड़ हो रही है यानी सात साल के अभियान में 2 अरब का घोटाला। अकेले उत्‍तराखंड के संदर्भ में यह राशि 200 करोड़ पंहुच रही है तो एक पल के लिए सोचिए कि पूरे देश के मामले में यह घोटाला कितना बड़ा होगा?
चूंकि यह सारी पड़ताल उत्‍तराखंड सरकार ने खुद कराई इसलिए इसे यह कह कर खारिज नहीं किया जा सकता कि यह विश्‍वसनीय नहीं है। अगर उत्‍तराखंड में इस अभियान की सफलता का सच इतना कड़वा है, तो देश के बाकी राज्‍यों खासकर बिहार, उत्‍तर प्रदेश, झारखंड, मध्‍य प्रदेश, छत्‍तीसगढ़ में स्थिति क्‍या होगी; इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। इन राज्‍यों में तो सरकारी अमला इस कदर हावी होता है कि वहां सरकारी अभियान सिर्फ कागज का पेट भरने के लिए चलते हैं। सवाल यह भी है कि क्‍या उत्‍तराखंड क पड़ोसी राज्‍यों हिमाचल, यूपी, हरियाणा, जम्‍मू एंड कश्‍मीर में ऐसा नहीं हुआ होगा? यदि दूसरे राज्‍यों में भी यही प्रतिशत दोहराया गया हो (जिसकी पूरी आशंका है) तो क्‍या सर्वशिक्षा अभियान को सफल मान लिया जाना चाहिए? उत्‍तराखंड का उदाहरण किसी न किसी स्‍तर पर इस बात के लिए भी प्रेरित कर रहा है कि एसएसए के समापन से पहले देशभर में छात्रों की वास्‍तविक स्थिति की जांच हो। आखिर फर्जी आंकड़ों से तो देश की नई पीढ़ी का भला नहीं हो सकता।
यह सामान्‍य मामला इसलिए नहीं है क्‍योंकि यह सीधे तौर पर नई पीढ़ी के साथ धोखा है। उनके भविष्‍य के साथ खिलबाड़ है। जिन शिक्षकों पर देश की नई पीढ़ी को गढ़ने-संवारने, देश को योग्‍य नागरिक देने का जिम्‍मा है यदि वे फर्जी छात्रों की आड़ में वजीफे की राशि, मिड डे मील, किताबों के सैट और छात्रों के काम आने वाली अन्‍य शैक्षिक सामग्री को ठिकाने लगें, तो सोचिए आम लोगों का भरोसा किस कदर टूटेगा। उत्‍तराखंड के उदाहरण से कम से कम इस बात का साफतौर पर पता चलता है कि इस सारे मामले में शिक्षकों की संलिप्‍तता है। आपराधिक इसलिए कि उन्‍होंने सरकारी पैसों की उन बच्‍चों पर खर्च दिखाया जो वास्‍तव में थे ही नहीं। ये साफ है कि उत्‍तराखंड के 25 हजार सरकारी स्‍कूलों में से ज्‍यादातर के हेडमास्‍टर इस घोटाले का हिस्‍सा रहे हैं। अब जाने-अनजाने उत्‍तराखंड ने तो इस काम को पूरा कर लिया, यदि दूसरे राज्‍य या केंद्र सरकार भी जाग जाए, तो शायद उन करोड़ों बच्‍चों का भला हो जाएगा, जो अब भी अनपढ़ हैं, स्‍कूल के बाहर हैं।

तकनीकी सहयोग- शैलेश भारतवासी

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