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Thursday, August 14, 2008

हम कैसे होंगे कामयाब!

हम आज गदगद हैं। हो भी क्यों नहीं हमारा एक लाल ओलम्पिक में सोना जीत कर आया है लेकिन क्या हमने सोचा है कि एक सदी में हम एक ही अभिनव क्यों पैदा कर पाए। कमी हमारे लालों में नहीं बल्कि उस व्यवस्था में है, जो ऐसे लालों को उभरने से पहले ही निपटा देती है। अभिनव की कामयाबी के ठीक अड़तालीस घंटे बाद ऋचा जोशी रू-ब-रू हुईं एक ऐसी ही प्रतिभा की दास्तान से।
11 अगस्त 2008। भारतीय खेलों के इतिहास का एक ऐतिहासिक दिन...भारत को अभिनव कामयाबी मिली। अभिनव बिंद्रा ने एयर रायफल में गोल्ड मेडल जीता। ओलम्पिक में भारत के लिए पहला व्यक्तिगत स्वर्ण पदक जीतकर अपने नाम को सार्थक कर दिया। ओलम्पिक के एक सौ आठ साल के इतिहास में भारत के खाते में यह पहला व्यक्तिगत स्वर्ण पदक केवल जश्न मनाने का नहीं हमारी समूची नीति पर विचार करने का भी अवसर है। आखिर क्यों एक व्यक्तिगत स्वर्ण पदक हासिल करने के लिए एक सौ आठ वर्ष तक इंतजार करना पड़ा।
ओलम्पिक विश्व भर में खेलों का महाकुंभ है और उसमें स्वर्ण पदक जीतना किसी भी खिलाड़ी का सपना होता है। इस सपने को साकार करने के लिए खिलाड़ी को पूरे संयम और एकाग्रता से जुटे रहना होता है। अभिनव बिंद्रा ने खुद कहा कि मैं इतिहास की चिंता नहीं कर रहा था बल्कि सिर्फ आक्रामक प्रदर्शन करके अच्छा स्कोर बनाना चाहता था और मैने ऐसा ही किया। बिंद्रा की यह प्रतिक्रिया और भरोसा भारत में समूचे खेल परिदृश्य के लिए एक सबक होना चाहिए। अभिनव बिंद्रा के अचूक निशाने ने भारतीय खेलों में सोए पड़े उत्साह को जगाने की भरपूर कोशिश की है। पर भारत में खेल और खिलाड़ियों को लेकर जो रवैया आमतौर पर रहा है उसमें परिवर्तन की उम्मीद यकायक नजर नहीं आती। यदि ऐसा होता तो जब पूरा देश रोमांच, गर्व और खुशी का अनुभव कर रहा था तो निशानेबाजी की ही एक अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी को स्कूल से बेदखल न किया जाता। बरसों से कड़ी मेहनत कर सौ से ज्यादा मैडल हासिल कर चुकी मेरठ की इस महिला खिलाड़ी को अपने स्कूल के होम एक्जामिनेशन में कंपार्टमेंट लाने पर यह खामियाजा भुगतना पड़ा। स्कूल मैनेजमेंट का तर्क एक बार को तो सही लगा कि खेलने का मतलब यह नहीं कि पढ़ाई की तरफ ध्यान ही न दिया जाए लेकिन दूसरे ही क्षण जब मैने मेरठ के इस नामी-गिरामी कान्वेंट स्कूल के संचालक को इस महिला खिलाड़ी की उपलब्धियों की ओर ध्यान दिलाया तो वे बोले.."अजी नाम में क्या रखा है। जितनी बार बाहर खेलने जाती है, स्कूल फंड से इसका खर्चा देना पड़ता है।" स्कूल फंड से पैसा इस महिला खिलाड़ी की प्रतिभा को तराशने में न लगाना पड़े, सिर्फ इस वजह से स्कूल ने इस प्लेयर को पढ़ाई में फिसड्डी बताते हुए स्कूल से आउट कर दिया।
स्कूल का यह रवैया इस खिलाड़ी को हतोत्साहित करने वाला भी हो सकता है। हो सकता है कि वह इसे एक चैलेंज के रूप में स्वीकार करे और आने वाले ओलम्पिक तक एक वंडरगर्ल के रूप में उभर कर आए। स्कूल प्रबंधन द्वारा अपमानित किए जाने पर बच्ची के पिता की यह कसक कि अब मैं इसे खेल में ही अपनी पूरी ताकत से स्थापित करके दिखाउंगा, उस बच्ची के कैरियर का टर्निंग प्वाइंट भी हो सकती है। मैं सोच रही हूं कि यदि ऐसा हो गया तो सबसे पहले स्कूल ही अपनी कमर ठोकता हुआ नजर आएगा कि उसने एक ऐसी प्रतिभा देश को दी जिसने इतिहास रचा। और इसी स्कूल का मैनेजमेंट बढ़चढ़ कर बता रहा होगा कि सान्या (प्लेयर) वाज रियली जीनियस एंड वेरी मच फोकस्ड फार स्टडीज। जी हां, यही होता है। मलाई पर अपना हक जताने के लिए सब आगे आ जाते हैं और संघर्ष के दौर में प्रतिभाशाली खिलाड़ियों की भ्रूण हत्या कर दी जाती है।
परिवार में संसाधनों की कमी, स्कूलों और सरकारी-गैरसरकारी संगठनों का असहयोग और खेल मैदानों में रचे जाने वाले षड्यंत्रों की वजह से ही आबादी के लिहाज से दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश एक सौ आठ वर्षों में एक व्यक्तिगत गोल्ड मेडल हासिल कर पाता है। एक अरब आबादी वाले देश के लिए यह ठीक नहीं कि वह ओलम्पिक खेलों में एक-दो पदक हासिल करके संतुष्ट हो जाए। सच तो यह है कि खिलाड़ी और उनके परिजन मुकाम तक पंहुचने के लिए डेडीकेटेड न हों तो इक्का-दुक्का खिलाड़ी भी उपलब्धियों के नजदीक न पंहुच पाएं।
इस देश में प्रतिभा या क्षमता की कमी नहीं है। कमी सिर्फ उन्हें पहचानने और निखारने के लिए अनुकूल माहौल देने की है। हमारे देश का युवा वर्ग जीत में यकीन रखता है, किसी से पीछे नहीं रहना चाहता। अपने जुनून के बूते अभिनव बिंद्रा जैसे यूथ आइकन सामने आ रहे हैं। सबको मिलकर यह कोशिश करनी चाहिए कि सभी के प्रयासों से अभिनव जैसा करिश्मा करने वाले खिलाड़ियों की कतार खड़ी हो। टीवी चैनलों पर देश का नाम रोशन करने वाले प्लेयर्स के स्कूल-कालेज और देश के कर्णधार सीना चौड़ा कर कितना भी खुश हो लें पर सभी जानते हैं कि उनका किस स्तर पर कितना योगदान होता है। अगर होता तो पहले व्यक्तिगत ओलम्पिक स्वर्ण के लिए भारत को सौ साल से भी ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ता।
मैं इंडिया की यूथ जो टैलेन्टेड, कानफिडेंट और जीत में यकीन रखती है, जिसकी डिक्शनरी में इंपोसिबल शब्द है ही नहीं, को प्रणाम करती हूं।

तकनीकी सहयोग- शैलेश भारतवासी

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