इस बार गणेश चतुर्थी पर घर में मूर्ति प्रतिष्ठा के लिये सम्मानीय मित्र डॉक्टर राजेंद्र धोड़पकर (दैनिक हिंदुस्तान में सहायक संपादक और कार्टूनिस्ट हैं) कहीं से गणपति की मूर्ति ले आये। बचपन की यादें ताजा हो गईं। देखा सूंड किस तरफ है दाईं या बाईं, शगुन बढ़िया था। पूजा की थाली सजाई गई। सब कुछ बाज़ार में मिल गया, सिवाय तीन मुंह वाली दूब (घास) के। बाहर लेने निकला तो देखा कहीं घास ही नहीं है। जहां घास होनी चाहिये थी, वहां कचरा पड़ा है या ईंटे लगी हैं या पोलिथीन की चादर बिछी हुई है।
डॉक्टर की सलाह पर दो किलोमीटर भी कभी नहीं घूमा, दूब के लिये 5-6 किलोमीटर घूम आया। कहीं नहीं मिली घास, मिट्टी वाली ज़मीन ही कहां बची है जो घास मिले। ज़मीन की मिट्टी से काट दिये गये हैं हम लोग। जहां ज़रा सी नंगी ज़मीन दिखती है नगर निगम का ठेकेदार जाकर इंजीनियर को बता देता है। इंजीनियर प्रस्ताव बनाता है, आगे बढ़ता है, कमीशन का हिसाब-किताब बनता है। टेंडर तय हो जाता है उस ज़मीन को ढकने का जो नंगी दिख रही है, जहां घास उगती है और जो शहर की खूबसूरती को नष्ट करती है। फिर मलबा भरा जाता है, ईंटे लगती है, सीमेंट लगता है और घास उगने या ज़मीन में पानी जाने के सारे रास्ते बंद। अगर यहां से पानी गया तो फिर वाटर हार्वेस्टिंग या पानी रीचार्ज करने की परियोजनायें कैसे मंज़ूर होंगी।
यही हाल गांव का है और यही जंगल का। जंगल के पेड़ चोरी-छिपे काटने के बाद जब जंगलात के अफसर और ठेकेदार सबूत मिठाने के पेड़ के ठूंठों में आग लगवाते हैं तो जलती घास ही है। छोटे जानवर घास के साथ भुन जाते हैं और जो बच जाते हैं वो घास ना मिलने से भूखे मर जाते हैं। जंगली भैंसा क्या खाये, हिरणों की बिरादरी क्या खाये, हिरण मरेगा तो बाघ कैसे बचेगा। दिल्ली से आया पैसा और विदेशी डॉलर बाघ का पेट नहीं भर पायेंगे, उसका पेट भरेगा हिरण। लेकिन हिरण का पेट तो भरे पहले। घास भूख से भी बचाती है कई बार बाघ से भी।
घास जानवरों को ही नहीं बचाती राज्य भी बचाती है, ताज भी बचाती है और राजाओं को भी बचाती है। राजस्थान का एक वीर राजा घास की रोटी खाकर अकबर से लोहा लेता रहा। ये घास का दम है, खत्म होती घास का। वैसे भई, घास का गणित बड़ा सीधा है। वो बची तो सबको बचायेगी, इस कुदरत को भी। वैसे सरकार को भी घास की चिंता है। इंस्टीट्यूट खोल रखे हैं (एक झांसी वाला तो मुझे पता है), कोर्स चला रखे हैं, लोग पीएचडी कर रहे हैं, चारे के बारे में घास के बारे में। लेकिन उनको रिसर्च के लिये कब तक मिलेगी घास?
डॉक्टर की सलाह पर दो किलोमीटर भी कभी नहीं घूमा, दूब के लिये 5-6 किलोमीटर घूम आया। कहीं नहीं मिली घास, मिट्टी वाली ज़मीन ही कहां बची है जो घास मिले। ज़मीन की मिट्टी से काट दिये गये हैं हम लोग। जहां ज़रा सी नंगी ज़मीन दिखती है नगर निगम का ठेकेदार जाकर इंजीनियर को बता देता है। इंजीनियर प्रस्ताव बनाता है, आगे बढ़ता है, कमीशन का हिसाब-किताब बनता है। टेंडर तय हो जाता है उस ज़मीन को ढकने का जो नंगी दिख रही है, जहां घास उगती है और जो शहर की खूबसूरती को नष्ट करती है। फिर मलबा भरा जाता है, ईंटे लगती है, सीमेंट लगता है और घास उगने या ज़मीन में पानी जाने के सारे रास्ते बंद। अगर यहां से पानी गया तो फिर वाटर हार्वेस्टिंग या पानी रीचार्ज करने की परियोजनायें कैसे मंज़ूर होंगी।
यही हाल गांव का है और यही जंगल का। जंगल के पेड़ चोरी-छिपे काटने के बाद जब जंगलात के अफसर और ठेकेदार सबूत मिठाने के पेड़ के ठूंठों में आग लगवाते हैं तो जलती घास ही है। छोटे जानवर घास के साथ भुन जाते हैं और जो बच जाते हैं वो घास ना मिलने से भूखे मर जाते हैं। जंगली भैंसा क्या खाये, हिरणों की बिरादरी क्या खाये, हिरण मरेगा तो बाघ कैसे बचेगा। दिल्ली से आया पैसा और विदेशी डॉलर बाघ का पेट नहीं भर पायेंगे, उसका पेट भरेगा हिरण। लेकिन हिरण का पेट तो भरे पहले। घास भूख से भी बचाती है कई बार बाघ से भी।
घास जानवरों को ही नहीं बचाती राज्य भी बचाती है, ताज भी बचाती है और राजाओं को भी बचाती है। राजस्थान का एक वीर राजा घास की रोटी खाकर अकबर से लोहा लेता रहा। ये घास का दम है, खत्म होती घास का। वैसे भई, घास का गणित बड़ा सीधा है। वो बची तो सबको बचायेगी, इस कुदरत को भी। वैसे सरकार को भी घास की चिंता है। इंस्टीट्यूट खोल रखे हैं (एक झांसी वाला तो मुझे पता है), कोर्स चला रखे हैं, लोग पीएचडी कर रहे हैं, चारे के बारे में घास के बारे में। लेकिन उनको रिसर्च के लिये कब तक मिलेगी घास?
(इस लेख की प्रेरणा आदरणीय उदय प्रकाश जी से मिली जिन्होने अपनी पिछली टिप्पणी में घास की इतनी चिंता की।)