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Tuesday, January 13, 2009

उपन्‍यास अंश : धुंआ और चीखें

कथाकार-व्‍यंग्‍यकार दामोदर दत्‍त दीक्षित को उत्‍तर प्रदेश हिंदी संस्‍थान ने 'प्रेमचंद सम्‍मान' प्रदान करने की घोषणा की है। ये सम्‍मान उन्‍हें भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित उनके उपन्‍यास धुंआ और चीखें के लिए दिया जा रहा है जिसमें उन्‍हें उत्‍तर प्रदेश हिंदी संस्‍थान की तरफ से बीस हजार रूपये की पुरस्‍कार राशि दी जाएगी। इससे पूर्व उनके इसी उपन्‍यास के लिए राजस्‍थान का प्रतिष्ठित आचार्य निरंजननाथ सम्‍मान प्रदान किया जा चुका है। दामोदर दत्‍त दीक्षित इन दिनों मेरठ में उप चीनी आयुक्‍त के पद पर कार्यरत हैं। इर्द-गिर्द की तरफ से दामोदर जी को शुभकामनाएं। हम यहां उनके पुरस्‍कृत उपन्‍यास का एक अंश प्रस्‍तुत कर रहें हैं-



बन्‍नू पर नए-नए दौर तारी। पहले हिंसा-घृणा का दौर, फिर लिप्‍सा-लोभ का दौर और अब आया मुहाजिरों (शरणार्थियों) का दौर! सरहद पार हिंदुस्‍तान से थके मांदे, लुटे-पिटे, उजड़े-बिखरे मुहाजिरों के झुण्‍ड-के-झुण्‍ड आ रहे थे और नवोदित पाकिस्‍तान में यत्र-तत्र-सर्वत्र बसाए जा रहे थे। चर्चा के केंद्र में अब मुहाजि़र थे।
जुमे के रोज मीर आलम खां जुहर (दोपहर) की नमाज पढ़कर घर आ रहे थे कि ढपकती चाल में अलादाद खां दिखे। धाराप्रवाह गालियां चाल पर पुख्‍तगी से हावी।
'सलाम आले कुम' का जवाब 'वाले कुम सलाम' में पा चुकने के बाद मीर आलम खां ने हंसते हुए कहा, ''अरे म्‍यां, नमाज से फुर्सत मिलते ही किसकी मां-बहिन न्‍योतना शुरू कर दिया। अल्‍लाह के नाम पर मल्‍लाही ठीक नहीं।''
अलादाद खां रास्‍ता छेंककर खड़े हो गए।
''क्‍या बताउं मीर भाई! ये जो बहन.... मुहाजिर आए हैं, उन्‍होंने नकदम कर रखा है। ये समझो बिस्मिल्‍लाह ही गलत हो गया।''
''आलू भाई कुछ बताओगे भी या पहेली ही बुझाते रहोगे?" वह थोड़ा पिछड़कर खड़े हो गए जिससे अलादाद खां की बदबुदार सांस से निजात मिल सके।
''मेरे बगल में जगदीश फलवाला रहता था- अरे वही मोटी तोंद वाला हंसोड़ गंजा जिसका चेहरा फिल्‍मी कलाकार गोप से मिलता था। उसका पांच कमरों का घर था जिसे बने हुए पूरे तीन साल भी नहीं हुए होंगे। जगदीश के भागने के बाद मैने दोनों घरों के बीच दरवाजा फोड़ लिया और मय बीबी-बच्‍चों के उसके घर चला गया। अपने घर में कारखाना फैला लिया। पहले उसी मकान में घर, उसी में कारखाना था। जगह की बहुत तंगी हुआ करती थी।'' उसने मुंह ऐसे सिकोड़ा जैसे जगह की तंगी चेहरे पर उतर आई हो।
''.....और हुकूमत नें जगदीश का घर तुमसे खाली कराकर किसी मुहाजिर को दे दिया है। यही समस्‍या है न तुम्‍हारी?'' उसने अलादाद खां के बाएं कंधे पर दायां हाथ रखकर हौले से हिला दिया। ओठों पर मुस्‍कराहट, भवों पर तंज तैर रहा था।
कंधे पर हाथ रखने को सहानुभूतिक आयाम मानकर वह उत्‍साहित स्‍वर में बोले, '' सही फरमाया आपने। पर केवल यही दाद नहीं, खाज भी है। केले के पत्‍ते की तरह तकलीफ से तकलीफ निकल रही है। शुरू में तो जगदीश का मकान खाली करने से साफ इंकार कर दिया मैने। एक दिन सुबह दारोगा चंद सिपाहियों के साथ आ धमका। बेंत से पीटने लगा मुझे, जनानियों को भद्दी-भद्दी गालियां दीं, उनके साथ धक्‍कामुक्‍की की और हमारा सामान बाहर फिंकवाने लगा। बदन पोर-पोर दुख रहा था। हल्‍दी-चूना मलने के बावजूद कमर की सूजन आज तक नहीं गई।''
उन्‍होंने दाएं हाथ की तर्जनी कमर में चुभाई और प्रमाणस्‍वरूप कराह उठे।
''खां साहब, आपकी धुनाई भी तो कहीं इतिहास का हिस्‍सा नहीं बन गई।''
''आपको हंसी-ठट्ठा सूझ रहा है, यहां जान पर बन आई है। पहले पूरी बात तो सुनिए। हरामी मादर.... पुलिस वालों ने शरीर पर ही नहीं गांठ पर भी चोट की। दोनों घरों के बीच जो दरवाजा फोड़ा था, उस जगह को चिनवाने के नाम पर पैसे भी वसूले- इतने कि उतने में पूरी दीवार बनकर खड़ी हो जाए।'' उंची आवाज में कराहते हुए उसने अपनी नन्‍हीं आंखों को दूना विस्‍तार दिया।
''बड़े पाजी निकले पुलिसवाले। टूटी कमर पर और बोझ डाल दिया। चच्‍च....च्‍चच्‍च....''
''उधर जो मुहाजिर पड़ोसी मिले, वे बड़े ही शातिर और जालिम निकले।''
''क्‍या उनसे भी टण्‍टा हुआ?"
"उनका लौंडा है- गबरू जवान। पचीस के आस-पास होगा। एक दिन छत से झांक रहा था। मना किया कि मत झांका करो, जनानियां रहती हैं मेरे घर में। उसने आव देखा न ताव, मुक्‍का तानकर धमकाने लगा, ''ए मियां, ज्‍यादा टिपिर-टिपिर मत कर। जान हथेली पर लेकर यहां तक आया हूं। मुझे अपनी जान की रोएं भर भी परवाह नहीं। ज्‍यादा टोका-टाकी की तो तरबूज की तरह पेट चीर दूंगा। छह खून के तोहफे हिंदुस्‍तान को दिए तो एक पाकिस्‍तान को भी। मैं लल्‍लू-पंजू मुहाजिर नहीं कि धौंस बर्दाश्‍त करूं। समझे? नहीं समझे? उसकी फारसी सुनकर मुझे तो गश आ गया।''
''तौबा-तौबा....।''
''मुझे टिकाकर कमरे में ले जाया गया। मुंह पर छींटे मारे गए, तब कहीं जाकर होश आया। तब से सारा परिवार सहमा हुआ है। दिन-रात यही चिंता कि शैतान इब्‍लीस जाने कब छत से कूद पड़े और चाकू पेल दे।''
धंधा भले ही असलहों का हो, पर कंधा अलादाद खां का कमजोर था। हां, दूसरे के कंधे पर बंदूक रखकर चलाने का उन्‍हें अच्‍छा अभ्‍यास था। वह थे भी वजीर कबीले के जिसके लिए कहा जाता है कि वह सामने से नहीं, पीछे से वार करता है।
मीर आलम खां को पुराने दिन याद आ गए, ''खां साहब, आप दुहाई देते फिरते थे कि खतरा काफिर हिंदुओं की ओर से है, यह मुसलमान से खतरा किस रास्‍ते से आ टपका? मेरे भाई, सच तो यह है कि खुदा सब कुछ देखता है। सब कुछ सुनता भी है। वह करनी का फल भी देता है- भले ही देर हो जाए। आपको अपने पापों का फल मिल रहा है- अपने नामाराशी की तरह।''
''नामाराशी? मेरा नामाराशी? कौन मेरा नामाराशी?''
''वही मशहूर डिप्‍टी कमिश्‍नर निकल्‍सन के समय का अलादाद खां। उसका किस्‍सा पता नहीं?"
"नहीं पता मुझे।"
''क्‍यों पता हो? इतिहास तुम्‍हारे लिए बादशाहों, महाराजों और नवाबों की लड़ाइयों और रंगरेलियों तक ही सीमित है। पर अपने नामाराशी का किस्‍सा सुन लो। उस अलादाद खां ने अपने भतीजे की भूमि हड़प ली थी। भतीजे ने डिप्‍टी कमिश्‍नर मेजर जॉन निकल्‍सन की अदालत में मुकदमा दायर कर दिया। एक सुबह लोग क्‍या देखते हैं कि निकल्‍सन साहब एक पेड़ से बधे हैं। लोग दौड़ पड़े। अलादाद खां भी। निकल्‍सन साहब ने तुर्शी से सवाल किया, ''ये जमीन किसकी है?" अलादाद खां ने यह सोचते हुए कि जिसकी जमीन है, उसे द‍ंडित किया जाएगा, कहा, '' हुजूर-ए-आला यह जमीन मेरी नहीं है। मेरे भतीजे की है।'' निकल्‍सन साहब को बांछित साक्ष्‍य मिल गया था। अगली सुनवाई की तिथि में उन्‍होंने भतीजे के पक्ष में निर्णय दे दिया और लोभी अलादाद खां को दंडित किया। उस लोभी की तरह तुम्‍हें भी सबक मिल रहा है।''
जॉन निकल्‍सन सत्रह साल की उम्र में ईस्‍ट इंडिया कंपनी की बंगाल नैटिव इन्‍फैंट्री में कैडेट के रूप में भरती हुए थे, पर अपने परिश्रम के बल पर फौज के उच्‍च पद तक पहुंचे। सख्‍त प्रशासक के रूप में ख्‍याति थी उनकी। यहां तक कि माएं अपने बच्‍चों को यह कहकर डराती थीं, ''चुप हो जा वरना 'निक्‍कल सेन साहब' पकड़ कर ले जाएंगे।''
एक बार उन्‍हें पता चला कि फौजी अफसरों के भोजन में रसोइयों ने जहर मिला दिया है। उन्‍होंने तब तक भोजन नहीं किया जब तक कि रसोइयों को फांसी नहीं दे दी गई। 1857 की क्रांति के दौरान वह पंजाब से फौज लेकर दिल्‍ली पहुंचे। युद्ध में घायल होने के फलस्‍वरूप सितंबर, 1857 में दिल्‍ली में आर्मी कैंप में ही उनकी मृत्‍यु हुई।
अलादाद ने चिंतित स्‍वर में कहा, ''निक्‍कल सेन साहब अठारह सौ सत्‍तावन की गदर में मर-खप गए, पर मैं तो जिंदा हूं। सलाह दो कि क्‍या करूं। चुगद मुहाजिर मेरी ऐसी-तैसी करने में लगा हुआ है। बीबी की आबरू, बच्‍चों की जान खतरे में है। जगदीश को छत पर आना होता तो खांस-खंखार कर आने का संकेत दे देता। जनानियां परदे में हो जाया करतीं। आदमी हीरा था--हीरा!"
"...जो आप जैसे कच्‍चे कोयले की संगत में पड़ गया।''
''क्‍या बताएं, भाई!"
"बताओ नहीं, भुगतो। भूल गए वे दिन जब गुण्‍डों की सलवार में घुसकर कहते थे कि सारे हिंदुओं का सफाया हो रहा है, पर मेरे जगदीश को कोई क्‍यों हाथ नहीं लगाता? अब उस पर प्‍यार उमड़ रहा है। ये कहो मैं न निकालता तो तुम उसे इस दीन-जहान से उठा चुके होते। सच तो यह है कि तुम निहायत खुदगर्ज, तंगदिल और टुच्‍चे हो-- इंसानियत के नाम पर स्‍याह धब्‍बा। मुहाजिर तुम्‍हारे साथ जैसा सुलूक कर रहे हैं, तु उसी के लायक हो?"
मीर आलम खां ने अलादाद खां को तीखी नजरों से घूरा और चल दिए। पीछे-पीछे जावेद भी।
अलादाद खां कुछ क्षणों तक ठगे से उन्‍हें जाते देखते रहे, फिर निगाह उपर उठाई। मस्जिद की मीनारों पर धूप अब भी चमक रही थी।
बात अलादाद खां की ही नहीं थी। इकराम, मुहम्‍मद ईसा, मुहम्‍मद अमीन, जियाउद्दीन जैसे बहुत से लोग थे जिन्‍हें हथियाये गए मकानों से बेदखल होना पड़ा था और 'लौट के बुद्धु घर को आए' जैसी स्थिति हो गई थी। पर बहुत से प्रभावशाली व्‍यक्तियों ने यहां भी नियम-कानून को धता बता दिया था और हुक्‍काम की हथेली गरम कर हड़पी संपत्ति बचा ले गए थे।

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शाम होते ही शहर अंगड़ाइयों लेकर जमुहाई लेने लगा। जैसे वायु निर्वात की ओर बगटुट भागती है, वैसे ही सर्दी शरीर को रोम-रोम वेधने की फिराक में थी। घिरते अंधेरे ने सर्दी में भयावहता घोल दी थी। सड़क के किनारे गठरी दिखाई दी जिसे कुत्‍ता सूंघ रहा था। करीब आने पर पता चला कि यह गठरी न होकर सिमटा-सिकुड़ा आदमी है। कुत्‍ते को उसके कपड़ों में रोटी की तलाश थी या वह उसकी दुर्दशा पर सहानुभूति प्रकट कर रहा था, कहना कठिन था।
धुंधली आकृति उभरी-- आधा गंजा सिर, बढ़ी हुई दाढ़ी, छोटी-छोटी आंखें गड्डे में धंसी हुईं। नीचे का शरीर फटे कंबल से ढका हुआ। अरे, यह तो अब्‍दुल गनी हैं--शेरू के पिता।
मीर आलम खां ने आवाज दी, ''गनी भाई!"
कोई उत्‍तर नहीं। अपना कान उनके मुंह तक ले गयाफ श्‍वसनक्रिया चालू, पर घरघराहट के साथ। जैसे गले में कुछ फंस रहा हो। मिरगी का दौरा है या किसी अन्‍य व्‍याधि के साथ आई अचेतावस्‍‍था।
इकलौता बेटा शेरू जीवित था, तो अब्‍दुल गनी को किसी चीज की कमी न थी। वह गुण्‍डागर्दी से काफी कमा लेता था। अगर जेल चला जाता, तो भी पिता अर्जित संपत्ति को धीरे-धीर कुतरते रहते। पर शेरू की हत्‍या के बाद स्थिति दयनीय होती चली गई। जीविका का एकमात्र साधन घर के अगले हिस्‍से में स्थित दुकान थी जिसके देर-सबेर मिलने वाले आधे-धोधे किराए से बमुश्किल गुजर-बसर होती थी। आंखों की कमजोर रोशनी के कारण वह कोई काम करने की स्थिति में न थे।
मुहाजिरों की चीटिंयों जैसी अटूट पांत बन्‍नू आई। एक मुहाजिर परिवार अब्‍दुल गनी के बगल वाले घर में बसाया गया। मुहाजिर ने कुछ समय बाद अपने भाई को अब्‍दुल गनी के घर में बसा दिया। अब्‍दुल गनी घर के बाहरी बरामदे में सिमटकर रह गए। बन्‍नू के जेहाद के हीरो शेरू के अब्‍बा हुजूर के साथ एक हममजहब द्वारा की गई ज्‍या‍दती के खिलाफ किसी हममजहब ने आवाज नहीं उठाई।
जेहाद का मतलब किसी के लिए कुछ भी रहा हो, अब्‍दुल गनी के लिए यह था कि इकलौते बेटे को एकमात्र सहारा भी जाता रहा था और स्‍वयं घर से बेघर होकर भिखमंगे की परिधि में आ गए थे। इन जुड़वां सौगातों को अपनी नीमअंधी आंखों के साथ अकेला ही ढोना था। न तो नवाब साहब आगे आए, न ही जियाउद्दीन और अलादाद खां जैसे जेहादी जिन्‍होंने शेरू को भड़काया था और भरपूर इस्‍तेमाल किया था। अब्‍दुल गनी शेरू की शहादत का हवाला देकर फरियाद करते, पर लोगों के पास उनका दुखड़ा सुनने का, सहायता करने का अथवा सहानुभूति के दो शब्‍द उचारने का भी वक्‍त न था।
मीर आलम खां का शेरू के प्रति घृणाभाव रहा था, पर उसके कुकृत्‍यों का दंड बाप को देना एक दूसरा कुकृत्‍य लगा। दो दोस्‍तों और जावेद की सहायता से अब्‍दुल नी को चारपाई पर लिटाकर अपने घर ले आए। आग जलाकर उनके शरीर में हरारत और जुम्बिश पैदा की। चम्‍मच से चाय पिलाते समय वह ऐसे लग रहे थे जैसे अबोध, निश्‍छल शिशु।
अगली सुबह डाक्‍टर को दिखाया गया। डाक्‍टर ने दवा दी। नीमबेहोशी दूर हुई, बलगम में कमी आई, बुखार भी कम हुआ। पर तीसरे दिन तबियत बिगड़ गई। डाक्‍टर की दवा और मीर आलम खां की दुआ के बावजूद वह बच नहीं सके।
दफनाने के समय भी शेरू का इस्‍तेमाल करने वाले नहीं पंहुचे।

Wednesday, October 8, 2008

हम टायर होंगे, रिटायर नहीं



दामोदर दत्‍त दीक्षित की आदत है कि वह इर्द-गिर्द ताकाझांकी बहुत करते हैं। दरअसल नाक-कान-आंख को हमेशा एक्टिव रखने वाले कथाकार-व्‍यंग्‍यकार दामोदर उत्‍तर प्रदेश में आला अफसरी भी करते हैं। हांलाकि उनका विभाग मिठास भरा है लेकिन उनकी व्‍यंग्‍य रचनाएं तीखी होती हैं। उप चीनी आयुक्‍त के पद पर काम करते हुए भी उनका नियमित लेखन हमेशा गतिमान रहता है। इर्द-गिर्द के लिए उन्‍होंने ये व्‍यंग्‍य भेजा है। पढिए, आनंद लीजिए और जी भर कर टिपियाइए। बेहिचक।


हिंदुस्‍तानी आदमी बहुरंगी-बहुस्‍तरीय विशेषताओं वाला प्राणी है। उसकी एक विशेषता यह है कि वह टायर हो जाता है, रिटायर नहीं होना चाहता। वह अजर-अमर कामी होता है और स्‍वयं को विकल्‍पहीन मानते हुए उसी दिन रिटायर होना चाहता है जिस दिन महिषवाहन यमराज टांग पकड़ कर कुर्सी से खींचे और भैंसे की पूंछ से बांधकर फिल्‍मी अंदाज में घसीटते हुए नरक की ओर प्रस्‍थान करें या क्‍या जाने उस दिन भी नहीं? शायद सोचता हो कि उसकी भटकती हुई प्रेतात्‍मा भी छूटे हुए महान दायित्‍व को संभालने में सक्षम है।
वैसे तो देशवासी बात-बात में मूंछ मरोड़ते रहते है, पर रिटायर होने के मामले में भयंकर कायर होते हैं। इकदम बोदे, इकदम कांचू। वे वन से भले ही न डरें पर वानप्रस्‍थ से डरते हैं। जैसे कुत्‍ते के काटने से पागल हुआ व्‍यक्ति पानी से डरता है, जैसे पु‍लिस के लोग 'लाइन हाजिर' होने से डरते हैं, जैसे राजनेता चुनावी हार से, जैसे उपदेशक मौनव्रत से और अध्‍यापक कक्षा से डरता है, वैसे ही हिंदुस्‍तानी पदधारक रिटायर होने से डरता है। उसके दो-चार झापड़ रसीद कर दो, चार-पांच लाते जड़ दो, मुर्गा बना दो, बस रिटायर न करो। रिटायरमेंट का नाम सुनते ही उल्‍टी-दस्‍त होने लगती हैं। सिरदर्द, पेटदर्द मुंहदर्द, दांतदर्द, आंखदर्द, कानदर्द, नाकदर्द सब सताने लगता है। कुछ लोग राजयोग छूटने का नाम सुनते ही राजरोग के शिकार हो जाते हैं। किसी को मधुमेह, किसी को हृदयरोग, किसी का गुर्दा क्षतिग्रस्‍त तो किसी का यकृत। एक से एक महंगे, मजबूत और टिकाउ राजरोग। किसी को जूड़ीताप हो जाता है तो किसी को दमा, किसी को कब्‍ज तो किसी को गठिया। किसी को बबासीर हो जाती है, किसी को गुप्‍तरोग तो किसी को नामर्दी। कुल मिलाकर वे चिकित्‍सा विज्ञान के अदभुत मॉडल बन जाते हैं। ये तो कहिए अंगविशेष होते नहीं अन्‍यथा रिटायरमेंटद्रोही जन रजोनिवृत्ति और स्‍तनकैंसर की भी शिकायत करने लगें।
रिटायरमेंटोलॉजी (सेवानिवृत्ति-विज्ञान) का एक और फंडा भी है। अशुद्ध-अबुद्ध जीवात्‍मा स्‍वयं तो रिटायर होना नहीं चाहती, पर दूसरों को समय से या हो सके समयपूर्व रिटायर होते देखना चाहती है। सार्वजनिक स्‍थानों की बतकहियों, दफ्तरों की कनफुसकियों और ड्राइंगरूमीय चर्चाओं में अक्‍सर लोग अमुल्‍य सुझाव देते मिल जाते हैं। 'राजनेताओं के भी रिटायरमेंट की आयुसीमा होनी चाहिए।' मेरा अनुभव है कि ऐसे लोग वे होते हैं जो कभी रिटायर नहीं होना चा‍हते हैं। वे परसंताप-ग्रंथि से पीडि़त होते हैं। 'ये नामाकूल नेता कभी रिटायर नहीं होते, मरते दम तक जनता की छाती पर मूंग दलते रहते रहते हैं जबकि ये सुअवसर हम नामाकूलों को दिया जाना चाहिए।'
अफसरशाही देश का सबसे निर्लज्‍ज वर्ग है। ऐसा मैं दावे के साथ कह सकता हूं क्‍योंकि मैं उसका अविभाज्‍य अंग हूं। चतुर-चंट अफसर रिटायरमेंट से पहले ही कटोरा लेकर खड़ा हो जाता है-हुजूर, कुछ काम-धंधे का जुगाड़ किया जाए।' यानी कि रिटायरमेंट की वय तक आधिकारिक तौर पर जोंक बनकर खून चूसते रहे, पर पेट नहीं भरा। तन शिथिल, मन उससे भी शिथिल, पर रिटायरमेंट के लिए तैयार नहीं। ऐसे लोगों के लिए भर्तृहरि बहुत पहले कह गए हैं-
अंग गलितं पलितं मुण्‍डं, दशनविहीनं जातं तुण्‍डम्।
वृद्धो याति गृहीत्‍वा दण्‍डं तदपि न मंचत्‍याशा पिण्‍डम्।।

हमारे अफसर भी आशा का पिण्‍ड नहीं छोड़ते। 'माइटी-हाइटी-फाइटी' अफसरों के लिए विभिन्‍न आयोग, निगम, संस्‍थाएं आदि चारागाह के रूप में उपलब्‍ध है। हाल ये है कि घोड़ा न हो तो गधे की ही सवारी दे दो, सिर पर चौराहा बना दो, तब भी चलेगा। अफसर में जरा भी गैरत बची हो, तो उसे सेवाविस्‍तार, पुनर्नियुक्ति या दैनिक वेतनभोगी के रूप में मिलने वाले प्रस्‍ताव से इंकार कर देना चाहिए। पर अफसरों के पास सब कुछ होता है, बस गैरत नहीं होती। आप चारों तरफ नजर दोड़ाइए, एक से एक सेवानिवृत्‍त अफसर निर्लज्‍जता के साथ, राजा ययाति की मुद्रा में कुर्सी से चिपके बैठे हैं, तन-मन से मजबूत योग्‍य जनों का अधिकार हड़पते हुए। सच ही, बेशर्ममेव जयते।
खेल का भी खेल कुछ कम नहीं। दुनिया जानती है कि आउटडोर खेलों या शारीरिक शक्ति वाले खेलों की प्रतिस्‍पर्धापरक आयु लगभग पंद्रह से बत्‍तीस बर्ष तक होती है। अद्वितीय क्षमतावान खिलाड़ी हो तो एक-दो साल और खींच ले जाएगा। बस़......। पर हमारे हिंदुस्‍तानी खिलाड़ी इस तथ्‍य से अ‍परिचित हैं, अपरिचित ही रहना चाहते हैं। अन्‍य देशों में क्षमता के ह्रास होते ही खिलाड़ी सम्‍मानजनक ढंग से स्‍वयं रिटायर होने की घोषणा कर देता है। पर अपने देश में जब तक खिलाड़ी की पीठ से चार इंच नीचे, चार लातें मारकर 'जा फूट, बहुत हुआ' कहने का पवित्र मंत्रोच्‍चारण नहीं होता, तब तक वह रिटायर नहीं होता। यानी खिलाड़ी रिटायरमेंट से पूर्व चार लातें खाना अपना अनिवार्य धर्म समझते हैं।
एक समस्‍या और भी। यहां अगर खिलाड़ी रिटायर होना चाहे, तो उसके फेन रिटायर नहीं होने देते। अगर 'टेनिस एल्‍बो' के कारण किसी क्रिकेटर का हाथ उठने से इंकार करता है और वह बार-बार बोल्‍ड होने की उदारता दिखाता है तो उसके समर्थक कहते हैं, ‘कोई बात नहीं। ससुरे लंदन के डाक्‍टर कब काम आएंगे। वे हमारे खिलाड़ी की महान ‘टेनिस एल्‍बो’ को महान ‘क्रिकेट एल्‍बो’ बना देंगे।‘ पर ऐसा हो नहीं पाता। हमारे महान खिलाड़ी और उससे भी ज्‍यादा महान उनके समर्थकों को यह नहीं पता कि उम्र का तकाज़ा होता है और एक निश्चित उम्र के बाद एक नहीं, एक सौ एक ऑपरेशन करा डालो, पर पहले जैसी बात नहीं आ सकती। ऐसे में खिलाड़ी देश के प्रति ही नहीं, अपने प्रति भी अन्‍याय करता है। कमर में पीरें उठने लगती हैं, गठिया ने घुटने का जकड़ लिया है। ऐसी स्थिति में गेंद आपकी हाकी स्टिक का नमस्‍ते स्‍वीकार करने से रहा। स्‍पान्‍डलाइटिस हो जाने पर, टेबलेट खाकर ‘हेडर’ मारेंगे, तो फुटबाल कितनी दूर जाएगा, इसका अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है। फास्‍ट बालर के कंधे में अंदरूनी चोट है, तो उसकी बालिंग की गति कितनी होगी और बाल किस दिशा में जाएगा, समझा जा सकता है। पर हमारे तथाकथित खिलाड़ीप्रेमी सुनने-समझने को तैयार नहीं होते। अंधभक्ति और व्‍यक्तिपूजा हावी रहती है और वे घायल-चोटिल-अस्‍वस्‍थ-कमजोर हो चुके खिलाडियों की पैरवी करते रहते हैं। गालिब याद आते हैं-
गो हाथ में जुबिंश नही, आंखों में तो दम है,
रहने दो अभी सागर-ओ-मीना मेरे आगे।

कुल मिलाकर हम अ-रिटायरमेंट माहौल में घिसट रहें हैं। लोग इतने कायर हो चुके हैं कि घिसे टायर बनने को तैयार हैं, पर रिटायर होने को नहीं। पर घिसा हुआ टायर तो घिसा हुआ होता है। एक दिन अचानक फटेगा, तो बस में सवार यात्रियों को भी दुर्घटनाग्रस्‍त कर देगा, ‘हम तो डूबेंगे सनम, तुमको भी ले डूबेंगे।‘ इसलिए प्‍यारे देशवासियो, आदरणीय रिटायरणीयों को अशांति से रिटायर होने दो, उन्‍हें टायर होने से बचाओ। इसी में देश का भला है और जिसमें देश का भला है, उसमें सबका भला है।
दारा रहा न रहा सिकंदर-सा बादशाह,
तख्‍त-ए-ज़मीं पे सैंकड़ों आए, चले गए।

तकनीकी सहयोग- शैलेश भारतवासी

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