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Saturday, April 11, 2020

इस शनिवार को सुनिए ख़लील जिब्रान की दो लघुकथाएं हिंदी में




इस शनिवार को सुनिए ख़लील जिब्रान की दो लघुकथाएं हिंदी में। आप दोनों कथाएं सुनकर कहेंगे कि नहीं सुनी अब तक ऐसी कहानी। आपका चैनल इर्द-गिर्द इस बार लाया है जिब्रान की हिंदी में अनुदित लघुकथा मेजबान और लघुकथा स्वत्व के साथ। अब सुनो कहानी।

Sunday, December 26, 2010

अलविदा 2010......स्‍वागत 2011....!!!

किससे गिला...किससे और कैसी उम्‍मीदें

तो सन २०१० हमसे हाथ छुड़ा कर विदाई मांग रहा है। जब आया था तो कोई बहुत बड़ी उम्मीदें नहीं बांधी थी हमने इससे। हां, मन में इच्छा जरूर थी कि काश यह साल पिछले गुजरे सालों से बेहतर साबित हो। घृणा, नफरत,हिंसा-प्रतिहिंसा, आतंकवाद, अलगाववाद से कुछ तो मुक्ति मिले हमें। वैमनस्य की काली आंधी कहीं तो जाकर रुके। तरक्की की होड़ में शामिल होकर कहीं भी, कुछ भी करने को आतुर इंसान एक क्षण रुक कर कुछ तो सुस्ताये, कुछ तो सोचे। एक-दूसरे को खूब दुआएं-शुभ कामनाएं दीं। एस.एम.एस किए, कार्ड भी भेजे लेकिन जैसी औपचारिकताएं , वैसे ही परिणाम भी मिले। कुल मिला कर किसी तरह यूं ही गुजर सा गया यह साल।
हां! थोड़ी और तरक्की कर ली हमने। भ्रष्टाचार के मामलों में नए मानदंड स्थापित किए। लूट, हत्या, बलात्कार के मामलों में भी नए नए रिकॉर्ड बनाए। निरीह औरत की हत्या कर उसकी लाश के टुकडो को तंदूर से डीप फ्रीजर तक पंहुचा दिया; और इसमें न हमारे हाथ कांपे न ही आत्मा। राजनेताओं ने घृणा की खाईयों को पाटने की जगह और चौड़ा करने का अपना दायित्व बखूबी निभाया। मंहगाई और बेरोजगारी जैसी समस्याओं पर राजनीतिक विचारहीनता और संवेदनशून्यता में और बढ़ोतरी की । अमीर और अमीर हुए; गरीब और गरीब। स्विस बैंकों में हम भारतियों का काला धन कुछ और बढ़ गया। साथ ही हर भारतीयों पर विदेशी कर्ज की मात्रा भी और बढ़ गई। दुनिया की तीसरी बड़ी महाशक्ति के रूप में उभर रहा भारत भुखमरी से लड़ने के मामले में ८४ देशों की सूची में ६७वें स्थान पर आ गया। बाल मृत्‍यु दर के मामले में हम पहले से ही सबसे ऊंची पायदान पर हैं, निरक्षता के मामले में दुनिया के ३५% हो गए। ग्लोबल पीस इंडेक्स में छह और पायदान फिसलकर १२८वे स्थान पर आ गए। यह तरक्की थोड़ी है क्या खुश होने के लिए! यूं खुश होने के लिए कुछ बातें और भी हैं। शायद इसलिए कुछ और भी ज्यादा क्योंकि ये हमारे खंडित अभिमान को सहलाने का थोडा बहुत माद्दा भी रखती है। मसलन - विश्‍वमहाशक्ति अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा। उल्लेखनीय है कि जहां पहले अमेरिका की छवि 'दाता' की रही थी वहीं ओबामा की यात्रा के समय भारत और अमेरिका के सम्बन्ध बराबरी के स्तर पर प्रगाढ़ होते दिखे। भारत के अपने स्वार्थ हैं तो अमेरिका भी अपनी अर्थव्यवस्था में आए ठहराव को तोड़ने के लिए भारतीय बाजार में अपनी पहचान बढ़ाने को लालायित है और अपने यहां भारत के निवेश की आवश्यकता अनुभव कर रहा है। इसके अतिरिक्त विश्व और एशिया की अन्य महाशक्तियों जैसे - ब्रिटेन, जर्मनी ,पोंलेंड, रूस और अभी हाल ही में चीन के राष्ट्राध्यक्षों की भारत यात्रा को इसी कड़ी में जोड़कर देखा जा सकता है।
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई एम ऍफ़) में भारत १० सदस्य देशो में सम्मिलित हो गया है। जिस भारत को अभी कुछ वर्ष पहले देश की अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए अपने सोने का रिजर्व भंडार विदेशों को गिरवी रखना पड़ा था, आज उसके पास अपना स्वयं का १८००० टन सोना है जो संपूर्ण विश्व का ११% से अधिक है। है न खुश होने की बात! भारत गरीबों का देश है मगर यहां दुनिया के सबसे बड़े और ज्यादा अमीर बसते हैं। स्विस बैंक एसोसिएशन ने खुलासा किया है कि उसके बैंकों में भारतियों के कुल ६५,२२३ अरब रूपये जमा हैं और इस मामले में हम भारतीय अव्वल हैं। स्विटजरलैंड तो केवल एक देश है, इसके अतिरिक्त भी कई देशों में भारतियों का काला धन जमा है। ये देश वे देश हैं जहां की सरकारें इस तरह की कमाई जमा करने के लिए प्रोत्साहन देती हैं। जाहिर है यह काला धन भ्रष्ट राजनीतिज्ञों, आई ए एस , आई पी एस जैसे अन्य प्रशासनिक अधिकारियों और उद्योगपतियों का ही होगा। यहां यह बताना तर्कसंगत होगा कि स्विस बैंको में जमा यह धन हमारे जी डी पी का ६ गुना है। अगर यह धन देशमें वापिस आ जाए तो देश की अर्थव्यवस्था और आम आदमी की बल्ले-बल्ले हो जाएगी। प्राप्त आंकड़ो के अनुसार भारत को अपने लोगों का पेट भरने और देश को चलाने के लिए ३ लाख करोड़ रूपये का कर्ज लेना पड़ता है। यही कारण है कि जहाँ एक ओर प्रति व्यक्ति आय बढ़ रही है वहीं प्रति भारतीय पर कर्ज की मात्रा भी बढती जा रही है । एक अरब से अधिक आबादी और ३७% गरीबी के बीच भारत के हर नागरिक पर लगभग ८५००/- रूपये का विदेशी कर्ज है। जी हां! भारत में अगर बच्चा जन्म लेता है तो वह ८५०० रूपये के विदेशी कर्ज से दबा होता है। यदि स्विस बैंको में जमा धन का ३०-३५ प्रतिशत भी देश में आ गया तो हमें आई एम एफ़ या विश्व बैंक के सामने कर्ज के लिए हाथ नहीं फ़ैलाने पड़ेंगे। यदि यह सारा धन भारत को मिल जाता है तो देश को चलाने के लिए बनाया जाने वाला बज़ट बिना टैक्स के ३० साल के लिए बनाया जा सकता है। स्विस बैंको में जमा धन का २५-३०% भी अगर देश को मिल जाए तो २० करोड़ नई नौकरियां पैदा की जा सकती हैं। यानी बहार ही बहार। पल भर में देश से गरीबी दूर।
बात तरक्की की रफ़्तार पर गर्वित होने की हो रही है तो यह भी जानते चलें कि अमेरिकी बिजनेस पत्रिका फ़ोर्ब्स के अनुसार २०० एशियाई कम्पनियों में ३९ भारतीय कंपनियों ने जगह बनाई है। इस सूची में सबसे ज्यादा ७१ कंपनियां चीन व हांगकांग की हैं। भारत दूसरे स्थान पर है। इसी क्रम में फोर्चून-५०० की सूची में भी ८ भारतीय कम्पनियों ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। भारतीय उद्योगपति धड़ाधड़ विदेशी कंपनियों को खरीद रहे हैं और दुनिया को बता रहे हैं की हम किसी से कम नहीं। अब कंपनियां और उद्योगपति कमा रहे हैं तो सरकार भी क्यों पीछे रहे। सरकार को जहाँ 3 जी स्पेक्ट्रम सेल से ६७,७१९ करोड़ की राशि मिली है तो ब्रॉड बैंड नीलामी से ३८००० करोड़ की कमाई हुई है। साथ में सरकार के मंत्रियों-संतरियों के हाथ भी तर हो गए वह अलग। और शराब से जो कमाई सरकार को होती है, उसे कौन नहीं जानता। उसको छोड़ा भी नहीं जा सकता। चाहे एक पूरी की पूरी पीढ़ी ही उसमे क्यों न डूब कर बर्बाद हो जाए।
कुछ महान व्यक्ति भी इस वर्ष में जोर-शोर से उभरे। भ्रष्टाचार में रिकार्ड तोड़ प्रदर्शन के लिए सबसे ऊपर रहे दूरसंचार मंत्री ए.राजा। २ जी स्पेक्ट्रम घोटाला (१.७६ लाख करोड़ रूपये) , सुरेश कलमाड़ी(कोमन वैल्थ गेम घोटाला) ,अशोक चौहान (मुख्य मंत्री -महाराष्ट्र, आदर्श सोसाइटी घोटाला) , एस येदुरप्पा (मुख्यमंत्री, कर्नाटक), सौमित्र सेन(पूर्व न्यायाधीश , कोलकोता हाईकोर्ट), ललित मोदी (पूर्व अध्यक्ष-आई पी एल ) शशि थरूर आदि-आदि। इन सभी महान आत्माओं को एक अरब से अधिक भारतीयों का कोटि-कोटि नमन। लेकिन कुछ ऐसे भी नाम रहे जिन्होंने विश्व मानचित्र पर अपने नाम के साथ-साथ अपने देश का नाम भी अंकित किया। इनमे प्रसिद्ध बांसुरी वादक श्री हरी प्रसाद चौरसिया (संगीत में योगदान के लिए फ़्रांस का सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'शेवेलियर डेंस ला आर्दरी देस आर्ट्स एंड देस लेटर्स') , मुकेश अंबानी 'एशिया सोसाइटी का ग्लोबल विजनअवार्ड', नंदन नीलेकनी-येल विश्वविद्यालय का सर्वोच्च सम्मान 'लीजेंड इन लीडरशिप', और नि:संदेह कॉमंवेल्थ और एशियन गेम्स में अपने बलबूते पर विजयी हुए। कुछ खिलाडी जिन्होंने हमें गर्वित होने का कुछ अवसर प्रदान किया। २०१० के जाते-जाते सचिन तेंदुलकर ने टेस्ट मैचों में अपना ५० वा शतक ठोक कर दुनिया के नक़्शे पर नए चिन्ह अंकित कर दिए। लेकिन उनका महत्व इन ५० टेस्ट शतको से अधिक इसलिए है कि उन्होंने इससे पहले करोड़ो का ऑफर ठुकरा कर शराब के विज्ञापन में काम करने से इंकार कर दिया था। और इस लिए भी कि उनको संयुक्त राष्ट्र संघ पर्यावरण कार्यक्रम का नया सदभावना राजदूत बनाया गया है। इसके अतिरिक्त डॉक्टर तथागत तुलसी जिन्होंने महज २२ साल की उम्र में ही आई आई टी मुंबई में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर बनने का सबसे कम उम्र का रिकॉर्ड बनाया। डॉक्टर तुलसी ने पिछले दिनों इंडियन इंस्‍टीटयूट ऑफ़ साइंस, बेंगलुरु से पी.एच.डी.कर भारत का सबसे युवा पी एच डी होल्डर होने का रिकॉर्ड बनाया था। साथ ही उल्लेख किया जाना चाहिए प्रसिद्ध गणितज्ञ आंनंद का जिनके द्वारा स्थापित कोचिंग संस्थान सुपर-३० को अमेरिका की प्रतिष्ठित टाइम मैग्‍जीन ने एशिया का सर्वोत्तम स्कूल माना है। बीते वर्ष यहाँ के सभी ३० विद्यार्थी आई आई टी प्रवेश परीक्षा में सफल रहे थे। कभी पैसे की कमी के कारण उच्च शिक्षा के लिए निमंत्रण के बावजूद कैम्ब्रिज विश्वविधालय नहीं जा सके आनंद ने १९८६ में रामानुजम स्कूल ऑफ़ मैथ्स की स्थापना की, जहां निर्धन मेधावी बच्चों को निशुल्क शिक्षा दी जाती है। यहीं एक और नाम जो उम्मीद की कई अजीम किरणे एक साथ जगाता है , वह है विप्रो के अध्यक्ष अजीम प्रेमजी का। कार्पोरेट जगत के इस महारथी ने एक बार फिर दो अरब डॉलर मूल्य के शेयर अपने एक धर्मार्थ ट्रस्ट को दान कर दिए। इस धन से यह ट्रस्ट शिक्षा सेवाओं का विस्तार करेगा। क्या मुकेश अंबानी, अनिल अंबानी, लक्ष्मी मित्तल, रूइया भाई , के पी सिंह और सुनील मित्तल तक यह समाचार नहीं पहुंचा होगा। ये लोग भी इस तरह का कुछ सोचेंगे या सिर्फ अपने साम्राज्‍य को अपने लिए ही बढ़ाने में लगे रहेंगे।
लौटकर एक बार फिर रुखसत होने को आतुर 2010 पर आते हैं। बढ़ते हुए लूट, हत्या , बलात्कार, हिंसा-प्रतिहिंसा, आतंकवाद और अलगाववाद की और लौटते हैं। क्या कुसूर है 2010 का! बोते क्या आ रहे है हम! फिर अच्‍छा काटने का सोचे भी किस उम्‍मीद से। स्वतंत्रता के बाद से ही निरंतर गिरने का सिलसिला जारी है। शिक्षा, स्वास्थ्य, नैतिकता, देश प्रेम ,संस्कृति , मर्यादा, संवेदना और करुणा आदि सारे मानवी मूल्य भूल गए हैं हम। हर मोर्चे पर विफल। जरा अपने बच्चों से पूछ कर देखें कि कितना जानते हैं वे महात्मा गाँधी, चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, रामप्रसाद बिस्मिल, सुभाष चंद बोस, गोपाल कृष्ण गोखले और लाला लाजपत राय के बारे में। महाराणा प्रताप, शिवाजी और रानी लक्ष्मी बाई तो इतिहास की परतों में कहीं बहुत दूर गुम हो गए हैं उनके लिए। राष्ट्रीय गीत और राष्ट्रीय गान में अंतर पता है उन्हें। अंतर नहीं पता, अर्थ ही पता है क्या। भौतिकवाद और आर्थिक समृद्धि की अंधी दौड़ में शामिल हम लोग आखिर क्या उदाहारण स्थापित कर रहें हैं नई पीढ़ी के सामने। रोल मॉडल कौन हैं उनके आज । 'आदर्श' शब्द अपना अर्थ तो खो ही चुका है, अब अपना अस्तित्व ही न खो बैठे। क्योंकि आज की पीढ़ी अपने रोल मॉडल इतिहास से नहीं वर्तमान से उठा रही है। ये वे चेहरे होते हैं जो आज तो चमकते दिखाई देते हैं लेकिन अगले ही पल उन्हें दरकते भी देर नहीं लगती। अपने बच्चों के लिए समय नहीं है आज हमारे पास। हां, सुख सुविधा के नाम पर सब कुछ देने को तैयार हैं हम उन्हें। कंप्यूटर और इंटरनेट के माध्यम से यह सब कुछ हासिल भी हो रहा है उन्हें,शायद कुछ ज्यादा ही; वह भी समय से पहले। यही कारण है कि अब न उनके पास धैर्य है, न संयम, और न ही सोचने समझने का समय। जो भी हासिल करना है, अभी हासिल करना है, एकदम, बिना समय गंवाए। और इस हासिल करने के बीच में जो भी आएगा, उसे हटा दिया जाएगा या मिटा दिया जाएगा। अंतरराष्ट्रीय स्तर से लेकर राष्ट्रीय, सामाजिक और पारिवारिक स्तर तक एक अजीब सी आपाधापी मची हुई है और हम सब शामिल हैं इसमें। बड़े राष्ट्र अपने स्वार्थों के लिए छोटे राष्ट्रों को मोहरा बना रहे हैं तो देश में राजनितिक पार्टियां एक दूसरे की टांगे खींच रही हैं। सरकार संवेदनाशून्य और दायित्वहीन है तो विपक्ष दिग्भ्रमित। जनता इनके लिए खिलौने से बढ़कर कुछ नहीं। आज हम खेल रहे हैं कल तुम खेल सको तो खेल लेना। अपना स्वार्थ पहले है देश, समाज कहीं पीछे छूट गए हैं। अपने गिरेबान में झांकने की न जरूरत हैं, न फुर्सत है किसी को। हम से बड़ा संत कोई नहीं है और तुम से बड़ा भ्रष्टाचारी कोई नहीं, यही सिद्ध करने में लगे हैं सब। दामन दागदार हैं, चेहरे कालिख पुते, पर मान कैसे लें। तुम कौन से दूध के धुले हो जो मेरे दामन के दाग दिखा रहे हो। सब कुछ सामने है, स्पष्ट है पर स्वीकार कैसे कर लें। और यही सब आगामी पीढियां देख रही हैं, समझ रही हैं, सीख रही हैं। हम खुश हैं तरक्की कर रहे हैं न। विकासशील से विकसित देश में तब्दील होते जा रहे हैं। इतना कुछ दे कर जा रहा है तू हमें २०१०। शुक्रिया ....
शुभकामनाएं २०११ के लिए भी देना चाहता हूं , पिछले वर्षों की तरह इस बार भी। कुछ नैतिक मूल्य स्थापित हों, कुछ संवेदनाएं जागें। अन्याय, अनाचार पर कुछ अंकुश लगे, महंगाई कुछ कम हो। और इन दुआओं में कुछ असर है , थोड़ा सा यकीन भी आ जाए।

ये मंजिलों का सफ़र है यकीन तो आए
हंसी ख़ुशी की डगर है यकीन तो आए
मैं आज करता हूं तेरे लिए दुआ लेकिन
मेरी दुआ में असर है यकीन तो आए

और अंत में बकौल शाहिद मीर उस ऊपर वाले से सिर्फ इतनी चाह है २०११ में आपके और अपने लिए -

ऐ खुदा रेत के सहरा को समंदर कर दे
या छलकती हुई आंखों को ही पत्थर कर दे
और कुछ तो मुझे दरकार नहीं है लेकिन
मेरी चादर मेरे पाँवों के बराबर कर दे

Monday, February 23, 2009

आदमखोर होते बाघ : घर उजड़ेगा तो क्‍या होगा?

'जय हो' के अलावा आज देश को कुछ नहीं सूझ रहा। ये गलत भी हो सकता है लेकिन मुझे अखबार और खबरिया चैनल देखकर यही लग रहा है। इन्‍हीं खबरों के बीच में एक अखबार के एक कोने में छपी खबर पढ़कर मैं सोचने लगता हूं। खबर है-- उत्‍तर प्रदेश और उत्‍तरांचल में बाघ तीन महीने के भीतर बीस बाघों को अपना निवाला बना चुके हैं। अगर संख्‍या पर जाएं तो उत्‍तर प्रदेश में बारह और उत्‍तरांचल में आठ लोग बाघ का शिकार हुए हैं। दोनों राज्‍यों के बारह से ज्‍यादा जिले आदमखोर बाघों के खौफ से रात को आबादी वाले इलाकों में पहरा दे रहे हैं। वन विभागों का अमला बाघों को पकड़ने या मारने के लिए कोशिशें कर रहा है। खबर ये भी है कि वन विभाग के शिकारियों ने एक बाघ को मारकर अपनी वीरता का परिचय भी दे दिया है। वैसे आप चाहें तो इसे पूरी आदम जाति की वीरता भी मान सकते हैं।
आपको मैं सच-सच बता दूं कि मैं बाघ से बहुत प्रेम करता हूं। जंगल में घूमते हुए बाघ और उसकी शान-शौकत मुझे बहुत भाती है। मैं अपने को उन सौभाग्‍यशाली लोगों में से एक मानता हूं जिन्‍होंने जंगल में बाघ को अपने इर्द-गिर्द घूमते देखा है। ये मेरा सौभाग्‍य है कि मैं जब भी जंगल/अभ्‍यारण्‍य में गया; मुझे बिल्‍ली परिवार के दर्शन जरूर हुए। स्‍वर्गीय राजीव गांधी एक बार कॉरवेट नेशनल पार्क अपनी छ़ट्टियां बिताने गए तो मुझे कवरेज पर भेजा गया। आखिर प्रधानमंत्री अपनी घोषित छुट्टियां बिताने जा रहे थे। तीन दिन राजीव गांधी कॉरवेट रहे, जंगल घूमें, उन्‍हें बाघ दिखाने के लिए स्‍थानीय प्रशासन ने काफी कोशिशें की; जंगल में एक जगह पाड़ा बांधा गया ताकि बाघ उसे खाने आए और स्‍वर्गीय राजीव गांधी को बाघ के दर्शन हो जाएं लेकिन बाघ नहीं आया बल्कि दहशत से पाड़ा जरूर परलोक सिधार गया। स्‍वर्गीय राजीव गांधी का परिवार भले ही बाघ न देख पाया हो लेकिन जंगल का राजा मुझसे हैलो कहने जरूर आया। बाघ जब मुझे मिला तो वह मेरे वाहन के आगे करीब आधा किमी दौड़ता रहा और फिर नीचे खाई में उतरकर ओझल हो गया। मैं कभी भी जंगल से खाली नहीं लौटा। बाघ और तेंदुए मेरे सामने कई बार आए और मेरी घिग्‍गी बंध गई। कई बार तो ऐसा हुआ कि जब बाघ मेरे सामने से ओझल हुआ तब मुझे ख्‍याल आया कि मैं अपने गले में लटके कैमरे का उपयोग तो कर ही नहीं सका।
जंगल में रहने वाले या जंगल से प्रेम करने वाले लोग जानते हैं कि जितना आदमी बाघ से डरता है उतना ही बाघ भी। आदमी की मौजूदगी का आभास होते ही जंगल का राजा रास्‍ता बदल देता है। बाघ तब तक आदमी पर हमला नहीं करता जब तक उसे अपने अस्तित्‍व को खतरा न लगे। चालाक जीव है; इसलिए आदमी के सामने आने पर पीछे या दाएं-बांए हो जाता है। बाघ अपने शिकार को भी आमतौर पर सामने से आकर नहीं दबोचता। पहले शक्‍ल दिखाकर डराता है और फिर पीछे से घूम कर आता है और दबोच लेता है क्‍योंकि हिरन प्रजाति के तेज धावकों को अपने शिकंजे में लेना आसान नहीं होता। ऐसे में सवाल उठता है कि बाघ आदमी पर हमला क्‍यों करता रहा है। या क्‍यों उसे अपना शिकार बना रहा है? बाघ तभी आदमखोर होता है जब उसकी क्षमताएं खत्‍म हो जाएं। चोटिल हो। दौड़ कर अपना शिकार न दबोच पाए। अक्षम हो जाए। ऐसी स्थितियां बहुत कम पैदा होती हैं। इसके अलावा ऐसी स्थितियां तब पैदा होती हैं जब आदमी उस पर हमला कर दे। या उसके आवासीय परिक्षेत्र में अतिक्रमण करे। जंगल का अंधाधुंध दोहन हो। जंगल सिमटेगें तो वहां रहने वाले जीव क्‍या करेंगे। सच तो ये है कि आबादी बाघों के पास जा रही है न कि वन्‍य जीव आबादी की तरफ रुख कर रहे हैं।
नरभक्षी बाघों के आदमखोर हो जाने की इक्‍का-दुक्‍का घटनाएं तो सामने आती रहीं हैं लेकिन अब तक सबसे बड़े पैमाने पर बाघ के आदमखोर होने की घटनाएं हमारे देश में करीब ढाई दशक पहले हुईं थीं। उननीस सौ अस्‍सी से पिचयासी के बीच में आदमखोर बाघों ने बयालीस लोगों की जान ली थी और करीब सात आदमखोर बाघ मार गिराए गए थे। इतने बड़ी संख्‍या में बाघ के आदमखोर हो जाने पर नेशनल बोर्ड फार वाइल्‍ड लाइफ ने अपने अध्‍ययन में पाया था कि नेपाल में बड़ी संख्‍या में वनों की कटाई से तराई क्षेत्र में नेपाल से बेदखल बाघ आ गए थे और इन्‍हीं अपने घर से उजड़े बाघों में से कुछ ने कहर बरपाया था।
क्‍या आज भी वैसी ही परिस्थितियां तो नहीं बन रहीं। आज आबादी बढ़ रही है। वनों का दोहन तेज है। वन्‍य जीवों के तस्‍कर बेखौफ हैं। ऐसे में सोचिए कि बाघ क्‍या करे? एक बात तय है कि अगर इंसान और बाघ की दुश्‍मनी होगी तो नुकसान अंतत: बाघ का ही होगा। आज दुनिया भर में करीब तीन हजार से पैंतीस सौ बाघ बचे हैं जबकि अस्‍सी के दशक में करीब आठ हजार बाघ थे। दुनियां के कई हिस्‍सों से बाघ गायब हो चुके हैं या लुप्‍त होने के कगार पर हैं। हमारे देश में ही एक शताब्‍दी पहले चालीस हजार से अधिक बाघ थे लेकिन अब इनकी संख्‍या डेढ़ हजार से भी कम आंकी गई है। आंकड़े बताते हैं कि पिछले पांच सालों में ही चार सौ से अधिक बाघ लापता हो चुके हैं। इसके बाबजूद दुनिया में बाघों की आबादी के चालीस प्रतिशत अभी भी हमारे देश में हैं। ऐसा न हो कि हमारी आने वाली पीढ़ी बाघ को सिर्फ तस्‍वीरों में ही देख सके।

Sunday, October 12, 2008

अगले जनम मोहे मास्टर ना कीजो


कई बरस पहले जनसत्ता अखबार की रविवारीय पत्रिका में आलोक तोमर का एक लेख पढ़ा था कि जो कुछ नहीं होते वो शिक्षक होते हैं। शिक्षक माता-पिता की संतान आलोक तोमर का ये लेख उस समय अच्छा नहीं लगा था। लेकिन अब अपने ही बीच के एक शिक्षक की कहानी सुनी तो समझ में आया कि आलोक तोमर ने सच लिखा था। उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर ज़िले उस शिक्षक की कहानी सुनकर लगा कि ऐसे हालात में जो शिक्षक धर्म और कर्म निभाये वो गांधी ही हो सकता है। और चूंकि दूसरा गांधी अब तक कोई हुआ नहीं है इसलिये ये ही कहा जायेगा कि जो शिक्षक हैं उनके पास और कोई रास्ता ही नहीं है या वो और कुछ बन नहीं सकते। यानी आलोक तोमर की बात सोलह आने सही कि जो कुछ नहीं होते वो शिक्षक होते हैं।






मास्साब की चिट्ठी


राधा को देखने वाले आ रहे हैं, 15 अक्टूबर की सुबह। लड़का दीपावली की छुट्टियों में घर आ रहा है, इसलिये महीने भर से पहले से कार्यक्रम तय है। लेकिन मैं शायद उनसे ना मिल सकूं। आज ही बेसिक शिक्षा अधिकारी के दफ्तर से संदेश आया है कि 15 अक्टूबर को उत्तर प्रदेश के सभी प्राइमरी और जूनियर हाई स्कूलों में ‘विश्व हाथ धोना दिवस’मनाया जाएगा। इस मौके पर स्कूलों में शिक्षकगण बच्चों को अलग-अलग समूहों में बांटकर विद्यालय की साफ-सफाई कराएंगे। अपनी और आसपास की स्वच्छता-सफाई का संदेश देने के रैलियां निकालीं जाएंगी। और बच्चे टॉयलेट जाने के बाद और कुछ भी खाने से पहले हाथ धोने की शपथ लेंगे। यानी शाम के पांच-छह बजेंगे सामान समेटते-समेटते। हेड मास्टर साहब को भी पता है कि उस दिन मुझे कितना ज़रुरी काम है लेकिन क्या करें उनकी भी मजबूरी है और मेरी भी। राधा की मां ज़िम्मा संभालेगी घर पर। कोई बात नहीं, लेकिन मैं अपनी बेटी राधा की शादी में हाज़िर होने की पूरी कोशिश करूंगा।
वैसे सच बताऊं मेरे जैसे शिक्षकों की बिरादरी इस तरह के आपातकाल की आदी हो गई है या होती जा रही है। आजकल हमारे जिम्मे परिवार नियोजन के लिये लोगों को प्रेरित करने से लेकर पोलिया की दवा पिलवाने तक का काम ही नहीं होता बल्कि लखनऊ में जिस पार्टी की सरकार है उसके छुटभैये नेताओं की सभा के लिये बच्चे-बड़े भी हमको ही जुटाने पड़ते हैं। मेरे पिता जी भी मास्टर थे, लेकिन तब हालात कुछ और थे। इलाके के सबसे प्रतिष्ठित व्यक्ति माने जाने वाले मास्टर साहब या गुरुजी हालात की वजह से अब ‘वो मास्टर’ में बदल चुके हैं। अब ना इज्जत है, ना पैसा और ना ही चैन। गांव के पंचों से लेकर कलेक्टर तक निगरानी के लिये इतने लोग तैनात कर दिये गये हैं कि मेरे जैसे मास्साब, पिता के अंतिम संस्कार या बेटी की शादी की तैयारियों के लिये भी छुट्टी लेने से पहले पचास बार सोचते हैं।
और इतनी मेहनत और बेगार के बाद जब वेतन की बारी आती है तो 5-6 महीने तक इंतज़ार और वो भी इतनी जलालत के बाद, मानो भीख मिल रही हो। देश की जिस राजधानी दिल्ली में शिक्षा और शिक्षकों के लिये बड़ी-बड़ी योजनाये बनती हैं, उससे महज़ 60-70 किलोमीटर दूर बसे बुलंदशहर के बेसिक शिक्षकों का हाल आप सुन लेंगे तो कलेजा मुंह को आ जायेगा। बेसिक शिक्षा अधिकारी के कार्यालय में बैठने वाले लेखाधिकारी महोदय का एक अदना सा बाबू हम भविष्यनिर्माताओं को खून के आंसू रुला देता है। पूरे बुलंदशहर में गिने-चुने स्कूल होंगे जिनके शिक्षकों को वेतन समय पर मिल पा रहा होगा। दरअसल वेतन मिलने की प्रक्रिया इतनी जटिल और लंबी है कि इससे लेखाधिकारी कार्यालय के बाबू के अलावा सब परेशान होते हैं। हर महीने की 20-22 तारीख को स्कूल का बाबू वेतन का बिल बनाकर लेखाधिकारी कार्यालय ले जाता है। लेखाधिकारी कार्यालय के बाबू के मूड के ऊपर है कि वो बिल स्वीकार करता है या नहीं। पहली बार में तो वो नहीं ही करता है, ये कहकर कि अभी बजट नहीं आया है। मानमनौव्वल के बाद बिल स्वीकार होता है और कम से 10-15 दिन से लेकर महीने तक पड़ा रहता है ट्रेज़री में जाने के लिये। जब जाता है तो ट्रेज़री से चैक आने में दो-चार रोज़ लग जाते हैं। ट्रेज़री से आया चेक लेखाधिकारी के बाबू के पास फिर पड़ा रहता है, कई बार तो दो-दो महीने तक। ये हाल तब है जब बाबू से चेक लेने के एवज़ में हर बार 100 रुपये खर्च होते हैं। 10 लोगों के वेतन पर 100 रुपये खर्च का नियम है। बीच में शिक्षकों ने बुलंदशहर में कर्मचारी नेताओं से मिलकर शिकायत की तो छह महीने तक सब ठीक रहा। फिर सातवें महीने अचानक शेर हो गये बाबू ने पिछले छह महीने की भी कसर निकाल ली तब कहीं जाकर चेक दिया। चेक हाथ में देने से पहले 100 रुपये के खर्च का सिलसिला फिर प्रारंभ हो गया है। किससे कहें?
दीपावली की तैयारियां आपके घर मे चल रही होंगी। मेरे घर में भी हर साल शुरू होती हैं लेकिन बीच में ही दम तोड़ देती हैं। पिछले कई साल का नियम है कि जिस महीने दीपावली होती है उस महीने बोनस तो दूर उस माह का वेतन भी नहीं मिल पाता है। इस महीने का वेतन अब तक नहीं मिल सका है, बिल बाबू की टेबल पर ही पड़ा हुआ है। और बोनस, वो तो पिछले साल का भी नहीं मिला है। बाबू जी कहते हैं बजट नहीं हैं। दबंगों के स्कूलों को पिछले साल ही मिल गया था। महंगाई भत्ता बढ़ने का हज़ारों रुपये का एरियर भी नहीं मिल पा रहा है। देर सबेर मिल जायेगा लेकिन उसका जो हिस्सा पीएफ में जायेगा उसके ब्याज का नुकसान तो ही ही रहा है हम लोगों को।
पीएफ पर याद आया, राधा की शादी के लिये 40 हज़ार रुपये निकालने के लिये अर्जी दी हुई है। एक हज़ार रुपये अब तक चाय-पानी के नाम पर बांट चुका हूं।लेकिन अर्जी वहीं की वहीं है, आगे बढ़ ही नहीं रही है। शुक्ला जी, सिंह साहब, मिश्रा जी सबके उदाहरण मेरे सामने हैं कि उनको पीएफ से निकाली गई रकम बच्चों की शादी पर नहीं नाना या दादा बनने पर ही मिल सकी। मुझे भी बहुत ज़्यादा उम्मीद लगती नहीं है।
लेकिन एक उम्मीद आपसे नज़र आ रही है। आपने हमको अपने बच्चों का भविष्य बनाने का जिम्मा दे रखा है। हम पूरी कोशिश करते हैं लेकिन बदले में कभी गुरु दक्षिणा नहीं मांगते हैं, मांगते भी हैं छोटी-मोटी, द्रोण जैसी नहीं। क्या आप पालकों की पूरी बिरादरी दिवाली के मौके पर शिक्षकों की बिरादरी को एक गुरु दक्षिणा दे सकती है। हमारे पढ़ाये कई बच्चे आईएएस, आईपीएस और बड़े अफसर हैं, कृपया हमको बाबुओं से मुक्ति दिलवाकर बस वेतन समय पर दिलवा दीजिये। हम आपके बच्चों का भविष्य बनाते हैं आप हमारे बच्चों का ध्यान रखिये।
मास्टर रामदयाल, पहासू वाले

तकनीकी सहयोग- शैलेश भारतवासी

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