भाषा पुल है
तुम तक पंहुचने के लिए
आने के लिए मुझ तक
ये कविता लिखते समय मैने कभी नहीं सोचा था कि संप्रेषण के इस पुल को ढहाने के लिए वोटों के आतंकवादी सारी मर्यादाएं तोड़ देंगे। जया भादुड़ी बच्चन ने एक सभा में कह दिया कि हम तो यूपी के हैं इसलिए हिंदी में ही बोलेंगे। बस! फिर क्या था। बखेड़ा खड़ा हो गया। भाषा और क्षेत्रवाद के नाम पर वोटो की फसल उगाने के जीतोड़ कोशिश में लगे राज ठाकरे को लगा कि इससे बेहतर मौका और क्या हो सकता है। एक नया विवाद खड़ा कर दिया गया। जमकर गुंडई हुई। जया को उनके पति को माफी मांगनी पड़ी क्योंकि वो एक शांत स्वभाव के महिला-पुरुष हैं जो न तो उतनी नंगई पर उतर सकते हैं और न गुंडई कर सकते हैं। इसके अलावा मुंवई ने उनको नाम दिया है। शोहरत दी है। समृद्धि दी है। ऐसे में व्यवसायिक हित प्रभावित होते देखकर कोई भी भलामानुष वही करेगा जो बच्चन परिवार ने किया।
यहां एक सवाल उठता है कि क्या अंग्रेजी बोलने पर भी राज या बड़े ठाकरे इसी तरह बखेड़ा खड़ा करते। जया यदि हिंदी की जगह मराठी में बोलती तो मुझे बेहद प्रसन्नता होती क्योंकि मेरा मानना है कि क्षेत्रीय भाषाओं का सम्मान, प्रचार-प्रसार हिंदी के साथ समानांतर गति से होना चाहिए। यदि हिंदी भाषी राज्यों में स्कूली शिक्षा के साथ एक क्षेत्रीय भाषा का अध्ययन जरूरी होता तो राज जैसे लोगों को अलगाववाद के बीज बोने का मौका ही नहीं मिलता। लेकिन हमारे हुक्मरानों ने न कभी हिंदी के बारे में गंभीरता से सोचा, न कभी क्षेत्रीय भाषाओं के विकास के बारे में। सत्ता हमेशा अंग्रेजी दां लोगों के शिकंजे में रही इसलिए संवैधानिक रूप से भारत की प्रथम राजभाषा भले ही हिंदी हो लेकिन दबदबा उन्हीं लोगों का रहा जो अंग्रेजी गटकते और उगलते रहे। हिंदी राजभाषा होते हुए भी दासी जैसी हालत में आ गई। हम भले ही हिंदी का ध्वज उठाकर हिंदी जिंदावाद करें लेकिन सच ये है कि आज हर व्यक्ति अपनी संतान को अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाना चाहता है क्योंकि हिंदी को हमारे हुक्मरानों ने कभी रोजगार की भाषा नहीं बनने दिया। छब्बीस जनवरी उन्नीस सौ पैंसठ को भले ही हिंदी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दे दिया गया हो लेकिन हिंदी को कभी वह गौरव नहीं मिल पाया क्योंकि कभी दक्षिण में शुरू हुआ हिंदी विरांध अब मुंबई तक पंहुच गया है। उस मुंबई तक जो हिंदी सिनेमा का मक्का है। जिस मुंबई के बहुतायत लोगों को रोटी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हिंदी से ही मिलती है। इसका एकमात्र कारण है हमारी वह नीतियां जिनमें कभी हिंदी या भारतीय भाषाओं के विकास के लिए कभी कोई ठोस प्रयास ही नहीं हुआ। यदि भारत की अन्य भाषाओं को हिंदी भाषी क्षेत्रों में स्कूली शिक्षा के साथ जोड़ दिया गया होता तो भाषा के नाम पर वोटों की फसल उगाने वाले राज ठाकरे जैसे लोग कभी अपनी राजनीतिक रोटियां नहीं सेंक पाते।
एक बात और हिंदी का जितना हित हुक्मरानों ने किया है उतना हिंदी की दुकान चलाने वाले कथित मनीषियों ने भी। उन्होंने कभी हिंदी को हिंदुस्तानी नहीं होने दिया। हम सभी को ये कभी नहीं भूलना चाहिए कि जिस भाषा या संस्कृति में नया जोड़ने की परंपरा समाप्त हो जाती है उसके विकास की गति ठहर जाती है। अगर हिंदी में कुछ चर्चित शब्द दूसरी भाषाओं से भी आ जाते हैं तो नाक मुंह मत सिकोड़िए बल्कि आत्मसात कीजिए। यही विकास की परंपरा है।
हिंदी अगर बड़ी है तो भी बड़े को बड़प्पन दिखाना चाहिए जिसके प्रयास कभी नहीं हुए। न ही कभी हमारे हुक्मरानों ने ऐसा संदेश देने की कभी कोई कोशिश ही की। कारण साफ है कि हुक्मरानों की भाषा तो हमेशा अंग्रेजी ही रही। वह तो खुद आजादी मिलने के बाद फिरंगी हो गए। वैसा ही आचरण किया और उन्हीं फिरंगियों की नकल करने में अपना गौरव समझा जिनकी गुलामी से भारत मुक्त हुआ था। हमें कभी नहीं एहसास कराया गया कि हिंदी दुनिया में दूसरी सबसे ज्यादा बोली और समझी जाने वाली भाषा है। चीन की भाषा मंदरीन है। चीनी लोगों की भाषा मंदरीन को बोलने वाले एक बिलियन लोग हैं। मंदरीन बहुत कठिन भाषा है। किसी शब्द का उच्चारण चार तरह से किया जाता है। शुरू में एक से दूसरे उच्चारण में विभेद करना मुश्किल होता है। मगर एक बिलियन लोग आसानी से मंदरीन का उपयोग करते हैं। लेकिन मंदरीन के बाद साठ करोड़ से अधिक लोगों द्वारा बोली, लिखी और पढ़ी जाने वाली भाषा को हम राष्ट्रभाषा नहीं बना पाए। अगर हम आंकड़ों पर गौर करें तो हिंदी सिर्फ पैंतालीस करोड़ लोगों की मातृभाषा है लेकिन हकीकत ये है कि हिंदी जानने वाले और हिंदी का प्रयोग करने वाले लोगों की संख्या इससे दोगुनी से भी अधिक है।
अब एक बात डंके की चोट पर। हिंदी को कोई राज ठाकरे बढ़ने से नहीं रोक सकता क्योंकि अब ये कारपोरेट की मजबूरी बन गई है। स्टार न्यूज जैसे विदेशी मीडिया ग्रुप ने पहले हिंदी का चैनल शुरू किया और फिर बांग्ला और मराठी में लेकिन अंग्रेजी में नहीं। इसी तरह हिंदी कई बड़े मीडिया घरानों और कारपोरेट की मजबूरी बन गई क्योंकि इस देश में बहुसंख्यक हिंदी भाषी हैं। कभी कहा जाता था कि हिंदी में तकनीकी काम नहीं हो सकते लेकिन आज सभी आईटी कंपनियां हिंदी में अपने उत्पाद ला रहीं हैं। इसलिए आज आपसे निवेदन है कि हिंदी दिवस के मौके पर हिंदी की ताकत को पहचानिए और शुरूआत कीजिए हिंदी में हस्ताक्षर करने से। कसम खाईए कि आप हस्ताक्षर यानी अपनी पहचान हिंदी में ही छोड़ेंगे।
ऋचा जोशी
तुम तक पंहुचने के लिए
आने के लिए मुझ तक
ये कविता लिखते समय मैने कभी नहीं सोचा था कि संप्रेषण के इस पुल को ढहाने के लिए वोटों के आतंकवादी सारी मर्यादाएं तोड़ देंगे। जया भादुड़ी बच्चन ने एक सभा में कह दिया कि हम तो यूपी के हैं इसलिए हिंदी में ही बोलेंगे। बस! फिर क्या था। बखेड़ा खड़ा हो गया। भाषा और क्षेत्रवाद के नाम पर वोटो की फसल उगाने के जीतोड़ कोशिश में लगे राज ठाकरे को लगा कि इससे बेहतर मौका और क्या हो सकता है। एक नया विवाद खड़ा कर दिया गया। जमकर गुंडई हुई। जया को उनके पति को माफी मांगनी पड़ी क्योंकि वो एक शांत स्वभाव के महिला-पुरुष हैं जो न तो उतनी नंगई पर उतर सकते हैं और न गुंडई कर सकते हैं। इसके अलावा मुंवई ने उनको नाम दिया है। शोहरत दी है। समृद्धि दी है। ऐसे में व्यवसायिक हित प्रभावित होते देखकर कोई भी भलामानुष वही करेगा जो बच्चन परिवार ने किया।
यहां एक सवाल उठता है कि क्या अंग्रेजी बोलने पर भी राज या बड़े ठाकरे इसी तरह बखेड़ा खड़ा करते। जया यदि हिंदी की जगह मराठी में बोलती तो मुझे बेहद प्रसन्नता होती क्योंकि मेरा मानना है कि क्षेत्रीय भाषाओं का सम्मान, प्रचार-प्रसार हिंदी के साथ समानांतर गति से होना चाहिए। यदि हिंदी भाषी राज्यों में स्कूली शिक्षा के साथ एक क्षेत्रीय भाषा का अध्ययन जरूरी होता तो राज जैसे लोगों को अलगाववाद के बीज बोने का मौका ही नहीं मिलता। लेकिन हमारे हुक्मरानों ने न कभी हिंदी के बारे में गंभीरता से सोचा, न कभी क्षेत्रीय भाषाओं के विकास के बारे में। सत्ता हमेशा अंग्रेजी दां लोगों के शिकंजे में रही इसलिए संवैधानिक रूप से भारत की प्रथम राजभाषा भले ही हिंदी हो लेकिन दबदबा उन्हीं लोगों का रहा जो अंग्रेजी गटकते और उगलते रहे। हिंदी राजभाषा होते हुए भी दासी जैसी हालत में आ गई। हम भले ही हिंदी का ध्वज उठाकर हिंदी जिंदावाद करें लेकिन सच ये है कि आज हर व्यक्ति अपनी संतान को अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाना चाहता है क्योंकि हिंदी को हमारे हुक्मरानों ने कभी रोजगार की भाषा नहीं बनने दिया। छब्बीस जनवरी उन्नीस सौ पैंसठ को भले ही हिंदी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दे दिया गया हो लेकिन हिंदी को कभी वह गौरव नहीं मिल पाया क्योंकि कभी दक्षिण में शुरू हुआ हिंदी विरांध अब मुंबई तक पंहुच गया है। उस मुंबई तक जो हिंदी सिनेमा का मक्का है। जिस मुंबई के बहुतायत लोगों को रोटी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हिंदी से ही मिलती है। इसका एकमात्र कारण है हमारी वह नीतियां जिनमें कभी हिंदी या भारतीय भाषाओं के विकास के लिए कभी कोई ठोस प्रयास ही नहीं हुआ। यदि भारत की अन्य भाषाओं को हिंदी भाषी क्षेत्रों में स्कूली शिक्षा के साथ जोड़ दिया गया होता तो भाषा के नाम पर वोटों की फसल उगाने वाले राज ठाकरे जैसे लोग कभी अपनी राजनीतिक रोटियां नहीं सेंक पाते।
एक बात और हिंदी का जितना हित हुक्मरानों ने किया है उतना हिंदी की दुकान चलाने वाले कथित मनीषियों ने भी। उन्होंने कभी हिंदी को हिंदुस्तानी नहीं होने दिया। हम सभी को ये कभी नहीं भूलना चाहिए कि जिस भाषा या संस्कृति में नया जोड़ने की परंपरा समाप्त हो जाती है उसके विकास की गति ठहर जाती है। अगर हिंदी में कुछ चर्चित शब्द दूसरी भाषाओं से भी आ जाते हैं तो नाक मुंह मत सिकोड़िए बल्कि आत्मसात कीजिए। यही विकास की परंपरा है।
हिंदी अगर बड़ी है तो भी बड़े को बड़प्पन दिखाना चाहिए जिसके प्रयास कभी नहीं हुए। न ही कभी हमारे हुक्मरानों ने ऐसा संदेश देने की कभी कोई कोशिश ही की। कारण साफ है कि हुक्मरानों की भाषा तो हमेशा अंग्रेजी ही रही। वह तो खुद आजादी मिलने के बाद फिरंगी हो गए। वैसा ही आचरण किया और उन्हीं फिरंगियों की नकल करने में अपना गौरव समझा जिनकी गुलामी से भारत मुक्त हुआ था। हमें कभी नहीं एहसास कराया गया कि हिंदी दुनिया में दूसरी सबसे ज्यादा बोली और समझी जाने वाली भाषा है। चीन की भाषा मंदरीन है। चीनी लोगों की भाषा मंदरीन को बोलने वाले एक बिलियन लोग हैं। मंदरीन बहुत कठिन भाषा है। किसी शब्द का उच्चारण चार तरह से किया जाता है। शुरू में एक से दूसरे उच्चारण में विभेद करना मुश्किल होता है। मगर एक बिलियन लोग आसानी से मंदरीन का उपयोग करते हैं। लेकिन मंदरीन के बाद साठ करोड़ से अधिक लोगों द्वारा बोली, लिखी और पढ़ी जाने वाली भाषा को हम राष्ट्रभाषा नहीं बना पाए। अगर हम आंकड़ों पर गौर करें तो हिंदी सिर्फ पैंतालीस करोड़ लोगों की मातृभाषा है लेकिन हकीकत ये है कि हिंदी जानने वाले और हिंदी का प्रयोग करने वाले लोगों की संख्या इससे दोगुनी से भी अधिक है।
अब एक बात डंके की चोट पर। हिंदी को कोई राज ठाकरे बढ़ने से नहीं रोक सकता क्योंकि अब ये कारपोरेट की मजबूरी बन गई है। स्टार न्यूज जैसे विदेशी मीडिया ग्रुप ने पहले हिंदी का चैनल शुरू किया और फिर बांग्ला और मराठी में लेकिन अंग्रेजी में नहीं। इसी तरह हिंदी कई बड़े मीडिया घरानों और कारपोरेट की मजबूरी बन गई क्योंकि इस देश में बहुसंख्यक हिंदी भाषी हैं। कभी कहा जाता था कि हिंदी में तकनीकी काम नहीं हो सकते लेकिन आज सभी आईटी कंपनियां हिंदी में अपने उत्पाद ला रहीं हैं। इसलिए आज आपसे निवेदन है कि हिंदी दिवस के मौके पर हिंदी की ताकत को पहचानिए और शुरूआत कीजिए हिंदी में हस्ताक्षर करने से। कसम खाईए कि आप हस्ताक्षर यानी अपनी पहचान हिंदी में ही छोड़ेंगे।
ऋचा जोशी