
जयंती किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। फिर भी हम बता दें कि जयंती रंगनाथन ने अपने कैरिअर की शुरुआत जानीमानी हिंदी पत्रिका धर्मयुग से की। इसके बाद तीन साल तक सोनी एंटरटैनमेंट चैनल से जुड़ीं। महिला पत्रिका वनिता में बतौर संपादक रहने के बाद दैनिक अमर उजाला में फीचर संपादक का पदभार संभाला। संप्रति साउथ एशिया वॉयस में संपादक है और बच्चों की पत्रिकाएं मिलियन वर्ड्स और लिटिल वर्ड्स का प्रकाशन और संपादन कर रही हैं। उनके दो उपन्यास आसपास से गुजरते हुए (राजकमल), औरतें रोती नहीं(पेंगुइन/यात्रा) से प्रकाशित और खानाबदोश ख्वाहिशें (सामयिक) से प्रकाशन को तैयार हैं। वित्त मंत्री पी. चिदंबरम के निबंध संग्रह का अनुवाद भारतीय अर्थ व्यवस्था पर एक नजर: कुछ हट कर (पेंगुइन), कहानी संग्रह सन्नाटे, देहरी भई विदेश (राजेंद्र यादव द्वारा संपादित) में कहानियां/ लेख प्रकाशित हुए हैं।
देश के अग्रणी पत्र पत्रिकाओं में कहानियां और लेख प्रकाशित होते रहते हैं। हम इर्द-गिर्द पर उनके आगामी उपन्यास के अंश तीन किश्तों में प्रकाशित कर रहें हैं।
मन्नू की नजर से: १९८९'मन्नू, मैं बहुत परेशान हूं। मैं शायद अब आ नहीं पाऊंगा...'
मन्नू हाथ में कांच की कटोरी में चना-गुड़ लिए खड़ी थी, धम से गिर गई कटोरी। चेहरा फक। आंख में टपाटप आंसू भर आए। ऐसा क्यों कह रहे हैं श्याम? उसके पास नहीं आएंगे? उसका क्या होगा?
श्याम बैठे थे, आंखें बंद किए। मन्नू उनके पैरों के पास बैठ गई। आंसुओं से तलुआ धुलने लगा, तो श्याम के शरीर में हरकत हुई,'मत रो मन्नू। मैं रोता नहीं देख पाऊंगा तुझे। तू ही बता करूंक्या?'
'दिद्दा ने कुछ कहा क्या?' मन्नू ने सहमती आवाज में पूछा। श्याम की पत्नी रूमा को वह दिद्दा ही कहती थी।
श्याम धीरे से बोले,'तुम्हें कैसे बताऊं मन्नू? जिंदगी इतनी आसान नहीं, जितना हम समझते हैं। मैं तुम्हारे लिए बहुत कुछ करना चाहता हूं... पर देखो ना, कुछ नहीं कर पाता। यहां आता हूं और अपनी परेशानियां तुम पर लाद कर चला जाता हूं। तुम अकेली हो, उधर रूमा के पास सब कुछ है भरापूरा घर, पैसा। एक पति होने की ताकत है रूमा के अंदर।'
'ऐसा नहीं सोचते। अगर दिद्दा नहीं चाहतीं, तो आप कभी मेरे पास ना आते।'
श्याम ने बहुत धीमी और लुप्त आवाज में कहा,'यहां आने की मैं कितनी बड़ी कीमत चुका रहा हूं, तुम्हें नहीं मालूम मन्नू।'
मन्नू को सुनाई दे गई श्याम की आवाज। इस आवाज के सहारे वह बहुत बड़ी लड़ाई लड़ रही थी जिंदगी से। किसी तरह अपने को संभाल कर वह दो रोटी और तुरई की रसेदार सब्जी बना लाई श्याम के लिए। जब उसके पास आते श्याम, तो खाना यहीं खा कर जाते। मन्नू के लिए वह दिन हर तरह से विशिष्ट होता। श्याम की पसंद का खाना बनाना, ठीक से काजल-बिंदी लगा कर तैयार होना, रंगीन साड़ी पहनना और जरा सा इत्र लगाना।
श्याम शाम को ही आते थे, दफ्तर से सीधे। पहले से बता जाते कि अगली बार शुक्र को आऊंगा। मन्नू की तैयारियां शुरू हो जाती। तन-मन से प्रफुल्लित। बेसब्री से इंतजार करती। श्याम चालीस पार कर चुके थे। पर अब भी शरीर बलिष्ठ था। बालों में हलकी सी सफेदी, हलका सा बड़ा हुआ पेट। हाथ और छाती में बाल ही बाल। घने काले बाल। घर पर होते तो कमीज कुरसी पर डाल सीना उघाड़ कर बैठते। मन्नू को उन्हें ऐसे देखना बहुत भला लगता। अपने सीने में उसका नन्हा सा सिर रख कर कहते,'तुम बिलकुल गुडिय़ा सी हो। हाथों में भर लूं, तो चेहरा आ जाए।'
मन्नू कभी गरम पानी से उनके पैर धोती, तो कभी नाखून साफ कर काटने बैठ जाती। मन होता, तो चमेली का तेल हलका गरम कर बालों में लगा सिर का मसाज करती।
श्याम को मन्नू के हाथों तेल लगवाना बेहद पसंद था। उस दिन तो दोनों ही तेल में गुत्थमगुत्था हो जाते। फिर चलता प्रगाढ़ता का लंबा दौर। अधेड़ श्याम के अंदर जैसे ऊर्जा का समंदर ही भर जाता। मन्नू उनकी गोद में बच्ची ही तो लगती थी। युवा मन्नू के चेहरे पर कमनीयता थी, पारदर्शी त्वचा, हलकेभूरे बाल। खूब मुलायम। छोटा कद, नाजुक बदन। श्याम उसे उठाते, तो लगता जैसे रुई का सुगंधित फाहा अपने पूरे अस्तित्व के साथ उड़ रहा हो। मन्नू जो उड़ती, तो साड़ी का पल्लू श्याम के चेहरे पर एक परदा सा बन उन्हें और मोहित कर जाता। हर बार मन्नू का सान्निध्य उन्हें चमत्कृत कर जाता। कितना प्यार है इस औरत के अंदर। प्यार मन्नू को बदल देता है। वह केंचुल उतार हंसिनी बन जाती है। बहुत बेबाक और उनमुक्त हो जाती है मन्नू। श्याम को कई बार डर लगता है। वे अब जवान नहीं रहे। ढल रहे हैं। मन्नू जितना सान्निध्य चाहती है, वे दे नहीं पाते। जब कभी मन्नू को मना कर वे लौट आते हैं रूमा के पास, धधक मची रहती है। मन्नू अभी युवा है, कहीं उसकी जिंदगी में कोई और आ गया तो?
वे खुद संभलना चाहते हैं। उनकी बड़ी बेटी उज्जवला सत्रह की हो जाएगी। छोटी अंतरा तेरह की। एक ही बेटा है अनिरुद्घ। सबसे बड़ा है। रूमा का एक तरह से दाहिना हाथ है। कॉलेज में है। रूमा अपने सभी बच्चों को अस्त्र की तरह इस्तेमाल करती है। श्याम महसूस करने लगे हैं कि घर का माहौल उनके लिए कठोर होता जा रहा है। रूमा ने बेशक उन्हें मन्नू के पास जाने से मना ना किया हो, वह दूसरी तरह से उनसे बदला ले लेती है। वे गांव में अपने माता-पिता के लिए कुछ नहीं कर पाते। एक बहन है सरला, बिन ब्याही, शादी की उम्र बीत ही चुकी, वे कुछ नहीं कर पाए। अम्मा कह कर थक गईं। पिताजी का लीवर जवाब दे गया। रूमा ने मना कर दिया कि वे यहां ला कर इलाज नहीं करवाएंगी।
श्याम की आवाज घुट गई है।
 |
उपन्यास अंश |
---|
उस शाम श्याम जब मन्नू के घर से लौट रहे थे, बस स्टॉप पर ही चक्कर खा कर गिर पड़े। लगभग दस मिनट की बेहोशी के बाद नींद टूटी, तो अपने आपको सडक़ किनारे लेटा पाया। माथे और घुटने छिल गए थे। खून निकल आया था। सिर चकरा रहा था। कुछ लोग उन्हें घेरे खड़े थे। उन्हीं में से एक ने झटपट उनके लिए पानी का इंतजाम किया।
श्याम की समझ नहीं आया कि उन्हें चक्कर कैसे आ गया। दोपहर को खाना खाया तो था। ठीक है कि चलते समय हमेशा की तरह गुड़-चने नहीं खाए, पर इससे चक्कर? लग रहा है जैसे शक्ति चुक सी गई है।
आधे घंटे तक वे बस स्टॉप पर ही बैठे रहे। शरीर में ताकत आई, तो बस में बैठ गए।
लगा जैसे जिंदगी हाथ से निकलती जा रही है। अब ज्यादा दिन नहीं जी पाएंगे। बच्चों का क्या होगा? मन्नू का क्या होगा? पिताजी का इलाज? बहन? मां? इन सबके बीच रूमा का ख्याल जरा नहीं आया।
अंतरा घर के बाहर ही सहेलियों के साथ लंगड़ी बिल्लस खेल रही थी। पापा को देखते ही दौड़ी आई,'पापू, राजू चाचा आए हैं बुआ के साथ।'
श्याम चौंक गए। जरूर पिताजी ने भेजा होगा। इतने दिनों से बुला रहे हैं। तीन-चार पत्र लिख चुकेे। दसियों ट्रंकाल कर डाले। एकदम से उन्हें डर सा लगने लगा। पता नहीं रूमा ने राजू और सरला के साथ क्या किया होगा?
सरला बरामदे में ही बैठी थी। मेथी के पत्ते अलग कर रही थी। भैया को देखते ही खड़ी हो गई। पहले से ढल गया था सरला का चेहरा। मन्नू से एक ही साल तो छोटी है सरला। घर में सबसे छोटी। श्याम तेरह बरस के थे, तब पैदा हुई। गोद में लिए फिरते थे। बचपन में उसे खाना खिलाना, उसकी चोटी बनाना जैसे सारे काम वे ही करते थे। रूमा से शादी के बाद तो जैसे भूल ही गए अपनी बहन को। सरला को देख बहुत बुरा लगा श्याम को।
घर के अंदर ही राजू बैठा था अनिरुद्ध के साथ। श्याम ने रूमा को खोजने की कोशिश की। वह शायद अंदर कहीं थी। घर में शांति थी, इसका मतलब था कि राजू का मकसद पिताजी का संदेश लाना या पैसे मांगना नहीं था। श्याम राजू के पास बैठे ही थे कि उज्जवला हाथ में पेड़े का डिब्बा उठा लाई,'पापा, बुआ की शादी तय हो गई है। अगले महीने है।'
श्याम ने मिठाई का टुकड़ा उठा लिया। तो आखिरकार बहन का रिश्ता हो ही गया। इस बार पिताजी ने उसे बताया तक नहीं, अभी भी मेहमान की हैसियत से ही न्योता है। उन्हें भी पता है कि जरा सा कुछ मांग करते ही श्याम की बीवी बेटे की जिंदगी तबाह कर देगी।
रातभर इसी उधेड़बुन में रहे श्याम कि बहन को क्या दें? बहुत ज्यादा नहीं तो इतना कम भी नहीं कि पिताजी को धक्का ही लग जाए। पचास हजार तो होने ही चाहिए। उनकी शादी सन १९७० की गरमियों में हुई थी। उसी समय रूमा के घर वालों ने पचास हजार से ज्यादा खरचा था। श्याम के पिता के हाथ में नकद दस हजार रखे थे। पता नहीं पिताजी ने उन रुपयों का किया क्या? श्याम को लगा था कि उसकी शादी के बाद पिताजी उसकी मदद करते रहेंगे। वे गांव के डाकघर में बड़े बाबू थे।
जब अनिरुद्ध हुआ, तो भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध छिड़ चुका था। वे उन दिनों सिविल्स की तैयारी में लगे थे। घर के खर्चे के लिए एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाते थे, दो-चार ट्यूशन भी कर लेते। उस समय तक तो उनके पास साइकिल ही थी। रूमा पीछे पड़ी थी कि स्कूटर खरीदो। इस तरह साइकिल में घूमते हो, मेरे परिवार वालों की इज्जत क्या रहेगी? मेरे घर वाले दिल्ली रहते हैं। तुम्हारा क्या? कोई जानता भी है तुम्हें? बहुत संघर्ष भरे दिन थे। शादी तो कर ली थी, पर लगा कि इस तरह से ना पढ़ाई हो पाएगी ना नौकरी। घर चलाना इतना भारी काम है, इसका अंदेशा था ही नहीं। रूमा अलग परिवेश से आई थी। जिंदगी के मायने अलग थे। बहुत कोंचती--ये नहीं है, वो नहीं है। ऐसा नहीं, वैसा नहीं।
श्याम कुंठित रहने लगे थे। स्साला आइएएस बन कर करना क्या है? जिनकेलिए बनना चाहते हैं, वो तो उनकी औकात दो कौड़ी का भी नहीं आंक रहे। ठीक प्रिलिम परीक्षा से एक दिन पहले उन्होंने ठान लिया कि नहीं बनना कलेक्टर। नौकरी की खोज शुरू हुई। दो महीने बाद हाइ स्कूल में मास्टर बन गए। उसी बरस बैंक में क्लर्क के पद का इम्तहां दिया। छह महीने बाद पक्की नौकरी मिल गई । वहीं रहते-रहते प्रोबेशनरी ऑफिसर बन गए।
शुरू में भतेरे ट्रांसफर हुए। कभी अलीगढ़, तो कभी जौनपुर। एक बार तो झांसी से सौ किलोमीटर दूर एक मुफसिल से कस्बे में दो साल रहना पड़ा। एक रूखी जगह। घर के नाम पर तीन दीवारों वाला सीमेंट का मकान। एक दीवार मिट्टी की, जिससे बारिश के दिनों में रिस-रिस कर पानी अंदर आता था। खाने-पीने का कोई इंतजाम नहीं। एक ढंग का ढाबा नहीं। श्याम बुरी तरह उकता गए। कस्बे के लोग आलसी और दगाबाज किस्म के थे। पास ही वेश्याओं की पुरानी बस्ती थी। बैंक केआधे कर्मचारी सुबह-शाम वहीं पड़े रहते। वहीं रहते-रहते एक घटना हो गई।
श्याम के साथ काम करते थे कमलनयन। क्रांतिकारी किस्म के कम बोलने वाले आदमी। बनारस का पढ़ा लिखा। श्याम के वे एकमात्र हमप्याला-हमनिवाला थे। जब भी मौका मिलता, दोनों मिल बैठ कर बिअर पीते। कमलनयन का लगाव एक वेश्या के साथ हो गया। वह कभी-कभी उसे घर भी ले आते। शोभा नाम था उसका। उम्र बीसेक साल। पतली-दुबली शोभा के चेहरे का पिटा हुआ रंग श्याम को कचोट जाता। भूरे पतले बालों की दो चोटियां बना कर रखती। उसके शरीर के हिसाब से उसके वक्ष भारी लगते। लगता वक्षों के बोझ तले वह दबी हुई है। साड़ी ही पहनती थी शोभा, वो भी खूब चमकीली।
एक दिन कमल नयन शाम ढले लाल साड़ी में लिपटी शोभा को श्याम के तीन दीवारों वाले मकान में ले आए,'ले श्याम, मैं तेरे लिए भाभी ले आया...'
श्याम सकपका गए। शोभा शरमाती हुई पीछे खड़ी थी। अचानक वह तेज कदमों से श्याम के पास आई और उनके पैर छू लिए। कमलनयन हंसने लगे,'ऐसे क्या देख रहा है बे? शादी की है इनसे मंदिर में। इनकी अम्मा तो मान ही ना रही थी, बड़ी मुश्किल से पांच हजार का सौदा करके इन्हें ले आए हैं। क्यों ठीक है ना दोस्त? ज्यादा कीमत तो नहीं चुकी दी हमने?'
श्याम ने देखा, शोभा की आंखें पनीली हो उठी थीं। उसे अच्छा नहीं लगा था, अपने मोलभाव का खुला बखान। कमलनयन और शोभा उस रात श्याम केही पास रहे। कमलनयन के घर में बिस्तरे की व्यवस्था नहीं थी, फिर अपने मकानमालिक से भी उन्होंने शादी की बात नहीं की थी। श्याम बरामदे में सो रहे। अगले दिन सुबह उठ कर चाय शोभा ने ही बनाई। रात भर में उसका चेहरा बदल गया था। चेहरे पर लुनाई, एक सुरक्षा से भरा चेहरा।
वह उसे श्याम जी बुलाती थी। कमलनयन को साहब जी। कमलनयन ने बिना कुछ कहे श्याम के घर डेरा डाल लिया। श्याम डर रहे थे। हर साल गरमी की छुट्टियों में रूमा बच्चों को ले कर उनके पास आती थी। इस बार कह रही थी कि उसकी मां भी आना चाहती है। अगर उसे पता चल गया कि घर में उन्होंने एक वेश्या को पनाह दी है, तो उनकी खैर नहीं। कमल नयन अपने घर नहीं जाना चाहते थे। उस इलाके में हर कोई शोभा से परिचित था, कई तो उसके ग्राहक भी रह चुके थे।
श्याम केघर का इलाका अपेक्षाकृत सुनसान था, सौ मीटर की दूरी पर एक छोटा सा मंदिर था हनुमान का। उसके आगे जंगल।
श्याम के बहुत सहमत ना होने के बावजूद कमलनयन और शोभा वहां टिक गए। पहले दो दिन श्याम बरामदे में सोए, पर फिर कमरे मेें ही आ गए। वापस अपने तख्त पर। नीचे रजाई बिछा कर शोभा और कमल सोते। श्याम को संकोच होता। कई रातें उनके लिए मुश्किल हो जातीं। जमीन पर कमल और शोभा को संभोग करते देखना, सुनना उनके लिए असह्य हो जाता। वे मना कर सकते थे, पर एक किस्म का आनंद आने लगा था श्याम को। कमल नयन अच्छे प्रेमी नहीं थे, लेकिन शोभा पुराना चावल थी। पता नहीं अपने ग्राहकों को कितना संतुष्टि देती थी, अपने पति को तो सहवास का भरपूर सुख दे रही थी, वो भी प्राय: रोज ही। शोभा के सीत्कार श्याम को उत्तेजित कर देते। बिस्तर पर लेटे लेटे उनका हाथ सक्रिय हो जाता। वे आनंद में खो जाते और चरम पर पहुंच जाते। ना जाने कितनी रातें... ना जाने कितनी फंतासियां। पर उन्हें कभी नहीं लगा कि शोभा के साथ वे सेक्स करने को इच्छुक हैं। दिन की शोभा और रात की शोभा वे गजब का परिवर्तन था। वह नहा-धो कर स्टो जलाती। चाय बनाती। कभी पूरी, तो कभी परांठा बना कर दोनों दोस्तों को काम पर भेजती। दोपहर को चावल-दाल। रात को रोटी के साथ तरी वाली सब्जी।
श्याम को खानेपीने की सुविधा हो गई। घर व्यवस्थित हो गया। कमलनयन खर्चे बांट लेते। किराया श्याम देते, राशन-पानी कमल ले आते।
पूरे दो महीने यह व्यवस्था चली। श्याम को यह जान कर राहत मिली कि रूमा नहीं आ पाएगी। मां सीढिय़ों से गिर कर हाथ तुड़वा बैठी थीं। ऐसे में रूमा को वहां रहना जरूरी था।
श्याम को बहुत बड़ी नियामत मिल गई। रूमा के यहां आने के नाम भर से वे घबरा गए थे। पिछली गरमियों के एक महीने बहुत कष्ट में बीते थे। लगातार रूमा की शिकायतें सुनते-सुनते वे चकरा गए थे। इतने कि पंद्रह दिन की छुट्टी डाल वे सबको शिमला ले गए और वापसी में सबको दिल्ली छोड़ कर खुद यहां चले आए।
कमल नयन का परिवार बिहार के चंपारण क्षेत्र से था। वे जोश में बताते थे कि उनके परिवार में के कई लोग आजादी की लड़ाई में शहीद हुए हैं। उनके परिवार में अब तक यह खबर नहीं पहुंची थी कि कमलनयन ने शादी कर ली है। इसी बीच कमलनयन के गांव से कोई परिचित आ पहुंचा। कमलनयन के पुराने घर गया, वहां से सीधे बैंक आ पहुंचा।
रंग उड़ा पाजामा-कुरता, बिखरे बाल और तनी हुई मुद्रा। कमलनयन उसे देख सकते में आ गए।
'ये हरामी का पिल्ला, ससुर कनाती देबुआ यहां कैसे आ पहुंचा?'
देबू एकदम से सामने पड़ गया। कमलनयन किसी तरह घेरघार कर उसे बाहर चाय पिलाने ले गए। उसे एक दिन बाद लौटना था और चाहता था कि रहे कमल बाबू के ही साथ। ऐसा चाट कि श्याम ध्वस्त हो गए। शाम को उन्हीं के साथ चल पड़ा देबू। कमल की बोलती लगभग बंद थी। घर पर कदम रखते ही कमल ने सबसे पहले यही कहा-श्याम, जरा भाभी से कह दो, खाना एक आदमी केलिए ज्यादा बना दे। दाल-भात चलेगा। घर जैसा।
श्याम सकपकाए। क्या कमल देबू का परिचय शोभा से नहीं कराएंगे? दूर की बात, कमल ने शोभा से बात ही नहीं। कुछ कहा भी तो श्याम के
मार्फत। वो भी भाभी कहते हुए। शोभा चुपचाप सिर पर आंचल रखे स्टोव फूंकती रही। खा-पी कर देबू और कमल बरामदे में आ गए। अंदर बिस्तरा लेने गए तो फुसफुसा कर श्याम के कान में कहा,'मैं भी जरा बाहर ही सो लूं। कुछ गांव घर की बात करनी है।'
श्याम अचकचा गए। बीवी अंदर उनके साथ? कमलनयन को किस बात की शरम है?
शोभा ने कुछ कहा नहीं। पर जमीन पर बैठी-बैठी वह रोती रही। श्याम ने उसके अपना तकिया और चादर दे दिया। शोभा का निशब्द रोना उन्हें अंदर तक साल गया। मन हुआ कि इसी वक्त दरवाजा खोल कमल का झोंटा पकड़ उसे अंदर खींच लाए। इस औरत ने गलत किया जो उससे मुंह छिपा रहा है?
लेकिन एक बात तो तय कर ही लिया श्याम ने कि कल कमल के रिश्तेदार के रवाना होते ही वे उससे साफ कह देंगे कि अब वो अपना दूसरा घर कर ले। उन्हें इस तरह किसी दूसरे की बीवी के साथ रहते असुविधा होती है। वैसे भी शोभा उनकी अमानत है, वे ही ख्याल रखें।
सुबह छहेक बजे दरवाजा ठेल कर कमल अंदर आ गए। उस समय भी शोभा जमीन पर ही टेक लगाए ऊंघ रही थी। कमल ने एक तरह से झकझोर कर श्याम को जगाया,'दोस्त, जरा देबू को झांसी तक छोडऩे जा रहा हूं। कुछ रुपए होंगे...?'
श्याम ने अपना पर्स टटोल कर उन्हें दो सौ रुपए दे दिए। महीने के अंत में इतना होना बड़ी बात थी। उस समय जब तनख्वाह साढ़े सात सौ रुपए हों।
श्याम पैसा ले कर बाहर निकले, फिर ना जाने क्या सोच कर अंदर आए। शोभा उसी तरह जमीं पर हक्की-बक्की सी बैठी थी। बस आंखें यह जानने का इंतजार कर रही थी--मेरे वास्ते क्या हुकुम साहिब?
उन दोनों को सुना कर बोले कमल,'कल तक आ जाऊंगा। ख्याल रखना...'
अपने रबर के जूते फरफर करते कमल बाहर निकल गए। श्याम बाहर लपके, यह कहने को कि कल तुम अपना कहीं प्रबंध करके ही आना, पर कमल जा चुके थे।
क्रमशः......................