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Wednesday, January 7, 2009

......ये रंगभेद से कम तो नहीं

''छि:! अंग्रेजी भी नहीं आती'' शीर्षक से लिखी गई पोस्‍ट पर पक्ष/विपक्ष में प्रतिक्रिया देने वाले अपने सभी साथियों/आगंतुकों का मैं सबसे पहले आभार व्‍यक्‍त करना चाहती हूं। इर्द-गिर्द पर मैने अंग्रेजी में सवाल पूछकर भाषा के नाम पर शर्मसार कर देनी वाले विश्‍वविद्यालय अनुदान आयोग के उस दल की मानसिकता को उजागर करने का प्रयास किया जो आजाद भारत में भी हिंदी को हिकारत की नजर से देखती है। अगर आप किसी को राष्‍ट्रभाषा/राजभाषा/मातृभाषा के नाम पर दुतकारते हो तो मेरी नजर में ये भी रंगभेद जैसा ही अपराध है। ऐसा अपराध तब और भी गंभीर हो जाता है जब आप हुकूमत के नशे में जानबूझकर कर रहे हों। विश्‍वविद्यालय की टीम मेरठ के चौधरी चरण सिंह विश्‍वविद्यालय में इसलिए समीक्षा करने आई थी क्‍योंकि ग्‍यारहवीं योजना में चौधरी चरणसिंह विश्‍वविद्यालय ने अपने शैक्षणिक कार्यक्रमों को विस्‍तार देने के लिए आयोग से अनुदान मांगा है। इसी प्रक्रिया में आयोग ने अपने विशेष निरीक्षण दल को मेरठ विश्‍वविद्यालय भेजा था जिसकी अगुवाई गौर बांगा विश्‍विद्यालय कोलकाता की कुल‍पति प्रोफेसर सुरभि बनर्जी कर रही थीं। इसी निरीक्षण के पहले दिन चौधरी चरण सिंह विश्‍वविद्यालय के राजनीतिशास्‍त्र विभाग यानी पोलिटिकल साइंस डिपार्टमेंट की क्‍लास में छात्र/छात्राओं से सवाल पूछे लेकिन अंग्रेजी में पूछे गए सवालों को छात्र समझ ही नहीं सके तो जबाव क्‍या देते। इस पर प्रोफेसर बनर्जी विफर पड़ीं-"पूरा डिपार्टमेंट ही हिंदी में बोलता है। ये एमए पोलटिकल साइंस की क्‍लास है और पूरी क्‍लास में एक भी बच्‍चा एक भी सवाल का अंग्रेजी में जबाव नहीं दे सकता? क्‍या पढ़ाते हैं आप इन्‍हें?" कुछ ऐसे ही शर्मसार करने के अंदाज में ये जुमले बोले गए।''
इस पोस्‍ट पर मुझे कई टिप्‍पणियां मिलीं। इनमें से एक टिप्‍पणी गुवाहटी से थी- श्री विनोद रिंगानिया की। माननीय विनोद रिंगानिया जी ने लिखा- ''प्रो. बनर्जी की तो मैं नहीं जानता लेकिन यह गुजारिश जरूर करूंगी कि हिंदी प्रदेश अब अंग्रेजी को नजरंदाज करना बंद करें। अंग्रेजी का राजनीतिक विरोध कर हिंदी प्रदेशों ने काफी नुकसान उठाया है। इसमें बंगालियों से शिक्षा ली जा सकती है। उन्होंने अपनी भाषा की उन्नति के लिए जितना काम किया है शायद ही अन्य भाषाभाषियों ने। लेकिन अंग्रेजी की अवहेलना उन्होंने नहीं की। अंग्रेजी भारत में रहने वाली है। इसे सीखिए, अपनी भाषा सीखते हुए। राजनीतिक नारेबाजी से कोई लाभ नहीं होने वाला।'' इसमें मेरी कोई असहमति है तो सिर्फ इतनी कि मैने भाषाई राजनीति या राजनीतिक नारेवाजी करने के लिए पोस्‍ट नहीं लिखी थी। मैं फिर कहती हूं कि हर भारतीय को विकास में सहभागिता रखने और अपनी खुद की तरक्‍की के लिए अंग्रेजी जरूर सीखनी चाहिए। लेकिन मेरा व्‍यक्तिगत मानना है कि राष्‍ट्र को एक सूत्र में बांधने के लिए अपनी मातृभाषा के साथ एक अन्‍य भारतीय भाषा भी जरूर सीखनी चाहिए। उसके बाद अंग्रेजी और फिर जर्मन, फ्रेंच, अरबी या हिब्रु जो इच्‍छा हो सीखिए। ....क्‍योंकि मेरा मानना है कि भाषा एक पुल है तुम तक पंहुचने के लिए.....और जिस भाषा से आप सामने वाले को कुछ समझा ही न सकें या कोई आपकी बात समझ ही न सके तो वह भाषा उस जगह बेकार है। दूसरी बात आप यदि भाषा के नाम पर किसी को अपमानित करते हैं तो ये सिर्फ और सिर्फ बेहुदापन है। आशा है विनोद रिंगानियां जी मेरी बात से सहमत होंगे।
एक और टिप्‍पणीं का जिक्र मैं पहले करना चाहती हं। गरुण या गरुणा जी की टिप्‍पणीं है। क्षमा कीजिएगा क्‍योंकि उनका नाम अंग्रेजी में लिखा है इसलिए मैं ठीक से लिंगभेद नहीं कर पा रहीं हूं। ण और णा के बीच ये तय कर पाना मेरे लिए मुश्किल है कि क्‍या लिखूं। उन्‍होंने लिखा है- ''आपको इससे बकवास विषय साझा करने के लिए नहीं मिला क्या भाई। आप जैसे लोग क्यों दूसरों का वक्त बरबाद करते हैं। हालांकि आप अच्छी तरह जानते हैं कि अंग्रेजी आना कितना जरूरी है। पढ़ रहे हैं राजनीति शास्त्र और चाह रहे हैं कि यूरोप और मध्यएशिया की राजनीति आपको कोई हिंदी में पिला दे। तब तो आप चाहेंगे कि आपकी बोली में राजनीति शास्त्र पढ़ाया जाए। अपना और दूसरों का वक्त बरबाद करना और दिग्भ्रमित करना बंदे करें महोदय। हिंदी पर आपका यह सबसे बड़ा उपकार होगा।'' अब आप लोग ही तय कीजिए कि उनकी टिप्‍पणी पर क्‍या कहा जाए? आप ही बताईए कि क्‍या ये बकवास विषय साझा करने लायक था या नहीं? जब जर्मनी, फ्रेंच, स्‍पेनिश, रशियन, चाईनीज या जापानी भाषा में विज्ञान की पढ़ाई हो सकती है तो क्‍या हिंदी में राजनीतिशास्‍त्र नहीं समझा जा सकता?
अब मैं आभार प्रकट करना चाहूंगी प्रख्‍यात लेखक और विचारक राज किशोर जी का जिन्‍होंने अपनी सारगर्भित प्रतिक्रिया देकर मेरा उत्‍साह बढ़ाया। मैं हरि भूमि के संपादक ओमकार चौधरी, टिप्पणीकार, ताउ रामपुरिया, मसिजीवी, पत्रकार कपिल शर्मा, हिंदी सेवी शैलेश भारतवासी, पराए देश में रहकर भी संस्‍कारवान बने रहने वाले राज भाटिया, उम्‍मेद, विनय, सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी, प्रमोद, अरविंद मिश्रा, नवीन कुमार 'रणवीर' और बहिन संध्‍या गुप्‍ता की आभारी हूं जिन्‍होंने मुद्दे पर गंभीरता से अपनी प्रतिक्रिया देकर मेरा हौंसला बढ़ाया।
अब अंत में मैं दैनिक हिंदुस्‍तान में प्रकाशित हुई एक रिपोर्ट जस की तस स्‍केन कर आपके सामने रख रहीं हूं। इसे बड़ा कर पढ़ने के लिए इमेज पर क्लिक कीजिए।

Sunday, January 4, 2009

छि: ! अंग्रेजी भी नहीं आती

"पूरा डिपार्टमेंट ही हिंदी में बोलता है। ये एमए पोलटिकल साइंस की क्‍लास है और पूरी क्‍लास में एक भी बच्‍चा एक भी सवाल का अंग्रेजी में जबाव नहीं दे सकता? क्‍या पढ़ाते हैं आप इन्‍हें?" कुछ ऐसे ही शर्मसार करने के अंदाज में ये जुमले बोले गए मेरठ के चौधरी चरणसिंह विश्‍वविद्यालय के राजनीतिशास्‍त्र विभाग में। ये जुमले फेंककर शर्मिंदा करने का नेतृत्‍व कर रहीं थीं गौर बांगा विश्‍विद्यालय कोलकाता की कुल‍पति प्रोफेसर सुरभि बनर्जी जो एक तरह से महारानी की भूमिका में थीं। जी हां! प्रोफेसर बनर्जी विश्‍वविद्यालय अनुदान आयोग यानी यूजीसी के उस दल की अगुवाई कर रहीं थीं जो खैरात के लिए चौधरी चरण सिंह विश्‍वविद्यालय के निरीक्षण को आया था। अब आप ही बताइए कि जिस दल की रिपोर्ट पर करोड़ों रूपयों का खेल हो तो उसकी अगुवाई करने वाली विदुषी महारानी विक्‍टोरिया जैसा व्‍यवहार क्‍यों न करे।
आईए पहले आपको ये बता दें कि विश्‍वविद्यालय की टीम चौधरी चरण सिंह यूनीवर्सिटी क्‍यों पंहुची। ग्‍यारहवीं पंचवर्षीय योजना के तहत विश्‍वविद्यालय अनुदान आयोग की टीम तीन दिवसीय निरीक्षण के लिए आई। चौधरी चरण सिंह विश्‍विविद्यालयय प्रशासन ने इस योजना में विश्‍वविद्यालय का कायाकल्‍प करने के लिए करीब पौने तीन सौ करोड़ की योजना यूजीसी के पास स्‍वीकृति के लिए भेजी थी। प्रस्‍ताव के मुताबिक चौधरी चरण सिंह विश्‍वविद्यालय में चार नई शोध पीठ स्‍थापित करने, ई-गवर्नेंस, शिक्षकों की संख्‍या में कमी, वैज्ञानिक शिक्षा और अकादमिक स्‍टाफ की नियुक्ति जैसी योजनाओं के लिए धन की आवश्‍यकता बताई गई थी। इन्‍हीं प्रस्‍तावों और यूनीवर्सिटी की वर्तमान प्रगति आंकने के लिए यूजीसी की टीम तीन दिन के लिए पंहुची और उसने पहले ही दिन विश्‍वविद्यालय के अठारह विभागों का दौरा किया। वैसे दो दिनों में नौ सदस्‍यीय दल को केवल सात घंटे खर्च कर विश्‍वविद्यालय का हालचाल जानना था। आप समझ सकते हैं कि एक विश्‍‍वविद्यालय का सात घंटे में क्‍या और कैसे आंकलन हो सकता है।
परम्‍परा के मुताबिक चौधरी चरण सिंह विश्‍वविद्यालय के कुलपति और उनके सहयोगी पंद्रह दिन तक यूजीसी के आकाओं के स्‍वागत की तैयारी में जुटे रहे। एक-एक विभाग को चमकाया गया। अधिकाधिक उपस्थिति के लिए गुहार की गई। सारी व्‍यवस्‍थाएं चाक-चौबंद की गईं। लंच-डिनर और नाश्‍ते के लिए लजीज पकवानों की सूची तैयार की गई। ऐसे स्‍वागत-सत्‍कार की तैयारी कि आने वाले राजाओं की टोली खुश होकर आशीर्वाद दे दे और विश्‍वविद्यालय को अनुदान मिलने का रास्‍ता साफ हो जाए। हांलाकि ये सब शिक्षा की दशा-दिशा सुधारने के लिए किए जा रहे प्रयत्‍नों का हिस्‍सा है और ये योजनाएं अगर साकार होती है तो इससे उच्‍च शिक्षा को ही लाभ होना है लेकिन विश्‍वविद्यालय के कुलपति के लिए तो ये बिल्‍कुल वैसा ही समझिए कि मानों कोई पिता अपनी पुत्री के विवाह के लिए वर पक्ष के लोगों के आगमन पर किसी भी स्‍तर पर कोई कमी नहीं छोड़ना चाहता।
इतनी सारी व्‍यवस्‍थाएं चाक-चौबंद करने वाला विश्‍वविद्यालय प्रशासन क्‍या करता। उसे क्‍या मालूम था कि आजाद भारत की हिंदी वेल्‍ट में आजादी के इकसठ सालों बाद भी फिरंगियों की भाषा उन्‍हें इस कदर अपमानित कराएगी! वह कर भी क्‍या सकते थे? पंद्रह दिन में पश्चिमी उत्‍तर प्रदेश के छात्रों को अंगेजी की घुट्टी घोलकर उन्‍हें देसी अंग्रेजों के काबिल बनाना मुमकिन भी न था। अब प्रोफेसर बनर्जी को कौन समझाए कि चौधरी चरण सिंह विश्‍वविद्यालय में जिस जमीन से छात्र आते हैं वहां गन्‍ने और गुड़ की खुशबु से राजनीति उपजती है। पश्चिमी उत्‍तर प्रदेश में अधिकांश छात्र पोलिटिकल साइंस नहीं बल्कि राजनीति शास्‍त्र पढ़ते हैं। यहां के सरकारी स्‍कूलों में प्राइमरी तक अंग्रेजी की एबीसीडी भी नहीं पढ़ाई जाती। जहां बच्‍चा पढ़ाई के साथ-साथ खेतों में हल या ट्रैक्‍टर चलाना भी सीखता है। अगर ग्रामीण पृष्‍ठभूमि के ऐसे बच्‍चे अपनी लगन पर उच्‍च शिक्षा के लिए विश्‍वविद्यालय की शक्‍ल भी देख लेते हैं तो ये उनकी जीवटता है और चौधरी चरणसिंह विश्‍वविद्यालय के ज्‍यादातर छात्र ग्रामीण पृष्‍ठभूमि से ही निकल कर वहां तक पंहुचे हैं। ऐसे में उनसे ऐसी भाषा में सवाल पूछना जिसे वह समझते ही नहीं, कहां तक न्‍यायसंगत है? क्‍या ये देश का संविधान कहता है कि एमए पोलिटिकल साइंस को राजनीतिशास्‍त्र कहना गुनाह है? क्‍या राजनीतिशास्‍त्र हिंदी में नहीं पढ़ा-समझा जा सकता? क्‍या हिंदी अभी भी गुलामों की भाषा है? क्‍या राष्‍ट्रभाषा हमारे आधुनिक राजाओं से इसी तरह अपमानित होती रहेगी? क्‍या राजनीति का ककहरा भी अब एबीसीडी में सीखना होगा? क्‍या हम इसी तरह से मा‍नसिक गुलामियत में जीवन जीने को अभिशप्‍त रहेंगे? आशा है कि अंतर्जाल पर हिंदी का चिट्ठाजगत ही इन गुलाम मानसिकता वाले आधुनिक राजाओं को जबाव देगा।

Thursday, August 28, 2008

वोट और सत्ता के चक्रव्यूह में फँसी हिंदी

हिंदी दिवस के कार्यक्रमों के शुरु होने से पहले डा0 मान्धाता सिंह ने हिंदी को लेकर कुछ गंभीर सवाल उठाए हैं। पेशे से पत्रकार मान्धाता ने सवाल उठाया है कि आंकड़ों में हिंदी कब तक पूरी दुनिया में दूसरे नंबर की सर्वाधिक बोली जानेवाली भाषा बनी रहेगी? क्या रोजी रोटी भी दे सकेगी हिंदी? सरकारी ठेके पर कब तलक चलेगी हिंदी? देश की अनिवार्य संपर्क व शिक्षा की भाषा कब बन पाएगी हिंदी। आ रहा है चौदह सितंबर को हिंदी दिवस मनाने का दिन। आप भी हिंदी के इन ठेकेदारों से यही सवाल पूछिए। हो सकता है कि हम और आप सभी तर्कों से सहमत न हों लेकिन यह सही है कि आज जरूरत है हिंदी को लेकर सही दिशा में एक स्वस्थ परिचर्चा की। आप भी इसमें शरीक होकर अपना मत देंगे। इसी विश्वास के साथ ये आलेख पोस्ट कर रहा हूं।

अभी कुछ दिन पहले बनारस के पास अपने गांव मैं गया था। पता चला कि वहां तमाम कानवेंट स्कूल खुल गए हैं। गांव का सरकारी प्राइमरी स्कूल, जिसमें खांटी हिंदी में पढ़ाई होती, अब वीरान सा दिखता है। लोगों का तर्क है कि आगे जाकर नौकरी तो अंग्रेजी पढ़नेवालों को मिलती है तो फिर हम हिंदी में ही पढ़कर क्या करेंगे। यह चिंताजनक है और देश की शिक्षा व्यवस्था की गंभीर खामी भी है।
जब रोजगार हासिल करने की बुनियादी जरूरतों में परिवर्तन हो रहा है तो बेसिक शिक्षा प्रणाली में भी वही परिवर्तन कब लाए जाएंगे। सही यह है कि वोट के चक्रव्यूह में फंसी भारतीय राजनीति हिंदी को न तो छोड़ पा रही है नही पूरी तरह से आत्मसात ही कर पा रही है। इसी राजनीतिक पैंतरेबाजी के कारण तो हिंदी पूरी तरह से अभी भी पूरे देश की संपर्क भाषा नहीं बन पाई है। अब वैश्वीकरण की आंधी में अंग्रेजी ही शिक्षा व बोलचाल का भाषा बन गई है। हिदी जैसा संकट दूसरी हिंदी भाषाओं के सामने भी मुंह बाए खड़ा है मगर अहिंदी क्षेत्रों में अपनी भाषा के प्रति क्षेत्रीय राजनीति के कारण थोड़ी जागरूकता है। तभी तो पश्चिम बंगाल जैसे राज्य में अंग्रेजी को प्राथमिक शिक्षा में तरजीह दी जाने लगी है। दक्षिण के राज्य तो इसमें सबसे आगे हैं। कुल मिलाकर हिंदी हासिए पर जा रही है।
अब तो हिंदी की और भी शामत आने वाली है। नामवर सिंह जैसे हिंदी के नामचीन साहित्यकार तक स्थानीय बोलियों में शिक्षा की वकालत करने लगे हैं। (देखिए संलग्न JPEG फाइल- रजनी सिसोदिया का २७ जुलाई को जनसत्ता में छपा लेख -- जब माझी नाव डुबोए) अगर सचमुच ऐसा हो जाता है तो सोचिये कि जिन राज्यों में अब तक हिंदी ही प्रमुख भाषा थी वहीं से भी उसे बेदखल होना पड़ेगा। यह हिंदी का उज्ज्वल भविष्य देखने वालों के लिए चिंता का विषय होना चाहिए। अगर यही हाल रहा तो आंकड़ों में हिंदी कब तक पूरी दुनिया में दूलरे नंबर की सर्वाधिक बोली जानेवाली भाषा रह जाएगी। क्या रोजी रोटी भी दे सकेगी हिंदी ? सरकारी ठेके पर कब तलक चलेगी हिंदी ? देश की अनिवार्य संपर्क व शिक्षा की भाषा कब बनपाएगी हिंदी। आ रहा है हिंदी दिवस मनाने का दिन। आप भी हिंदी के इन ठेकेदारों से यही सवाल पूछिए।

विश्व की दस प्रमुख भाषाएं
१- चीनी लोगों की भाषा मंदरीन को बोलने वाले एक बिलियन लोग हैं। मंदरीन बहुत कठिन भाषा है। किसी शब्द का उच्चारण चार तरह से किया जाता है। शुरू में एक से दूसरे उच्चारण में विभेद करना मुश्किल होता है। मगर एक बिलियन लोग आसानी से मंदरीन का उपयोग करते हैं। मंदरीन में हलो को नि हाओ कहा जाता है। यह शब्द आसानी से लिख दिया मगर उच्चारण तो सीखना पड़ेगा।
२-अंग्रेजी बोलने वाले पूरी दुनिया में ५०८ मिलियन हैं और यह विश्व की दूसरे नंबर की भाषा है। दुनिया की सबसे लोकप्रिय भाषा भी अंग्रेजी ही है। मूलतः यह अमेरिका आस्ट्रेलिया, इग्लैंड, जिम्बाब्वे, कैरेबियन, हांगकांग, दक्षिण अफ्रीका और कनाडा में बोली जाती है। हलो अंग्रेजी का ही शब्द है।
३- भारत की राजभाषा हिंदी को बोलने वाले पूरी दुनियां में ४९७ मिलियन हैं। इनमें कई बोलियां भी हैं जो हिंदी ही हैं। ऐसा माना जा रहा है कि बढ़ती आबादी के हिसाब से भारत कभी चीन को पछाड़ सकता है। इस हालत में नंबर एक पर काबिज चीनी भाषा मंदरीन को हिंदी पीछे छोड़ देगी। फिलहाल हिंदी अभी विश्व की तीसरे नंबर की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। हिंदी में हलो को नमस्ते कहते है।
४- स्पेनी भाषा बोलने वालों की तादाद ३९२ मिलियन है। यह दक्षिणी अमेरिकी और मध्य अमेरिकी देशों के अलावा स्पेन और क्यूबा वगैरह में बोली जाती है। अंग्रेजी के तमाम शब्द मसलन टारनाडो, बोनान्जा वगैरह स्पेनी भाषा ले लिए गए हैं। स्पेनी में हलो को होला कहते हैं।
५- रूसी बोलने वाले दुनियाभर में २७७ मिलियन हैं। और यह दुनियां की पांचवें नंबर की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। संयुक्तराष्ट्र की मान्यता प्राप्त छह भाषाओं में से एक है। यह रूस के अलावा बेलारूस, कजाकस्तान वगैरह में बोली जाती है। रूसी में हलो को जेद्रावस्तूवूइते कहा जाता है।
६-दुनिया की पुरानी भाषाओं में से एक अरबी भाषा बोलने वाले २४६ मिलियन लोग हैं। सऊदू अरब, कुवैत, इराक, सीरिया, जार्डन, लेबनान, मिस्र में इसके बोलने वाले हैं। इसके अलावा मुसलमानों के धार्मिक ग्रन्थ कुरान की भाणा होने के कारण दूसरे देशों में भी अरबी बोली और समझी जाती है। १९७४ में संयुक्त राष्ट्र ने भी अरबी को मान्यता प्रदान कर दी। अरबी में हलो को अलसलामवालेकुम कहा जाता है।
७- पूरी दुनिया में २११ मिलियन लोग बांग्ला भाषा बोलते हैं। यह दुनिया की सातवें नंबर की भाषा है। इनमें से १२० मिलियन लोग तो बांग्लादेश में ही रहते है। चारो तरफ से भारत से घिरा हुआ है बांग्लादेश । बांग्ला बोलने वालों की बाकी जमात भारत के पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा व पूर्वी भारत के असम वगैरह में भी है। बांग्ला में हलो को एईजे कहा जाता है।
८- १२वीं शताब्दी बहुत कम लोगों के बीच बोली जानेवाली भाषा पुर्तगीज आज १९१ मिलियन लोगों की दुनिया का आठवें नंबर की भाषा है। स्पेन से आजाद होने के बाद पुर्तगाल ने पूरी दुनिया में अपने उपनिवेशों का विस्तार किया। वास्कोडिगामा से आप भी परिचित होंगे जिसने भारत की खोज की। फिलहाल ब्राजील, मकाउ, अंगोला, वेनेजुएला और मोजांबिक में इस भाषा के बोलने वाले ज्यादा है। पुर्तगीज में हलो को बोमदिया कहते हैं।
९- मलय-इंडोनेशियन दुनिया की नौंवें नंबर की भाषा है। दुनिया के सबसे ज्यादा आबादी के लिहाज से मलेशिया का छठां नंबर है। मलय-इंडोनेशियिन मलेशिया और इंडोनेशिया दोनों में बोली जाती है। १३००० द्वीपों में अवस्थित मलेशिया और इन्डोनेशिया की भाषा एक ही मूल भाषा से विकसित हुई है। इंडोनेशियन में हलो को सेलामतपागी कहा जाता है।
१०- फ्रेंच यानी फ्रांसीसी १२९ मिलियन लोग बोलते हैं। इस लिहाज से यह दुनियां में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषाओं में दसवें नंबर पर है। यह फ्रांस के अलावा बेल्जियम, कनाडा, रवांडा, कैमरून और हैती में बोली जाती है। फ्रेंच में हलो को बोनजूर कहते हैं।

वादा आज तक पूरा नहीं हो पाया "संविधान के अनुसार २६ जनवरी १९६५ से भारतीय संघ की राजभाषा देव नागरी लिपि में हिन्दी हो गई है और सरकारी कामकाज के लिए हिन्दी अंतरराष्टीय अंकों का प्रयोग होगा " इस देश के संविधान ने इस देश की आत्मा अर्थात "हिन्दी" से एक वादा किया था और वह आज तक पूरा नहीं हो पाया और हिन्दी अपने इस अधिकार के लिए आज तक संविधान के सामने अपने हाथ फैला ये आंसू बहा रही है
क्या वास्तव में हिन्दी इतनी बुरी है कि हम उसे अपनाना नहीं चाहते? (विजयराज चौहान (गजब) के प्रकाशित उपन्यास "भारत/INDIA" के पेज १५६-१५८ पर उपन्यास के पात्र इसी तरह से चिंता जाहिर करते हैं। मुख्य पात्र भारत द्वारा गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर स्कूल समारोह में हिंदी के संदर्भ में ये बातें कही जातीं है। आगे इस उपन्यास के पात्र यह भी कहते हैं कि- नहीं वह इतनी बुरी चीज नहीं है वह इस दुनिया कि सबसे अधिक बोलीजाने वाली तीसरे नम्बर कि भाषा है।
इसकी महत्ता को भारत के अनेक महापुरुषों ने भी स्वीकार किया है। इसकी इस महत्ता को देखकर ही एक ऐसे व्यक्ति "अमीर खुसरो" जिसकी मूल भाषा अरबी ,फारसी और उर्दू थी उसने कहा था- "मैं हिन्दुस्तान कि तूती हूँ ,यदि तुम वास्तव में मुझे जानना चाहते हो हिन्दवी(हिन्दी) में पूछो में तुम्हें अनुपम बातें बता सकता हूँ" हिन्दी का महत्व समझते हुए ही उर्दू के एक शायर मुहम्मद इकबाल ने बड़े गर्व से कहा था कि --"हिन्दी है हम वतन है हिन्दोंस्ता हमारा" हिन्दी के इसी महत्व को जान कर भारत के एक युगपुरूष महर्षि दया-नंद सरस्वती जिनकी मूल भाषा गुजराती थी, ने कहा था- "हिन्दी के द्वारा ही भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है।" लौह पुरुष सरदार वल्बभाई पटेल ने और आजादी के बाद कहा था-"हिन्दी अब सारे राष्ट्र की भाषा बन गई है इसके अध्ययन एवं इसे सर्वोतम बनाने में हमें गर्व होना चाहिए" गुरुदेव रविन्द्रनाथ ठाकुर ने जिनकी मूल भाषा बांग्ला थी उन्होंने कहा था कि- "यदि हम प्रत्येक भारतीय नैसर्गिक अधिकारों के सिद्धांत को स्वीकार करते है तो हमें राष्ट्र भाषा के रूप में उस भाषा को स्वीकार करना चाहिए जो देश में सबसे बड़े भूभाग में बोली जाती है और वों भाषा हिन्दी है" नेता जी सुभाष चंद्र बोस ने और कहा था कि- हिन्दी के विरोध का कोई भी आन्दोलन राष्ट्र की प्रगति में बाधक है

तस्वीर का दूसरा पहलू
आज हिंदी देश को जोड़ने की बजाए विरोध की भाषा बन गई है। राजनीति ने इसे उस मुकाम पर खड़ा कर दिया है जहां अहिंदी क्षेत्रों में हिंदी विरोध पर ही पूरी राजनीति टिक रई है। पूरे भारत को एक भाषा से जोड़ने की आजाद भारत की कोशिश अब राजनीतिक विरोध के कारण कहने को त्रिभाषा फार्मूले में तब्दील हो गई है मगर अप्रत्क्ष तौर पर सभी जगह हिंदी का विरोध ही दिखता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो यही है कि हिंदी राज्य स्तर पर हिंदी को सर्वमान्य का सम्मान नहीं मिल पाया है। जिस देश में प्राथमिक शिक्षा तक का भी राष्ट्रीयकरण सिर्फ हिंदी को अपनाने के विरोध के कारण नहीं हो पाया तो उस देश की एकता का सूत्र कैसे बन सकती है हिंदी।
अब वैश्वीकरण के दौर में कम से कम शिक्षा के स्तर पर अंग्रेजी ज्यादा कामयाब होती दिख रही है। कानून हिंदी को सब दर्जा हासिल है मगर व्यवहारिक स्तर पर सिर्फ उपेक्षा ही हिंदी के हाथ लगी है। क्षेत्रीय राजनीति का बोलबाला होने के बाद से तो बोलचाल व शिक्षा सभी के स्तर पर क्षेत्रीय भाषाओं को मिली तरजीह ने एक राष्ट्र-एक भाषा की योजना को धूल में मिला दिया है। अगर हिंदी को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में अपनाया नहीं गया तो निश्चित तौर पर इसकी जगह अंग्रेजी ले लेगी और तब क्षेत्रीय भाषाओँ के भी वजूद का संकट खड़ा हो जाएगा। अगर हिंदी बचती है तो क्षेत्रीय भाषाओं का भी वजूद बच पाएगा अन्यथा अंग्रेजी इन सभी को निगल जाएगी। और अंग्रेजी ने तो अब शिक्षा और रोजगार के जरिए यह करना शुरू भी कर दिया है।



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तकनीकी सहयोग- शैलेश भारतवासी

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