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Tuesday, September 16, 2008

ये रंगभेद या जातिभेद से कम है भला?

(इंसान से सामान बनने की गाथा)

तीन चार रोज़ पहले एक हिंदी अखबार में अंदर के पन्नों पर छोटी सी खबर पढ़ी कि गाज़ियाबाद के फटफट वाले मोटी सवारियों को बिठाने में तो हीलहुज्जत तो करते ही हैं उनसे दोगुने पैसे भी मांगते हैं। खबर पढ़कर अपने जैसे वजनदार लोगों की हालत पर हंसी भी आई और गुस्सा भी आया उन फटफट वालों पर जो इंसान को माल समझकर माल काट रहे हैं। मैं आमतौर पर फटफट में बैठता नहीं हूं लेकिन रंगभेद से भी ज़्यादा अमानवीय दिख रहे इस भेद के बारे में आज तक सोच रहा हूं।
हमारे गांव में 20-22 साल पहले तक मोटे आदमी को सेहतमंद माना जाता था। कहा जाता था खाता-पीता है या खाते-पीते घर का है। लेकिन पिछले कुछ सालों में तनाव, अनियमित सोना-जागना और वक्त बेवक्त के खाने ने मोटापे को एक नया ही रूप दे दिया है, बीमारियों का घर। चार-पांच साल पहले जब वजन बढ़ना शुरु हुआ और एक दिन अचानक दफ्तर में सिर में बहुत दर्द हुआ तो डॉक्टर से पता चला कि मेरा ब्लड प्रेशर काफी बढ़ा हुआ है। तुंरत कई सारी दवाइयां, कसरत करने, वक्त पर सोने-जागने, गाड़ी ना चलाने और नियमित खान-पान की सलाह दे दी गई। लेकिन इन बातों पर ध्यान दूं तो नौकरी कैसे करूं। नतीजा सामने है, शर्ट और पेंट का नंबर हर साल दो की गति से बढ़ रहा है। उस समय पिताजी जीवित थे और उन्होने भी वही बोली थी जो डॉक्टर बोल रहे थे लेकिन मैंने ध्यान नहीं दिया। फटफट वाले ध्यान ना दिलाते तो शायद अब भी ध्यान नहीं देता। लेकिन अब इंसान से सामान बन जाने के अहसास ने परेशान कर दिया है।
पर क्या सचमुच मोटा होने मात्र से आप इंसान से सामान बन जाते और किराये की जगह आपसे भाड़ा वसूल किया जायेगा। तो क्या फटफट वाले पतले लोगों से आधा किराया लेंगे, शायद नहीं। सच बताऊं फटफट वालों की कफनचोरी जैसी इस मनोवृत्ति से मन बड़ा परेशान है। लेकिन पिछले कुछ दिनों में डायटिंग करके 11-12 किलो वजन घटा चुकी मेरी पत्नी का कहना है कि मैं बेवजह परेशान हो रहा हूं, ये दरअसल फटफट और रिक्शे वालों का लूटने का एक नया अंदाज़ है। वैशाली से आनंद विहार होकर गुजरते समय मैं अकसर देखता हूं कि फटफट वाले या रिक्शे वाले किस तरह एक ही सवारी से एक ही बार में लखपति बनने के जुगाड़ में रहते हैं। ज़रा सी बारिश हो जाये, धूप निकली हो या ठंड पड़ रही हो किराया एकदम दोगुना हो जाता है। और अगर सवारी कोई बुज़ुर्ग हो, महिला हो, बीमार हो या बच्चों के साथ परिवार हो तो पैसे मांगने के लिये मुंह सुरसा की तरह खुलता है। बेशर्मी की हद देखिये एक रिक्शे वाले ने मना कर दिया तो दूसरा उससे ज्यादा ही किराया मांगेगा कम नहीं। कुछ कहिये तो, तर्क ये कि पसीना बहाते हैं। आप में से कौन है जो पसीना बहाये बिना कमाता है। पसीना बहाने का तरीका अलग हो सकता है लेकिन हम सब खून पसीने की ही कमाई खाते हैं। इस कमाई की होड़ में या दौड़ में अगर कुछ लोग मोटे हो गये हैं तो वो भी गुनाह हो गया।
लेकिन मैं बता दूं गुनाह मोटा होना नहीं है गुनाह मोटा होने का एहसास कराना है। कोई और देश होता तो इस तरह की हरकतों के खिलाफ आंदोलन हो जाते सरकारें आदेश पास कर देती और ज्यादा किराया लेने वाले जेल की हवा खा रहे होते। लेकिन हिंदुस्तान के उत्तर प्रदेश के गाज़ियाबाद में भला किसकी चलती है।
मोटापा जिसे अंग्रेजी में शायद ओबेसिटी कहते हैं, बड़ी तेजी से बढ़ रही बीमारी है। कहते हैं डायनोसोर अपने वजन की वजह से ही मर जाते थे। यानी ज़्यादा वजन जब खुद को ही झेलना हो तो जानलेवा तो होगा ही। लेकिन सबसे जानलेवा है वो अहसास जो गाज़ियाबाद के फटफट और रिक्शे वाले करा रहे हैं कि कुछ इंच और कुछ किलो ज़्यादा होने की वजह से वजनदारों की बिरादरी अलग है। यानी जो अपने शरीर से ज़्यादा परेशान हैं उनको खर्च भी ज़्यादा करना होगा। हमारे ग्रंथों में कहीं लिखा बताते हैं कि मोटापा दरिद्रता लाता है। लेकिन इस देश के ज़्यादातर राजे महाराजे भारी वजन के ही इंसान रहे हैं। इस समय भी मैसूर के राजा वाडियार से लेकर राजस्थान के कई रजवाड़ों को आप देख सकते हैं। राजा यानी पालक..अन्नदाता। इस वजन ने वजनदारों को लोकतंत्र में भी राजा बना दिया है। ये वजनदार बाकी लोगों से ज्यादा किराया देकर ना जाने कितने फटफट और रिक्शे वालों के घरों का चूल्हा जला रहे हैं। सच बताऊं परोपकार का यही अहसास मुझे इंसान से सामान बन जाने के दुख से कुछ राहत दे रहा है शायद।
राग रसोई

तकनीकी सहयोग- शैलेश भारतवासी

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