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Friday, October 17, 2008

पधारो ना म्हारे देस (अगर यही करना है तो)

हिमाचल प्रदेश में कुल्लू से मणिकर्ण जाते हुए रास्ते में पड़ने वाले कसोल में जो चल रहा है वो बताता है कि हम किस किस्म का पर्यटन मॉडल विकसित कर रहे हैं और मेहमाननवाज़ी के नाम पर क्या कर रहे हैं। पार्वती नदी के किनारे बसे कसोल के दड़बेनुमा सस्ते होटलों और घरों में महीनों तक रहने वाले इन सैलानियों में से काफी तादाद दरअसल इज़राइली नौजवानों की हैं जो तीन साल की अनिवार्य सैनिक शिक्षा के बाद लंबी छुट्टी मिलने पर सीधे भारत और भारत में भी कसोल जैसी जगहों की तरफ भागते हैं। पार्वती नदीं के किनारे गरम पानी के सोते ही नहीं बल्कि कसोल के आसपास मिलने वाली उम्दा किस्म की चरस और और दूसरे सस्ते नशे परदेसी सैलानियों को थकान उतारने में मदद करते हैं।

किराये की बुलेट मोटरसाइकिल पर घूमने वाले इन सैलानियों के बीच कसोल से कुछ ऊपर बसे मलाणा गांव के आसपास चोरी छुपे पैदा होने वाली चरस बड़ी लोकप्रिय है जिसे मलाणा क्रीम कहा जाता है। मलाणा क्रीम लेने के लिये इनको कहीं जाने की ज़रुरत नहीं बल्कि हिमाचली नौजवान होम डिलीवरी दे देते हैं। लेकिन जो जाना चाहते हैं उनके लिये कसोल से मलाणा गांव महज़ 14 किलोमीटर है, 9 किलोमीटर तक तो सड़क जैसा कुछ हैं और बाकी 5 किलोमीटर पहाड़ की चढ़ाई है। हम और आप तो एक किलोमीटर में ही टें बोल जायें लेकिन परदेसी मेहमान ऊपर पहुंचकर कुछ खास मिलने की खुशी में हिरण की तरह कुलांचे भरकर देखते-देखते आंखों से गायब हो जाते हैं।


रास्ते में भागते दौड़ते सैलानी ही नहीं दिखते हैं बल्कि आधे नंगे और बेसुध पड़े सैलानी भी दिखते हैं। इनकी चिलम कभी बुझती नहीं है । धुंए के साथ उड़ती भारतीय मान्यताओं की परवाह किसे, गांव वाले भी कुछ नहीं कहते क्योंकि उनको इनसे कमाई होती है। कमाई क्या बस यों कह लीजिये दालरोटी चल जाती है क्योंकि ये सैलानी कोई खर्च करने वाले सैलानी नहीं होते हैं। पांच हज़ार में एक कमरा लेकर 5-6 युवक-युवतियां उसमें रह लेते हैं। नशा उतरने पर जब दो-तीन दिन में एक बार खाना खाते हैं तो एक बोतल पेप्सी और तीन-तार रोटियां। एक बोतल पेप्सी से एक-एक कप पेप्सी लेकर उसमें रोटियां भिगोकर खा लेते हैं।


वैसे यहां के ढाबों में हर तरह का इजराइली खाना भी उपलब्ध है। मैन्यू भी हिब्रू में होता है और वेटर भी हिब्रू बोलने वाला। लेकिन इन लोगों के पास खाना खाने के लिये वक्त ही कहां है। ऐसे सैलानी किसी तरह का राजस्व नहीं बस गंदगी ही दे रहे हैं इस देश को और समाज को। इनको नशा मुहैया कराने वाले खुद भी कोई नशे से दूर थोड़े ही हैं। महीने-महीने भर तक ना नहाने वाले परदेसी युवक-युवतियों के देशी युवक युवतियों के साथ रिश्ते भी अजीब किस्म का सामाजिक समीकरण बना रहे हैं। ऐसे कई जोड़ों ने शादी कर ली है, अब ये शादी या तो भारत में बसने के लिये है या उनके साथ परदेस जाने के लिये, क्योंकि इसमें रिश्ता कम सौदा ही ज़्यादा दिखता है।

Thursday, October 16, 2008

इज़राइल से दूर एक इज़राइल


कुल्लू से मणिकर्ण जाते हुए रास्ते हुए में एक जगह पड़ती है कसोल। अजीब माहौल, अजीब से रेस्त्रां और अजीब सी ही दुकाने, अजीब सी बोली में खुसुर-पुसुर के अंदाज़ में बात करते लोग और अजीब सी भाषा में लिखे हुए साइन बोर्ड। कुछ अपने से दिखते लोगों के बीच एक और अपनी सी चीज़ नज़र आती है रॉयलइनफील्ड की बुलेट मोटरसाइकिल, जिसके तीन छोटे-बड़े सर्विस स्टेशन इस ज़रा सी बस्ती में मुझे दिख गये। फिर पता चलता है कि ये लोग इज़राइल के सैलानी हैं, और इन्हीं की सुविधा के लिये यहां के सारे साइनबोर्ड इज़राइल की भाषा हिब्रू में लिखे गये हैं। मिनी इज़राइल सा नज़र आ रहे कसोल में आने वाले सैलानियों में से 90 फीसदी इज़राइल के होते हैं जो दो चार पांच दिन के लिये नहीं बल्कि 5-6 महीने और कई तो यहीं बस जाने के लिये आते हैं। परदेस में अपने देश की हैसियत जानकर बड़ा अच्छा लगा। कुछ लोगों ने बताया कि लड़ाई और आतंकवाद से ऊबे इन लोगों को कसोल में सुकून मिलता है। लेकिन जब वहां गाड़ी खड़ी की और एक दिन ठहरने का मन बनाया तो कसोल और इज़राइलियों की तारीफ के कसीदे काढ़ रहे लोग परेशान हो गये। मेरी खोजी बातों से हाल ये हो गया कि खाली होटल (अगर उनको होटल माना जाये तो) वालों ने भी मुझे कमरा देने से मना कर दिया। गाड़ी पर लगा एक बड़े नेशनल टीवी चैनल का स्टीकर उनको कुछ ज़्यादा ही परेशान कर रहा था जबकि ना मेरे पास कोई कैमरा था ना माइक। बिखरे बालों में मैं भी टी शर्ट, लिनेन का पायजामा और स्लिपर्स पहने वहां के सैकड़ों सैलानियों जैसा ही हिप्पी लग रहा था। लेकिन ना जाने क्या हुआ कि देखते-देखते कसोल में कर्फ्यू सा लग गया, कोई मुझसे बात करने को तैयार नहीं। दुकानदारों ने बिसलरी की बोतल तक बेचने से मना कर दिया।
चढ़ी आंखों वाले एक आदमी ने मेरे ड्राइवर को समझाया, चले जाओ यहां से। ड्राइवर ने भी आकर बस इतना कहा, साहब निकल लो बस। जब ड्राइवर ने भी हाथ खड़े कर दिये तो मेरे सामने कोई रास्ता नहीं बचा। लेकिन मैने तय कर लिया कि मैं रहूंगा आसपास ही कहीं। और फिर इसके बाद कुल्लू से जगतसुख और कसोल होकर मणिकर्ण के बीच तीन रोज़ तक गाड़ी दौड़ाकर जो कहानी सामने आई वो चौंकाने वाली है।


आगे की कहानी यहाँ है॰॰॰॰

तकनीकी सहयोग- शैलेश भारतवासी

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