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Wednesday, January 7, 2009

......ये रंगभेद से कम तो नहीं

''छि:! अंग्रेजी भी नहीं आती'' शीर्षक से लिखी गई पोस्‍ट पर पक्ष/विपक्ष में प्रतिक्रिया देने वाले अपने सभी साथियों/आगंतुकों का मैं सबसे पहले आभार व्‍यक्‍त करना चाहती हूं। इर्द-गिर्द पर मैने अंग्रेजी में सवाल पूछकर भाषा के नाम पर शर्मसार कर देनी वाले विश्‍वविद्यालय अनुदान आयोग के उस दल की मानसिकता को उजागर करने का प्रयास किया जो आजाद भारत में भी हिंदी को हिकारत की नजर से देखती है। अगर आप किसी को राष्‍ट्रभाषा/राजभाषा/मातृभाषा के नाम पर दुतकारते हो तो मेरी नजर में ये भी रंगभेद जैसा ही अपराध है। ऐसा अपराध तब और भी गंभीर हो जाता है जब आप हुकूमत के नशे में जानबूझकर कर रहे हों। विश्‍वविद्यालय की टीम मेरठ के चौधरी चरण सिंह विश्‍वविद्यालय में इसलिए समीक्षा करने आई थी क्‍योंकि ग्‍यारहवीं योजना में चौधरी चरणसिंह विश्‍वविद्यालय ने अपने शैक्षणिक कार्यक्रमों को विस्‍तार देने के लिए आयोग से अनुदान मांगा है। इसी प्रक्रिया में आयोग ने अपने विशेष निरीक्षण दल को मेरठ विश्‍वविद्यालय भेजा था जिसकी अगुवाई गौर बांगा विश्‍विद्यालय कोलकाता की कुल‍पति प्रोफेसर सुरभि बनर्जी कर रही थीं। इसी निरीक्षण के पहले दिन चौधरी चरण सिंह विश्‍वविद्यालय के राजनीतिशास्‍त्र विभाग यानी पोलिटिकल साइंस डिपार्टमेंट की क्‍लास में छात्र/छात्राओं से सवाल पूछे लेकिन अंग्रेजी में पूछे गए सवालों को छात्र समझ ही नहीं सके तो जबाव क्‍या देते। इस पर प्रोफेसर बनर्जी विफर पड़ीं-"पूरा डिपार्टमेंट ही हिंदी में बोलता है। ये एमए पोलटिकल साइंस की क्‍लास है और पूरी क्‍लास में एक भी बच्‍चा एक भी सवाल का अंग्रेजी में जबाव नहीं दे सकता? क्‍या पढ़ाते हैं आप इन्‍हें?" कुछ ऐसे ही शर्मसार करने के अंदाज में ये जुमले बोले गए।''
इस पोस्‍ट पर मुझे कई टिप्‍पणियां मिलीं। इनमें से एक टिप्‍पणी गुवाहटी से थी- श्री विनोद रिंगानिया की। माननीय विनोद रिंगानिया जी ने लिखा- ''प्रो. बनर्जी की तो मैं नहीं जानता लेकिन यह गुजारिश जरूर करूंगी कि हिंदी प्रदेश अब अंग्रेजी को नजरंदाज करना बंद करें। अंग्रेजी का राजनीतिक विरोध कर हिंदी प्रदेशों ने काफी नुकसान उठाया है। इसमें बंगालियों से शिक्षा ली जा सकती है। उन्होंने अपनी भाषा की उन्नति के लिए जितना काम किया है शायद ही अन्य भाषाभाषियों ने। लेकिन अंग्रेजी की अवहेलना उन्होंने नहीं की। अंग्रेजी भारत में रहने वाली है। इसे सीखिए, अपनी भाषा सीखते हुए। राजनीतिक नारेबाजी से कोई लाभ नहीं होने वाला।'' इसमें मेरी कोई असहमति है तो सिर्फ इतनी कि मैने भाषाई राजनीति या राजनीतिक नारेवाजी करने के लिए पोस्‍ट नहीं लिखी थी। मैं फिर कहती हूं कि हर भारतीय को विकास में सहभागिता रखने और अपनी खुद की तरक्‍की के लिए अंग्रेजी जरूर सीखनी चाहिए। लेकिन मेरा व्‍यक्तिगत मानना है कि राष्‍ट्र को एक सूत्र में बांधने के लिए अपनी मातृभाषा के साथ एक अन्‍य भारतीय भाषा भी जरूर सीखनी चाहिए। उसके बाद अंग्रेजी और फिर जर्मन, फ्रेंच, अरबी या हिब्रु जो इच्‍छा हो सीखिए। ....क्‍योंकि मेरा मानना है कि भाषा एक पुल है तुम तक पंहुचने के लिए.....और जिस भाषा से आप सामने वाले को कुछ समझा ही न सकें या कोई आपकी बात समझ ही न सके तो वह भाषा उस जगह बेकार है। दूसरी बात आप यदि भाषा के नाम पर किसी को अपमानित करते हैं तो ये सिर्फ और सिर्फ बेहुदापन है। आशा है विनोद रिंगानियां जी मेरी बात से सहमत होंगे।
एक और टिप्‍पणीं का जिक्र मैं पहले करना चाहती हं। गरुण या गरुणा जी की टिप्‍पणीं है। क्षमा कीजिएगा क्‍योंकि उनका नाम अंग्रेजी में लिखा है इसलिए मैं ठीक से लिंगभेद नहीं कर पा रहीं हूं। ण और णा के बीच ये तय कर पाना मेरे लिए मुश्किल है कि क्‍या लिखूं। उन्‍होंने लिखा है- ''आपको इससे बकवास विषय साझा करने के लिए नहीं मिला क्या भाई। आप जैसे लोग क्यों दूसरों का वक्त बरबाद करते हैं। हालांकि आप अच्छी तरह जानते हैं कि अंग्रेजी आना कितना जरूरी है। पढ़ रहे हैं राजनीति शास्त्र और चाह रहे हैं कि यूरोप और मध्यएशिया की राजनीति आपको कोई हिंदी में पिला दे। तब तो आप चाहेंगे कि आपकी बोली में राजनीति शास्त्र पढ़ाया जाए। अपना और दूसरों का वक्त बरबाद करना और दिग्भ्रमित करना बंदे करें महोदय। हिंदी पर आपका यह सबसे बड़ा उपकार होगा।'' अब आप लोग ही तय कीजिए कि उनकी टिप्‍पणी पर क्‍या कहा जाए? आप ही बताईए कि क्‍या ये बकवास विषय साझा करने लायक था या नहीं? जब जर्मनी, फ्रेंच, स्‍पेनिश, रशियन, चाईनीज या जापानी भाषा में विज्ञान की पढ़ाई हो सकती है तो क्‍या हिंदी में राजनीतिशास्‍त्र नहीं समझा जा सकता?
अब मैं आभार प्रकट करना चाहूंगी प्रख्‍यात लेखक और विचारक राज किशोर जी का जिन्‍होंने अपनी सारगर्भित प्रतिक्रिया देकर मेरा उत्‍साह बढ़ाया। मैं हरि भूमि के संपादक ओमकार चौधरी, टिप्पणीकार, ताउ रामपुरिया, मसिजीवी, पत्रकार कपिल शर्मा, हिंदी सेवी शैलेश भारतवासी, पराए देश में रहकर भी संस्‍कारवान बने रहने वाले राज भाटिया, उम्‍मेद, विनय, सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी, प्रमोद, अरविंद मिश्रा, नवीन कुमार 'रणवीर' और बहिन संध्‍या गुप्‍ता की आभारी हूं जिन्‍होंने मुद्दे पर गंभीरता से अपनी प्रतिक्रिया देकर मेरा हौंसला बढ़ाया।
अब अंत में मैं दैनिक हिंदुस्‍तान में प्रकाशित हुई एक रिपोर्ट जस की तस स्‍केन कर आपके सामने रख रहीं हूं। इसे बड़ा कर पढ़ने के लिए इमेज पर क्लिक कीजिए।

Sunday, January 4, 2009

छि: ! अंग्रेजी भी नहीं आती

"पूरा डिपार्टमेंट ही हिंदी में बोलता है। ये एमए पोलटिकल साइंस की क्‍लास है और पूरी क्‍लास में एक भी बच्‍चा एक भी सवाल का अंग्रेजी में जबाव नहीं दे सकता? क्‍या पढ़ाते हैं आप इन्‍हें?" कुछ ऐसे ही शर्मसार करने के अंदाज में ये जुमले बोले गए मेरठ के चौधरी चरणसिंह विश्‍वविद्यालय के राजनीतिशास्‍त्र विभाग में। ये जुमले फेंककर शर्मिंदा करने का नेतृत्‍व कर रहीं थीं गौर बांगा विश्‍विद्यालय कोलकाता की कुल‍पति प्रोफेसर सुरभि बनर्जी जो एक तरह से महारानी की भूमिका में थीं। जी हां! प्रोफेसर बनर्जी विश्‍वविद्यालय अनुदान आयोग यानी यूजीसी के उस दल की अगुवाई कर रहीं थीं जो खैरात के लिए चौधरी चरण सिंह विश्‍वविद्यालय के निरीक्षण को आया था। अब आप ही बताइए कि जिस दल की रिपोर्ट पर करोड़ों रूपयों का खेल हो तो उसकी अगुवाई करने वाली विदुषी महारानी विक्‍टोरिया जैसा व्‍यवहार क्‍यों न करे।
आईए पहले आपको ये बता दें कि विश्‍वविद्यालय की टीम चौधरी चरण सिंह यूनीवर्सिटी क्‍यों पंहुची। ग्‍यारहवीं पंचवर्षीय योजना के तहत विश्‍वविद्यालय अनुदान आयोग की टीम तीन दिवसीय निरीक्षण के लिए आई। चौधरी चरण सिंह विश्‍विविद्यालयय प्रशासन ने इस योजना में विश्‍वविद्यालय का कायाकल्‍प करने के लिए करीब पौने तीन सौ करोड़ की योजना यूजीसी के पास स्‍वीकृति के लिए भेजी थी। प्रस्‍ताव के मुताबिक चौधरी चरण सिंह विश्‍वविद्यालय में चार नई शोध पीठ स्‍थापित करने, ई-गवर्नेंस, शिक्षकों की संख्‍या में कमी, वैज्ञानिक शिक्षा और अकादमिक स्‍टाफ की नियुक्ति जैसी योजनाओं के लिए धन की आवश्‍यकता बताई गई थी। इन्‍हीं प्रस्‍तावों और यूनीवर्सिटी की वर्तमान प्रगति आंकने के लिए यूजीसी की टीम तीन दिन के लिए पंहुची और उसने पहले ही दिन विश्‍वविद्यालय के अठारह विभागों का दौरा किया। वैसे दो दिनों में नौ सदस्‍यीय दल को केवल सात घंटे खर्च कर विश्‍वविद्यालय का हालचाल जानना था। आप समझ सकते हैं कि एक विश्‍‍वविद्यालय का सात घंटे में क्‍या और कैसे आंकलन हो सकता है।
परम्‍परा के मुताबिक चौधरी चरण सिंह विश्‍वविद्यालय के कुलपति और उनके सहयोगी पंद्रह दिन तक यूजीसी के आकाओं के स्‍वागत की तैयारी में जुटे रहे। एक-एक विभाग को चमकाया गया। अधिकाधिक उपस्थिति के लिए गुहार की गई। सारी व्‍यवस्‍थाएं चाक-चौबंद की गईं। लंच-डिनर और नाश्‍ते के लिए लजीज पकवानों की सूची तैयार की गई। ऐसे स्‍वागत-सत्‍कार की तैयारी कि आने वाले राजाओं की टोली खुश होकर आशीर्वाद दे दे और विश्‍वविद्यालय को अनुदान मिलने का रास्‍ता साफ हो जाए। हांलाकि ये सब शिक्षा की दशा-दिशा सुधारने के लिए किए जा रहे प्रयत्‍नों का हिस्‍सा है और ये योजनाएं अगर साकार होती है तो इससे उच्‍च शिक्षा को ही लाभ होना है लेकिन विश्‍वविद्यालय के कुलपति के लिए तो ये बिल्‍कुल वैसा ही समझिए कि मानों कोई पिता अपनी पुत्री के विवाह के लिए वर पक्ष के लोगों के आगमन पर किसी भी स्‍तर पर कोई कमी नहीं छोड़ना चाहता।
इतनी सारी व्‍यवस्‍थाएं चाक-चौबंद करने वाला विश्‍वविद्यालय प्रशासन क्‍या करता। उसे क्‍या मालूम था कि आजाद भारत की हिंदी वेल्‍ट में आजादी के इकसठ सालों बाद भी फिरंगियों की भाषा उन्‍हें इस कदर अपमानित कराएगी! वह कर भी क्‍या सकते थे? पंद्रह दिन में पश्चिमी उत्‍तर प्रदेश के छात्रों को अंगेजी की घुट्टी घोलकर उन्‍हें देसी अंग्रेजों के काबिल बनाना मुमकिन भी न था। अब प्रोफेसर बनर्जी को कौन समझाए कि चौधरी चरण सिंह विश्‍वविद्यालय में जिस जमीन से छात्र आते हैं वहां गन्‍ने और गुड़ की खुशबु से राजनीति उपजती है। पश्चिमी उत्‍तर प्रदेश में अधिकांश छात्र पोलिटिकल साइंस नहीं बल्कि राजनीति शास्‍त्र पढ़ते हैं। यहां के सरकारी स्‍कूलों में प्राइमरी तक अंग्रेजी की एबीसीडी भी नहीं पढ़ाई जाती। जहां बच्‍चा पढ़ाई के साथ-साथ खेतों में हल या ट्रैक्‍टर चलाना भी सीखता है। अगर ग्रामीण पृष्‍ठभूमि के ऐसे बच्‍चे अपनी लगन पर उच्‍च शिक्षा के लिए विश्‍वविद्यालय की शक्‍ल भी देख लेते हैं तो ये उनकी जीवटता है और चौधरी चरणसिंह विश्‍वविद्यालय के ज्‍यादातर छात्र ग्रामीण पृष्‍ठभूमि से ही निकल कर वहां तक पंहुचे हैं। ऐसे में उनसे ऐसी भाषा में सवाल पूछना जिसे वह समझते ही नहीं, कहां तक न्‍यायसंगत है? क्‍या ये देश का संविधान कहता है कि एमए पोलिटिकल साइंस को राजनीतिशास्‍त्र कहना गुनाह है? क्‍या राजनीतिशास्‍त्र हिंदी में नहीं पढ़ा-समझा जा सकता? क्‍या हिंदी अभी भी गुलामों की भाषा है? क्‍या राष्‍ट्रभाषा हमारे आधुनिक राजाओं से इसी तरह अपमानित होती रहेगी? क्‍या राजनीति का ककहरा भी अब एबीसीडी में सीखना होगा? क्‍या हम इसी तरह से मा‍नसिक गुलामियत में जीवन जीने को अभिशप्‍त रहेंगे? आशा है कि अंतर्जाल पर हिंदी का चिट्ठाजगत ही इन गुलाम मानसिकता वाले आधुनिक राजाओं को जबाव देगा।

Saturday, September 13, 2008

...भाषा पुल बने!

भाषा पुल है
तुम तक पंहुचने के लिए
आने के लिए मुझ तक
ये कविता लिखते समय मैने कभी नहीं सोचा था कि संप्रेषण के इस पुल को ढहाने के लिए वोटों के आतंकवादी सारी मर्यादाएं तोड़ देंगे। जया भादुड़ी बच्चन ने एक सभा में कह दिया कि हम तो यूपी के हैं इसलिए हिंदी में ही बोलेंगे। बस! फिर क्या था। बखेड़ा खड़ा हो गया। भाषा और क्षेत्रवाद के नाम पर वोटो की फसल उगाने के जीतोड़ कोशिश में लगे राज ठाकरे को लगा कि इससे बेहतर मौका और क्या हो सकता है। एक नया विवाद खड़ा कर दिया गया। जमकर गुंडई हुई। जया को उनके पति को माफी मांगनी पड़ी क्योंकि वो एक शांत स्वभाव के महिला-पुरुष हैं जो न तो उतनी नंगई पर उतर सकते हैं और न गुंडई कर सकते हैं। इसके अलावा मुंवई ने उनको नाम दिया है। शोहरत दी है। समृद्धि दी है। ऐसे में व्यवसायिक हित प्रभावित होते देखकर कोई भी भलामानुष वही करेगा जो बच्चन परिवार ने किया।
यहां एक सवाल उठता है कि क्या अंग्रेजी बोलने पर भी राज या बड़े ठाकरे इसी तरह बखेड़ा खड़ा करते। जया यदि हिंदी की जगह मराठी में बोलती तो मुझे बेहद प्रसन्नता होती क्योंकि मेरा मानना है कि क्षेत्रीय भाषाओं का सम्मान, प्रचार-प्रसार हिंदी के साथ समानांतर गति से होना चाहिए। यदि हिंदी भाषी राज्यों में स्कूली शिक्षा के साथ एक क्षेत्रीय भाषा का अध्ययन जरूरी होता तो राज जैसे लोगों को अलगाववाद के बीज बोने का मौका ही नहीं मिलता। लेकिन हमारे हुक्मरानों ने न कभी हिंदी के बारे में गंभीरता से सोचा, न कभी क्षेत्रीय भाषाओं के विकास के बारे में। सत्ता हमेशा अंग्रेजी दां लोगों के शिकंजे में रही इसलिए संवैधानिक रूप से भारत की प्रथम राजभाषा भले ही हिंदी हो लेकिन दबदबा उन्हीं लोगों का रहा जो अंग्रेजी गटकते और उगलते रहे। हिंदी राजभाषा होते हुए भी दासी जैसी हालत में आ गई। हम भले ही हिंदी का ध्वज उठाकर हिंदी जिंदावाद करें लेकिन सच ये है कि आज हर व्यक्ति अपनी संतान को अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाना चाहता है क्योंकि हिंदी को हमारे हुक्मरानों ने कभी रोजगार की भाषा नहीं बनने दिया। छब्बीस जनवरी उन्नीस सौ पैंसठ को भले ही हिंदी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दे दिया गया हो लेकिन हिंदी को कभी वह गौरव नहीं मिल पाया क्योंकि कभी दक्षिण में शुरू हुआ हिंदी विरांध अब मुंबई तक पंहुच गया है। उस मुंबई तक जो हिंदी सिनेमा का मक्का है। जिस मुंबई के बहुतायत लोगों को रोटी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हिंदी से ही मिलती है। इसका एकमात्र कारण है हमारी वह नीतियां जिनमें कभी हिंदी या भारतीय भाषाओं के विकास के लिए कभी कोई ठोस प्रयास ही नहीं हुआ। यदि भारत की अन्य भाषाओं को हिंदी भाषी क्षेत्रों में स्कूली शिक्षा के साथ जोड़ दिया गया होता तो भाषा के नाम पर वोटों की फसल उगाने वाले राज ठाकरे जैसे लोग कभी अपनी राजनीतिक रोटियां नहीं सेंक पाते।
एक बात और हिंदी का जितना हित हुक्मरानों ने किया है उतना हिंदी की दुकान चलाने वाले कथित मनीषियों ने भी। उन्होंने कभी हिंदी को हिंदुस्तानी नहीं होने दिया। हम सभी को ये कभी नहीं भूलना चाहिए कि जिस भाषा या संस्कृति में नया जोड़ने की परंपरा समाप्त हो जाती है उसके विकास की गति ठहर जाती है। अगर हिंदी में कुछ चर्चित शब्द दूसरी भाषाओं से भी आ जाते हैं तो नाक मुंह मत सिकोड़िए बल्कि आत्मसात कीजिए। यही विकास की परंपरा है।
हिंदी अगर बड़ी है तो भी बड़े को बड़प्पन दिखाना चाहिए जिसके प्रयास कभी नहीं हुए। न ही कभी हमारे हुक्मरानों ने ऐसा संदेश देने की कभी कोई कोशिश ही की। कारण साफ है कि हुक्मरानों की भाषा तो हमेशा अंग्रेजी ही रही। वह तो खुद आजादी मिलने के बाद फिरंगी हो गए। वैसा ही आचरण किया और उन्हीं फिरंगियों की नकल करने में अपना गौरव समझा जिनकी गुलामी से भारत मुक्त हुआ था। हमें कभी नहीं एहसास कराया गया कि हिंदी दुनिया में दूसरी सबसे ज्यादा बोली और समझी जाने वाली भाषा है। चीन की भाषा मंदरीन है। चीनी लोगों की भाषा मंदरीन को बोलने वाले एक बिलियन लोग हैं। मंदरीन बहुत कठिन भाषा है। किसी शब्द का उच्चारण चार तरह से किया जाता है। शुरू में एक से दूसरे उच्चारण में विभेद करना मुश्किल होता है। मगर एक बिलियन लोग आसानी से मंदरीन का उपयोग करते हैं। लेकिन मंदरीन के बाद साठ करोड़ से अधिक लोगों द्वारा बोली, लिखी और पढ़ी जाने वाली भाषा को हम राष्ट्रभाषा नहीं बना पाए। अगर हम आंकड़ों पर गौर करें तो हिंदी सिर्फ पैंतालीस करोड़ लोगों की मातृभाषा है लेकिन हकीकत ये है कि हिंदी जानने वाले और हिंदी का प्रयोग करने वाले लोगों की संख्या इससे दोगुनी से भी अधिक है।
अब एक बात डंके की चोट पर। हिंदी को कोई राज ठाकरे बढ़ने से नहीं रोक सकता क्योंकि अब ये कारपोरेट की मजबूरी बन गई है। स्टार न्यूज जैसे विदेशी मीडिया ग्रुप ने पहले हिंदी का चैनल शुरू किया और फिर बांग्ला और मराठी में लेकिन अंग्रेजी में नहीं। इसी तरह हिंदी कई बड़े मीडिया घरानों और कारपोरेट की मजबूरी बन गई क्योंकि इस देश में बहुसंख्यक हिंदी भाषी हैं। कभी कहा जाता था कि हिंदी में तकनीकी काम नहीं हो सकते लेकिन आज सभी आईटी कंपनियां हिंदी में अपने उत्पाद ला रहीं हैं। इसलिए आज आपसे निवेदन है कि हिंदी दिवस के मौके पर हिंदी की ताकत को पहचानिए और शुरूआत कीजिए हिंदी में हस्ताक्षर करने से। कसम खाईए कि आप हस्ताक्षर यानी अपनी पहचान हिंदी में ही छोड़ेंगे।
ऋचा जोशी

तकनीकी सहयोग- शैलेश भारतवासी

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