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Sunday, October 25, 2009

ये सच तो डरावना है

देश में सर्वशिक्षा अभियान की शुरुआत को सात साल पूरे होने को हैं। अभियान की सफलता का श्रेय लेने के लिए केंद्र-राज्‍य सरकारों ने कोई कसर नहीं छोड़ी है। सरकारे डंका पीट-पीट कर बता रही हैं कि अब 14 साल तक हर बच्‍चा स्‍कूल में है। पर, उत्‍तराखंड में सर्वशिक्षा अभियान के बारे में अचानक एक ऐसा कड़वा सच सामने आ गया कि जिसे स्‍वीकार करना आसान कतई नहीं है। यह 'सच' अनायास ही उस वक्‍त सामने आया जब उत्‍तराखंड की सरकार यह पता लगाने चली कि सरकारी स्‍कूलों से कितने मास्‍साब गायब हैं। मास्‍टर गायब मले तो उनके खिलाफ कार्रवाई भी हो गई, जो दूसरा सच उजागर हुआ उससे भौचक्‍की है।
पता ये चला कि कागजों में जो पंजीकरण दिखाया गया स्‍कूलों में वे बच्‍चे हैं ही नहीं। प्रदेश भर में औसत मिसिंग 20 प्रतिशत मानी गई। आंकड़े डरावने हैं क्‍योंकि यह मिसिंग राजधानी दून में 60 प्रतिशत और हरिद्वार जैसे संपन्‍न जिले में 50 प्रतिशत है। तीसरे मैदानी जिले उधमसिंह नगर में भी 25 प्रतिशत बच्‍चे नहीं हैं। प्रदेश में एक महीने से इन बच्‍चों की तलाश हो रही है, लेकिन ये नहीं मिले। सरकार भी परोक्ष तौर पर ये मान चुकी है कि नहीं मिलेंगे, क्‍योंकि संख्‍या बढ़ाने के लिए इनकी आड़ में करोड़ों का भ्रष्‍टाचार कर फर्जीवाड़ा हुआ है।
इस स्थिति के साथ कई गंभीर बातें जुड़ी हैं। कक्षा आठ तक के स्‍कूलों में 19 लाख बच्‍चों के आंकड़े के दम पर उत्‍तराखंड सरकार शिक्षा के क्षेत्र में दक्षिण भारत की बराबरी का दावा कर रही है। यदि स्‍कूलों में 20 प्रतिशत यानी करीब पौने चार लाख बच्‍चे फर्जी हैं, तो इससे साफ है कि असली बच्‍चे स्‍कूलों के बाहर हैं और वे अनपढ़ हैं। इसके साथ यह सवाल भी खड़ा हो गया कि जिस अभियान को आगामी मार्च में शत-प्रतिशत सफल घोषित किया जाना था वह पौने चार लाख फर्जी बच्‍चों के साल किस आधार पर सफल कहलाएगा?
एक अन्‍य सवाल यह है कि इतनी बड़ी संख्‍या में बच्‍चों का फर्जी पंजीकरण कैसे हुआ। दरअसल, धांधली पंजीकरण में दोहराव के जरिए हुई। एक बच्‍चे को अलग-अलग नामों से प्राइवेट स्‍कूलों, मदरसों, आंगनबाड़ी में पंजीकृत किया गया। इसके पीछे मकसद इन छात्रों के नाम पर मिलने वाली छात्रवृत्ति, मिड डे मील, ड्रेस, कॉपी-किताबों की धनराशि हड़पने का था। इन बच्‍चों को उत्‍तराखंड सरकार एक साल में 34 करोड़ की छात्रवृत्ति बांटती है और 20 प्रतिशत छात्र फर्जी होने के नाम पर सरकार को 7 करोड़ रूपये का चूना लगाया गया। इसी तरह किताबों के सेट तथा मिड डे मील की व्‍यवस्‍था पर सरकार द्वारा रोज ढाई रूपया प्रति बच्‍चा खर्च किया जाता है। पता ये चला कि पूरे साल में मिड डे मील में करीब 16-17 करोड़ रूपये का फर्जीवाड़ा हुआ। वजीफे, मिड डे मील और किताबें, तीनों मदों की यह राशि हर साल 28-30 करोड़ हो रही है यानी सात साल के अभियान में 2 अरब का घोटाला। अकेले उत्‍तराखंड के संदर्भ में यह राशि 200 करोड़ पंहुच रही है तो एक पल के लिए सोचिए कि पूरे देश के मामले में यह घोटाला कितना बड़ा होगा?
चूंकि यह सारी पड़ताल उत्‍तराखंड सरकार ने खुद कराई इसलिए इसे यह कह कर खारिज नहीं किया जा सकता कि यह विश्‍वसनीय नहीं है। अगर उत्‍तराखंड में इस अभियान की सफलता का सच इतना कड़वा है, तो देश के बाकी राज्‍यों खासकर बिहार, उत्‍तर प्रदेश, झारखंड, मध्‍य प्रदेश, छत्‍तीसगढ़ में स्थिति क्‍या होगी; इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। इन राज्‍यों में तो सरकारी अमला इस कदर हावी होता है कि वहां सरकारी अभियान सिर्फ कागज का पेट भरने के लिए चलते हैं। सवाल यह भी है कि क्‍या उत्‍तराखंड क पड़ोसी राज्‍यों हिमाचल, यूपी, हरियाणा, जम्‍मू एंड कश्‍मीर में ऐसा नहीं हुआ होगा? यदि दूसरे राज्‍यों में भी यही प्रतिशत दोहराया गया हो (जिसकी पूरी आशंका है) तो क्‍या सर्वशिक्षा अभियान को सफल मान लिया जाना चाहिए? उत्‍तराखंड का उदाहरण किसी न किसी स्‍तर पर इस बात के लिए भी प्रेरित कर रहा है कि एसएसए के समापन से पहले देशभर में छात्रों की वास्‍तविक स्थिति की जांच हो। आखिर फर्जी आंकड़ों से तो देश की नई पीढ़ी का भला नहीं हो सकता।
यह सामान्‍य मामला इसलिए नहीं है क्‍योंकि यह सीधे तौर पर नई पीढ़ी के साथ धोखा है। उनके भविष्‍य के साथ खिलबाड़ है। जिन शिक्षकों पर देश की नई पीढ़ी को गढ़ने-संवारने, देश को योग्‍य नागरिक देने का जिम्‍मा है यदि वे फर्जी छात्रों की आड़ में वजीफे की राशि, मिड डे मील, किताबों के सैट और छात्रों के काम आने वाली अन्‍य शैक्षिक सामग्री को ठिकाने लगें, तो सोचिए आम लोगों का भरोसा किस कदर टूटेगा। उत्‍तराखंड के उदाहरण से कम से कम इस बात का साफतौर पर पता चलता है कि इस सारे मामले में शिक्षकों की संलिप्‍तता है। आपराधिक इसलिए कि उन्‍होंने सरकारी पैसों की उन बच्‍चों पर खर्च दिखाया जो वास्‍तव में थे ही नहीं। ये साफ है कि उत्‍तराखंड के 25 हजार सरकारी स्‍कूलों में से ज्‍यादातर के हेडमास्‍टर इस घोटाले का हिस्‍सा रहे हैं। अब जाने-अनजाने उत्‍तराखंड ने तो इस काम को पूरा कर लिया, यदि दूसरे राज्‍य या केंद्र सरकार भी जाग जाए, तो शायद उन करोड़ों बच्‍चों का भला हो जाएगा, जो अब भी अनपढ़ हैं, स्‍कूल के बाहर हैं।

Saturday, January 31, 2009

रसोई गैस पर डाका

गैस कीमतों को कम करने की बात कहकर सरकार भले ही आम आदमी को रिझाने का प्रयास कर रही हो लेकिन सच ये है कि गैस की कीमते कम कर देने भर से आम आदमी को राहत नहीं मिलेगी क्‍योंकि रसोई गैस वितरित करने वाला तंत्र ही भ्रष्‍ट हो चुका है। आम आदमी को न समय पर एलपीजी मिलती है, न ही उपभोक्‍ता काला बाजारी से बच पाता है। आम उपभोक्‍ता अधिक मूल्‍य देकर भी सिलेंडर में भरी एलपीजी की पूरी मात्रा को तरसता रहता है लेकिन उसकी कहीं सुनवाई नहीं। हांलाकि प्रशासन हमेशा यही कहता है कि कालाबाजारियों की ख्‍ौर नहीं। हद तो ये है कि गैस गोदाम पर आम आदमी को सिलेंडर लेने जाना पड़ता है और उसकी जेब से डिलीवरी का चार्ज भी निकलवा लिया जाता है।
लोहे की एक खोखली रोड से बनी एक डिबाइस आपको सप्‍लाई होने वाले गैस सिलेंडर से कुछ ही मिनटों में एलपीजी को एक दूसरे खाली सिलेंडर में पंहुचा देती है। जी हां! आपके घर पंहुचने से पहले ही गैस सिलेंडर को लूटा जा रहा है। गैस गोदाम से पूरे वजन का गैस सिलेंडर चलता है लेकिन डिलीवरीमेन रास्‍ते में ही चुपचाप उस एलपीजी सिलेंडर से दो-ढाई किलो गैस उड़ा देते हैं। इन के सधे हुए हाथ आसानी से गैस को दूसरे खाली सिलेंडर में ट्रांसफर कर देते हैं। पलक झपकते ही आपकी रसोई के लिए चले गैस सिलेंडर से दो से ढाई किलो गैस दूसरे सिलेंडर या मिनी एलपीजी सिलेंडर में भर दी जाती है। ऐसा नहीं है कि ये किसी एक शहर की कहानी हो; सच तो ये है कि हर शहर में गैस चोरी एक आम शिकायत है। इस कालाबाजारी को कोई और नहीं बल्कि एलपीजी गैस एजेंसी के कर्मचारी ही अंजाम देते हैं और अगर इन कर्मचारियों की बात सच है तो इस कालाबाजारी में एजेंसी मालिक की पूरी तरह मिलीभगत होती है। सच तो ये है कि डिलीवरी पर्सन को या तो वेतन मिलता ही नहीं और यदि कहीं मिलता भी है तो उसमें गुजारा संभव नहीं बल्कि ये शाम को हिसाब करते समय कालाबाजारी का हिस्‍सा एजेंसी म‍ालिकों को भी देते हैं।
हांलाकि उपभोक्‍ता को ये हक है कि वह एलपीजी सिलेंडर की डिलीवरी लेते समय डिलीवरी मैन को वजन चैक कराने को कहें लेकिन या तो वजन तोलने वाला वैलेंस इनके पास होता नहीं या खराब होता है और उपभोक्‍ता इसी से संतोष कर लेता है कि चलो देर से ही सही एलपीजी आ तो गई। लेकिन ये भी आंशिक सच है कि डिलीवरीमैन आप के घर सप्‍लाई लेकर पंहुच जाए। सच तो ये है कि या तो आधा-अधूरा सिलेंडर भी उपभोक्‍ता ब्‍लैक में खरीदने के लिए अभिशप्‍त हैं या फिर अक्‍सर ऐसा होता है कि डिलीवरीमैन न होने या कम होने का बहाना बनाकर ऐजेंसी संचालक ग्राहक को खुद ही गोदाम से गैस सिलेंडर ढो कर ले जाने को मजबूर करते हैं लेकिन कोई भी गैस एजेंसी ग्राहक से डिलीवरी चार्ज उस हालत में भी वसूलती है जब वह डिलीवरी देने में असमर्थ है। नियमानुसार गैस से भरे एलपीजी सिलेंडर को यदि उपभोक्‍ता सीधे गोदाम से ले तो उससे आठ रूपये डिलीवरी चार्ज नहीं वसूला जा सकता।
एलपीजी की किल्‍लत बनाकर या बताकर गैस ऐजेंसियों के संचालक जहां दोनों हाथों से अपनी जेबें गर्म कर रहे हैं वहीं प्रशासन के लोग अपनी जिम्‍मेदारी एक-दूसरे विभाग पर डालते रहते हैं। उपभोक्‍ताओं को जहां गैस समय पर नहीं मिल रही वहीं जिला प्रशासन तीन से चार दिन का बैकलॉग बताता है। मेरठ के जिला आपूर्ति अधिकारी वड़े गर्व से बताते हैं कि पिछले साल गैस की कालाबाजारी करने के चौंतीस मामलों में एफआईआर दर्ज कराई गई और सात सौ सिलेंडर जब्‍त करने के साथ ही कुछ गिरफ्तारियां भी हुईं वहीं नौ गैसे ऐजेंसी मालिकों के खिलाफ जिलाधिकारी स्‍तर से एलपीजी सप्‍लाई करने वाली कंपनियों को कार्रवाई के लिए लिखा गया लेकिन इन कंपनियों ने कोई कार्रवाई नहीं की।
अब आप खुद समझ सकते हैं कि अगर आपकी रसोई में पंहुचने से पहले ही डिलीवरी पर्सन एलपीजी का कुछ हिस्‍सा पार कर देता है तो इसके लिए कौन और किस स्‍तर तक के लोग जिम्‍मेदार है। अधिकारी कहते हैं कि अगर गैस कम निकले तो उपभोक्‍ता फोरम में शिकायत की जाए लेकिन उन्‍हें ये कहते हुए शर्म नहीं आती वरना किसी उपभोक्‍ता को कंज्‍यूमर फोरम जाने की जरूरत ही क्‍यों पड़े।

Tuesday, November 4, 2008

फौज, फेयर सेक्‍स और उम्‍मीदें!

दिबेन देश के लब्‍धप्रतिष्ठित कथाकार हैं। अब तक उनके तीन कहानी संग्रह 'कांटे में फंसी मछली', 'आधा सच' और 'वो एक दिन' प्रकाशित हो चुके हैं। इसके अलाव उनके दो उपन्‍यास 'चिदम्‍बरा' और 'नदी बीमार है' खासे चर्चित रहे हैं। 'कांच के ताजमहल' उनका कविता संग्रह है लेकिन दिबेन का एक रूप और है। वह समय-समय पर सामयिक मुद्दों पर अपनी कलम चलाते रहे हैं। उन्‍होंने इर्द-गिर्द के लिए अपना एक विचारोत्‍तेजक लेख भेजा है जो फौज में महिलाओं की स्थिति को तार-तार करता है।



बीते एक अक्‍तूबर को दुर्गानवमी थी। समूचे देश में मां दुर्गा के नवम् सिद्धिदात्री स्‍वरूप की पूजा की जा रही थी। इसी दिन वायुसेना अध्‍यक्ष एयरमार्शल होमी मेजर सा‍हब का बयान आया कि महिलाओं के लिए वायुसेना में भी कुछ कर दिखाने के बहुत से अवसर हैं। हांलाकि वायुसेना में महिलाओं को काफी पहले ही अवसर मिलने शुरू हो गए थे। पंजाब की एक वीरांगना को वायुसेना (नाम जानबूझकर नहीं दिया जा रहा है।) पहली फाईटर बनने का अवसर मिला था लेकिन दुर्भाग्‍य से वह वीर नायिका अपने हुनर दिखाने से पहले ही एक असमायिक दुर्घटना का शिकार होकर इस संसार को अलविदा कह गई थी। अभी तक महिलाएं रक्षा सेनाओं में शार्ट सर्विस कमिश्‍न्‍ड अफसर के रूप में ही अपनी सेवाएं दे पा रहीं थीं। यानी कि चौदह साल की सेवा के बाद बिना किसी पेंशन सुविधा के सेना से उनकी छट्टी कर दी जाती थी। अभी तक ऐसा हो भी रहा है।
इस बात को कुछ महिला अधिकारियों ने कुछ इस तरह भी कहा है कि अपने युवा जीवन के अमूल्‍य चौदह वर्ष देश के हित में सेना को समर्पित करने के बाद जब हम सेवा से विदा लेती हैं तो स्‍वयं को ठगा हुआ सा महसूस करती हैं।

इकत्‍तीस मई को खड़कवासला की राष्‍ट्रीय रक्षा अकादमी के कमांडेंट एयरमार्शल टी एस रणधावा ने अकादमी के एक सौ चौदह वेच के केडेट्स की पासिंग परेड के समापन के अवसर पर पत्रकारों को बताया कि अकादमी महिलाओं को सेना अधिकारियों के रूप में प्रशिक्षित किए जाने को पूरी तरह तैयार है। उन्‍होंने कहा कि सेना में महिलाओं को स्‍थायी कमीशन्ड अफसर के रूप में जज एडवोकेट जनरल (जे ए जी विभाग) और एजूकेशन कोर में भर्ती किए जाने पर गंभीरता से विचार किया जा रहा है। एयरमार्शल रणधावा ने जो बात कही उसकी पुष्‍टि भारत के रक्षामंत्री श्री ए के एंटनी ने इस प्रस्‍ताव पर अपनी सहमति जता कर कर दी। फिलवक्‍त रक्षा सेनाओं में पांच हजार एक सौ सैंतीस महिला सेना अधिकारी अपनी सेवाएं दे रहीं हैं। इनमें से सर्वाधिक चार हजार एक सौ एक थल सेना में, सात सो चौरासी वायुसेना में और दो सौ बावन नौसेना में पदस्‍थ हैं।
इस मुद्दे पर ब्रिगेडियर चितरंजन सावंत (वीएसएम) का स्‍पष्‍ट मत है कि एक समय था जब सेना में किसी महिला का नाम भी नहीं सुना जाता था। रक्षा सेना के आफिसर्स मेस के बार रूम अथवा भोजनालय में महिलाओं का प्रवेश तक वर्जित था। सैनिक अधिकारियों के मैस में महिलाओं के लिए लेडीज रूम बनाए जाते थे लेकिन वहां सेना अधिकारियों के परिवार की महिला सदस्‍य ही पंहुच सकती थीं।

जिस देश में नारी की पूजा किए जाने की बात की गई है उस देश की सैनिक इकाइयों में महिलाओं के साथ अछूतों जैसा बर्ताव करना हैरत में डालने वाला है। अगर हम अपने पौराणिक ग्रंथों से ही उदाहरण ढूंढे तो महारानी कैकेयी के बारे में कहा जाता है कि वह अपने पति महाराज दशरथ के साथ युद्ध के मैदान में जाती थीं और सहयोगी के रूप में युद्ध में भाग लेती थीं।

उन्‍नीसवी सदी में महारानी लक्ष्‍मीबाई ने ब्रिटिश सेनाओं के विरूद्ध युद्ध में भारतीय सेनाओं का नेतृत्‍व करते हुए देश के लिए अपना बलिदान दे दिया था। इसी प्रकार दक्षिण भारत में किट्टर की रानी चेनम्‍मा ने देश की स्‍वतंत्रता की रक्षा करते हुए अपने प्राणों की आहूति दी थी। द्वितीय विश्‍व युद्ध में नेताजी सुभाष चंद बोस के नेतृत्‍व में गठित की गई आजाद हिंद फौज में एक अलग महिला रेजिमेंट का गठन किया गया था जिसकी कमान सुश्री लक्ष्‍मी सहगल को सौंपी गई थी। इसके बावजूद आजादी के बाद भी भारतीय रक्षा सेनाओं में वही सामंती नियम कायदे कायम हैं जो अंग्रेजी सेनिक नेतृत्‍व से विरासत में मिले थे।
राष्‍ट्रीय रक्षा अकादमी खड़कवासला के कमांडेंट एयर मार्शल टीएस रणधावा का कहना है कि एन डी ए में पुरूष कैडेट्स को ही प्रशिक्षण दिया जाता है इसलिए महिला कैडेट्स के प्रशिक्षण के लिए चैन्‍नई की सैन्‍य अकादमी में व्‍यवस्‍था की जाएगी। श्री रणधावा ने कहा कि सेना की महिला रक्षा अधिकारी सीधे युद्ध में भाग नहीं लेंगी। सेना के केवल उन्‍हीं अंगों में उन्‍हें स्‍थान दिया जाएगा जहां उन्‍हें शत्रु के साथ युद्ध में सीधे-सीधे भाग न लेना पड़े।

वास्‍तव में 1990 में ही भारतीय नौ सेना और वायुसेना में महिला अधिकारियों के लिए अवसरों के द्वार खोल दिए गए थे। इन महिला अधिकारियों को शार्ट सर्विस कमिशन्‍ड अधिकारी का दर्जा दिया गया था परन्‍तु इन महिला अधिकारियों को पुरूष अधिकारियों के समान कठोर प्रशिक्षण दिए जाने के बाद भी बहुत साधारण से कार्यों पर नियुक्‍त किया गया। इस सारी प्रक्रिया में लिंग भेद का अहसास सीधे-सीधे होता था। हांलाकि बिट्रेन की शाही सेना में महिला अधिकारियों को पुरूषों के समान ही सम्‍मान और अधिकार प्राप्‍त होते हैं लेकिन भारतीय सेना के उच्‍च अधिकारी अपनी सामन्‍ती सोच से उबर न पाने के कारण महिला अधिकारियों को अभी तक भी उनके पुरूष सहयोगियों के बराबर सम्‍मान के योग्‍य नहीं समझते।
भारतीय सेना के उपसेनाध्‍यक्ष लेफ्टीनेंट जनरल पट्टाभिरमन का स्‍पष्‍ट रूप से कहना है कि हमें यूनिट स्‍टर पर लेडी आफिसर्स की नहीं युवा जेंटलमेन आफिसर्स की भागीदारी की आवश्‍यकता है। वास्‍तव में खेलने की गुडि़याओं (बार्बी डाल्‍स) का युद्ध मैदान के बंकर्स में कोई स्‍थान नहीं होता है। उच्‍च सेना अधिकारियों की इसी मानसिकता के कारण सेना में कार्य कर रही महिला अधिकारियों के यौन उत्‍पीड़न और यौन शोषण की घटनाएं भी सामने आने लगीं।

महिलाओं को मामूली सी घटना पर भी चार्जशीट किया गया जबकि उनके पुरूष सहयोगी बड़ा अपराध करने पर भी छुट्टे छोड़ दिए गए। सेना के दस्‍तावेजों के अनुसार पिछले चौदह वर्षों में कम से कम सात महिला अधिकारियों का कोर्टमार्शल किया गया। इनमें से अधिकांश महिलाएं अपने शै‍क्षणिक जीवनकाल में ही अपनी विलक्षण प्रतिभाओं का प्रदर्शन कर चुकीं थीं। यदि वे चाहती तो सिविल सेवाओं में भी अपना कैरियर चुन सकती थीं लेकिन स्‍वदेश प्रेम का जज्‍बा ही उन्‍हें रक्षा सेना मे खींच कर लाया था। पर इसका परिणाम क्‍या निकला। यही कि रक्षा सेना में उन्‍हें तरह-तरह से अपमानित किया गया। इसका विरोध करने पर मामूली से मामूली (पेटी मेटर्स) बातों पर उन्‍हें चार्जशीट थमाई गई। उनका कोर्ट मार्शल किया गया और अपमानित करके रक्षा सेवा से बाहर का रास्‍ता दिखा दिया गया। अफसोस की बात तो यह है कि एक मामले में तो एक महिला अधिकारी पर मात्र दस रूपये के गबन का चार्ज लगा कर उसे सेना से बाहर का रास्‍ता दिखा दिया गया।

बातें बड़ी-बड़ी हैं पर सेना में कार्यरत महिला अधिकारियों की वा‍स्‍तविक हालत क्‍या है, इस बात का अनुमान लेफ्टीनेंट जनरल पद्मनाभन की टिप्‍पणीं से तो लगता ही है। एक सेना अधिकारी द्वारा अपने पिता को लिखे पत्रों से भी लगता है। 27 मार्च 98 को लिखे एक ऐसे ही पत्र में उसने लिखा था - पापा आपने हमेशा इतनी खुशियां दी हैं कि पता ही नहीं चला कि दुख क्‍या है। यहां आई एन एस हमला और कोची ने बहुत कुछ सिखा दिया। लेकिन यह सब सहन करना आसान भी तो नहीं है। मेरे पास परिवार का कोई ऐसा व्‍यक्ति भी नहीं है जिससे अपनी चिंताएं और पीड़ा बांट सकूं। घर फोन करके कुछ शांति मिलती है पर बारह दिनों में चार हजार रूपये फोन पर खर्च हो चुके हैं फिर भी सुकून नहीं है।

कभी कोई सीनियर अफसर बुलाता है तो उनके व्‍यवहार पर इतना गुस्‍सा आता है कि दुनिया पलटने को मन करता है। पापा! असल बात यह है कि फौज में लड़कियों को कोई इंसान नहीं समझता। आदर, सम्‍मान केवल दिखाने को है पर असल जिंदगी में ऐसा नहीं होता। कुछ दिनों के लिए इस एनवायरमेंट से भाग जाने को दिल करता है। हरिद्वार, देहरादून जाने को मन कर रहा है। अपने भाई-बहिनों के पास, आपके पास आने का मन है। यहां से उड़ जाने का मन कर रहा है। पापा! डिफेंस लड़कियों के लिए कितना गंदा है, यह बात सब को पता लगनी चाहिए। फौज में इतने लोग आत्‍महत्‍या क्‍यों करते हैं यह बात सब को पता लगनी चाहिए। हम सोचते हैं डिफेंस और ज्‍यूडिसियरी यही दो अच्‍छी जगह बची हुईं हैं जबकि ऐसा नहीं है।
...फिर लगता है कि ये बा‍तें बाहर गईं तो देश की अस्मिता को भी खतरा हो सकता है। बात उछली तो इंटरनेशनल लेवल तक खिंच सकती है। खैर छोड़ो यहां पीडि़त व्‍यक्ति का ही कोर्ट मार्शल होता है। ... इस कोर्ट मार्शल ने मुझे इन उच्‍च अधिकारियों का असली चेहरा तो दिखा ही दिया। वास्‍तव में इन लोगों को बेनकाब किया जाना चाहिए पर ऐसा हो नहीं सकता। ये सो काल्‍ड सीनियर आफिसर तो फिर भी बचे ही रहेंगे। क्‍योंकि न्‍याय तो इन्‍हें ही करना है। ... यहां फौज में अपराधियों को ही न्‍याय करने की पावर दी जाती है।
पत्र का मजबून तो दहलाने वाला है। ऐसे में फौज में महिलाओं को स्‍थाई कमीशन दिए जाने की बात बहुत ज्‍यादा उम्‍मीदें नहीं जगाती।

Tuesday, October 14, 2008

फिर याद आए मातादीन



ये कोई नई खबर नहीं है। बस! समय, स्‍थान और पात्र बदले हुए हैं। पुलिसिया किस्‍सों में ये आम हैं। परंपरागत हैं। लेकिन फिर भी ये घटनाएं जहां भी हों, परदे में नहीं रहनी चाहिएं। आप अपनी मनपसंद बात न सुनने या पढ़ने पर मीडिया को चाहें जितना भी कोसें लेकिन ये भी सच है कि ऐसे मामले गिनती की दुनिया से परे हैं जिनमें मीडिया की वजह से न्‍याय का दीपक जल पाता है।


इंस्‍पेक्‍टर मातादीन का किस्‍सा तो आपने सुना होगा। अगर नहीं तो हम सुनाए देते हैं। मातादीन को टास्‍क मिला कि उन चूहो को पकड़ कर लाया जाए जिसने सरकारी गोदाम के माल को चट कर दिया। तीन दिन का समय और मुश्किल टास्‍क लेकिन मातादीन ने मुमकिन कर दिखाया। कप्‍तान साहब के सामने मातादीन एक हाथी को लाकर खड़े हो गए और बोले कि हुजूर यही वह चूहा है। कप्‍तान साहब झल्‍लाए तो इंस्‍पेक्‍टर बोले कि हुजूर ये इकबाल-ए-जुर्म कर रहा है। इंस्‍पेक्‍टर ने हाथ के डंडे को हवा में लहराते हुए हाथी से पूछा कि बताओ सरकारी गोदाम के माल को चट करने वाले चूहे हो या नहीं? हाथी जोर-जोर से सूंड और सिर हिलाने लगा। ऐसा ही कुछ हुआ है उत्‍तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में जहां पुलिस की कहानी में मार डाला गया बच्‍चा वापस आ गया और उसके अपहृता और कथित हत्‍यार छह महीने से जेल की हवा खा रहे हैं।

पुलिस की ऐसी कारगुजारियां अक्‍सर देखने-सुनने को मिलती हैं और निरपराध लोग सींखचों के पीछे चले जाते हैं। मुजफ्फरनगर के सुनील, सोनू और रवि पिछले छह महीने से मुजफ्फरनगर की जिला जेल में बंद हैं। मुजफ्फरनगर के भोपा थाना इलाके के रहने वाले इन तीनों लोगों पर छठी क्‍लास में पढ़ने वाले राजन के अपहरण और हत्‍या का इल्‍जाम है। पुलिस ने करीब छह महीने पहले राजन का बस्‍ता और हत्‍या में प्रयोग किया गया चाकू भी गंग नहर के किनारे से बरामद कर लिया और धारा एक सौ इकसठ के तहत अपराधियों के बयान भी दर्ज कर लिए जिसमें तीनों अभियुक्‍तों ने इकबाल-ए-जुर्म कुछ इस तरह से किया-''सोनू और रवि ने अपहृत राजन के हाथ पकड़े और सुनील ने उसकी पेट में चाकू घोंपकर नहर में फेंक दिया।'' इसी इकबाल-ए-जुर्म के बाद कथित अपराधियों की कथित निशानदेही पर आला कत्‍ल यानी हत्‍या में प्रयुक्‍त चाकू भी बरामद कर लिया लेकिन अब राजन वापस आ गया है। यानी जिस बच्‍चे को अपहरण के बाद मार डाला गया और तीन युवक पिछले छह महीने से जेल की हवा खा रहे हैं, जबकि वह बच्‍चा अभी जिंदा है।

आप समझ ही सकते हैं कि राजन के वापस आ जाने के बाद क्‍या हो रहा होगा। राजन के वापस आते ही मुजफ्फरनगर पुलिस सकते में आ गई है तो दूसरी तरफ जेल में बंद राजन की कथित हत्‍या के हत्‍यारोपियों के घरवाले पुलिस की हाय-हाय कर प्रदर्शन कर रहें हैं। उनका आरोप है कि पुलिस ने रंजिश के चलते राजन के पिता से रिश्‍वत खाकर अपहरण और हत्‍या का ड्रामा करवाया और सुनील, सोनू और रवि को कई दिन तक अवैद्य हिरासत में रखकर जमकर मारा-पीटा और फिर कथित इकबाल-ए-जुर्म के आधार पर जेल भेज दिया। पिछले छह महीने से जेल में बंद तीनों युवकों के घर वाले अब इंसाफ मांग रहे हैं लेकिन साथ में वे शंका भी जता रहें हैं कि उन्‍हें न पहले इंसाफ मिला था और न अब उम्‍मीद है।

राजन के जिंदा लौटने पर पुलिसिया कहानी और षडयंत्र का आधा सच तो सामने आ चुका है लेकिन बाकी के सच पर पर्दा डाले रखने और महकमें की तार-तार हो रही लाज को बचाने के लिए पुलिस ने एक बार फिर से लीपापोती शुरू कर दी है। थानेदार साहब कह रहे हैं कि मामला उनसे पहले थानेदार साहब के कार्यकाल का है। और साथ ही साथ अपहृत राजन और उसके पिता को थाने में बुलाकर बिठा लिया है और वे दोनों अपहरण की कहानी को सच बता रहे हैं।

अब एक तरफ राजन और उसके परिजन अपने अपहरण की मॉलीवुड कथा सरीखी अपहरण की कहानी सुना रहे हैं वहीं अभियुक्‍तों के परिजनों का कहना है कि राजन पहले भी कई बार घर से भाग चुका है और गायब हो जाना उसकी फितरत है। सचाई क्‍या है? आधा सच तो सामने है। पुलिस के कागजों में मर चुका राजन वापस आ गया है। कब सामने आएगा बाकी बचा सच।

Sunday, October 12, 2008

अगले जनम मोहे मास्टर ना कीजो


कई बरस पहले जनसत्ता अखबार की रविवारीय पत्रिका में आलोक तोमर का एक लेख पढ़ा था कि जो कुछ नहीं होते वो शिक्षक होते हैं। शिक्षक माता-पिता की संतान आलोक तोमर का ये लेख उस समय अच्छा नहीं लगा था। लेकिन अब अपने ही बीच के एक शिक्षक की कहानी सुनी तो समझ में आया कि आलोक तोमर ने सच लिखा था। उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर ज़िले उस शिक्षक की कहानी सुनकर लगा कि ऐसे हालात में जो शिक्षक धर्म और कर्म निभाये वो गांधी ही हो सकता है। और चूंकि दूसरा गांधी अब तक कोई हुआ नहीं है इसलिये ये ही कहा जायेगा कि जो शिक्षक हैं उनके पास और कोई रास्ता ही नहीं है या वो और कुछ बन नहीं सकते। यानी आलोक तोमर की बात सोलह आने सही कि जो कुछ नहीं होते वो शिक्षक होते हैं।






मास्साब की चिट्ठी


राधा को देखने वाले आ रहे हैं, 15 अक्टूबर की सुबह। लड़का दीपावली की छुट्टियों में घर आ रहा है, इसलिये महीने भर से पहले से कार्यक्रम तय है। लेकिन मैं शायद उनसे ना मिल सकूं। आज ही बेसिक शिक्षा अधिकारी के दफ्तर से संदेश आया है कि 15 अक्टूबर को उत्तर प्रदेश के सभी प्राइमरी और जूनियर हाई स्कूलों में ‘विश्व हाथ धोना दिवस’मनाया जाएगा। इस मौके पर स्कूलों में शिक्षकगण बच्चों को अलग-अलग समूहों में बांटकर विद्यालय की साफ-सफाई कराएंगे। अपनी और आसपास की स्वच्छता-सफाई का संदेश देने के रैलियां निकालीं जाएंगी। और बच्चे टॉयलेट जाने के बाद और कुछ भी खाने से पहले हाथ धोने की शपथ लेंगे। यानी शाम के पांच-छह बजेंगे सामान समेटते-समेटते। हेड मास्टर साहब को भी पता है कि उस दिन मुझे कितना ज़रुरी काम है लेकिन क्या करें उनकी भी मजबूरी है और मेरी भी। राधा की मां ज़िम्मा संभालेगी घर पर। कोई बात नहीं, लेकिन मैं अपनी बेटी राधा की शादी में हाज़िर होने की पूरी कोशिश करूंगा।
वैसे सच बताऊं मेरे जैसे शिक्षकों की बिरादरी इस तरह के आपातकाल की आदी हो गई है या होती जा रही है। आजकल हमारे जिम्मे परिवार नियोजन के लिये लोगों को प्रेरित करने से लेकर पोलिया की दवा पिलवाने तक का काम ही नहीं होता बल्कि लखनऊ में जिस पार्टी की सरकार है उसके छुटभैये नेताओं की सभा के लिये बच्चे-बड़े भी हमको ही जुटाने पड़ते हैं। मेरे पिता जी भी मास्टर थे, लेकिन तब हालात कुछ और थे। इलाके के सबसे प्रतिष्ठित व्यक्ति माने जाने वाले मास्टर साहब या गुरुजी हालात की वजह से अब ‘वो मास्टर’ में बदल चुके हैं। अब ना इज्जत है, ना पैसा और ना ही चैन। गांव के पंचों से लेकर कलेक्टर तक निगरानी के लिये इतने लोग तैनात कर दिये गये हैं कि मेरे जैसे मास्साब, पिता के अंतिम संस्कार या बेटी की शादी की तैयारियों के लिये भी छुट्टी लेने से पहले पचास बार सोचते हैं।
और इतनी मेहनत और बेगार के बाद जब वेतन की बारी आती है तो 5-6 महीने तक इंतज़ार और वो भी इतनी जलालत के बाद, मानो भीख मिल रही हो। देश की जिस राजधानी दिल्ली में शिक्षा और शिक्षकों के लिये बड़ी-बड़ी योजनाये बनती हैं, उससे महज़ 60-70 किलोमीटर दूर बसे बुलंदशहर के बेसिक शिक्षकों का हाल आप सुन लेंगे तो कलेजा मुंह को आ जायेगा। बेसिक शिक्षा अधिकारी के कार्यालय में बैठने वाले लेखाधिकारी महोदय का एक अदना सा बाबू हम भविष्यनिर्माताओं को खून के आंसू रुला देता है। पूरे बुलंदशहर में गिने-चुने स्कूल होंगे जिनके शिक्षकों को वेतन समय पर मिल पा रहा होगा। दरअसल वेतन मिलने की प्रक्रिया इतनी जटिल और लंबी है कि इससे लेखाधिकारी कार्यालय के बाबू के अलावा सब परेशान होते हैं। हर महीने की 20-22 तारीख को स्कूल का बाबू वेतन का बिल बनाकर लेखाधिकारी कार्यालय ले जाता है। लेखाधिकारी कार्यालय के बाबू के मूड के ऊपर है कि वो बिल स्वीकार करता है या नहीं। पहली बार में तो वो नहीं ही करता है, ये कहकर कि अभी बजट नहीं आया है। मानमनौव्वल के बाद बिल स्वीकार होता है और कम से 10-15 दिन से लेकर महीने तक पड़ा रहता है ट्रेज़री में जाने के लिये। जब जाता है तो ट्रेज़री से चैक आने में दो-चार रोज़ लग जाते हैं। ट्रेज़री से आया चेक लेखाधिकारी के बाबू के पास फिर पड़ा रहता है, कई बार तो दो-दो महीने तक। ये हाल तब है जब बाबू से चेक लेने के एवज़ में हर बार 100 रुपये खर्च होते हैं। 10 लोगों के वेतन पर 100 रुपये खर्च का नियम है। बीच में शिक्षकों ने बुलंदशहर में कर्मचारी नेताओं से मिलकर शिकायत की तो छह महीने तक सब ठीक रहा। फिर सातवें महीने अचानक शेर हो गये बाबू ने पिछले छह महीने की भी कसर निकाल ली तब कहीं जाकर चेक दिया। चेक हाथ में देने से पहले 100 रुपये के खर्च का सिलसिला फिर प्रारंभ हो गया है। किससे कहें?
दीपावली की तैयारियां आपके घर मे चल रही होंगी। मेरे घर में भी हर साल शुरू होती हैं लेकिन बीच में ही दम तोड़ देती हैं। पिछले कई साल का नियम है कि जिस महीने दीपावली होती है उस महीने बोनस तो दूर उस माह का वेतन भी नहीं मिल पाता है। इस महीने का वेतन अब तक नहीं मिल सका है, बिल बाबू की टेबल पर ही पड़ा हुआ है। और बोनस, वो तो पिछले साल का भी नहीं मिला है। बाबू जी कहते हैं बजट नहीं हैं। दबंगों के स्कूलों को पिछले साल ही मिल गया था। महंगाई भत्ता बढ़ने का हज़ारों रुपये का एरियर भी नहीं मिल पा रहा है। देर सबेर मिल जायेगा लेकिन उसका जो हिस्सा पीएफ में जायेगा उसके ब्याज का नुकसान तो ही ही रहा है हम लोगों को।
पीएफ पर याद आया, राधा की शादी के लिये 40 हज़ार रुपये निकालने के लिये अर्जी दी हुई है। एक हज़ार रुपये अब तक चाय-पानी के नाम पर बांट चुका हूं।लेकिन अर्जी वहीं की वहीं है, आगे बढ़ ही नहीं रही है। शुक्ला जी, सिंह साहब, मिश्रा जी सबके उदाहरण मेरे सामने हैं कि उनको पीएफ से निकाली गई रकम बच्चों की शादी पर नहीं नाना या दादा बनने पर ही मिल सकी। मुझे भी बहुत ज़्यादा उम्मीद लगती नहीं है।
लेकिन एक उम्मीद आपसे नज़र आ रही है। आपने हमको अपने बच्चों का भविष्य बनाने का जिम्मा दे रखा है। हम पूरी कोशिश करते हैं लेकिन बदले में कभी गुरु दक्षिणा नहीं मांगते हैं, मांगते भी हैं छोटी-मोटी, द्रोण जैसी नहीं। क्या आप पालकों की पूरी बिरादरी दिवाली के मौके पर शिक्षकों की बिरादरी को एक गुरु दक्षिणा दे सकती है। हमारे पढ़ाये कई बच्चे आईएएस, आईपीएस और बड़े अफसर हैं, कृपया हमको बाबुओं से मुक्ति दिलवाकर बस वेतन समय पर दिलवा दीजिये। हम आपके बच्चों का भविष्य बनाते हैं आप हमारे बच्चों का ध्यान रखिये।
मास्टर रामदयाल, पहासू वाले

तकनीकी सहयोग- शैलेश भारतवासी

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