Showing posts with label feminism. Show all posts
Showing posts with label feminism. Show all posts

Wednesday, August 11, 2010

फिलहाल स्त्री विमर्श बेवफाई के विराट उत्सव की तरह है: विभूतिनारायण राय

महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय के कुलपति और साहित्‍यकार विभूति नारायण के जिस साक्षात्‍कार को लेकर साहित्‍य जगत में बखेड़ा खड़ा हुआ, उस पर इर्द-गिर्द पर आपने ऋचा जोशी का नजरिया और विभूति नारायण राय का अभिमत/माफीनामा पढ़ा। नया ज्ञानोदय में प्रकाशित इस साक्षात्‍कार को अभी भी बहुत से सुधी पाठक नया ज्ञानोदय के उस अंक की अनुपलब्‍धता के कारण नहीं पढ़ पाएं हैं। इर्द-गिर्द के सुधी पाठकों के आग्रह पर हम इस चर्चित साक्षात्‍कार को नया ज्ञानोदय से साभार प्रस्‍तुत कर रहे हैं।


राय साहब, नया ज्ञानोदय प्रेम के बाद अब बेवफाई पर विशेषांक निकालने जा रहा है, क्या प्रतिक्रिया है आपकी?

- काफी महत्त्वपूर्ण संपादक हैं रवीन्द्र कालिया। प्रेम पर निकाले गए उनके सभी अंकों की आज तक चर्चा है। इस तरह के विषय केन्द्रित विशेषांकों का सबसे बड़ा लाभ है कि न सिर्फ हिन्दी में बल्कि कई भाषाओं में लिखी गई इस तरह की रचनाएं एक साथ उपलब्ध् हो जाती हैं। साथ ही किसी विषय को लेकर विभिन्न पीढ़ियों का क्या नज़रिया है यह भी सिलसिलेवार तरीके से सामने आ जाता है। साहित्य के गम्भीर पाठकों, अध्येताओं के लिए ये अंक जरूरी हो जाते हैं। अब जब उन्होंने बेवफाई पर अंक निकालने की योजना बनायी है तो वह भी निश्चित तौर पर एक महत्त्वपूर्ण प्रसंग होगा।

लेकिन आलोचना भी खूब हुई थी उन अंकों की, खासकर कुछ लोगों ने कहा कि इतने महत्त्वपूर्ण मुद्दों को छोड़कर प्रेम और बेवफाई…

- हिन्दी में विध्न सन्तोषियों की कमी नहीं है। आखिर यदि वे इतने ही महत्त्वहीन अंक थे तो इतने बड़े पैमाने पर लोकप्रिय क्यों हुए? मुझे याद नहीं कि कालिया जी के संपादन को छोड़कर किसी पत्रिका ने ऐसा चमत्कार किया हो कि उसके आठ-आठ पुनर्मुद्रण हुए हों। कुछ तो रचनात्मक कुंठा भी होती है। जैसे उन विशेषांकों के बाद मनोज रूपड़ा की एक चलताउ सी कहानी किसी अंक में आयी थी, यह एक किस्म का अतिवाद ही है आप इतने बड़े पैमाने पर लिख जा रहे विषय का अर्थहीन ढंग से मजाक उड़ाएं। फिर लोगों को किसने रोका है कि वे प्रेम या बेवफाई को छोड़कर अन्य विषयों पर कहानी लिखें या विशेषांक न निकालें।

तो बेवफाई को आप कैसे परिभाषित करेंगे?

- बेवफाई की कोई सर्वस्वीकृत परिभाषा नहीं हो सकती। इसे समझने के लिए धर्म, वर्चस्व और पितृसत्ता जैसी अवधारणाओं को भी समझना होगा। यह इस उत्कट इच्छा की अभिव्यक्ति है जिसके तहत स्त्री या पुरुष एक-दूसरे के शरीर पर अविभाजित अधिकार चाहते हैं। प्रेमी युगल यह मानते हैं कि इस अधिकार से वंचित होना या एक-दूसरे से जुदा होना दुनिया की सबसे बड़ी विपत्ति है और इससे बचने के लिए वे मृत्यु तक का वरण करने के लिए तैयार हो सकते हैं। आधुनिक धर्मों का उदय ही पितृसत्ता के मजबूत होने के दौर में हुआ है। इसीलिए सभी धर्मों का ईश्वर पुरुष है। धर्मों ने स्त्री यौनिकता को परिभाषित और नियंत्रित किया है। उन्होंने स्त्री के शरीर की एक वर्चस्ववादी व्याख्या की है। इससे बेवफाई एकतरपफा होकर रह गई है। मर्दवादी समाज मुख्य रूप से स्त्रियों को बेवफा मानता है। सारा साहित्य स्त्रियों की बेवफाई से भरा हुआ है जबकि अपने प्रिय पर एकाधिकार की चाहना स्त्री-पुरुष दोनों की हो सकती है और दोनों में ही प्रिय की नज़र बचाकर दूसरे को हासिल करने की इच्छा हो सकती है।

देखा जाए तो, बेवफाई एक नकारात्मक पद है लेकिन इसका पाठ हमेशा रोमांटिक या लुत्फ देने वाला क्यों होता है?

-वर्जित फल चखने की कल्पना ही उत्तेजना से भरी होती है। यह मनुष्य का स्वभाव है। फिर यहां लुत्फ लेने वाला कौन है मुख्य रूप से पुरुष ! व्यक्तिगत संपत्ति और आय के स्रोत उसके कब्जे में होने के कारण वह औरतों को नचाकर आनन्द ले सकता है, उन्हें रखैल बना सकता है, बेवफा के तौर पर उनकी कल्पना कर उन्हें अपने फैंटेसी में शामिल कर सकता है। पर जैसे-जैसे स्त्रियां व्यक्तिगत संपत्ति या क्रय शक्ति की मालकिन होती जा रही हैं धर्म द्वारा प्रतिपादित वर्जनाएं टूट रही हैं और लुत्फ लेने की प्रवृत्ति उनमें भी बढ़ रही है।

हिन्दी समाज से कुछ उदाहरण….

-क्यों नहीं। पिछले वर्षों में हमारे यहां जो स्त्री विमर्श हुआ है वह मुख्य रूप से शरीर केन्द्रित है। यह भी कह सकते हैं कि यह विमर्श बेवफाई के विराट उत्सव की तरह है। लेखिकाओं में होड़ लगी है यह साबित करने के लिए उनसे बड़ी छिनाल कोई नहीं है। मुझे लगता है कि इधर प्रकाशित एक बहु प्रमोटेड और ओवर रेटेड लेखिका की आत्मकथात्मक पुस्तक का शीर्षक `कितने बिस्तरों पर कितनी बार´ हो सकता था। इस तरह के उदाहरण बहुत-सी लेखिकाओं में मिल जाएंगे। दरअसल, इससे स्त्री मुक्ति के बड़े मुद्दे पीछे चले गए हैं। मुझे इसमें कुछ भी असहज नहीं लगता। आखिर पहले पुरुष चटखारे लेकर बेवफाई का आनन्द उठाता था, अब अगर स्त्रियां उठा रही हैं तो हाय तौबा क्या मचाना। बिना जजमेंटल हुए मैं यह यहां जरूर कहूंगा कि यहां औरतें वही गलतियां कर रही हैं जो पुरुषों ने की थी। देह का विमर्श करने वाली स्त्रियां भी आकर्षण, प्रेम और आस्था के खूबसूरत सम्बंध को शरीर तक केन्द्रित कर रचनात्मकता की उस संभावना को बाधित कर रही है जिसके तहत देह से परे भी बहुत कुछ ऐसा घटता है जो हमारे जीवन को अधिक सुन्दर और जीने योग्य बनाता है।

क्या बेवफाई का जेण्डर विमर्श सम्भव है एक पुरुष और एक स्त्री के बेवफा होने में क्या अन्तर है?

-मैंने ऊपर निवेदन किया है कि बेवफाई को समझने के लिए व्यक्तिगत संपत्ति, धर्म या पितृसत्ता जैसी संस्थाओं को ध्यान में रखना होगा। एंगेल्स की पुस्तक परिवार, व्यक्तिगत संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति से बार-बार उद्धृत किया जाने वाला प्रसंग जिसमें एंगेल्स इस दलील को खारिज करते हैं कि लंबे नीरस दाम्पत्य से उत्कट प्रेम पगा एक ही चुंबन बेहतर है और कहते हैं कि यह तर्क पुरुष के पक्ष में जाता है। जब तक संपत्ति और उत्पादन के स्रोतों पर स्त्री-पुरुष का समान अधिकार नहीं होगा पुरुष इस स्थिति का फायदा स्त्री के भावनात्मक शोषण के लिए करेगा। असमानता समाप्त होने तक बेवफाई का जेण्डर विमर्श न सिर्फ सम्भव है बल्कि होना ही चाहिए।

हिन्दी साहित्य में तलाशना हो तो पुरुष के बेवफाई विमर्श का सबसे खराब उदाहरण नमो अंधकारम् नामक कहानी है। लोग जानते हैं कि कहानी इलाहाबाद के एक मार्क्सवादी रचनाकार को केन्द्र में रखकर लिखी गई थी। उसमें बहुत सारे जाने-पहचाने चेहरे हैं। इस कहानी के लेखक के एक सहकर्मी महिला के साथ सालों ऐलानिया रागात्मक सम्बंध् रह हैं। उन्होंने कभी छिपाया नहीं और शील्ड की तरह लेकर उसे घूमते रहे। पर उस कहानी में वह औरत किसी निम्पफोमेनियाक कुतिया की तरह आती है। लेखक ऐसे पुरुष का प्रतिनिधि चरित्र है जिसके लिए स्त्री कमतर और शरीर से अधिक कुछ नहीं है। मैं कई बार सोचता हूं कि अगर उस औरत ने इस पुरुष लेखक की बेवफाई की कहानी लिखी होती तो क्या वह भी इतने ही निर्मम तटस्थता और खिल्ली उड़ाउ ढंग से लिख पाती?

बेवफाई कहीं न कहीं एक ताकत का भी विमर्श है। क्या महिला लेखकों द्वारा बड़ी संख्या में अपनी यौन स्वतंत्रता को स्वीकारना एक किस्म का पावर डिसकोर्स ही है ?

-सही है कि बेवफाई पावर डिसकोर्स है। आप भारतीय समाज को देंखे! अर्ध सामन्ती- अर्धऔपनिवेशिक समाज- काफी हद तक पितृसत्तात्मक है। शहरीकरण, औद्योगीकरण, शिक्षा के बढ़ते अवसर या मूल्यों के स्तर पर हो रही उथल-पुथल ने स्त्री पुरुषों को ज्यादा घुलने-मिलने के अवसर प्रदान किए हैं। पर क्या ज्यादा अवसरों ने ज्यादा लोकतांत्रिक संबंध भी विकसित किए हैं? उत्तर होगा- नहीं। पुरुष के लिए स्त्री आज भी किसी ट्राफी की तरह है। अपने मित्रों के साथ रस ले-लेकर अपनी महिला मित्रों का बखान करते पुरुष आपको अकसर मिल जाएंगे। रोज ही अखबारों में महिला मित्रों की वीडियो क्लिपिंग बना कर बांटते हुए पुरुषों की खबरें पढ़ने को मिलेंगी। अभी हाल में मेरे विश्वविद्यालय की कुछ लड़कियों ने मांग की कि उन्हें लड़कों के छात्रावासों में रुकने की इजाजत दी जाए। मेरी राय स्पष्ट थी कि अभी समाज में लड़कों को ऐसा प्रशिक्षण नहीं मिल रहा है कि वे लड़कियों को बराबरी का साथी समझें। गैरबराबरी पर आधरित कोई भी संबंध अपने साथी की निजता और भावनात्मक संप्रभुता का सम्मान करना नहीं सिखाता। हर असफल सम्बंध एक इमोशनल ट्रॉमा की तरह होता है जिसका दंश लड़की को ही झेलना पड़ता है। पितृसत्तात्मक समाज में स्वाभाविक ही है कि स्त्री पुरुष के लिए एक ट्रॉफी की तरह है…जितनी अधिक स्त्रियां उतनी अधिक ट्रॉफियां।

महिला लेखिकाओं द्वारा बड़े पैमाने पर अपनी यौन स्वतन्त्रता को स्वीकारना इसी डिसकोर्स का भाग बनने की इच्छा है। आप ध्यान से देखें- ये सभी लेखिकाएं उस उच्च मध्यवर्ग या उच्च वर्ग से आती हैं जहां उनकी पुरुषों पर आर्थिक निर्भरता अपेक्षाकृत कम है। इस पूरे प्रयास में दिक्कत सिर्फ इतनी है कि यह देह विमर्श तक सिमट गया है और स्त्री मुक्ति के दूसरे मुद्दे हाशिये पर चले गए हैं।

पूंजी, तकनीक और बाजार ने मानवीय रिश्तों को नये सिरे से परिभाषित किया है। ऐसे में यह धारणा आयी है कि लोग बेवफा रहें लेकिन पता नहीं चले। यह कौन सी स्थिति है

-सही है कि बाजार ने तमाम रिश्तों की तरह आज औरत और मर्द के रिश्तों को भी परिभाषित करना शुरू कर दिया है। यह परिभाषा धर्म द्वारा गढ़ी- परिभाषा से न सिर्फ भिन्न है बल्कि उसके द्वारा स्थापित नैतिकता का अकसर चुनौती देती नज़र आती है। आप पाएंगे कि आज एसएमएस और इंटरनेट उस तरह के सम्बंध विकसित करने में सबसे अधिक मदद करते हैं जिन्हें स्थापित अर्थों में बेवफाई कहते हैं। पर आपके प्रश्न के दूसरे भाग से मैं सहमत नहीं हूं। विवाहेतर रिश्तों को स्वीकार करने का साहस आज बढ़ा है। पहली बार भारत जैसे पारंपरिक समाज में लिव इन रिलेशनशिप का चलन बढ़ा है। लोग ब्वॉय फ्रेंड या गर्ल फ्रेंड जैसे रिश्ते स्वीकारने लगे हैं। हां, यह जरूर है कि यह स्थिति उन वर्गों में ही अधिक है जहां स्त्रियां आर्थिक रूप से निर्भर नहीं हैं।

क्या कलाकार होना बेवफा होने का लाइसेंस है?

-इसका कोई सरलीकृत उत्तर नहीं हो सकता। कलाकार अन्दर से बेचैन आत्मा होता है। धर्म या स्थापित मूल्यों से निर्धारित रिश्ते उसे बेचैन करते हैं। वह बार-बार अपनी ही बनाई दुनिया को तोड़ता-फोड़ता है और उसे नये सिरे से रचता-बसता है। ऐसे में यह स्वाभाविक ही है कि उसकी अतृप्ति उसे नये-नये भावनात्मक सम्बंध् तलाशने के लिए उकसाती है। कलाकार के पास अभिव्यक्ति के औजार भी होते हैं इसलिए वह अपनी बेवफाई, जिसमें कई बार दूसरे को धोखा देकर छलने के तत्व भी होते हैं, को बड़ी चालाकी से जस्टिफाई कर लेता है। साधारण व्यक्ति पकड़े जाने पर जहां हकलाते गले और फक पड़े चेहरे से अपनी कमजोर सफाई पेश करने की कोशिश करता है वहीं कलाकार बड़ी दुष्टता के साथ छल सकने में समर्थ तर्क गढ़ लेता है। अकसर आप पाएंगे कि दूसरों को धोखा देने वाले तर्कों को रखते-रखते वह स्वयं उनमें यकीन करने लगता है। यदि एक बार फिर हिन्दी से ही उदाहरण तलाशने हों तो राजेन्द्र यादव की आत्मकथा इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। राजेन्द्र अपनी मक्कारी को साबित करने के लिए जिस झूठ और फरेब का सहारा लेते हैं, आप पढ़ते हुए पाएंगे कि मन्नू भण्डारी को कनविन्स करते-करते वे खुद विश्वास करने लगते हैं कि अपने साथी से छल-कपट लेखक के रूप में उनका अधिकार है।

यह सही कहा आपने, दरअसल हिन्दी में बेवफाई की सुसंगत और योजनाबद्ध शुरुआत नई कहानी की कहानियों और कहानीकारों से ही दिखती है।

-हां, लेकिन उसके ठोस कारण भी हैं। कहानी, उपन्यास, की जिस वास्तविक जमीन को छोड़कर ये मध्यवर्ग की कुंठाओं, त्रासदियों और अकेलेपन को सैद्दांतिक स्वरूप देने में मसरूफ थे, उसमें तो ऐसी स्थितियां पैदा होनी ही थी। यह अकारण नहीं कि ये विख्यात महारथी अपने जीवन काल में ही अपनी कहानियों से ज्यादा अपने (कु) कृत्यों के लिए मशहूर हो चले थे। राजेन्द्र जी तो अपनी मशहूरी अभी तक ढो रहे हैं।

Monday, August 9, 2010

कहे पर शर्मिंदा : बहस की अपेक्षा

इर्द-गिर्द पर विभूति नारायण राय के विवादास्‍पद साक्षात्‍कार पर प्रतिक्रिया में मेरा आलेख आपने पढ़ा। लेकिन मैं जरूरी समझती हूं कि इस मामले में विभूति नारायण का स्‍पष्‍टीकरण या अभिमत भी सबके सामने आए। इसी नजरिए से ये पोस्‍ट आपके सामने है।

नया ज्ञानोदय के अगस्त 2010 अंक में छपे मेरे इंटरव्यू पर प्रतिक्रियाओं से एक बात स्पष्ट हो गई कि मैंने अपनी लापरवाही से एक गंभीर विमर्श का हेतु बन सकने का मौका गंवा दिया। मैंने कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जिनसे बचा जा सकता था।
मुझे जैसे ही यह अहसास हुआ कि मेरी भाषा से हिंदी की बहुत सी लेखिकाओं को कष्ट हुआ है, मैंने अपनी गलती का अहसास किया और बिना शर्त माफी मांग ली। मैं शर्मिंदा हूं कि मेरी असावधानी से बहुत से ऐसे लोग आहत हुए, जो मेरे वर्षों पुराने मित्र रहे हैं। इनमें बड़ी संख्या में लेखिकाएं भी हैं, पर मेरे मन में उनके लिए सम्मान भी बढ़ा है कि मित्रता की परवाह किये बगैर उन्होने मेरी मरम्मत की। हालांकि कुछ लोग जो इस मामले को अन्य कारणों से जिंदा रखना चाहते हैं, इंटरव्यू में उठाये गए मुद्दों पर बहस न करके अब भी उन शब्दों के वाग्जाल में उलझे हुए हैं, जिन पर मैं खुद खेद प्रकट कर माफी मांग चुका हूं। मैं मानता हूं कि इन लोगों की
उपेक्षा कर अब मैं मुद्दों पर बहस की अपेक्षा कर सकता हूं।इंटरव्यू पर शुरूआती प्रतिक्रिया उन लोगों के तरफ से आई जिन्होंने उसे पढ़ा ही नहीं था। अब, जबकि अधिकतर लोगों ने इंटरव्यू पढ़ लिया है, मुझे लगता है उसमें उठाये गए प्रश्नों पर बातचीत होनी चाहिए। संक्षेप में कहूं तो मेरे मन में मुख्य शंका यह है कि महिला लेखन में देह-केंद्रित लेखन को कितना स्थान मिलना चाहिए। एक मित्र ने आपत्ति की कि यह प्रश्न पुरूषों के लेखन पर भी उठना चाहिए। सही है, पर विमर्श सिर्फ वंचित या हाशिए पर पहुंचे हुए तबकों के लेखन से निर्मित होता है। मसलन, दलित लेखन जैसा विमर्श निर्मित करता है, वैसा विमर्श ब्राह्मण लेखन नही कर सकता। दलित लेखन जहां मानवमुक्ति की कामना करता है या उसका मुख्य संघर्ष दबे-कुचलों को उनका खोया सम्मान वापस लौटाने के लिए होगा, वहीं यदि ब्राह्मण लेखन जैसा कोई लेखन किया जाये तो स्वाभाविक है कि उसकी चिंता का केंद्र मनुष्यविरोधी वरण व्यवस्था को वैध ठहराने के लिए तर्क तलाशना होगा और मुझे नहीं लगता कि ऐसे लेखन से कोई उल्लेखनीय विमर्श निर्मित होगा। इसी प्रकार महिला लेखन के केंद्र में स्त्री-मुक्ति के प्रश्न महत्वपूर्ण होंगे।
स्त्री-मुक्ति में अपनी देह पर स्त्री का अधिकार एक महत्वपूर्ण तर्क है, पर और भी गम है जमाने में मोहब्बत के सिवा। मेरा मानना है कि स्त्री देह पर अंतिम अधिकार उसका है, पर साथ में मैं यह भी मानता हूं कि भारत के संदर्भ में स्त्री-मुक्ति से जुड़े और भी महत्वपूर्ण मुद्दे हैं। आज भी परिवारों में निर्णय लेने का अधिकार सिर्फ पुरूषों को है, स्त्रियां केवल उन्हें लागू करती हैं। तमाम बहस-मुबाहिसों के बावजूद घरेलू श्रम के लिए उसका पारिश्रमिक तय नहीं हो पा रहा है। पंचायती राज की संस्थाओं में आरक्षण के बल पर चुनी गई महिलाओं में से बहुत सी अब भी घरों में कैद हैं और उनके प्रधान पति कागजों पर उनकी मुहरें लगाते हैं। बहुत से ऐसे मुद्दे हैं जिन पर बहस होनी चाहिए।
अंत में, इन सबसे महत्वपूर्ण यह प्रश्न कि क्या स्त्री-मुक्ति आइसोलेशन में हो सकती है? क्या आदिवासियों, अल्पसंख्यकों या दलितों के प्रश्नों से जोड़े बिना इस मुद्दे पर कोई बड़ी बहस खड़ी की जा सकती है? अगर एक बार यह सहमति बन सके, तो गुजरात जैसी स्थिति से बचा जा सकता है, जिसमें महिलाओं ने भी अल्पसंख्यकों के संहार में हिस्सा लिया था। मुझे 1990 का इलाहाबाद याद आ रहा है, जहां मैं नियुक्त था और जो मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने के खिलाफ चल रहे आंदोलन का केंद्र था। मैने आंदोलनकारियों के साथ सख्ती की, तो बहुत सारे दूसरे तबकों के अतिरिक्त विश्वविद्यालय की सवर्ण लड़कियों ने मेरे खिलाफ मोर्चा निकाला और अपनी पूरी कोशिशों के बावजूद मैं उन्हें यह नहीं समझा पाया कि उन्हें पिछड़ों के साथ खड़ा होना चाहिए। एक बार फिर अपने शब्दों के लिए माफी मांगते हुए मैं अनुरोध करूंगा कि इन मुद्दों पर भी बातचीत की जाए।

Friday, August 6, 2010

जिसकी उतर गई लोई, उसका क्‍या करेगा कोई

संदर्भ : विभूति नारायण राय प्रकरण

एक प्रख्‍यात समालोचक ने एक कहानी में कुछ आपत्तिजनक शब्‍दों या यूं कहें कि भद्दी गालियों पर चल रही चर्चा में विराजमान बुद्धिजीवियों के आपत्ति करने पर कहा था कि वर्तमान परिस्थितियों में भाषा के कौमार्य को सुरक्षित नहीं रखा जा सकता। उनका सवाल था कि आखिर भाषा के कौमार्य को कब तक सुरक्षित रखोगे? और सच यही है कि आज प्रकाशित हो रहीं तमाम कहानी और साहित्‍य पत्रिकाओं में शब्‍दों पर कोई सेंसर नहीं रह गया है। शील-अश्‍लील के मायने और उसके बीच का अंतर भाषा में मिट गया है जबकि भाषाई अखबार शब्‍दों की गरिमा को पूरी शिद्दत से बचाए हुए हैं। ऐसे में साहित्यिक हलकों में या साहित्यिक गिरोहबंदी में 'छिनाल' शब्‍द ने हंगामा बरपा रखा है। हांलाकि ऐसे शब्‍दों का इस्‍तेमाल नहीं होना चाहिए लेकिन हंगामा करने वालों को पहले अपने गिरेवां में भी झांक कर देख लेना चाहिए कि उनकी भाषा, विचार और कृतियां भाषा के स्‍तर पर कितनी पाक-साफ हैं। आईए पहले संदर्भ जाने लें और एक बार फिर उस गंदी नाली में उतरें जहां से तब छींटे आए जब उसमें कंकर फेंका गया। जाहिर है कंकर जैसे पानी में फेंका जाएगा, छींटे भी वैसे ही आएंगे।
भारतीय पुलिस सेवा के पूर्व अधिकारी और महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय ने एक साहित्यिक पत्रिका को दिए गए साक्षात्‍कार में अपनी राय देते हुए कहा कि 'हिंदी लेखिकाओं का एक वर्ग अपने को छिनाल साबित करने की होड़ में लगा हुआ है और नारीवाद का विमर्श अब बेबफाई के बड़े महोत्‍सव में बदल गया है।' रवींद्र कालिया द्वारा संपादित 'नया ज्ञानोदय' पत्रिका में प्रकाशित इस साक्षात्‍कार में 'छिनाल' शब्‍द के प्रयोग से चाय की प्‍याली में उबाल आ गया है। स्‍वाभाविक तौर पर महिला जगत में ही नहीं लेखन जगत में भी विभूति के इस बयान की घोर निंदा हुई है। ये महिलाओं का ही नहीं बल्कि हमारे संविधान का भी उल्‍लंघन है जिसके लिए विभूति नारायण राय को स्‍पष्‍ट शब्‍दों में स्‍त्री जाति से माफी मांग लेनी चाहिए। हांलाकि विभूति की छवि एक तेज-तर्रार और स्‍पष्‍टवादी पुलिस अफसर की रही है। पुलिस अफसर के रुप में हजारों पीडि़ताओं से उनका वास्‍ता पड़ा होगा लेकिन उनके श्रीमुख से कभी किसी अभद्र टिप्‍पणी का मामला संज्ञान में नहीं आया।..ऐसे में क्‍या ये माना जाए कि साहित्‍य में बेतुके विवाद पैदा कर चर्चा में बने रहने के लिए उन्‍होंने ये टिप्‍पणी कर डाली? अपने सर्जनात्‍मक अवदान के जरिए सम्‍मान अर्जित करने के बजाय दूसरों को आहत करना क्‍या सा‍हसिक माना जा सकता है?
विभूतिनारायण राय खुद चर्चित कथाकार हैं। किसी स्‍त्री के चरित्र हनन के लिए 'छिनाल' शब्‍द का इस्‍तेमाल किया जाता है, इस बात से वे भली-भांति परिचित होंगे ही। एक पढ़े-लिखे आदमी की क्‍या बात, अनपढ़ या देहाती भी इस शब्‍द की ध्‍वनि को अच्‍छी तरह जानता-समझता है। कोई लाख कहे कि ये ओछा शब्‍द नहीं है या उसे गलत परिपेक्ष्‍य में लिया जा रहा है, हम तो यही कहेंगे कि शब्‍दों के जरिए खिलबाड़ नहीं होना चाहिए। वाणी में मधुरता और सौम्‍यता जरूरी है। 'ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोय, औरन को सीतल लगे आपहु सीतल होय'। लेकिन जरूरी है कि विद्वान विभूति ने ऐसे शब्‍द का प्रयोग क्‍यों और किन संदर्भों में किया। इस साक्षात्‍कार में जब एक चर्चित लेखिका और उसके साहित्‍य को केंद्र में रखकर प्रश्‍नकर्ता ने सवाल किया तो उनके श्रीमुख से औचक जो टिप्‍पणी निकली, जो भाव अंदर से अचानक बाहर आए, उसमें विभूति अपने को तथाकथित तौर पर 'सभ्‍य' रखने में नाकाम रहे। एक लेखिका जिसे कई पुरस्‍कार मिल चुके हैं और साहित्‍य के कई अलंबरदार उसे पलक-पांवड़ों पर बिठाकर सदी की महानतम साहित्‍यकार की स्‍वयंभू घोषणा करते रहते हैं का अपमानजनक संदर्भ देते हुए राय ने कह डाला--मुझे लगता है कि इधर प्रकाशित एक बहु प्रचारित-प्रसारित लेखिका की आत्‍मकथात्‍मक पुस्‍तक का शीर्षक होना चाहिए था-'कितने बिस्‍तरों में कितनी बार'। हांलाकि विभूति ने उस लेखिका का नाम नहीं लिया लेकिन नाम लिए बगैर भी उसे पूरा साहित्‍य जगत जानता-पहचानता है और ये भी जानता है कि साहित्‍य में उसकी कैसी गिरोहबंदी है। लेकिन इससे विभूति का दोष कम नहीं हो जाता क्‍योंकि प्रतिष्‍ठा के पद पर आसीन व्‍यक्ति को अपने आचरण में हर पहलू और मर्यादा का ध्‍यान रखना चाहिए लेकिन क्‍या साहित्‍य जगत में लेखनी की मर्यादाओं को अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता के नाम पर खूली छूट दी जा सकती है? क्‍या साहित्‍य में नैतिक-अनैतिक के कोई मायने नहीं हैं?
अपने को बोल्‍ड साबित करने के लिए लेखक/लेखिकाओं का एक वर्ग विकृत और कुत्सित मानसिकता का इजहार करता आ रहा है। आज के उपभोक्‍तावादी, बाजारवादी दौर में साहित्यिक हलकों में भी सनसनी पैदा करने के लिए नंगई पेश की जा रही है। आईए, आपसे साझा करूं आज के दौर की एक नामी-गिरामी लेखिका की कहानी का एक अंश--लेखिका ने अपनी कहानी छुटकारा में अपने पात्र (दलित स्‍त्री) से कुछ यूं कहलवाया---'ओ पतिव्रता की चो$$ पहले अपने चुटियाधारी खसम से पूछ कि हमने उसे रिझाया या कि हमें वह रिझाए जा रहा था। मैं कहती हूं कि क्‍यों बूढ़े की लंगोटिया खोलूं, जे जौहर उमर के लाल्‍लुक सोते हैं आज...हमारा मुंह देखकर अपनी पत्‍नी को त्‍यागे बैठा है और वहां आकर हमारे चूतर चाटता था...' इस तरह का लेखन कौन से साहस की बात हुई। लेखिका की बोल्‍डनैस स्‍त्री की समस्‍याओं और संघर्षों को लेकर होनी चाहिए।
इसी लेखिका ने अपनी आत्‍मकथा में बताया है कि उनकी मां कस्‍तूरी ग्रामसेविका थी। उनकी पोस्टिंग ग्रामीण क्षेत्र में ही होती थी। पोस्टिंग ऐसी जगह भी हो जाया करती थी जहां स्‍कूल कालेज नहीं होते थे। इसलिए उस जमाने में जब लड़कियों के लिए माध्‍यमिक और उच्‍च शिक्षा ग्रामीण परिवेश में बहुत दुश्‍कर थी। शिक्षा के प्रति जागरूक उनकी मां ने उन्‍हें एक पारिवारिक मित्र के परिवार में छोड़ दिया। विस्‍मय और इससे भी अधिक शर्म की बात है कि इस लेखिका ने बोल्‍ड लेखन के लिए उसमें भी बुराई तलाश ली। अगर मां अपनी बेटी को चिपकाए-चिपकाए घूमती तो शिक्षा में बाधा पंहुचती और वह लेखिका बनने की स्थिति में न होती। पर ये सब सदभावनाएं, दायित्‍व निर्वहन नारी विमर्श की अलंबरदार इस लेखिका के लिए कोई मायने नहीं रखता और वह अपनी आत्‍मथा में अपनी मां पर अनर्गल आरोप गढ़ने से नहीं चूकी कि अपनी निर्विघ्‍न स्‍वतंत्रता के लिए मां ने अपने से अलग कर दिया। ऐसा लेखन पढ़कर कोई यही निष्‍कर्ष निकालेगा कि सचमुच भलाई का जमाना नहीं। चर्चा में बने रहने की आदी ये लेखिका अपने लेखन में स्‍त्री स्‍वातंत्रय की पक्षधर है। स्‍त्री अस्मिता, स्‍त्रीनिजता की दुहाई देती है, पर अपनी मां के संदर्भ में इस जीवन की आलोचना करती है। जैसे मां स्‍त्री है ही नहीं। वह यह भी भूल जाती है कि मां ने पढ़ाई के कारण उन्‍हें अलग रखा था। पढ़ाई 'बहाना' नहीं 'कारण' था।
मृत्‍युशैय्या पर माता-पिता को देखकर क्रूर से क्रूर व्‍यक्ति भी दहल जाता है। शायद ही उन पर झुंझलाता हो लेकिन ये लेखिका शायद उस गुणराशि की है जो अकारण मां-बाप पर गुस्‍सा उतारने, उन्‍हें अपमानित करने, उन पर झुंझलाने को भी जुझारुपन, संघर्षशीलता और क्रांति समझती है। स्‍त्री अस्मिता, स्‍त्री स्‍वाभिमान और स्‍त्री अधिकार का दंभ भरने वाली स्‍त्री, अन्‍य स्‍त्री; वह भी मां के प्रति कितना क्रूर और संवेदनहीन हो सकी है उसके जीवंत दस्‍तावेज हैं ये प्रसंग जो उसकी आत्‍मकथा का हिस्‍सा हैं। स्‍त्री लेखन के व्‍यापक सरोकारों और स्‍त्री मुक्ति की चिंता या स्‍त्री अस्मिता के प्रति चिंतित लेखिका ने अपनी प्रकाशित आत्‍मकथा में संकेत छिपा है कि 'साप्‍ताहिक हिंदुस्‍तान' आदि प‍त्र-पत्रिकाओं में जो लेखिकाएं छपीं; वे सब संपादकों, उपसंपादकों के सामने बिछकर ही छपीं, सही तो है ही नहीं आपत्तिजनक भी है। ऐसा संकेत कर लेखिका ने 'मेरिट' पर प्रत्‍यक्ष द्वार से रचना छपवाने वाली लेखिकाओं--जिनकी बहुत बड़ी संख्‍या है-- का अपमान ही किया है।
दरअसल वर्तमान साहित्‍य विशेषतौर पर कथा लेखन आजकल कबीलाई या सामंती खेमों में बंटा नजर आता है। इन्‍हीं में से एक साहित्‍य की एक यदुवंशी पाठशाला में स्‍त्री विमर्श की एक ऐसी पौध तैयार की है जो स्‍त्री की गरिमा को ही अपने लेखन में तार-तार करने पर जुटी है। ऐसे में विभूति जैसे लोग कभी शब्‍दों की मर्यादा कायम न रख सकें तो उन्‍हें ज्ञानपीठ पुरस्‍कार समिति से हटना पड़ता है। कुलपति पद खतरे में आ जाता है। लेकिन उनका क्‍या कर लेगा कोई जिसकी उतर गई लोई।
विशेष : ये लेख अमर उजाला कांपेक्‍ट में आंशिक रूप से प्रकाशित हुआ है।

Wednesday, February 4, 2009

प्रेम के तमाशे में फंसी औरत

करीब साठ दिन से एक (अ)प्रेम कहानी सुर्खियों में है। मीडिया के लिए मुंबइया फिल्‍मों या एकता कपूर के सीरियलों से भी हिट मसाला। राष्‍ट्र की सबसे गंभीर समस्‍या। जी हां! हरियाणा के दिग्‍गज नेता भजनलाल के साहबजादे और पूर्व उपमुख्‍यमंत्री चंद्रमोहन के चांद मौहम्‍मद और चंडीगढ़ की एडवोकेट अनुराधा वाली के फिजा बनकर निकाह करने और फिर चांद के छिप जाने से आहत फिजा की दास्‍तान कई हफ्तों से सुर्खियां बनी हुई है। भले ही इस कहानी को चटखारे लेकर परोसा जा रहा हो लेकिन इस प्रसंग ने कई गंभीर सवाल खड़े किए हैं। ऐसे सवाल जो मौकापरस्‍ती के लिए धर्म का ही नहीं बल्कि कानून का भी मजाक उड़ाते हैं और हमारा समाज, धर्म और कानून अभिशप्‍त होकर मूकदर्शक बना रहता है। एक मुद्दा महज चटखारेदार खबर बनकर रह जाता है।
ये कहानी एक ऐसे पुरुष और स्‍त्री की है जो सुसंस्‍कृत परिवार और समाज से हैं। पढ़े-लिखे हैं। समझदार हैं। या कहिए कि जरूरत से ज्‍यादा समझदार हैं। इस कहानी का एक पात्र चंद्रमोहन है। हरियाणा के दिग्‍गज राजनेता भजनलाल का पुत्र और सूबे का उपमुख्‍यमंत्री चंद्रमोहन एक दिन अचानक गायब हो गया। कुर्सी छोड़कर। यहां तक कि अपने बीबी-बच्‍चों को बिलखते हुए छोड़ गया। तलाश हुई लेकिन उसका कहीं पता नहीं चला लेकिन एक दिन वह एक युवती के साथ दुनिया के सामने आया। इस युवती का नाम था अनुराधा वाली। पेशे से एडवोकेट अनुराधा भी गायब थी। लेकिन प्रकट हुए चंद्रमोहन अब चांद मौहम्‍मद बन चुके थे और अनुराधा वाली नए अवतार में फिजां बनकर सामने आई थी। दोनों ने ऐलान किया कि उन्‍होंने निकाह कर लिया है। यानी कानून को धोखा देने के लिए चंद्रमोहन ने धर्म का सहारा लिया और अपनी प्रेयसी का भी धर्म परिवर्तन करा शादी कर ली। दोनों ने हीर-रांझा टाइप प्रेम कहानियों पर बनी मुंबइया फिल्‍मों की तरह डायलोग बोले। चांद मौहम्‍मद बन गए चंद्रमोहन ने कहा कि उनकी दोस्‍ती पुरानी थी और जब प्‍यार में बदली तो उन्‍होंने साथ रहने का फैसला किया क्‍योंकि वह दोनों एक दूसरे के बगैर रह नहीं सकते थे। फिजा ने चांद को हीरा कहा और दोनों ने एक-दूसरे को तारीफ के चंदन लगाए और साथ जीने-मरने का ऐलान कर दिया।
अगर ये हरकत हमारे देश के किसी आम चेहरे ने की होती तो उसका उपचार समाज और उसके रखवालों ने कर दिया होता। अगर 'रामू' या 'मुन्‍ना' ऐसा करते तो इलाके के दरोगा जी ही चार लाठियों में मामला सुलटा देते लेकिन मामला अपमार्केट था। एक राजघराने से जुड़ा था। लिहाजा कई हफ्तों तक चांद और फिजा के पीछे-पीछे कैमरे चलते रहे। सुर्खिया बनी रही। हर रोज एकता कपूर के सीरियलों जैसा एक नया घटनाक्रम सामने आ जाता। चटखारेदार खबर थी और खबर बिकने वाली थी तो जाहिर था कि कभी चांद बन चुके चंद्रमोहन के बीबी-बच्‍चों को लेकर एक कड़ी बनती और कभी उनके अन्‍य घरवालों की प्रतिक्रियाएं सामने आतीं और खबरची एक से पूछते और दूसरे को बताकर प्रतिक्रिया ले‍ते। कुल मिलाकर चटखारे लिए जाते रहे लेकिन किसी ने गंभीरता से ये सवाल नहीं उठाया कि चंद्रमोहन की ब्‍याहता स्‍त्री और उन बच्‍चों का क्‍या कुसूर था। क्‍या ये उस स्‍त्री और बच्‍चों के प्रति एक तरह की हिंसा नहीं थी। क्‍या धर्म परिवर्तन कर दूसरा विवाह इतना आसान है। क्‍या सामाजिक सुरक्षा के ताने-बाने को इस तरह तार-तार किया जा सकता है। क्‍या धर्म परिवर्तन कर लेने से एक व्‍यक्ति अपनी पत्‍नी से मुक्‍त हो सकता है। अगर नहीं तो चांद पर कानूनी शिकंजा क्‍यों नहीं कसा गया?
लेकिन ये कहानी यहीं पर खत्‍म नहीं हुई। चांद फिर गायब हो गया। चांद की फितरत है घटना, बढ़ना और छिप जाना। चंद्रमोहन जिस तरह अपनी पहली बीबी और बच्‍चों को छोड़ कर गायब हुआ था; उसी तरह फिजा को छोड़कर गायब हो गया। अपनी पत्‍नी और बच्‍चों को छोड़कर गायब होने के बाद चंद्रमोहन जब सदेह सामने आया तो चांद बना हुआ था। यानी उसने इस्‍लाम ग्रहण कर लिया था। तब वापस आया चांद अपने साथ फिजा को लेकर अवतरित हुआ था। ये ऐलान करता हुआ कि उसे अनुराधा से बेपनाह मुहब्‍बत है। इतनी मुहब्‍बत कि वह एक-दूसरे के बगैर जिंदा नहीं रह सकते। फिजा को अपना चांद हीरा लग रहा था। ऐसा चांद जिसमें उसे कोई धब्‍बा भी नहीं दिखाई दे रहा था। लेकिन कुछ दिनों बाद ही कृष्‍ण पक्ष आया और चांद एक बार फिर छिप गया। इस बार फिजा बन चुकी अनुराधा की जिंदगी में अमावस्‍या आई।
वजह कुछ भी हो। चाहे लोग ये माने कि उन्‍होंने प्‍यार को बदनाम किया है। बदनाम हुई है तो सिर्फ मौहब्‍बत। या ये माने कि चंद्रमोहन और अनुराधा दोनो ही दोषी हैं। लेकिन कड़वा सच यही है कि दोनों ही परिस्थितियों में अगर कोई ठगा गया है तो वह है औरत। हर हाल में अगर किसी का कुछ छिना है तो वह है स्‍त्रीत्‍व। चंद्रमोहन के गायब होने पर उसकी पत्‍नी और बच्‍चे ठगे गए और चांद मौहम्‍मद के गायब होने पर फिजा। यानी लुटी तो सिर्फ और सिर्फ औरत ही। हो सकता है कि आप कहें या तर्क दें कि अनुराधा वाली तो पढ़ी-लिखी कानून की जानकार औरत थी; ये भी मानें कि उसी की वजह से चंद्रमोहन ने अपनी पत्‍नी को छोड़ा लेकिन सच तो यही है कि एक औरत की आबरू लूट कर उसने दूसरी औरत की आबरू को भी तार-तार किया।
अब मजहब की भी सुनिए। हिंदु मैरिज एक्‍ट के मुताबिक चंद्रमोहन एक पत्‍नी के रहते दूसरी शादी नहीं कर सकते थे; इसलिए वह मुसलमान हो गए और अब इस्‍लाम के विद्वान कह रहे हैं कि अगर चांद मौहम्‍मद सार्वजनिक तौर पर यह कह दे कि वह इस्‍लाम धर्म छोड़कर फिर से हिंदु हो गए हैं तो उनका फिजा से निकाह अपने आप टूट जाएगा। और फिजा को इस्‍लाम धर्म में रहते हुए इद्दत करनी पड़ेगी। यानी हर हाल में एक औरत ही ठगी गई और यही सदियों से होता चला आ रहा है लेकिन सवाल उठता है कि आखिर कब तक? कब तक हम कबीलाई समाज की मानसिकता का दामन थामे बैठे रहेंगे? आखिर कब ऐसा होगा जब औरत को इंसाफ के लिए गुहार नहीं लगानी पड़ेगी? क्‍या लगाम सिर्फ औरत के लिए है? आपकी प्रतिक्रियाओं और विचारों का इंतजार रहेगा!

Monday, September 22, 2008

करवट बदलने से टूट जाते हैं सपने



जयंती किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। फिर भी हम बता दें कि जयंती रंगनाथन ने अपने कैरिअर की शुरुआत जानीमानी हिंदी पत्रिका धर्मयुग से की। इसके बाद तीन साल तक सोनी एंटरटैनमेंट चैनल से जुड़ीं। महिला पत्रिका वनिता में बतौर संपादक रहने के बाद दैनिक अमर उजाला में फीचर संपादक का पदभार संभाला। संप्रति साउथ एशिया वॉयस में संपादक है और बच्चों की पत्रिकाएं मिलियन वर्ड्स और लिटिल वर्ड्स का प्रकाशन और संपादन कर रही हैं। उनके दो उपन्यास आसपास से गुजरते हुए (राजकमल), औरतें रोती नहीं(पेंगुइन/यात्रा) से प्रकाशित और खानाबदोश ख्वाहिशें (सामयिक) से प्रकाशन को तैयार हैं। वित्त मंत्री पी. चिदंबरम के निबंध संग्रह का अनुवाद भारतीय अर्थ व्यवस्था पर एक नजर: कुछ हट कर (पेंगुइन), कहानी संग्रह सन्नाटे, देहरी भई विदेश (राजेंद्र यादव द्वारा संपादित) में कहानियां/ लेख प्रकाशित हुए हैं।
देश के अग्रणी पत्र पत्रिकाओं में कहानियां और लेख प्रकाशित होते रहते हैं। हम इर्द-गिर्द पर उनके आगामी उपन्‍यास के अंश तीन किश्‍तों में प्रकाशित कर रहें हैं।


मन्नू की नजर से: १९८९

'मन्नू, मैं बहुत परेशान हूं। मैं शायद अब आ नहीं पाऊंगा...'
मन्नू हाथ में कांच की कटोरी में चना-गुड़ लिए खड़ी थी, धम से गिर गई कटोरी। चेहरा फक। आंख में टपाटप आंसू भर आए। ऐसा क्यों कह रहे हैं श्याम? उसके पास नहीं आएंगे? उसका क्या होगा?
श्याम बैठे थे, आंखें बंद किए। मन्नू उनके पैरों के पास बैठ गई। आंसुओं से तलुआ धुलने लगा, तो श्याम के शरीर में हरकत हुई,'मत रो मन्नू। मैं रोता नहीं देख पाऊंगा तुझे। तू ही बता करूंक्या?'
'दिद्दा ने कुछ कहा क्या?' मन्नू ने सहमती आवाज में पूछा। श्याम की पत्नी रूमा को वह दिद्दा ही कहती थी।
श्याम धीरे से बोले,'तुम्हें कैसे बताऊं मन्नू? जिंदगी इतनी आसान नहीं, जितना हम समझते हैं। मैं तुम्हारे लिए बहुत कुछ करना चाहता हूं... पर देखो ना, कुछ नहीं कर पाता। यहां आता हूं और अपनी परेशानियां तुम पर लाद कर चला जाता हूं। तुम अकेली हो, उधर रूमा के पास सब कुछ है भरापूरा घर, पैसा। एक पति होने की ताकत है रूमा के अंदर।'
'ऐसा नहीं सोचते। अगर दिद्दा नहीं चाहतीं, तो आप कभी मेरे पास ना आते।'
श्याम ने बहुत धीमी और लुप्त आवाज में कहा,'यहां आने की मैं कितनी बड़ी कीमत चुका रहा हूं, तुम्हें नहीं मालूम मन्नू।'
मन्नू को सुनाई दे गई श्याम की आवाज। इस आवाज के सहारे वह बहुत बड़ी लड़ाई लड़ रही थी जिंदगी से। किसी तरह अपने को संभाल कर वह दो रोटी और तुरई की रसेदार सब्जी बना लाई श्याम के लिए। जब उसके पास आते श्याम, तो खाना यहीं खा कर जाते। मन्नू के लिए वह दिन हर तरह से विशिष्ट होता। श्याम की पसंद का खाना बनाना, ठीक से काजल-बिंदी लगा कर तैयार होना, रंगीन साड़ी पहनना और जरा सा इत्र लगाना।
श्याम शाम को ही आते थे, दफ्तर से सीधे। पहले से बता जाते कि अगली बार शुक्र को आऊंगा। मन्नू की तैयारियां शुरू हो जाती। तन-मन से प्रफुल्लित। बेसब्री से इंतजार करती। श्याम चालीस पार कर चुके थे। पर अब भी शरीर बलिष्ठ था। बालों में हलकी सी सफेदी, हलका सा बड़ा हुआ पेट। हाथ और छाती में बाल ही बाल। घने काले बाल। घर पर होते तो कमीज कुरसी पर डाल सीना उघाड़ कर बैठते। मन्नू को उन्हें ऐसे देखना बहुत भला लगता। अपने सीने में उसका नन्हा सा सिर रख कर कहते,'तुम बिलकुल गुडिय़ा सी हो। हाथों में भर लूं, तो चेहरा आ जाए।'
मन्नू कभी गरम पानी से उनके पैर धोती, तो कभी नाखून साफ कर काटने बैठ जाती। मन होता, तो चमेली का तेल हलका गरम कर बालों में लगा सिर का मसाज करती।
श्याम को मन्नू के हाथों तेल लगवाना बेहद पसंद था। उस दिन तो दोनों ही तेल में गुत्थमगुत्था हो जाते। फिर चलता प्रगाढ़ता का लंबा दौर। अधेड़ श्याम के अंदर जैसे ऊर्जा का समंदर ही भर जाता। मन्नू उनकी गोद में बच्ची ही तो लगती थी। युवा मन्नू के चेहरे पर कमनीयता थी, पारदर्शी त्वचा, हलकेभूरे बाल। खूब मुलायम। छोटा कद, नाजुक बदन। श्याम उसे उठाते, तो लगता जैसे रुई का सुगंधित फाहा अपने पूरे अस्तित्व के साथ उड़ रहा हो। मन्नू जो उड़ती, तो साड़ी का पल्लू श्याम के चेहरे पर एक परदा सा बन उन्हें और मोहित कर जाता। हर बार मन्नू का सान्निध्य उन्हें चमत्कृत कर जाता। कितना प्यार है इस औरत के अंदर। प्यार मन्नू को बदल देता है। वह केंचुल उतार हंसिनी बन जाती है। बहुत बेबाक और उनमुक्त हो जाती है मन्नू। श्याम को कई बार डर लगता है। वे अब जवान नहीं रहे। ढल रहे हैं। मन्नू जितना सान्निध्य चाहती है, वे दे नहीं पाते। जब कभी मन्नू को मना कर वे लौट आते हैं रूमा के पास, धधक मची रहती है। मन्नू अभी युवा है, कहीं उसकी जिंदगी में कोई और आ गया तो?


वे खुद संभलना चाहते हैं। उनकी बड़ी बेटी उज्जवला सत्रह की हो जाएगी। छोटी अंतरा तेरह की। एक ही बेटा है अनिरुद्घ। सबसे बड़ा है। रूमा का एक तरह से दाहिना हाथ है। कॉलेज में है। रूमा अपने सभी बच्चों को अस्त्र की तरह इस्तेमाल करती है। श्याम महसूस करने लगे हैं कि घर का माहौल उनके लिए कठोर होता जा रहा है। रूमा ने बेशक उन्हें मन्नू के पास जाने से मना ना किया हो, वह दूसरी तरह से उनसे बदला ले लेती है। वे गांव में अपने माता-पिता के लिए कुछ नहीं कर पाते। एक बहन है सरला, बिन ब्याही, शादी की उम्र बीत ही चुकी, वे कुछ नहीं कर पाए। अम्मा कह कर थक गईं। पिताजी का लीवर जवाब दे गया। रूमा ने मना कर दिया कि वे यहां ला कर इलाज नहीं करवाएंगी।
श्याम की आवाज घुट गई है।

उपन्‍यास अंश
उस शाम श्याम जब मन्नू के घर से लौट रहे थे, बस स्टॉप पर ही चक्कर खा कर गिर पड़े। लगभग दस मिनट की बेहोशी के बाद नींद टूटी, तो अपने आपको सडक़ किनारे लेटा पाया। माथे और घुटने छिल गए थे। खून निकल आया था। सिर चकरा रहा था। कुछ लोग उन्हें घेरे खड़े थे। उन्हीं में से एक ने झटपट उनके लिए पानी का इंतजाम किया।
श्याम की समझ नहीं आया कि उन्हें चक्कर कैसे आ गया। दोपहर को खाना खाया तो था। ठीक है कि चलते समय हमेशा की तरह गुड़-चने नहीं खाए, पर इससे चक्कर? लग रहा है जैसे शक्ति चुक सी गई है।
आधे घंटे तक वे बस स्टॉप पर ही बैठे रहे। शरीर में ताकत आई, तो बस में बैठ गए।
लगा जैसे जिंदगी हाथ से निकलती जा रही है। अब ज्यादा दिन नहीं जी पाएंगे। बच्चों का क्या होगा? मन्नू का क्या होगा? पिताजी का इलाज? बहन? मां? इन सबके बीच रूमा का ख्याल जरा नहीं आया।
अंतरा घर के बाहर ही सहेलियों के साथ लंगड़ी बिल्लस खेल रही थी। पापा को देखते ही दौड़ी आई,'पापू, राजू चाचा आए हैं बुआ के साथ।'
श्याम चौंक गए। जरूर पिताजी ने भेजा होगा। इतने दिनों से बुला रहे हैं। तीन-चार पत्र लिख चुकेे। दसियों ट्रंकाल कर डाले। एकदम से उन्हें डर सा लगने लगा। पता नहीं रूमा ने राजू और सरला के साथ क्या किया होगा?
सरला बरामदे में ही बैठी थी। मेथी के पत्ते अलग कर रही थी। भैया को देखते ही खड़ी हो गई। पहले से ढल गया था सरला का चेहरा। मन्नू से एक ही साल तो छोटी है सरला। घर में सबसे छोटी। श्याम तेरह बरस के थे, तब पैदा हुई। गोद में लिए फिरते थे। बचपन में उसे खाना खिलाना, उसकी चोटी बनाना जैसे सारे काम वे ही करते थे। रूमा से शादी के बाद तो जैसे भूल ही गए अपनी बहन को। सरला को देख बहुत बुरा लगा श्याम को।
घर के अंदर ही राजू बैठा था अनिरुद्ध के साथ। श्याम ने रूमा को खोजने की कोशिश की। वह शायद अंदर कहीं थी। घर में शांति थी, इसका मतलब था कि राजू का मकसद पिताजी का संदेश लाना या पैसे मांगना नहीं था। श्याम राजू के पास बैठे ही थे कि उज्जवला हाथ में पेड़े का डिब्बा उठा लाई,'पापा, बुआ की शादी तय हो गई है। अगले महीने है।'
श्याम ने मिठाई का टुकड़ा उठा लिया। तो आखिरकार बहन का रिश्ता हो ही गया। इस बार पिताजी ने उसे बताया तक नहीं, अभी भी मेहमान की हैसियत से ही न्योता है। उन्हें भी पता है कि जरा सा कुछ मांग करते ही श्याम की बीवी बेटे की जिंदगी तबाह कर देगी।

रातभर इसी उधेड़बुन में रहे श्याम कि बहन को क्या दें? बहुत ज्यादा नहीं तो इतना कम भी नहीं कि पिताजी को धक्का ही लग जाए। पचास हजार तो होने ही चाहिए। उनकी शादी सन १९७० की गरमियों में हुई थी। उसी समय रूमा के घर वालों ने पचास हजार से ज्यादा खरचा था। श्याम के पिता के हाथ में नकद दस हजार रखे थे। पता नहीं पिताजी ने उन रुपयों का किया क्या? श्याम को लगा था कि उसकी शादी के बाद पिताजी उसकी मदद करते रहेंगे। वे गांव के डाकघर में बड़े बाबू थे।
जब अनिरुद्ध हुआ, तो भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध छिड़ चुका था। वे उन दिनों सिविल्स की तैयारी में लगे थे। घर के खर्चे के लिए एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाते थे, दो-चार ट्यूशन भी कर लेते। उस समय तक तो उनके पास साइकिल ही थी। रूमा पीछे पड़ी थी कि स्कूटर खरीदो। इस तरह साइकिल में घूमते हो, मेरे परिवार वालों की इज्जत क्या रहेगी? मेरे घर वाले दिल्ली रहते हैं। तुम्हारा क्या? कोई जानता भी है तुम्हें? बहुत संघर्ष भरे दिन थे। शादी तो कर ली थी, पर लगा कि इस तरह से ना पढ़ाई हो पाएगी ना नौकरी। घर चलाना इतना भारी काम है, इसका अंदेशा था ही नहीं। रूमा अलग परिवेश से आई थी। जिंदगी के मायने अलग थे। बहुत कोंचती--ये नहीं है, वो नहीं है। ऐसा नहीं, वैसा नहीं।
श्याम कुंठित रहने लगे थे। स्साला आइएएस बन कर करना क्या है? जिनकेलिए बनना चाहते हैं, वो तो उनकी औकात दो कौड़ी का भी नहीं आंक रहे। ठीक प्रिलिम परीक्षा से एक दिन पहले उन्होंने ठान लिया कि नहीं बनना कलेक्टर। नौकरी की खोज शुरू हुई। दो महीने बाद हाइ स्कूल में मास्टर बन गए। उसी बरस बैंक में क्लर्क के पद का इम्तहां दिया। छह महीने बाद पक्की नौकरी मिल गई । वहीं रहते-रहते प्रोबेशनरी ऑफिसर बन गए।
शुरू में भतेरे ट्रांसफर हुए। कभी अलीगढ़, तो कभी जौनपुर। एक बार तो झांसी से सौ किलोमीटर दूर एक मुफसिल से कस्बे में दो साल रहना पड़ा। एक रूखी जगह। घर के नाम पर तीन दीवारों वाला सीमेंट का मकान। एक दीवार मिट्टी की, जिससे बारिश के दिनों में रिस-रिस कर पानी अंदर आता था। खाने-पीने का कोई इंतजाम नहीं। एक ढंग का ढाबा नहीं। श्याम बुरी तरह उकता गए। कस्बे के लोग आलसी और दगाबाज किस्म के थे। पास ही वेश्याओं की पुरानी बस्ती थी। बैंक केआधे कर्मचारी सुबह-शाम वहीं पड़े रहते। वहीं रहते-रहते एक घटना हो गई।
श्याम के साथ काम करते थे कमलनयन। क्रांतिकारी किस्म के कम बोलने वाले आदमी। बनारस का पढ़ा लिखा। श्याम के वे एकमात्र हमप्याला-हमनिवाला थे। जब भी मौका मिलता, दोनों मिल बैठ कर बिअर पीते। कमलनयन का लगाव एक वेश्या के साथ हो गया। वह कभी-कभी उसे घर भी ले आते। शोभा नाम था उसका। उम्र बीसेक साल। पतली-दुबली शोभा के चेहरे का पिटा हुआ रंग श्याम को कचोट जाता। भूरे पतले बालों की दो चोटियां बना कर रखती। उसके शरीर के हिसाब से उसके वक्ष भारी लगते। लगता वक्षों के बोझ तले वह दबी हुई है। साड़ी ही पहनती थी शोभा, वो भी खूब चमकीली।
एक दिन कमल नयन शाम ढले लाल साड़ी में लिपटी शोभा को श्याम के तीन दीवारों वाले मकान में ले आए,'ले श्याम, मैं तेरे लिए भाभी ले आया...'
श्याम सकपका गए। शोभा शरमाती हुई पीछे खड़ी थी। अचानक वह तेज कदमों से श्याम के पास आई और उनके पैर छू लिए। कमलनयन हंसने लगे,'ऐसे क्या देख रहा है बे? शादी की है इनसे मंदिर में। इनकी अम्मा तो मान ही ना रही थी, बड़ी मुश्किल से पांच हजार का सौदा करके इन्हें ले आए हैं। क्यों ठीक है ना दोस्त? ज्यादा कीमत तो नहीं चुकी दी हमने?'
श्याम ने देखा, शोभा की आंखें पनीली हो उठी थीं। उसे अच्छा नहीं लगा था, अपने मोलभाव का खुला बखान। कमलनयन और शोभा उस रात श्याम केही पास रहे। कमलनयन के घर में बिस्तरे की व्यवस्था नहीं थी, फिर अपने मकानमालिक से भी उन्होंने शादी की बात नहीं की थी। श्याम बरामदे में सो रहे। अगले दिन सुबह उठ कर चाय शोभा ने ही बनाई। रात भर में उसका चेहरा बदल गया था। चेहरे पर लुनाई, एक सुरक्षा से भरा चेहरा।
वह उसे श्याम जी बुलाती थी। कमलनयन को साहब जी। कमलनयन ने बिना कुछ कहे श्याम के घर डेरा डाल लिया। श्याम डर रहे थे। हर साल गरमी की छुट्टियों में रूमा बच्चों को ले कर उनके पास आती थी। इस बार कह रही थी कि उसकी मां भी आना चाहती है। अगर उसे पता चल गया कि घर में उन्होंने एक वेश्या को पनाह दी है, तो उनकी खैर नहीं। कमल नयन अपने घर नहीं जाना चाहते थे। उस इलाके में हर कोई शोभा से परिचित था, कई तो उसके ग्राहक भी रह चुके थे।
श्याम केघर का इलाका अपेक्षाकृत सुनसान था, सौ मीटर की दूरी पर एक छोटा सा मंदिर था हनुमान का। उसके आगे जंगल।
श्याम के बहुत सहमत ना होने के बावजूद कमलनयन और शोभा वहां टिक गए। पहले दो दिन श्याम बरामदे में सोए, पर फिर कमरे मेें ही आ गए। वापस अपने तख्त पर। नीचे रजाई बिछा कर शोभा और कमल सोते। श्याम को संकोच होता। कई रातें उनके लिए मुश्किल हो जातीं। जमीन पर कमल और शोभा को संभोग करते देखना, सुनना उनके लिए असह्य हो जाता। वे मना कर सकते थे, पर एक किस्म का आनंद आने लगा था श्याम को। कमल नयन अच्छे प्रेमी नहीं थे, लेकिन शोभा पुराना चावल थी। पता नहीं अपने ग्राहकों को कितना संतुष्टि देती थी, अपने पति को तो सहवास का भरपूर सुख दे रही थी, वो भी प्राय: रोज ही। शोभा के सीत्कार श्याम को उत्तेजित कर देते। बिस्तर पर लेटे लेटे उनका हाथ सक्रिय हो जाता। वे आनंद में खो जाते और चरम पर पहुंच जाते। ना जाने कितनी रातें... ना जाने कितनी फंतासियां। पर उन्हें कभी नहीं लगा कि शोभा के साथ वे सेक्स करने को इच्छुक हैं। दिन की शोभा और रात की शोभा वे गजब का परिवर्तन था। वह नहा-धो कर स्टो जलाती। चाय बनाती। कभी पूरी, तो कभी परांठा बना कर दोनों दोस्तों को काम पर भेजती। दोपहर को चावल-दाल। रात को रोटी के साथ तरी वाली सब्जी।
श्याम को खानेपीने की सुविधा हो गई। घर व्यवस्थित हो गया। कमलनयन खर्चे बांट लेते। किराया श्याम देते, राशन-पानी कमल ले आते।
पूरे दो महीने यह व्यवस्था चली। श्याम को यह जान कर राहत मिली कि रूमा नहीं आ पाएगी। मां सीढिय़ों से गिर कर हाथ तुड़वा बैठी थीं। ऐसे में रूमा को वहां रहना जरूरी था।
श्याम को बहुत बड़ी नियामत मिल गई। रूमा के यहां आने के नाम भर से वे घबरा गए थे। पिछली गरमियों के एक महीने बहुत कष्ट में बीते थे। लगातार रूमा की शिकायतें सुनते-सुनते वे चकरा गए थे। इतने कि पंद्रह दिन की छुट्टी डाल वे सबको शिमला ले गए और वापसी में सबको दिल्ली छोड़ कर खुद यहां चले आए।
कमल नयन का परिवार बिहार के चंपारण क्षेत्र से था। वे जोश में बताते थे कि उनके परिवार में के कई लोग आजादी की लड़ाई में शहीद हुए हैं। उनके परिवार में अब तक यह खबर नहीं पहुंची थी कि कमलनयन ने शादी कर ली है। इसी बीच कमलनयन के गांव से कोई परिचित आ पहुंचा। कमलनयन के पुराने घर गया, वहां से सीधे बैंक आ पहुंचा।
रंग उड़ा पाजामा-कुरता, बिखरे बाल और तनी हुई मुद्रा। कमलनयन उसे देख सकते में आ गए।
'ये हरामी का पिल्ला, ससुर कनाती देबुआ यहां कैसे आ पहुंचा?'
देबू एकदम से सामने पड़ गया। कमलनयन किसी तरह घेरघार कर उसे बाहर चाय पिलाने ले गए। उसे एक दिन बाद लौटना था और चाहता था कि रहे कमल बाबू के ही साथ। ऐसा चाट कि श्याम ध्वस्त हो गए। शाम को उन्हीं के साथ चल पड़ा देबू। कमल की बोलती लगभग बंद थी। घर पर कदम रखते ही कमल ने सबसे पहले यही कहा-श्याम, जरा भाभी से कह दो, खाना एक आदमी केलिए ज्यादा बना दे। दाल-भात चलेगा। घर जैसा।
श्याम सकपकाए। क्या कमल देबू का परिचय शोभा से नहीं कराएंगे? दूर की बात, कमल ने शोभा से बात ही नहीं। कुछ कहा भी तो श्याम के
मार्फत। वो भी भाभी कहते हुए। शोभा चुपचाप सिर पर आंचल रखे स्टोव फूंकती रही। खा-पी कर देबू और कमल बरामदे में आ गए। अंदर बिस्तरा लेने गए तो फुसफुसा कर श्याम के कान में कहा,'मैं भी जरा बाहर ही सो लूं। कुछ गांव घर की बात करनी है।'
श्याम अचकचा गए। बीवी अंदर उनके साथ? कमलनयन को किस बात की शरम है?
शोभा ने कुछ कहा नहीं। पर जमीन पर बैठी-बैठी वह रोती रही। श्याम ने उसके अपना तकिया और चादर दे दिया। शोभा का निशब्द रोना उन्हें अंदर तक साल गया। मन हुआ कि इसी वक्त दरवाजा खोल कमल का झोंटा पकड़ उसे अंदर खींच लाए। इस औरत ने गलत किया जो उससे मुंह छिपा रहा है?
लेकिन एक बात तो तय कर ही लिया श्याम ने कि कल कमल के रिश्तेदार के रवाना होते ही वे उससे साफ कह देंगे कि अब वो अपना दूसरा घर कर ले। उन्हें इस तरह किसी दूसरे की बीवी के साथ रहते असुविधा होती है। वैसे भी शोभा उनकी अमानत है, वे ही ख्याल रखें।
सुबह छहेक बजे दरवाजा ठेल कर कमल अंदर आ गए। उस समय भी शोभा जमीन पर ही टेक लगाए ऊंघ रही थी। कमल ने एक तरह से झकझोर कर श्याम को जगाया,'दोस्त, जरा देबू को झांसी तक छोडऩे जा रहा हूं। कुछ रुपए होंगे...?'
श्याम ने अपना पर्स टटोल कर उन्हें दो सौ रुपए दे दिए। महीने के अंत में इतना होना बड़ी बात थी। उस समय जब तनख्वाह साढ़े सात सौ रुपए हों।
श्याम पैसा ले कर बाहर निकले, फिर ना जाने क्या सोच कर अंदर आए। शोभा उसी तरह जमीं पर हक्की-बक्की सी बैठी थी। बस आंखें यह जानने का इंतजार कर रही थी--मेरे वास्ते क्या हुकुम साहिब?
उन दोनों को सुना कर बोले कमल,'कल तक आ जाऊंगा। ख्याल रखना...'
अपने रबर के जूते फरफर करते कमल बाहर निकल गए। श्याम बाहर लपके, यह कहने को कि कल तुम अपना कहीं प्रबंध करके ही आना, पर कमल जा चुके थे।

क्रमशः......................

तकनीकी सहयोग- शैलेश भारतवासी

Back to TOP