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Thursday, October 2, 2008

बटला हाउस के बहाने उठे कुछ सवाल

दिल्‍ली में हुए धमाकों और उसके बाद बटला हाउस में हुई मुठभेड़ के बाद लगातार सवाल उठ रहे हैं। इस तरह के सवाल देश में शायद ही कभी इतने बड़े पैमाने पर उठे हों। आखिर क्‍यों उठ रहें हैं सवाल? क्‍या लोकतंत्र में सवाल उठाना भी गुनाह है? क्‍या कुछ लोग एक अलग तरह का आतंक फैलाकर अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता भी छीन लेना चाहते हैं? अगर सवाल उठ रहें हैं तो हमें जबाव भी खोजने होंगे। अगर बहस हो रहीं हैं तो ये इस बात का सुबूत है कि हम एक आजाद मुल्‍क में सांस ले रहें हैं। लोकतंत्र की जड़ें अभी दीमक से बची हुई हैं। मेरी पिछली पोस्‍ट बटला हाउस के बहाने में मैने अपने विचार रखे थे। कुछ मुद्दे उठाए थे। मुझे खुशी है कि साथियों ने रियेक्‍ट किया। तर्कों के साथ। निहायत ही सौम्‍य तरीके से। लेकिन मैने चिट्ठाजगत में देखा कि शाब्दिक हिंसा की होड़ लगी है। मैं शुक्रगुजार हूं आपका कि आपने न मुझे संघी कहा और न सिमी का एजेंट। लेकिन यदि आप कह भी देते तो क्‍या मुद्दे नेपथ्‍य में चले जाते। सवाल उठना बंद हो जाते। सवालों से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता।

Ratan Singh ने अफसोस जताया कि हमारे यहाँ कुछ ऐसे नेता और लोग है जो ख़बरों में बने रहने के लिए उलजलूल बयानबाजी करते रहतें है। मिहिरभोज का गुस्‍सा कुछ यूं था-‘हर मुसलमान आतंकवादी होता है ,देशद्रोही होता है ये साबित करने मैं लगे है ऐसे लोग....आतंकवादी का कोई धर्म नहीं होता है मित्र ....पर जब जब किसी आतंकवादी का बाल भी बांका होता है तो ये मीडिया वाले ये मानवाधिकार वादी उसे आतंकवादी न कहकर मुसलमान कहने लगते हैं....मुसलमान हो या हिंदू हर देशभक्त नागरिक इस देश मैं बराबर हक और कर्तव्य का निर्वाह कर रहै हैं और करना चाहते हैं। ओमकार चौधरी के विचार थे कि आतंकवाद विश्वव्यापी समस्या बन चुका है लेकिन लगता है कि अभी दुनिया के बहुत से देश इस महादैत्य से निपटने के लिए मानसिक और रननीतिक तौर पर तैयार ही नहीं हुए हैं. भारत भी उनमे से एक है. भारतीय नेताओं, मानवाधिकारवादियों, मीडिया और आम जन को ये सीखना होगा कि इस से कैसे निपटना है. राज भाटिय़ा और सचिन मिश्रा ने अच्‍छा लेख और धन्‍यवाद देकर रस्‍मअदायगी की। लेकिन गुफरान ( gufran) की प्रतिक्रिया जरा गौर से पढिए- जोशी जी आप ने जो लिखा वो हर नज़रिए से तारीफ के काबिल है ! लेकिन क्या ऐसा इससे पहले भी कभी हुवा है इस तरह से क्या कभ और किसी ने ऊँगली उठाई है ! क्या इससे पहले मुडभेड नहीं हुई हो सकता है की उसपर ऊँगली उठी हो पर ऐसा आरोप आज तक नहीं लगा! वैसे क्या मुसलमान को टारगेट करने से पहले मीडिया या नेताओं को ये नहीं सोचना चाहिए की अभी कानपूर में जो हुवा वो क्या था किस संगठन के लोग थे और बम क्यूँ बना रहे थे आखिर इससे फायदा किसको है! मै आपके लेख के लिए आपको धन्यवाद् देता हूँ ! लेकिन मीडिया और आज की राजनीती पर भी कुछ बेबाक राय दीजिये......!आपका हिन्दुस्तानी भाई गुफरान (ghufran.j@gmail.com)मेरा मानना है कि गुफरान की सोच को हवा में नहीं उड़ाया जा सकता। हो सकता है कि कुछ लोग गुफरान को मुसलमान/पाकिस्‍तानपरस्‍त या आतंकी सोच वाला व्‍यक्ति मानकर मुद्दे को भटकाने की कोशिश करें लेकिन गुफरान आज जो पूछ रहा है वह इस देश के कम से कम अठारह करोड़ नागरिकों का सवाल है। गुफरान का सीधा सवाल है कि आखिर इससे फायदा किसको है। गुफरान के मन में मीडिया और वर्तमान दौर की राजनीति को लेकर भी पीड़ा है। मैं गुफरान को नहीं जानता लेकिन गुफरान के मन में जो सोच पल रही है उससे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। दरअसल कुछ ऐसी ताकते हैं जिनकी राजनीतिक रोटियां तभी सिकती हैं जब मुसलमान और हिंदू एक दूसरे को देखते ही अपनी-अपनी आसतीनें चढ़ा लें। यही ताकतें न केवल धर्म और जाति के आधार पर हमें बांट रहीं हैं बल्कि ऐसा बीज बो रहीं हैं जो जिन्‍ना से भी ज्‍यादा खतरनाक है। मैं फिर कहता हूं कि गोली का जबाव फूलों से नहीं दिया जा सकता लेकिन आप उस पुलिस को छुट्टा कैसे छोड़ सकते हैं जिसके आचार-व्‍यवहार से औसत आदमी थाने में शिकायत लेकर जाने से भी डरता है। जो दबंगों की शह पर या रिश्‍वत लेकर किसी को भी अपराधी बना देती दरअसल हमारे दो चेहरे हैं। जब हम परेशानी में होते हैं तो हमारा सोच कुछ और होता है और जब दूसरा परेशानी में होता है तो हम धर्म देखते हैं। जाति देखते हैं। सामने वाले की औकात को देखकर व्‍यवहार करते हैं। बिल्‍कुल उसी तरह जैसे हम अपने घर आने वाले मेहमान की अहमियत देखकर ही आवभगत करते हैं।आज समाज के हर वर्ग में गिरावट है। मीडिया भी उससे अछूता नहीं है लेकिन फिर भी मीडिया के खाते में अच्‍छे कामों की फेहरिस्‍त बहुत लंबी है। लेकिन एक फैशन है कि मीडिया को गाली दो। अगर मीडिया आपका माउथ आर्गन नहीं बनता तो आप उसे कोसने लगते हो। अगर वह बटला हाउस की घटना पर सवाल उठाता है तो आप उसे कोसने लगते हो। डॉ .अनुराग का मैं दिल से मुरीद हूं। बहुत सेंटी ब्‍लागर हैं। बहुत भावुक हैं और बहुत सारे चिंतकों से बेहतर सोच के साथ लिखते हैं। अभी उनकी पोस्‍ट थी एफआईआर। पुलिस थाने और गिरते मूल्‍यों का सटीक चित्रण किया था डाक्‍टर साहब ने। डाक्‍टर साहब ने अपना अमूल्‍य समय निकाल कर मेरा चिट्ठा पढ़ा और तर्कसंगत प्रतिक्रिया दी- ‘एक तरीका तो ये था की मै आपका लेख पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त किए बिना समझदारी भरी चुप्पी ओड लूँ ताकि मुझे कल को किसी विवाद में न पड़ना पड़े ...पर मन खिन्न हो जाता है कई बार .....
शुक्र है आप छदम धर्म-निरपेक्ष का रूप धारण करके कागजो में नही आये ,हमारे देश को एक स्वस्थ बहस ओर आत्म चिंतन की जरुरत है ,बाटला हाउस की मुठभेड़ ओर मुसलमानों को सताया जाना ?इन दोनों का क्या सम्बन्ध है मुझे समझ नही आता है .इस देश में राज ठाकरे अगर कुछ कहते है तो देश की ८० प्रतिशत जनता उनका विरोध करती है ,तोगडिया ओर दूसरे हिंदू कट्टरपंथी के समर्थक गिने चुने लोग है ,उनके विरोध में हजारो लोग खड़े हो उठते है ...ऐसी ही अपेक्षा मुस्लिम बुद्धिजीवियों से होती है पर वे अक्सर चुप्पी ओडे रहते है .क्या किसी घायल इंसपेक्टर को पहले अपने घाव मीडिया को दिखाने होगे इलाज में जाने से पहले ?क्या अब किसी इंसान को पकड़ने से पहले उसके घरवालो ,मोहल्लेवालो ओर पूछना पड़ेगा ?क्या आतंकवाद हमारे देश की समस्या नही है ?पर सच कहूँ मीडिया भी अपनी जिम्मेदारी नही समझ रहा है ?इस सवेदनशील मुद्दे पर जहाँ किसी भी ख़बर को दिखाने से ..उनकी पुष्टि की जरुरत है ?कही न कही उसे भी बाईट का लालच छोड़ना होगा ......कोई भी ख़बर ,कोई भी धर्म इस देश से ऊपर नही है...’डाक्‍टर साहब जहां आप जैसे प्रतिष्ठित व्‍यक्ति को ऍफ़ .आई .आर जैसी पोस्‍ट लिखनी पड़ती हो वहां पुलिस पर सवाल तो उठेंगे ही। मैं फिर कहता हूं कि जब बटला हाउस के अंदर बैठे बदमाश या आतंकी गोलियां चलाएंगे तो उसका जबाव फूलों से नहीं दिया जा सकता। लेकिन अगर मीडिया ये सवाल उठाता है कि तीन दिन से उस फ्लैट पर पुलिस की निगाहें गढ़ी हुईं थीं। उनके मोबाइल सर्विलांस पर थे तब पुलिस ये अंदाजा क्‍यों नहीं लगा पाई कि अंदर बैठे आतंकवादी कितने हथियारों से लैस होंगे। जिन लोगों पर देश के कई हिस्‍सों में ब्‍लास्‍ट करने का आरोप है वह भजन-कीर्तन तो करने से रहे। क्‍यों हमारे बहादुर इंस्पेक्‍टर ने बुलेट प्रूफ जैकेट पहनने में लापरवाही की ? ऐसे सवाल तो उठेंगे ही और इनसे मुंह मोड़ना एक दूसरे खतरे को खड़ा करेगा। डाक्‍टर साहब मेरी आपसे गुजारिश है कि अगर मेरी कोई बात गलत लगे तो कहिएगा जरूर क्‍योंकि तार्किक मंथन से ही अमृत निकलेगा। मैं फिर कहता हूं कि बहुत सारे मामलों में मीडिया की भूमिका अच्‍छी नहीं रही लेकिन बहूतायत में मीडिया ने अपनी जिम्‍मेदारी बखूबी निभाई है। बटला के बहाने रौशन जी ने भी इर्द-गिर्द पर शिरकत की है। वह कहते हैं कि ‘अगर किसी सिलसिले में पुलिस किसी को गिरफ्तार करे तो उसका विरोध करने की जगह सच्चाई खोजने की कोशिश की चाहिए जरूरी नही है की जो पकड़े गए हैं सभी दोषी हों और यह भी जरूरी नही है की सभी निर्दोष ही हों। हम नागरिक समाज के लोगो को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि किसी के साथ अन्याय न हो न्याय सबसे बड़ा मरहम होता है और न्याय ऐसा हो जिसके निष्पक्ष होने में किसी को संदेह न होने पाये।कोई मुठभेड़ होते ही उसे सही या गलत ठहराने कि परम्परा बंद होनी चाहिए और किसी के पकड़े जाने पर उसको दोषी या निर्दोष बनाया जाना बंद किया जाना चाहिए। कानून की प्रक्रियाओं का निष्पक्ष पालन जरुरी है।……॥और अंत में मैं उस अनामी की टिप्‍पढ़ीं को जस का तस प्रस्‍तुत कर रहा हूं। इस आशय के साथ कि आप इसे एक पोस्‍ट समझकर चर्चा को आगे बढ़ाएं। वैसे मैं इन अनामी भाई के बारे में आपको इतना बताना चाहूंगा कि ये मेरे अजीज हैं। देश के सबसे बड़े चैनल में विशेष संवाददाता हैं। इनकी गिनती उन चंद मूल्‍यवान पत्रकारों में हैं जिन्‍होंने न कभी समझौता किया और न किसी दबाव में आए। कई सत्‍ताधारी माफियाओं और दबंगों की असलियत उजागर कर चुके मेरे इस भाई की प्रतिक्रिया पढ़कर आप चर्चा को आगे बढ़ाएं।Anonymous हरि भाई, मैं आपकी बातों से कई बार असहमत होता हूं। लेकिन अपनी बात रखना चाहता हूं। पहली बात कि हमें बहस करने पर कभी शर्म नहीं करनी चाहिये। यदि सवालों की हद तय होने लगेगी और बहस करने में शर्म आने लगेंगी तो हरि भाई जल्द ही आप को खुद का नाम बताने के लिये किसी की मुहर चाहिये होगी। साथ ही हरि भाई क्या आपको लगता है कि पुलिस अधिकारी माला ही पहनने वहां गया था। यदि उनका अधिकारी रेकी कर चुका था और पिछले चार दिनों से वो आतिफ के फोन और मूवमेंट को ट्रेक कर रहे थे तो फिर क्या वो माला ही पहनने उस जीने से से चौथी मंजिल चढ़ रहे थे जिससे एक वक्त में एक ही आदमी बाहर आता है। मैं एक बात से मुतमईन हूं कि आप भी बटला हाऊस के एल 18 में नहीं घुसे होंगे लेकिन आप उन आदमियों की निंदा मुक्त हस्त से कर रहे है जो वहां रिपोर्ट कर आ चुके है। क्या आपकों लगता है कि सवाल खड़े करने वाले पत्रकारों का कोई रिश्ता लश्कर ए तोईबा या फिर इंडियन मुजाहिदीन से है। जिस बहस में जिस बात की आप को सबसे ज्यादा चिंता है उसी के ऐवज में ये सवाल किये जा रहे है। क्या आपने एक भी बाईट किसी पुलिस अधिकारी की ऐसी सुनी है जो ये कह रहा हो कि मोहन चंद शर्मा ने अपनी पहचान छुपाने के लिये ही बुलेटप्रूफ जैकेट नहीं पहनी थी। या फिर पैतींस किलों की जैकेट पहनना मुश्किल था इसीलिये उसने जैकेट नहीं पहनी। जैकेट उनका पीएसओ लिये गाड़ी में था। लेकिन जिस इंसपेक्टर ने पैतीस से ज्यादा एनकाउंटर किये हो उस अधिकारी को चार दिन की सर्विलांस के बाद भी ये अंदाज नहीं हुआ कि वहां आतंकवादी मय हथियार हो सकते है।एक बात और हरि भाई जब आप पर जिम्मेदारी बड़ी होती है तो सवाल भी आप से ही किये जाते है। मैंने आज तक एक भी न्यूज एडीटर ऐसा नहीं देखा जो ब्रेकिंग न्यूज में पिछडने पर चपरासी को गरियाता हो। सवाल तो और भी हरि भाई दुनिया में लापरवाही के लिये जो भी सजा हो हमारे लिये मैडल है। मैं जानता हूं कि मैंने कभी चलती हुयी गोलियों के बीच पीस टू कैमरा नहीं किया है। मैंने कभी किसी फायरिंग के बीच किसी की जान नहीं बचायी है लेकिन मेरे भाई मैंने अपने माईक पर कभी अपने ड्राईवर से लाईव नहीं कराया। देश में इतने गहरे होते जा रहे डिवीजन पर आप के तीखे सवाल ज्यादा उन लोगों को चुभ रहे है जो झूठ के लिये ज्यादा लड़ते है और सच का आवरण खड़ा किये रहते है। मैं एक बात जानता हूं कि इस देश में करप्ट नेता चलेगा करप्ट ब्यूरोक्रेट चलेंगे लेकिन एक बात साफ है कि करप्ट या दिशाहीन पत्रकार देश को डूबो देंगे। आप सवाल खड़े करने में हिचक रहे है लेकिन आप ही लिख रहे है कि देश में नियानवे फीसदी एनकाउंटर फर्जी होते है क्या इस बात का मतलब है मैं नहीं समझा। क्या आप अपने स्टाफ को तो छोडिये उस करीबी दोस्त के सौवें वादे पर आंख मूंद कर ऐतबार करते है जिसने निन्यानवे बार झूठ बोला हो। मैं एक कहावत लिख रहा हूं आपके ही इलाके में बोली जाती है ...मरे हुये बाबा की बड़ी-बड़ी आंख भले ही बाबा अंधा क्यों न हो। एक बात जान लीजिये हरि भाई जमीन गर्म है अगर उसका मिजाज नहीं भांप पाये तो बेटे के सामने पछताना पडेगा। आपका छोटा भाई.......डीपी मैं उन सभी साथियों का आभारी हूं जिन्‍होंने इर्द-गिर्द पर आकर विचारों को पढ़ा। चर्चा की। हमारे विचारों से सहमति या असहमति जताई लेकिन मेरी गुजारिश है कि ये कारवां, ये तार्किक मंथन जारी रहना चाहिए। शायद किसी बिंदु पर जाकर हम सभी की सहमति बने। कोई रास्‍ता निकले। इसलिए अपने दिल की बात को दबाईए नहीं। खुल कर विचार प्रकट कीजिए। एक बार फिर मैं सभी से क्षमायाचना करता हूं। शायद जाने-अनजाने मुझसे कुछ गुस्‍ताखी हो गई हो।

Monday, September 29, 2008

बटला हाउस के बहाने

बटला हाउस कई दिनों से अखबारों और चैनलों की ही नहीं बल्कि ब्‍लाग जगत की भी सुर्खियों में रहा है। दिल्‍ली में हुए सीरियल ब्‍लास्‍ट के बाद पुलिस ने बटला हाउस में एक मुठभेड़ के बाद दो आतंकवादियों को मार गिराया था़ और एक गिरफ्तार किया था। इसी मुठभेड़ में दिल्‍ली पुलिस का एक इंस्‍पेक्‍टर मोहन चंद शर्मा शहीद हो गया था। ये ब्‍यौरा पुलिस के हवाले से है लेकिन कुछ खबरनवीसों और मानवतावादियों ने पुलिस मुठभेड़ पर कुछ सवाल खड़े किए थे। और ठीक वैसा ही हुआ था जैसे किसी मुठभेड़ के बाद होता है। कुछ दल और राजनेता वोटों के गणित का हिसाब-किताब लगाकर बोलते हैं तो कुछ छुटभैय्ये अपना चेहरा चमकाने के लिए ऐसा कुछ बोलते हैं जिससे उन्‍हें कवरेज मिल जाए। हकीकत ये है कि इन लोगों को न मरने वालों से मतलब होता है और न मारने वालों से। किसी को अपनी खबर बनानी होती है तो किसी को खबरों में रहना होता है।

हर बार चंद चेहरे आतंकी वारदात के बाद चमकते हुए दिखाई देते हैं तो कुछ चेहरे किसी मुठभेड़ के बाद मानव अधिकारों का अलाप या रूदन करते दिखाई देते हैं। हकीकत में ये दिल से कुछ नहीं करते बल्कि ये इनका एक तरह का रोजगार है। शगल है। चमकने की आकांक्षा है। ये कोई नहीं सोचता कि हम अपने मुल्‍क के पढ़े-लिखे नौजवानों को भटकने से कैसे रोकें। क्‍यों ये हथियार उठा रहें हैं। कौन लोग मदारी है जिनके हाथों में ये नौजवान कठपुतलियां बने नाच रहे हैं। सृजन के लिए बने हाथ विध्‍वंस की तरफ कैसे मुड़ रहे हैं। ऐसी हमारे सिस्‍टम में क्‍या खामी है जो इन्‍हें पनपने से रोक नहीं पाती।

दरअसल ये सिर्फ हमारे यहां नहीं है बल्कि पूरी दूनिया ही इस वक्‍त आतंकवाद के महादैत्‍य से जूझ रही है। वह मुल्‍क भी अब इसकी तपिश से झुलस रहें हैं जहां आतकंवाद की पौध तैय्यार हूई। उन महाशक्तियों ने भी इस आग में अपने को झुलसाया है जिन्‍होंने आतंकवाद को अपने हितों के लिए पाला-पोसा। कौन नहीं जानता है कि लादेन को जिसने पाला उसी को लादेन ने अपना सबसे बड़ा निशाना बनाया। अपने हितों के लिए जिन मुल्‍कों ने आतंकवाद की नर्सरी खोली उसी को शिकार बनना पड़ा। लिट्टे भी उन्‍हीं में से एक है। आज अगर दिल्‍ली धमाकों से झुलस रही है तो इस्‍लामाबाद भी लपटों के आगोश में आने से नहीं बच पा रहा। लेकिन हमारा दुर्भाग्‍य ये है कि हम छोटे-छोटे स्‍वार्थों से ऊपर उठकर नहीं देख पा रहे हैं।
हमें शर्म आनी चाहिए। हम बहस कर रहें हैं कि बटला हाउस में इंस्‍पेक्‍टर को गोली दिल्‍ली पुलिस के ही किसी कर्मी ने मारी। गोली कमर में लगी। अंदर से गोली नहीं चली। पुलिस ने आतंक बरपा दिया बटला हाउस में। मैं मानता हूं कि पुलिस की निनायनवे प्रतिशत मुठभेड़ की कहानियां फर्जी होती हैं। लेकिन क्‍या ये संभव है कि पुलिस के वहां पंहुचते ही बटला हाउस के उस कमरे से गोलियां नहीं चलीं बल्कि फूल बरसे होंगे। और ऐसे मौके पर गोली का जबाव सिर्फ और सिर्फ गोली ही होता है। ये किस किताब में लिखा है कि कोई छात्र या कोई वकील, डाक्‍टर या इंजीनियर आतंकवादी नहीं हो सकता।

सोचिए। ये सब करके हम क्‍या वही नहीं कर रहे जो अलगाववादी चाहते हैं। आतंकवादियों के मंसूबे यही तो हैं कि हम धर्म के नाम पर बंट जाएं। विखंडित हो जाएं। कबीलाई युग की तरफ मोड़ने का ये मंसूबा क्‍या हम जाने-अनजाने वोटों की राजनीति के लिए परवान नहीं चढ़ा रहे हैं। ये सही है कि अपराधियों को सजा देने का काम कानून का है। अदालतों का है। लेकिन ये भी सही है कि हम आज तक संसद पर हमला करने वालों को भी सजा नहीं दे पाए हैं। चर्चा में मेरे बहुत से मित्र कहते हैं कि पुलिस बदमाशों को निहत्‍था पकड़ने के बाद मारती है और अपनी बहादुरी दिखाने के लिए मुठभेड़ की फर्जी कहानी गढ़ती है। ये सही है कि पुलिस को मुठभेड़ के नाम पर फर्जी एनकाउंटर की छूट नहीं होनी चाहिए लेकिन क्‍या ये छूट होनी चाहिए कि कोई भी हमारे एक शहीद इंस्‍पेक्‍टर के कर्म पर उंगलियां उठाए। ये कहे कि बटला हाउस के उस फ्लेट में भजन-कीर्तन चल रहा था और पुलिस धमाके कर रही थी और अपनी बात जायज करार देने के लिए ही इंस्‍पेक्‍टर को दिल्‍ली पुलिस ने ही गोली मारी। अगर बटला हाउस में पुलिस चैकिंग करे या किसी संदिग्‍ध की तलाशी ले तो इसमें हाय-तौबा क्‍यों हो रही है। ये देश भर में तमाम जगहों पर होता है। आखिर इससे किसको फायदा हो रहा है।

हमें सोचना होगा कि क्‍या वोटों की राजनीति के साथ क्‍या आतंकवाद से लड़ा जा सकता है।

तकनीकी सहयोग- शैलेश भारतवासी

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