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Tuesday, October 21, 2008

लोगों का काम है कहना




शिक्षाविद और साहित्‍यकार राधा दीक्षित ने लोक साहित्‍य पर काफी काम किया है। हिंदी और अवधी के लोकगीतों और लोकमुहावरों पर उनकी शोधपरक पुस्‍तकें काफी चर्चित रहीं हैं। भारी-भरकम शब्‍दों से भरा एक संस्‍मरण उन्‍होंने बड़े स्‍नेह से इर्द-गिर्द के लिए भेजा है। पढिए, संस्‍मरण में छिपी वेदना को समझिए।






ऊंच चबूतरा तुलसी का बिरवा
तुलसी का बिरवा
तुलसा जमीं घनघोरे न.....

भोपाल में अवधी का ये लोकगीत सुनकर पुलकित हुई ही थी कि कानों में सीसा उड़ेलती कर्कश ध्‍वनि टकराई, ' आजकल के फैशन की बलिहारी। सुखी-सुहागिन हैं, पर हाथों में देखो तो क्‍या लटकाएं हैं, कांच की चूडियों से जैसे वैर है वैर।'

फुसफुसाहट से आहट होकर उनकीं निगाहों का अनुगमन करती हुई मेरी दृष्टि बाईं और बैठी, अनुपम सौंदर्य की स्‍वामिनी भद्र महिला पर पड़ी। निगाहें थमीं की थमी रह गईं। बैठने की मुद्रा कितनी प्रभावशाली है। मृदु, मधुर स्‍वर, एक-एक शब्‍द मोती जैसा झरता हुआ! उनके बारे में जानने की इच्‍छा बलवती हो उठी।

हां मैं भोपाल से आई थी अपने एक पारिवारिक मित्र के समारोह में। महिला-संगीत का कार्यक्रम चल रहा था। जलपान के बाद मैनें उनसे मिलने का बहाना ढूंढ ही लिया। उनके हाथों को अपने हाथों में लेते हुए कहा, ‘ कितनी प्‍यारी हैं आप और कितने प्‍यारे हैं कंगन हैं आपके।‘ उन्‍होंने मेरे कंधे थपथपाते हुए कहा, ‘अक्‍सर तो इनके लिए आलोचना ही सुननी पड़ती है। अच्‍छा लगा तुमसे मिलकर।‘ मन में कौंधा, अच्‍छा तो ये अपनी आलोचना से बेखबर नहीं हैं। बातें शुरू हुईं तो रवर की के मानिंद खिंचती चली गईं। उन्‍होंने बताया, मेरे भैय्या की नियक्ति फिरोजाबाद में हुई। मन में सतरंगी सपने जाग उठे। चूडियों का शहर फिरोजाबाद। ढेर सारी चूडियां लाउंगी। रंग-बिरंगी, हर साड़ी, हर सूट से मेल खाती। एक दिन मैं फिरोजाबाद पंहुच गई। भईया उच्‍चाधिकारी हैं। मेरे उगमते उत्‍साह को देखकर उन्‍होंने चूड़ी कारखाने को देखने का भी प्रबंध करवा दिया। मैं उत्‍साह से भरपूर एक-एक चीज को देख रही थी, कैसे वे कांच को पिघलाते हैं, कैसे कांच की लंबी-लंबी लटें बनाते हैं, कैसे उन्‍हें काटकर विभिन्‍न रंग-रूप देते हें। मैं शिशुवत उत्‍साह से सब देखती रही। जब उन्‍होंने मेरी उंगलियों की नाप के कांच के बने छल्‍ले दिए तो उन्‍हें पहनकर कांच की उष्‍मा देर तक महसूस करती रही। साथ के लोग कारखाने के एक-एक विभाग को दिखलाते रहे और धीरे-धीरे मेरे सामने एक नया रहस्‍य खुला। वहां बच्‍चे, बूढ़े, हर आयु वर्ग के लोग काम कर रहे थे। पता चला कि यहां के मजदूर असमय ही बुढ़ा जाते हैं और काल के ग्रास बन जाते हैं। कांच से चूडियां बनाने की प्रक्रिया में उत्‍सर्जित गैसों से उन्‍हें यक्ष्‍मा यानी टीवी जैसे राजरोग हो जाते हैं। यह देख-सुनकर मेरा मन वितृष्‍णा से भर उठा। पहले चूडियों भरे हाथों पर मैं इतराती घूमती थी। अब वही हाथ नौ-नौ मन के भारी लगने लगे थे।

उसी समय निर्णय ले‍ लिया, अब कांच की चूडियां नहीं पहनूंगी। पर निर्णय क्‍या इतना सरल था। सासू-मां चाहती थीं कि उनकी इकलौती बहु भर-भर हाथ चूडियां खनकाती और पायल बजाती घर-आंगन में दौड़ती फिरे। मन कचौट रहा था। हिम्‍मत करके मैने पतिश्री से पूरी बात बताते हुए कहा, ‘तुमहीं बताओ, मैं क्‍या करूं?’ पतिश्री ने मेरा हमेशा मान रखा है, साथ दिया है। बोले, ‘रंजना, तुम्‍हारा जो मन हो करो। अम्‍मा जी को मैं समझा लूंगा।‘ मैं अपनी सासू-मां की आजीवन ऋणी रहूंगी कि उन्‍होंने इस विषय को कभी उठाया नहीं। तब से आज तक मैंने कांच की चूडियां नहीं पहनीं।

बड़ा सा टीका लगाए उस अपूर्व सौंदर्य की स्‍वामिनी को मैं निहारती रहो। कितनी करूणा छिपी है इस छरहरी काया में। लोगों का क्‍या! लोगों का काम है कहना!

तकनीकी सहयोग- शैलेश भारतवासी

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