Showing posts with label Wild Life. Show all posts
Showing posts with label Wild Life. Show all posts

Monday, May 4, 2009

बिन साजन कैसे बने सुहागन

डोली सजी। दुल्‍हनियां उड़ी। ससुराल पंहुची। स्‍वागत हुआ। लेकिन दूल्‍हे राजा गायब मिले। अब ससुरालियों के हाथ-पांव फूले हुए हैं कि दुल्‍हन बिन साजन सुहागिन कैसे रहेगी। पहले तो यही ढिंढोरा पिटता रहा कि दूल्‍हे राजा घर में ही हैं लेकिन शर्मा कर सामने नहीं आ रहे हैं। दुबके-दुबके घूम रहें हैं लेकिन झूठ कितने दिन छिपता। सच सामने आना ही था। अब सच सामने आ ही गया तो कह रहे हैं कि जैसे दुल्‍हन लाए वैसे ही दूल्‍हे का भी आयात कर लेंगे। जी हां! हम किसी साधारण दुल्‍हन की बात नहीं कर रहे बल्कि जिस दुल्‍हन की बात कर रहें हैं उसका नाम रानी है और उसका मायका है बांधवगढ़। बांधवगढ़ बाघ अभयारण की बाघिन को पन्‍ना बाघ अभयारण लाया गया था ताकि वहां बचे बाघ को साथिन मिल जाए और दोनों के समागम से बाघों की संख्‍या में कुछ इजाफा हो जाए। इसी तरह एक बाघिन कान्‍हा नेशनल पार्क से लाई गई थी लेकिन मार्च में लाईं गईं दोनों बाघिन पन्‍ना के जंगलों में तन्‍हा घूम रही हैं।
वैसे तो पन्‍ना टाइगर रिजर्व है लेकिन वहां टाइगर ही नहीं बचा है। ये खुलासा अभी हाल में पन्‍ना में बाघों की संख्‍या की जांच करने केंद्र से गई एक तीन सदस्‍यीय कमेटी ने किया है। राष्‍ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण के एक पूर्व निदेशक की अगुवाई में भेजी गई भारत सरकार की इस कमेटी ने गहन जांच-पड़ताल के बाद पाया कि पन्‍ना टाइगर रिजर्व में एक भी बाघ की मौजूदगी नहीं है ज‍बकि पन्‍ना टाइगर रिजर्व का प्रबंधन यहां बीस बाघों की मौजूदगी बताता रहा है। बाघ संरक्षण प्राधिकरण को टाइगर रिजर्व के बाहर तो एक बाघ होने के प्रमाण मिले हैं लेकिन कई दिन की ट्रैकिंग के बाद कमेटी इस निष्‍कर्ष पर पंहुची कि ये बाघ भी पन्‍ना टाइगर रिजर्व की सरहद में नहीं घुस रहा बल्कि उससे बाहर ही घूमता रहता है। आखिर ऐसा क्‍यों है? वैसे बाघ तो राजा है उसे किसी परिधि में बांधकर रखना तो मुमकिन नहीं लेकिन क्‍या जंगल का राजा भी टाइगर रिजर्व की सरहद में घुसने से डर रहा है। पन्‍ना के जिन जंगलों में कभी इस राष्‍ट्रीय पशु की भरमार हुआ करती थी वहां बचा हुआ इकलौता बाघ भी पन्‍ना टाइगर रिजर्व को कुछ इस अंदाज में अलविदा कह गया- ए मेरे दिल कहीं और चल......
बाघ आदमखोर हो जाए तो उसे मार गिराने के लिए जंगल की पूरी मशीनरी सक्रिय हो जाती है। हल्‍ला मच जाता है। नाटक किया जाता है कि बाघ को जिंदा पकड़ना है। पिंजरे लगाए जाते हैं और फिर नौटंकी का समापन किसी एक बाघ को गोली का निशाना बना कर किया जाता है। शिकारी और वन विभाग के हुक्‍मरान अपना सीना चौड़ा कर बेजान हो चुके जंगल के राजा की लाश के साथ अपने फोटो खिंचवाते हैं। इसके कुछ दिन बाद फिर खबर आती है कि बाघ ने किसी गांव पर हमला बोला और पशुओं को खा गया। ऐसी खबरों के साथ, फिर आवाजे उठती हैं कि मारा गया बाघ तो वह था ही नहीं जिसने आदम पर हमला किया था। लेकिन कभी आपने बाघखोरों के खिलाफ आवाजे सुनी हैं। क्‍या आपने कभी सुना है कि बाघखोरों के खिलाफ कोई कार्रवाई हुई हो। पन्‍ना टाइगर रिजर्व के बाघ खत्‍म हो गए लेकिन इस नेशनल पार्क का प्रबंधन बाघों की झूठी मौजूदगी बताकर करोड़ों रुपये का हेरफेर करता रहा।
पन्‍ना टाइगर रिजर्व का प्रबंधन किस तरह आंखों में धूल झोंकता रहा है उसके लिए 2002 और 2006 में कराए गई बाघ गणना के आंकड़े उसे आईना दिखाते हैं। 2002 में पंजों के निशान के आधार पर हुई गणना में अभयारण्‍य में तैतीस बाघ होने की बात कही गई थी जिसमें प्रति सौ किमी के दायरे में एक बाघ के साथ तीन बाघिन दर्शायी गईं थीं। इसके चार साल बाद यानी 2006 में कैमरा ट्रैप तकनीक से गणना हुई जिसमें आंकड़ा एकदम उलटा था। कैमरा ट्रैप तकनीक से हुई गणना में एक बाघिन पर तीन बाघ थे। लेकिन यदि राष्‍ट्रीय बाघ संरक्षण के पूर्व निदेशक की पड़ताल पर यकीन करें तो 2008 तक पन्‍ना टाइगर रिजर्व से बाघों का नामोनिशान ही मिट चुका था। ऐसे में अब तक बीस बाघों के होने का दावा करने वाला पन्‍ना रिजर्व टाइगर का प्रबंधन आखिर फर्जी आंकड़े क्‍यों दे रहा था और जब बाघ था ही नहीं तो कान्‍हा और बांधवगढ़ से बाघिन लाकर पन्‍ना के टाइगर रिजर्व में क्‍यों छोड़ी गईं। क्‍यों ये कहा गया कि दुल्‍हन बनाकर लाईं गईं बाघिनों की गतिविधियों पर पैनी नजर रखी जा रही है। बाघों की वंशवृद्धि के लिए राष्‍ट्र के साथ इतना भद्दा मजाक क्‍यों किया गया। अब भारत सरकार की ये समिति इस बात की जांच करेगी कि 2002 से अब तक चौंतीस बाघों के रखरखाब, भोजन और संरक्षण के लिए अब तक खर्च हुए करोड़ो रुपये कहां गए। अब समिति ये पड़ताल भी कर रही है कि भारत कि किस अधिकारी के कार्यकाल में कितना खर्च हुआ।
फिलहाल पन्‍ना की दोनों दुल्‍हनें वीरान है। बिन साजन वह कैसे बने सुहागन। लेकिन पन्‍ना का बेशर्म प्रबंधन कह रहा है कि हमने यहां दूसरी जगह से बाघों को लाकर पन्‍ना के टाइगर रिजर्व में बसाने का प्रस्‍ताव भेजा हुआ है। इससे ज्‍यादा शर्म की बात और क्‍या हो सकती है कि अपने बाघ तो बचाए नहीं गए और अब बेशर्मी की हदों को भी पन्‍ना टाइगर रिजर्व प्रबंधन पार कर रहा है। अब आप ही बताइए कि बाघ आदमखोर है या उसके रखवाले ही बाघखोर बन गए हैं।

Sunday, April 5, 2009

घास बची तो मैं बचूंगा, आप बचेंगे और वो भी बचेंगे

इस बार गणेश चतुर्थी पर घर में मूर्ति प्रतिष्ठा के लिये सम्मानीय मित्र डॉक्टर राजेंद्र धोड़पकर (दैनिक हिंदुस्तान में सहायक संपादक और कार्टूनिस्ट हैं) कहीं से गणपति की मूर्ति ले आये। बचपन की यादें ताजा हो गईं। देखा सूंड किस तरफ है दाईं या बाईं, शगुन बढ़िया था। पूजा की थाली सजाई गई। सब कुछ बाज़ार में मिल गया, सिवाय तीन मुंह वाली दूब (घास) के। बाहर लेने निकला तो देखा कहीं घास ही नहीं है। जहां घास होनी चाहिये थी, वहां कचरा पड़ा है या ईंटे लगी हैं या पोलिथीन की चादर बिछी हुई है।
डॉक्टर की सलाह पर दो किलोमीटर भी कभी नहीं घूमा, दूब के लिये 5-6 किलोमीटर घूम आया। कहीं नहीं मिली घास, मिट्टी वाली ज़मीन ही कहां बची है जो घास मिले। ज़मीन की मिट्टी से काट दिये गये हैं हम लोग। जहां ज़रा सी नंगी ज़मीन दिखती है नगर निगम का ठेकेदार जाकर इंजीनियर को बता देता है। इंजीनियर प्रस्ताव बनाता है, आगे बढ़ता है, कमीशन का हिसाब-किताब बनता है। टेंडर तय हो जाता है उस ज़मीन को ढकने का जो नंगी दिख रही है, जहां घास उगती है और जो शहर की खूबसूरती को नष्ट करती है। फिर मलबा भरा जाता है, ईंटे लगती है, सीमेंट लगता है और घास उगने या ज़मीन में पानी जाने के सारे रास्ते बंद। अगर यहां से पानी गया तो फिर वाटर हार्वेस्टिंग या पानी रीचार्ज करने की परियोजनायें कैसे मंज़ूर होंगी।
यही हाल गांव का है और यही जंगल का। जंगल के पेड़ चोरी-छिपे काटने के बाद जब जंगलात के अफसर और ठेकेदार सबूत मिठाने के पेड़ के ठूंठों में आग लगवाते हैं तो जलती घास ही है। छोटे जानवर घास के साथ भुन जाते हैं और जो बच जाते हैं वो घास ना मिलने से भूखे मर जाते हैं। जंगली भैंसा क्या खाये, हिरणों की बिरादरी क्या खाये, हिरण मरेगा तो बाघ कैसे बचेगा। दिल्ली से आया पैसा और विदेशी डॉलर बाघ का पेट नहीं भर पायेंगे, उसका पेट भरेगा हिरण। लेकिन हिरण का पेट तो भरे पहले। घास भूख से भी बचाती है कई बार बाघ से भी।
घास जानवरों को ही नहीं बचाती राज्य भी बचाती है, ताज भी बचाती है और राजाओं को भी बचाती है। राजस्थान का एक वीर राजा घास की रोटी खाकर अकबर से लोहा लेता रहा। ये घास का दम है, खत्म होती घास का। वैसे भई, घास का गणित बड़ा सीधा है। वो बची तो सबको बचायेगी, इस कुदरत को भी। वैसे सरकार को भी घास की चिंता है। इंस्टीट्यूट खोल रखे हैं (एक झांसी वाला तो मुझे पता है), कोर्स चला रखे हैं, लोग पीएचडी कर रहे हैं, चारे के बारे में घास के बारे में। लेकिन उनको रिसर्च के लिये कब तक मिलेगी घास?


(इस लेख की प्रेरणा आदरणीय उदय प्रकाश जी से मिली जिन्होने अपनी पिछली टिप्पणी में घास की इतनी चिंता की।)

Thursday, February 26, 2009

आदमखोर बाघ : धिक्‍कार है इस फतह पर!

आज सुबह उठते ही मेरे सिरहाने रखे अखबार में छपी एक खबर पर नजर गई। हिंदुस्‍तान में दो टूक शीर्षक से एक समाचार टिप्‍पणी पहले ही पन्‍ने पर शीर्ष खबर के बाएं छपी हुई थी। आपके सामने पहले वही प्रस्‍तुत करता हूं-- अंतत: बाघ मारा गया। मारने वाले इसे बड़ी उपलब्धि बता रहे हैं। आल्‍हादित शिकारी बड़े शान से फोटो खिंचवा रहे हैं। वन विभाग और उसके मुलाजिमों की भाषा और देहभाषा जरा गौर से देखिए। कुछ ऐसे बिहेव कर रहें हैं मानो उन्‍होंने कोई खूंखार आतंकवादी मार गिराया हो। क्‍या विडम्‍बना है! दरअसल हमने एक निरीह बेजुवान की हत्‍या की है। कानूनी मंत्रोच्‍चार के साथ कानून को ही ढाल बना कर उसे घेर कर मारा है। पहले हमने उस बेजुवान को बेघर किया। फिर भूखे बाघ को नरभक्षी बनने दिया। कायदे से तो हमें भटके बाघ को पकड़कर सही-सलामत उसके घर पंहुचाना चाहिए था। तकनीक और तरकीब के तमाम तामझाम वाले 2009 में भी हम इतना नहीं कर सके। फिर इस बेजुवान पर वाहवाही कैसी! धिक्‍कार है इस फतह पर!
खबर सचमुच हिला कर रख देने वाली थी। दो दिन पहले ही मैने इर्द-गिर्द पर एक पोस्‍ट आदमखोर होते बाघ : घर उजड़ेगा तो क्‍या होगा? लिखी थी। इस पोस्‍ट पर पहली ही प्रतिक्रिया थी कि बाघ को क्‍या आदमी की कीमत पर संरक्षण दिया जाना चाहिए। ये सवाल लंबे समय से उठता रहा है। इसी कड़ी में कुछ और प्रतिक्रियाएं थीं जिसमें से निर्मल गुप्‍त जी की प्रतिक्रिया भी कुछ इस तरह थी कि क्‍या आदमी को उदरस्‍थ करने के लिए बाघों को यूं ही खुला छोड़ देना चाहिए। सवाल गंभीर है लेकिन निर्मल जी उसका घर भी तो हमने ही उजाड़ा है। जंगलों का दोहन भी तो आदमी ने किया है अपने स्‍वार्थ के लिए और जब किसी का घर उजड़ता है, उसका भोजन छिनता है तो वह क्‍या करेगा। आबादी की तरफ भागेगा और वहां खेतों में झुक कर नियार खाती महिला को चौपाया समझकर हमला करेगा। या भूख से व्‍याकुल अपने भोजन के लिए कुछ भी करेगा। लेकिन आदमी और जानवर में फर्क होता है। क्‍या आदमी को भी जानवर हो जाना चाहिए। क्‍या हम इतने आधुनिक और तकनीकी तौर पर उन्‍नतशील हो जाने के बाद भी एक बाघ को (चाहें वह आदमखोर घोषित हो गया हो) जिंदा नहीं पकड़ सकते। बाघ को ट्रेंकुलाइजर गन से बेहोश कर घने जंगल में किसी दूसरी जगह भी शिफ्ट किया जा सकता था। लेकिन नहीं! बाघ को मारकर अपना शौर्य प्रदर्शित करने वाली टीम के साथ वन विभाग ने फोटो खिंचवाए। जश्‍न मनाया। क्‍या ये सचमुच वीरता या शौर्य का कार्य है।
सवाल उठता है कि बाघ जंगलों से निकलकर आबादी से आबादी में भागते रहे क्‍योंकि बाघ को भी अपनी जान का खतरा था। बाघ को बचाने की जिम्‍मेदारी अपने कंधों पर संजोने वाले वन विभाग के 'काबिल' अधिकारी और कर्मचारी बाघ की इस तरह से घेराबंदी करते रहे कि वह जंगल की तरफ न जाकर आबादी की तरफ ही भागता रहा। इस बात से हर कोई इत्‍तफाक रखेगा कि बाघ चाहें कितना भी क्रूर और हिंसक क्‍यों न हो लेकिन पैंतरेबाजी में वह आदमी का मुकाबला कभी नहीं कर सकता।..और जब आदमी यह ठान ले कि उसे मारना है तो बाघ का जीवित रहना नामुमकिन है। वन विभाग भी कानून की ढाल बनाकर बाघ को आदमखोर घोषित कर पकड़ने या मारने का आदेश दे चुका था और जाहिर है कि उनकी नीयत बाघ को जीवित पकड़ने की होती तो उन्‍होंने उस तरह के इंतजाम किए होते। बंदूक हाथ में लेकर बाघ को पकड़ा तो नहीं जा सकता। बाघ भी कोई खरगोश का बच्‍चा तो है नहीं कि दौड़े और पकड़ लिया।
हमने ज्‍यों-ज्‍यों तरक्‍की की राह पकड़ी, सभ्‍य हुए, आधुनिकता का रंग चढ़ा; त्‍यों-त्‍यों साल-दर-साल बाघ गायब होते गए। कानून सख्‍त हुए, रखवाले बढ़ाए गए, अरबों रुपया प्रोजेक्‍ट टाइगर के नाम पर बहाया गया लेकिन जनता का वह पैसा भी पानी बन गया। कई जगह बाघ का नामोनिशान नहीं बचा। बाघ की झूठी गणनाएं रखकर सफलता की मुनादी होती रही लेकिन एक दिन पता चला कि सारिस्‍का में तो बाघ बचे ही नहीं। कारण साफ है कि बाघ को बचाने के लिए धन बहाया जाता रहा लेकिन उसके प्राकृतिक आवास सिकुड़ते रहे। वन माफियाओं ने जंगल का दोहन किया। क्‍या रखवालों की आंखे खुली रहने पर क्‍या ये संभव था। लेकिन दो ही काम संभव थे- या तो जेब गर्म रहें या जंगल बचें। हर साल शिकारी पकड़े जाते हैं और उनकी खालें और दूसरे अंग बरामद होते हैं लेकिन फिर भी संसार सिंह जैसे वन्‍य जीव के तस्‍करों का कुछ नहीं होता। वह जेल भी जाते हैं तो अंदर रहकर भी अपना नेटवर्क चलाते रहते हैं। कुछ दिन बाद वह कानूनी दावपेंच के सहारे बाहर भी आ जाते हैं। क्‍यों होता है ऐसा? साफ है कि हमारा सिस्‍टम और सिस्‍टम को दुरुस्‍त रखने वाले ही उनके मददगार हैं। क्‍या ये लोग भी स्‍वात घाटी से आते हैं? क्‍या इन्‍हें भी आईएसआई और पाकिस्‍तानी हुकुमत मदद करती है? ट्रेनिंग देती है? वन माफिया हों या वन्‍य जीवों के तस्‍कर; इनके मददगार हमारे और आपके बीच के लोग हैं। वही इन भक्षकों के मददगार हैं जिन्‍हें हमने रक्षक बनाया है।
अगर हम एक आदमखोर बाघ को इस युग में भी कैद नहीं कर सकते तो इस विवशता पर भी विचार करना चाहिए। अब समय आ गया है जब हम प्रोजेक्‍ट टाइगर की दशा और दिशा की चहुंमुखी समीक्षा करें। आज मैं इतना ही सोच पा रहा हूं; बाकी आप बताइए कि मेरी सोच गलत है या सही।

Monday, February 23, 2009

आदमखोर होते बाघ : घर उजड़ेगा तो क्‍या होगा?

'जय हो' के अलावा आज देश को कुछ नहीं सूझ रहा। ये गलत भी हो सकता है लेकिन मुझे अखबार और खबरिया चैनल देखकर यही लग रहा है। इन्‍हीं खबरों के बीच में एक अखबार के एक कोने में छपी खबर पढ़कर मैं सोचने लगता हूं। खबर है-- उत्‍तर प्रदेश और उत्‍तरांचल में बाघ तीन महीने के भीतर बीस बाघों को अपना निवाला बना चुके हैं। अगर संख्‍या पर जाएं तो उत्‍तर प्रदेश में बारह और उत्‍तरांचल में आठ लोग बाघ का शिकार हुए हैं। दोनों राज्‍यों के बारह से ज्‍यादा जिले आदमखोर बाघों के खौफ से रात को आबादी वाले इलाकों में पहरा दे रहे हैं। वन विभागों का अमला बाघों को पकड़ने या मारने के लिए कोशिशें कर रहा है। खबर ये भी है कि वन विभाग के शिकारियों ने एक बाघ को मारकर अपनी वीरता का परिचय भी दे दिया है। वैसे आप चाहें तो इसे पूरी आदम जाति की वीरता भी मान सकते हैं।
आपको मैं सच-सच बता दूं कि मैं बाघ से बहुत प्रेम करता हूं। जंगल में घूमते हुए बाघ और उसकी शान-शौकत मुझे बहुत भाती है। मैं अपने को उन सौभाग्‍यशाली लोगों में से एक मानता हूं जिन्‍होंने जंगल में बाघ को अपने इर्द-गिर्द घूमते देखा है। ये मेरा सौभाग्‍य है कि मैं जब भी जंगल/अभ्‍यारण्‍य में गया; मुझे बिल्‍ली परिवार के दर्शन जरूर हुए। स्‍वर्गीय राजीव गांधी एक बार कॉरवेट नेशनल पार्क अपनी छ़ट्टियां बिताने गए तो मुझे कवरेज पर भेजा गया। आखिर प्रधानमंत्री अपनी घोषित छुट्टियां बिताने जा रहे थे। तीन दिन राजीव गांधी कॉरवेट रहे, जंगल घूमें, उन्‍हें बाघ दिखाने के लिए स्‍थानीय प्रशासन ने काफी कोशिशें की; जंगल में एक जगह पाड़ा बांधा गया ताकि बाघ उसे खाने आए और स्‍वर्गीय राजीव गांधी को बाघ के दर्शन हो जाएं लेकिन बाघ नहीं आया बल्कि दहशत से पाड़ा जरूर परलोक सिधार गया। स्‍वर्गीय राजीव गांधी का परिवार भले ही बाघ न देख पाया हो लेकिन जंगल का राजा मुझसे हैलो कहने जरूर आया। बाघ जब मुझे मिला तो वह मेरे वाहन के आगे करीब आधा किमी दौड़ता रहा और फिर नीचे खाई में उतरकर ओझल हो गया। मैं कभी भी जंगल से खाली नहीं लौटा। बाघ और तेंदुए मेरे सामने कई बार आए और मेरी घिग्‍गी बंध गई। कई बार तो ऐसा हुआ कि जब बाघ मेरे सामने से ओझल हुआ तब मुझे ख्‍याल आया कि मैं अपने गले में लटके कैमरे का उपयोग तो कर ही नहीं सका।
जंगल में रहने वाले या जंगल से प्रेम करने वाले लोग जानते हैं कि जितना आदमी बाघ से डरता है उतना ही बाघ भी। आदमी की मौजूदगी का आभास होते ही जंगल का राजा रास्‍ता बदल देता है। बाघ तब तक आदमी पर हमला नहीं करता जब तक उसे अपने अस्तित्‍व को खतरा न लगे। चालाक जीव है; इसलिए आदमी के सामने आने पर पीछे या दाएं-बांए हो जाता है। बाघ अपने शिकार को भी आमतौर पर सामने से आकर नहीं दबोचता। पहले शक्‍ल दिखाकर डराता है और फिर पीछे से घूम कर आता है और दबोच लेता है क्‍योंकि हिरन प्रजाति के तेज धावकों को अपने शिकंजे में लेना आसान नहीं होता। ऐसे में सवाल उठता है कि बाघ आदमी पर हमला क्‍यों करता रहा है। या क्‍यों उसे अपना शिकार बना रहा है? बाघ तभी आदमखोर होता है जब उसकी क्षमताएं खत्‍म हो जाएं। चोटिल हो। दौड़ कर अपना शिकार न दबोच पाए। अक्षम हो जाए। ऐसी स्थितियां बहुत कम पैदा होती हैं। इसके अलावा ऐसी स्थितियां तब पैदा होती हैं जब आदमी उस पर हमला कर दे। या उसके आवासीय परिक्षेत्र में अतिक्रमण करे। जंगल का अंधाधुंध दोहन हो। जंगल सिमटेगें तो वहां रहने वाले जीव क्‍या करेंगे। सच तो ये है कि आबादी बाघों के पास जा रही है न कि वन्‍य जीव आबादी की तरफ रुख कर रहे हैं।
नरभक्षी बाघों के आदमखोर हो जाने की इक्‍का-दुक्‍का घटनाएं तो सामने आती रहीं हैं लेकिन अब तक सबसे बड़े पैमाने पर बाघ के आदमखोर होने की घटनाएं हमारे देश में करीब ढाई दशक पहले हुईं थीं। उननीस सौ अस्‍सी से पिचयासी के बीच में आदमखोर बाघों ने बयालीस लोगों की जान ली थी और करीब सात आदमखोर बाघ मार गिराए गए थे। इतने बड़ी संख्‍या में बाघ के आदमखोर हो जाने पर नेशनल बोर्ड फार वाइल्‍ड लाइफ ने अपने अध्‍ययन में पाया था कि नेपाल में बड़ी संख्‍या में वनों की कटाई से तराई क्षेत्र में नेपाल से बेदखल बाघ आ गए थे और इन्‍हीं अपने घर से उजड़े बाघों में से कुछ ने कहर बरपाया था।
क्‍या आज भी वैसी ही परिस्थितियां तो नहीं बन रहीं। आज आबादी बढ़ रही है। वनों का दोहन तेज है। वन्‍य जीवों के तस्‍कर बेखौफ हैं। ऐसे में सोचिए कि बाघ क्‍या करे? एक बात तय है कि अगर इंसान और बाघ की दुश्‍मनी होगी तो नुकसान अंतत: बाघ का ही होगा। आज दुनिया भर में करीब तीन हजार से पैंतीस सौ बाघ बचे हैं जबकि अस्‍सी के दशक में करीब आठ हजार बाघ थे। दुनियां के कई हिस्‍सों से बाघ गायब हो चुके हैं या लुप्‍त होने के कगार पर हैं। हमारे देश में ही एक शताब्‍दी पहले चालीस हजार से अधिक बाघ थे लेकिन अब इनकी संख्‍या डेढ़ हजार से भी कम आंकी गई है। आंकड़े बताते हैं कि पिछले पांच सालों में ही चार सौ से अधिक बाघ लापता हो चुके हैं। इसके बाबजूद दुनिया में बाघों की आबादी के चालीस प्रतिशत अभी भी हमारे देश में हैं। ऐसा न हो कि हमारी आने वाली पीढ़ी बाघ को सिर्फ तस्‍वीरों में ही देख सके।

तकनीकी सहयोग- शैलेश भारतवासी

Back to TOP