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Tuesday, December 2, 2008

पुरबिया मज़दूर


रामेश्‍वर काम्बोज ‘हिमांशु’ अंतर्जाल पर लघुकथा डॉट कॉम नाम से एक आंदोलन चला रहे हैं। कथा के अतिरिक्त इनका हस्तक्षेप कविता में भी है। इर्द-गिर्द के पाठक इनकी कविताएँ पढ़ते भी रहे हैं। आज हम पाठकों के लिए इनकी एक कविता 'पुरबिया मजदूर' लेकर आये हैं-


घर से बाँधकर पोटली में भूजा
परदेस के लिए निकलता है
पुरबिया मज़दूर ।
रेलगाड़ी की जनरल बोगी में
भीतर ठुँसकर
कभी छत पर बैठकर (टिकट होने पर भी )
सफ़र करता है पुरबिया मज़दूर।
सुनहले सपने पेट भरने के
आँखों में तैरते हैं।
कभी चलती गाड़ी की छत से
किसी नीचे पुल से टकराकर
बैमौत मरता है पुरबिया मज़दूर।
सफ़र में जो भी टकराता है
जी भरकर गरियाता है
कुहुनी से इसको ठेलकर
खुद पसर जाता है
गठरी-सा सिकुड़ा भूजा खाता है
पुरबिया मज़दूर ।
एल्यूमिनियम के पिचके लोटे से
पानी पीता है
इस तरह पूरे सफ़र को
अपने ढंग से जीता है ।
भीड़ बढ़ने पर
डिब्बे से बार-बार भगाया जाता है
पुरबिया मज़दूर।

टिकट होने पर भी
प्लेटफ़ार्म पर छूट जाता है
भगदड़ होने पर
पुलिस के डण्डे खाता है
सिर और पीठ सहलाता है
पुरबिया मज़दूर।
पॉकेटमार किसी का बटुआ मार
चुपके से उतर जाता है
उसके बदले में भी धरा जाता है
पुरबिया मज़दूर।
सीट पर उकड़ू बैठकर बीड़ी पीता है
एक –एक कश के साथ
एक-एक युग जीता है
पुरबिया मज़दूर।
पंजाब जाएगा बासमती धान काटेगा
मोटे चावल का भात
और आलू का चोखा खाकर
पेट के गड्ढे को पाटेगा
अपनी किस्मत को सराहेगा
फिर भी पता नहीं घर आएगा
या किसी की गोली से ढेर हो जाएगा ।
लाश की शिनाख़्त नहीं होगी
लावारिस समझकर जला दिया जाएगा
घरनी सुबक-सुबककर गाती रहेगी-
“गवना कराई पिया घर बैइठवले
अपने गइले परदेस रे बिदेसिया।”
कलकता जाएगा
हाथ –रिक्शा खींचेगा;
तपती सड़क पर घोड़े-सा दौड़ेगा
बहुतों को पीछे छोड़ेगा
और अपने तन से
लहू की एक-एक बूँद फींचेगा ।
पथराए पैरों को ढोकर
सँभालकर दमे से उखड़ती साँसे
मिर्च -नमक के साथ सत्तू फाँकेगा
अपनी सारी उम्र को
हरहे जानवर की तरह हाँकेगा
मुल्क़ भर की पीड़ा
अपने ही भाग्य में टाँकेगा
पुरबिया मज़दूर।
गुवाहाटी हो या दिल्ली
तिनसुकिया हो या बम्बई
हर जगह मिल जाएगा
पुरबिया मज़दूर।
सभी शहरों ने इसको
बेदर्दी से चूसा है
फिर भी यह पराया रहा हर शहर में
किसी ने इसको अपना नहीं कहा
अपना खून पिलाकर भी
यह न तो उन शहरों का रहा
न अपने देस का ,
न पत्नी का न बच्चों का ।
ये पचास –साठ भी मर जाएँ
तो ख़बर नहीं बनते
किसी का दिल नहीं दहलता इनके मरने पर
कोई जाँच नहीं होती
किसी को आँच नहीं आती
कोई शोक सभा नहीं होती
कोई भाषण नहीं देता ।
इसके लहू में जो लाली हुआ करती थी
वह अब
ठेकेदार के गालों पर नज़र आती है
अस्थि पंजर ढोकर
जब यह अपने देस लौटता है
सबको अपने आराम के किस्से सुनाता है
बात –बात में सहम जाता है
जैसे कोई बुरा सपना याद आ गया हो
सारी उम्र
मीठे दम तोड़ते सपनों को चढ़ाता है
यह आदमी है ठीकरा नहीं
फिर भी बहुत कुछ सह जाता है
पुरबिया मज़दूर।
उम्र भर बिचौलियों का शिकार होता है
बार-बार धोखा खाता है
मरने तक सिर्फ़ तकलीफ़ उठाता है
एक दिन फिर गहरी नींद में सो जाता है
पुरबिया मज़दूर।
इस तरह भव-बन्धन से
मुक्त हो जाता है
पुरबिया मज़दूर।

Friday, September 19, 2008

इश्‍क-ए-बुतां!

हमारे एक मित्र हैं। आला अफसर। उल्‍टा पुल्‍टा......न न बाबा, ऐसा नहीं कहते। इसलिए आप चाहें तो उत्‍तम प्रदेश कह सकते हैं।....मैं तो फिलहाल यूपी कहकर ही काम चला लेता हूं। आप कुछ भी ! ...क्षमा कीजिएगा, मैं अपने मित्र की चर्चा करते हुए भटक गया था। मेरे मित्र यूपी से ही हैं। कथाकार-व्‍यंग्‍यकार हैं। सीधी-सपाट बात करते हैं और धारदार लिखते हैं लेकिन शायद इन दिनों थोड़े सहमे हैं। इसलिए, पहली बार वह अपनी पहचान छिपा रहे हैं लेकिन ये उनकी कलम से उनकी अपुन कहिन है।


आई, चली गई। आजकल सरकारें आती ही जाने के लिए हैं। सरकार बहादुर ने सिर्फ दो काम किए थे। वसूली-लक्ष्‍य पूरा किया था.....कर व‍सूली का नहीं, सुविधा-शुल्‍क वसूली का। दूसरा कार्य था राजधानी में विभिन्‍न स्‍थानों में बुत खड़े करने का। इसके अलावा सरकार ने कुछ नहीं किया। विकास कार्य एकदम ठहर गए, समस्‍याएं सुरसा हो गईं, गरीब ज्‍यादा गरीब हो गए।

अगली सरकार आई। उसके संकल्‍प .....पिछली सरकार से दोगुनी कमाई करना और दोगुने बुत बनबाना। प्रतियोगिता प्रदेश के विकास को लेकर नहीं, घूस और बुत को लेकर। सरकार ने चौराहों पर, पार्को में, फुटपाथों पर, ओनों-कोनो में, सार्वजनिक भवनों के सामने और भीतर भी इतने बुत बनवा डाले कि महापुरुषों की किल्‍लत पड़ गई। तब उसने मृत छुटभईयों के बुत खड़े करने शुरू कर दिए। बुत टन-दो टन हैसियत वालों के नहीं किलो-दो किलो हैसियत वाले अनजाने, अनचीन्‍हे, अबूझ, अनाम भूतों ......!

तीसरी सरकार आई। उसका संकल्‍प पिछली सरकार से तिगुनी कमाई करना और तिगुने बुत बनवाना था। सरकार जितनी ऊपरी कमाई करती थी उसी अनुपात से बुत बनवाती थी यानी बुत की गणना कर ऊपरी कमाई का अंदाज लगाया जा सकता था या यूं कहें कि ऊपरी कमाई की जानकारी होने पर बुतों का अंदाजा लगाया जा सकता था। अंकगणित बहुत !

सरकार का चाल-चरित्र-चिंतन ऐसा कि लोगों में भय व्‍याप्‍त हो गया। जाने कब गोली मारकर कह दिया जाए कि 'अमुक जी' ने देश-समाज के लिए शहादत दी है और जीता-जागता व्‍यक्ति किसी चौराहे, पार्क, ओने-कोने या सार्वजनिक भवन में बुत में तब्‍दील हो जाए। लोग अंधेरे-उजेले निकलने में घबराने लगे। बुत देखकर कांप जाते...........कल मेरा भी यही हश्र न हो।

कुछ बात तो है मोमिन जो छा गई खामोशी,
किसी बुत को दे दिया दिल जो बुत बन गए।

सरकार जीवित व्‍यक्तियों के लिए कुछ न करती, पर मृत व्‍यक्तियों की प्रतीक-पूजा के लिए सदैव तत्‍पर रहती। वह लोगों से कहती, ''बुतों को देखो, इनसे प्रेरणा ग्रहण करो।''

लोग कहते, ''हमें बुत के भूत नहीं, रोटी चाहिए। हमारी खुद की जिंदगी बुत शरीकी हो गई है।''

सरकार कहती, ''रोटी? यह तो बहुत सामान्‍य चीज है। उससे कहीं ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण मरे लोगों के बुत हैं जिनमें भावना का मौन दर्शन होता है। इन्‍हें नमन करो, चरण वंदन करो, फूलमाला अर्पित करो। इनसे प्रेरणा ग्रहण करो, प्रेरणा से चेतना जाग्रत होगी, चेतना से सामाजिक न्‍याय मिलेगा, सामाजिक न्‍याय से.......!''

सरकारें आती रहीं, जाती रहीं। लोग भूख से, गरीबी से त्रस्‍त होते रहे। सरकार लोगों को हुतात्‍मा बनाते हुए बुत खड़ी करती रही ........'' एक बुत बनाउंगा और तेरी पूजा करूंगा।'' सारा शहर बुतों से पट गया। सड़क हो या फुटपाथ, चलना मुश्किल। पार्कों में चहलकदमी भी कठिन। कौन-सी जगह जहां जलवा-ए-माशूक नहीं।

लोग दहशत के कारण शहर छोड़कर भागने लगे। शहर में सिर्फ बुत बचे या सरकारी भूत। बुत-लक्ष्‍य पूरा नहीं हो रहा था। सरकार ने तय किया कि वह अन्‍य बस्तियों के लोगों को शहीद कर बुत खड़े होने का लक्ष्‍य पूरा करेगी। ऐसे में आपको सतर्क करना मेरा परम पुनीत कर्तव्‍य है। सरकार के बुत- अभियान में कहीं आपका सिर न आ जाए ........! एवमस्‍तु न !

Saturday, September 6, 2008

जब प्यार किया तो डरना होगा

क्योंकि वह एक गैर जातीय युवक से प्रेम करती थी। कुछ दिन पहले उसे खेत में गोली मारी गई। जब गोली से उसके प्राण नहीं निकले तो उसे भीड़ के सामने अस्पताल में दाखिल करा दिया गया, लेकिन बाद में मामला कुछ ठंडा होते ही उसकी अस्पताल से छुट्टी कराकर घर ले जाते समय हत्या कर दी गई। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाति बिरादरी में अपनी झूठी शान बनाये रखने के नाम पर इस तरह की बेशर्म हत्याएं यानी 'ऑनर किलिंग' अब आम हैं। उत्तर भारत के कई राज्यों में अक्सर ऐसी घटनाएं हो जाती हैं जिनमें बाकायदा गांव की पंचायतें प्रेमी-प्रेमिका के लिये मौत का फरमान सुना देती हैं। प्रेमी युगलों को पंचायत के सामने पेड़ पर लटकाकर फांसी दे दी जाती है। ऐसा भी नहीं कि प्रेम संबंधों में केवल प्रेमी मारे जाते हों बल्कि प्रेम के नशे में ऐसे बुजुर्गों की भी बलि चढ़ जाती है जो प्रेमियों को प्रेम में बाधक नजर आते हैं।

दक्षिण की मुझे जानकारी नहीं, इसलिए वहां के विषय में कुछ कहना बेमानी है। लेकिन ये सच है कि हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश इस मामले में खासे बदनाम है। इस बदनामी और कबीलाई संस्कृति पर अंकुश लगाने के लिए उत्तर प्रदेश की पुलिस ने कबायद शुरू की है। हांलाकि सोशल पुलिसिंग की ये कबायद अभी कागजों पर है लेकिन पुलिस को कोसने का यदि हमें हक है तो उसकी अच्छी पहल या सिर्फ 'सोच' की भी तारीफ की जानी चाहिए। अब पुलिस अपने मुखबिर तंत्र के माध्यम से गली, मोहल्ले और गांवों में बढ़ती प्रेम की पींगों पर नजर रखेगी। यानी हर थाने में प्रेमी युगलों का डाटा बैंक तैयार होगा। ग्राम चौंकीदार, बीट कांस्टेबल और मुखबिरों के माध्यम से पुलिस को जैसे ही पनपते प्रेम की कोई कहानी पता चलेगी तो वह प्रेमी-प्रेमिका के घर वालों को सूचित करेगी। अगर प्रेम संबंध इतने पर भी जारी रहे, युवक-युवती नहीं माने और संबंध प्रगाढ़ हो गए तो दोनों के अभिवावकों को बिठाकर सम्मानजनक तरीके से हल कराने की दिशा में प्रयास करेगी। मतलब साफ है कि प्रेम विवाह में पुलिस बिचौलिए की भूमिका निभाने से भी नहीं हिचकेगी। अब आप सोच सकते हैं कि आपरेशन मजनू चलाने वाली या डंडे की भाषा समझने-समझाने वाली पुलिस दिल और दिल्लगी के मामलों में कैसे पड़ गई। खाकी वर्दी के भीतर से यकायक प्रेमरस कैसे टपकने लगा। दरअसल प्रेम जहां नई तरह से जिंदगी जीने की कला सिखाता है वहीं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ये अक्सर कानून व्यवस्था के लिए एक बड़ी चुनौती बन जाता है। प्रेम संबंधों में हत्याएं ही नहीं दंगे तक हो जाते हैं, शायद यही वजह है कि उत्तर प्रदेश के पुलिस मुखिया ने सभी जिलों के थानों में टास्क आर्डर भेज कर पुलिस महकमे को एक नया काम दिया है। पुलिस विभाग का मानना है कि अक्सर युवा अपनी प्रेमिका को लुभाने के लिए अनाप-शनाप खर्च करते हैं जिसके लिए उन्हें हमेशा पैसे की दरकार रहती है। ऐसे में युवा लूट, चैन स्नेचिंग जैसे अपराधों की तरफ भी बढ़ जाते हैं। इसलिए पुलिस महकमें को आगाह किया गया है कि जैसे ही किसी युवा के प्रेम संबंधों का पता चले वैसे ही उन पर निगरानी बढ़ा दी जाए। उसकी आय, धन की आमद के सभी श्रोत और रंग-ढंग पर पैनी नजर रखी जाए। साथ ही प्रेमी-प्रेमिका के घर वालों को आगाह कर सामाजिक मान्यता दिलाने की पहल की जाए।

हांलाकि डंडा चलाने वाली पुलिस के लिए ये काम आसान नहीं है लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सामाजिक ढांचे में प्रेम संबंधों के चलते होने वाले हीनियस क्राइम को रोकने के लिए शायद सोशल पुलिसिंग के अलावा कोई और चारा भी नहीं है। तो आप समझ लीजिए कि यदि आप उत्तर प्रदेश में रहते हैं, युवा हैं, आपका दिल किसी के लिए धड़कता है, आप प्रेम की पींगे बढ़ा रहें हैं तो सावधान रहें क्योंकि हो सकता है कि कुछ आंखे हमेशा आपकी टोह में पीछे लगी रहें।

हमारा मानना है कि मौजूदा समय में सोशल पुलिसिंग की बेहद जरूरत है लेकिन इसमें मतभेद हो सकते हैं कि सोशल पुलिसिंग का स्ट्रक्चर और चेहरा कैसा हो। हम चाहते हैं कि हमारे सुधी पाठक, चिंतक और समाज के अलंबरदार इस मुद्दे पर गंभीरता से सोचें। कैसी हो सोशल पुलिसिंग? कैसा हो उसका स्वरूप? सीमाएं क्या हों? ऐसे तमाम मुद्दों पर आपकी विस्तृत राय की अपेक्षा है।

तकनीकी सहयोग- शैलेश भारतवासी

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