''छि:! अंग्रेजी भी नहीं आती'' शीर्षक से लिखी गई पोस्ट पर पक्ष/विपक्ष में प्रतिक्रिया देने वाले अपने सभी साथियों/आगंतुकों का मैं सबसे पहले आभार व्यक्त करना चाहती हूं। इर्द-गिर्द पर मैने अंग्रेजी में सवाल पूछकर भाषा के नाम पर शर्मसार कर देनी वाले विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के उस दल की मानसिकता को उजागर करने का प्रयास किया जो आजाद भारत में भी हिंदी को हिकारत की नजर से देखती है। अगर आप किसी को राष्ट्रभाषा/राजभाषा/मातृभाषा के नाम पर दुतकारते हो तो मेरी नजर में ये भी रंगभेद जैसा ही अपराध है। ऐसा अपराध तब और भी गंभीर हो जाता है जब आप हुकूमत के नशे में जानबूझकर कर रहे हों। विश्वविद्यालय की टीम मेरठ के चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय में इसलिए समीक्षा करने आई थी क्योंकि ग्यारहवीं योजना में चौधरी चरणसिंह विश्वविद्यालय ने अपने शैक्षणिक कार्यक्रमों को विस्तार देने के लिए आयोग से अनुदान मांगा है। इसी प्रक्रिया में आयोग ने अपने विशेष निरीक्षण दल को मेरठ विश्वविद्यालय भेजा था जिसकी अगुवाई गौर बांगा विश्विद्यालय कोलकाता की कुलपति प्रोफेसर सुरभि बनर्जी कर रही थीं। इसी निरीक्षण के पहले दिन चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय के राजनीतिशास्त्र विभाग यानी पोलिटिकल साइंस डिपार्टमेंट की क्लास में छात्र/छात्राओं से सवाल पूछे लेकिन अंग्रेजी में पूछे गए सवालों को छात्र समझ ही नहीं सके तो जबाव क्या देते। इस पर प्रोफेसर बनर्जी विफर पड़ीं-"पूरा डिपार्टमेंट ही हिंदी में बोलता है। ये एमए पोलटिकल साइंस की क्लास है और पूरी क्लास में एक भी बच्चा एक भी सवाल का अंग्रेजी में जबाव नहीं दे सकता? क्या पढ़ाते हैं आप इन्हें?" कुछ ऐसे ही शर्मसार करने के अंदाज में ये जुमले बोले गए।''
इस पोस्ट पर मुझे कई टिप्पणियां मिलीं। इनमें से एक टिप्पणी गुवाहटी से थी- श्री विनोद रिंगानिया की। माननीय विनोद रिंगानिया जी ने लिखा- ''प्रो. बनर्जी की तो मैं नहीं जानता लेकिन यह गुजारिश जरूर करूंगी कि हिंदी प्रदेश अब अंग्रेजी को नजरंदाज करना बंद करें। अंग्रेजी का राजनीतिक विरोध कर हिंदी प्रदेशों ने काफी नुकसान उठाया है। इसमें बंगालियों से शिक्षा ली जा सकती है। उन्होंने अपनी भाषा की उन्नति के लिए जितना काम किया है शायद ही अन्य भाषाभाषियों ने। लेकिन अंग्रेजी की अवहेलना उन्होंने नहीं की। अंग्रेजी भारत में रहने वाली है। इसे सीखिए, अपनी भाषा सीखते हुए। राजनीतिक नारेबाजी से कोई लाभ नहीं होने वाला।'' इसमें मेरी कोई असहमति है तो सिर्फ इतनी कि मैने भाषाई राजनीति या राजनीतिक नारेवाजी करने के लिए पोस्ट नहीं लिखी थी। मैं फिर कहती हूं कि हर भारतीय को विकास में सहभागिता रखने और अपनी खुद की तरक्की के लिए अंग्रेजी जरूर सीखनी चाहिए। लेकिन मेरा व्यक्तिगत मानना है कि राष्ट्र को एक सूत्र में बांधने के लिए अपनी मातृभाषा के साथ एक अन्य भारतीय भाषा भी जरूर सीखनी चाहिए। उसके बाद अंग्रेजी और फिर जर्मन, फ्रेंच, अरबी या हिब्रु जो इच्छा हो सीखिए। ....क्योंकि मेरा मानना है कि भाषा एक पुल है तुम तक पंहुचने के लिए.....और जिस भाषा से आप सामने वाले को कुछ समझा ही न सकें या कोई आपकी बात समझ ही न सके तो वह भाषा उस जगह बेकार है। दूसरी बात आप यदि भाषा के नाम पर किसी को अपमानित करते हैं तो ये सिर्फ और सिर्फ बेहुदापन है। आशा है विनोद रिंगानियां जी मेरी बात से सहमत होंगे।
एक और टिप्पणीं का जिक्र मैं पहले करना चाहती हं। गरुण या गरुणा जी की टिप्पणीं है। क्षमा कीजिएगा क्योंकि उनका नाम अंग्रेजी में लिखा है इसलिए मैं ठीक से लिंगभेद नहीं कर पा रहीं हूं। ण और णा के बीच ये तय कर पाना मेरे लिए मुश्किल है कि क्या लिखूं। उन्होंने लिखा है- ''आपको इससे बकवास विषय साझा करने के लिए नहीं मिला क्या भाई। आप जैसे लोग क्यों दूसरों का वक्त बरबाद करते हैं। हालांकि आप अच्छी तरह जानते हैं कि अंग्रेजी आना कितना जरूरी है। पढ़ रहे हैं राजनीति शास्त्र और चाह रहे हैं कि यूरोप और मध्यएशिया की राजनीति आपको कोई हिंदी में पिला दे। तब तो आप चाहेंगे कि आपकी बोली में राजनीति शास्त्र पढ़ाया जाए। अपना और दूसरों का वक्त बरबाद करना और दिग्भ्रमित करना बंदे करें महोदय। हिंदी पर आपका यह सबसे बड़ा उपकार होगा।'' अब आप लोग ही तय कीजिए कि उनकी टिप्पणी पर क्या कहा जाए? आप ही बताईए कि क्या ये बकवास विषय साझा करने लायक था या नहीं? जब जर्मनी, फ्रेंच, स्पेनिश, रशियन, चाईनीज या जापानी भाषा में विज्ञान की पढ़ाई हो सकती है तो क्या हिंदी में राजनीतिशास्त्र नहीं समझा जा सकता?
अब मैं आभार प्रकट करना चाहूंगी प्रख्यात लेखक और विचारक राज किशोर जी का जिन्होंने अपनी सारगर्भित प्रतिक्रिया देकर मेरा उत्साह बढ़ाया। मैं हरि भूमि के संपादक ओमकार चौधरी, टिप्पणीकार, ताउ रामपुरिया, मसिजीवी, पत्रकार कपिल शर्मा, हिंदी सेवी शैलेश भारतवासी, पराए देश में रहकर भी संस्कारवान बने रहने वाले राज भाटिया, उम्मेद, विनय, सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी, प्रमोद, अरविंद मिश्रा, नवीन कुमार 'रणवीर' और बहिन संध्या गुप्ता की आभारी हूं जिन्होंने मुद्दे पर गंभीरता से अपनी प्रतिक्रिया देकर मेरा हौंसला बढ़ाया।
अब अंत में मैं दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित हुई एक रिपोर्ट जस की तस स्केन कर आपके सामने रख रहीं हूं। इसे बड़ा कर पढ़ने के लिए इमेज पर क्लिक कीजिए।
इस पोस्ट पर मुझे कई टिप्पणियां मिलीं। इनमें से एक टिप्पणी गुवाहटी से थी- श्री विनोद रिंगानिया की। माननीय विनोद रिंगानिया जी ने लिखा- ''प्रो. बनर्जी की तो मैं नहीं जानता लेकिन यह गुजारिश जरूर करूंगी कि हिंदी प्रदेश अब अंग्रेजी को नजरंदाज करना बंद करें। अंग्रेजी का राजनीतिक विरोध कर हिंदी प्रदेशों ने काफी नुकसान उठाया है। इसमें बंगालियों से शिक्षा ली जा सकती है। उन्होंने अपनी भाषा की उन्नति के लिए जितना काम किया है शायद ही अन्य भाषाभाषियों ने। लेकिन अंग्रेजी की अवहेलना उन्होंने नहीं की। अंग्रेजी भारत में रहने वाली है। इसे सीखिए, अपनी भाषा सीखते हुए। राजनीतिक नारेबाजी से कोई लाभ नहीं होने वाला।'' इसमें मेरी कोई असहमति है तो सिर्फ इतनी कि मैने भाषाई राजनीति या राजनीतिक नारेवाजी करने के लिए पोस्ट नहीं लिखी थी। मैं फिर कहती हूं कि हर भारतीय को विकास में सहभागिता रखने और अपनी खुद की तरक्की के लिए अंग्रेजी जरूर सीखनी चाहिए। लेकिन मेरा व्यक्तिगत मानना है कि राष्ट्र को एक सूत्र में बांधने के लिए अपनी मातृभाषा के साथ एक अन्य भारतीय भाषा भी जरूर सीखनी चाहिए। उसके बाद अंग्रेजी और फिर जर्मन, फ्रेंच, अरबी या हिब्रु जो इच्छा हो सीखिए। ....क्योंकि मेरा मानना है कि भाषा एक पुल है तुम तक पंहुचने के लिए.....और जिस भाषा से आप सामने वाले को कुछ समझा ही न सकें या कोई आपकी बात समझ ही न सके तो वह भाषा उस जगह बेकार है। दूसरी बात आप यदि भाषा के नाम पर किसी को अपमानित करते हैं तो ये सिर्फ और सिर्फ बेहुदापन है। आशा है विनोद रिंगानियां जी मेरी बात से सहमत होंगे।
एक और टिप्पणीं का जिक्र मैं पहले करना चाहती हं। गरुण या गरुणा जी की टिप्पणीं है। क्षमा कीजिएगा क्योंकि उनका नाम अंग्रेजी में लिखा है इसलिए मैं ठीक से लिंगभेद नहीं कर पा रहीं हूं। ण और णा के बीच ये तय कर पाना मेरे लिए मुश्किल है कि क्या लिखूं। उन्होंने लिखा है- ''आपको इससे बकवास विषय साझा करने के लिए नहीं मिला क्या भाई। आप जैसे लोग क्यों दूसरों का वक्त बरबाद करते हैं। हालांकि आप अच्छी तरह जानते हैं कि अंग्रेजी आना कितना जरूरी है। पढ़ रहे हैं राजनीति शास्त्र और चाह रहे हैं कि यूरोप और मध्यएशिया की राजनीति आपको कोई हिंदी में पिला दे। तब तो आप चाहेंगे कि आपकी बोली में राजनीति शास्त्र पढ़ाया जाए। अपना और दूसरों का वक्त बरबाद करना और दिग्भ्रमित करना बंदे करें महोदय। हिंदी पर आपका यह सबसे बड़ा उपकार होगा।'' अब आप लोग ही तय कीजिए कि उनकी टिप्पणी पर क्या कहा जाए? आप ही बताईए कि क्या ये बकवास विषय साझा करने लायक था या नहीं? जब जर्मनी, फ्रेंच, स्पेनिश, रशियन, चाईनीज या जापानी भाषा में विज्ञान की पढ़ाई हो सकती है तो क्या हिंदी में राजनीतिशास्त्र नहीं समझा जा सकता?
अब मैं आभार प्रकट करना चाहूंगी प्रख्यात लेखक और विचारक राज किशोर जी का जिन्होंने अपनी सारगर्भित प्रतिक्रिया देकर मेरा उत्साह बढ़ाया। मैं हरि भूमि के संपादक ओमकार चौधरी, टिप्पणीकार, ताउ रामपुरिया, मसिजीवी, पत्रकार कपिल शर्मा, हिंदी सेवी शैलेश भारतवासी, पराए देश में रहकर भी संस्कारवान बने रहने वाले राज भाटिया, उम्मेद, विनय, सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी, प्रमोद, अरविंद मिश्रा, नवीन कुमार 'रणवीर' और बहिन संध्या गुप्ता की आभारी हूं जिन्होंने मुद्दे पर गंभीरता से अपनी प्रतिक्रिया देकर मेरा हौंसला बढ़ाया।
अब अंत में मैं दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित हुई एक रिपोर्ट जस की तस स्केन कर आपके सामने रख रहीं हूं। इसे बड़ा कर पढ़ने के लिए इमेज पर क्लिक कीजिए।